Book Title: Jayodaya Mahakavya Uttararnsh
Author(s): Bhuramal Shastri
Publisher: Digambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj

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Page 607
________________ १२१२ जयोदय-महाकाव्यम् [ ९१-९२ साधनतया सुखी भवति, किन्तु यः सारथिः स स्वसाधनाभावाद्रौति विलक्ष एव भवति । ततः स को बुद्धिमान् यस्तत्त्वं त्रिधा व्यर्यात्पादस्थितिमदिति नोरीकरोति, किन्तु न कश्चिदपि ।।९०॥ विशेषतद्व्यक्तिगतं नरत्वं विशिष्यते गोकुलतस्ततस्त्वम् । सामान्यशेषौ तु सतः समृद्धौ मिथोऽनुविद्धौ गतवान् प्रसिद्धौ ॥९१॥ विशेषेत्यादि-नरत्वं नाम सामान्यं तन्निःशेषास्तव्यक्तयो ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यशूद्ररूपास्तत्र गतं गोकुलतो वचनाद्विशिष्यतेऽङ्गीक्रियते, ततो हे भगव॑स्त्वं सामान्यं च शेषो विशेषश्च तो द्वौ सतो वस्तुनः समृद्धी सम्पूर्णरूपेण समर्थी प्रत्येकवस्तुनः सामान्यमपि समानार्थकमात्मनिष्ठं यथा विलक्षणतार्थको विशेष इति तो द्वौ धौ मिथोऽनुविद्धौ यन्नरत्वं सामान्यं तद् ब्राह्मणत्वासपेक्षया, ब्राह्मणत्वादिश्च तस्य नरत्वस्य विशेष इति तथा ब्राह्मणत्वमपि गौडत्वाद्यपेक्षया सामान्यं गौडत्वादिश्च तस्य विशेष इत्यनुविद्धता सुस्पष्टवेत्येवं प्रसिद्धौ त्वं गतवाननुभूतवान् हे भगवन् ! ॥९१॥ सदेतदेकं च नयादभेदाद् द्विधाऽभ्यधास्त्वं चिदचित्प्रभेदात् । विलोडनाभिर्भवतादवश्यमाज्यं च तक्रं भुवि गोरसस्य ॥१२॥ - सदेतदित्यादि-हे प्रभो ! सदिति सामान्य वस्तु तदपि चाभेदान्नयादेवैकं भवति । भेदान्नयात् तु पुनस्त्वं चिच्चेतनात्मकमचिज्जडात्मकमिति प्रभेदा विधा द्विरूपतयाऽभ्यधा उक्तवान् । यथावश्यमेव विलोडनाभिर्गोरसस्यकस्येवाज्यं घृतं तक्रं च मथितमिति भवतादेवेति द्विरूपं पृथक् पृथग् भुवि ॥१२॥ सारथि दुःखी हो जाता है और बढ़ई तटस्थ रहता है, अर्थात् हर्ष विषाद कुछ भी नहीं करता, क्योंकि वह आजीविकाकी दृष्टिसे काष्ठको छील हो रहा था। यह देखकर ऐसा कौन बुद्धिमान् है जो वस्तुको उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य रूप स्वीकृत न करे' ॥१०॥ ___ अर्थ-हे भगवन् ! नरत्व-मनुष्यत्व ब्राह्मणादि विशेष व्यक्तियोंमें व्याप्त होनेसे सामान्य है और ब्राह्मणत्व आदि विशिष्ट व्यक्तियों में व्याप्त होनेसे विशेष है। इस प्रकार सामान्य और विशेष सत्-पदार्थक समृद्ध-परिपूर्ण परस्पर में सम्बद्ध और प्रसिद्ध धर्म हैं। इन्हें आपने अनुभूत किया है-स्वीकृत किया है ॥९१॥ अर्थ-हे भगवन् ! इस सत्को आपने अभेदनयसे एक और भेदनयकी १. घटमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम् । शोकप्रमोदमाध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम् ॥ आप्तमीमांसा For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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