Book Title: Jayodaya Mahakavya Uttararnsh
Author(s): Bhuramal Shastri
Publisher: Digambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj

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Page 678
________________ ७८-८० ] १२८३ ज्ञातवान् स इह उक्तानां वृत्तरत्नानां छन्दोमणीनां परीक्षा मुखे यस्य तत्तां दधन् माणिक्यनन्दितां रत्नपरीक्षकता पक्षे परीक्षामुखनामग्रन्थरचनां कुर्वन् माणिक्यनन्दिआचार्य नामतां यातु ॥७७॥ अष्टाविंशतितमः सर्गः पूर्वजानां सतां सूक्तं समाराध्यापि सूत्थिता । मदीयोक्तिर्न कि स्वाद्या गुडाज्जातेव शर्करा ॥७८॥ पूर्वजानामित्यादि - मदीया चासावुक्तिश्च सा पूर्वजानां सतां सूक्तं प्राचीनसाहित्य समाराध्य पठित्वापि सूत्थिता लब्धजन्मा प्रद्यपि, तथापि न कि स्वाद्या अपितु स्वाद्यैव यथा गुडाज्जाता शर्करा ॥७८॥ नवक्रमानन्दमुदाहरन्तीममूनि चेच्छ्रेोकवितां श्रयन्ति । सुधामपि प्रार्थयितुं व्रजन्ति पुनर्नभोगाश्रयिणों जगन्ति ॥ ७९ ॥ नवक्रमित्यादि - अमूनि जगन्ति कवितां श्रयन्ति चेत् कोदृशों कवितां श्रयन्ति चेत् ? नवक्रमानन्दमुदाहरन्तीं नवश्चासौ क्रमश्च यस्मिन् तम् अथवा नव सरलं आनन्द उदाहरन्तीं स्वीकुर्वन्तों एतादृशीं कवितां श्रयन्ति स्वीकुर्वन्ति चेत् पुनर्नभोगानां देवाना मायो यत्र भवति तां नभोगाश्रयिणों यद्वा भोगवजितां सुधामपि प्रार्थयितुं व्रजन्ति, किन्तु न व्रजन्ति, अपिशब्दस्य प्रश्नवाचकत्वात् ॥ ७९ ॥ घटिका घटिकार्थस्य समयः समयोऽसकौ । परवाणिः परवाणिर्भास्करो भास्करोऽप्यहो ॥ ८० ॥ रूपी रत्नों की परीक्षकताको धारण करते थे ( पक्ष में परीक्षामुख नामक न्यायशास्त्र के प्रणेता थे) वे माणिक्यनन्दिता - रत्नपरीक्षकता ( पक्ष में एतन्नामक आचार्य पद ) को प्राप्त हों ||७७ || Jain Education International अर्थ - यद्यपि मेरी उक्ति पूर्ववर्ता सत्पुरुषोंके सुभाषित - प्राचीन साहित्यकी आराधना कर उत्पन्न हुई है, प्रकट हुई है, तथापि यह क्या गुडसे उत्पन्न शर्करा - के समान आस्वादनीय नहीं है ? अवश्य है ||७८|| अर्थ - यदि ये जगत् के जीव श्रीकविताको सेवा करते हैं, तो कैसी कविता की सेवा करते हैं ? उत्तर है कि नवक्रमानन्दमुदाहरन्तीं - नवीन क्रमसे सहित अथवा सरल आनन्दको जो प्रकट कर रही हो । जगत् के लोग उस सुधाको भी प्राप्त नहीं करना चाहते, जो कि नभोगाश्रयिणी है-आकाशगामी देवोंका आश्रय करती है यद्वा भोगोंका आश्रय नहीं करती है ||३९|| For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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