Book Title: Jayodaya Mahakavya Uttararnsh
Author(s): Bhuramal Shastri
Publisher: Digambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj

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Page 641
________________ अष्टाविंशतितमः सर्गः स दारुणोदितां वत्ति परिवर्त्य सतांपतिः । गुरोरनुग्रहप्राप्त्या समवापाच्छतामथ ॥१॥ सदेत्यादि-सवा अरुणेन सारथिना उदितां वृत्ति सूर्यसम्बन्धिनी परिवर्त्य अन्यथा कृत्वा गुरोः बृहस्पतेः अनु पश्चाद् ग्रह इति प्राप्त्या अच्छतां श्वेतवर्णतां शुक्रस्य श्वेतवर्णत्वात् समवापेति सतां नक्षत्राणां पतिः सूर्यः छः न भवतीणि अच्छः असूर्यः, 'छश्छेदकार्कयोः' इति विश्वलोचने । सतांपतिर्जयकुमारो गुरोर्वृषभदेवस्थानुग्रहप्राप्त्या प्रसादेन स दारुणोदितां भयंकरां दुर्जनेभ्यो वैरिभ्योऽतिकष्टदायिनों वृत्ति राजकीयां चेष्टां परिवर्त्य अच्छता हृदयस्य सरलतां छा छेदनक्रिया परेभ्यो बाधा यस्य न भवति यत्र वा न भवति सोऽच्छस्तस्या भावस्तत्तां दारुणा उदितां काष्ठसंजातां वृत्ति गुरोऽनुग्रहप्राप्त्या परिवयं स सतांपतिः अच्छतां स्फटिकरूपतां समवापेत्यर्थः ॥१॥ राजतत्त्वपरित्यागात् समिनोदितवर्णता । पश्यतो हरतो जाताथानिद्रालोः स्वशर्मणि ॥२॥ राजतत्त्वेत्यादि-अथ स्वामिनः सदुपदेशप्राप्त्यनन्तरं स्वशर्मणि आत्महिते अर्थ-तदन्तर सज्जनोंके स्वामी जयकुमारने गुरु-भगवान् वृषभदेवके प्रसादसे भयंकर वृत्तिको परिवर्तित कर अच्छता-सरलताको प्राप्त किया। ___ अर्थान्तर-सदा अरुण-सारथिके द्वारा उदित-प्रकट वृत्ति-प्रवृत्तिको परिवर्तित कर गुरु-बृहस्पतिके अनु पश्चात् आनेवाले ग्रह-शुक्रकी प्राप्तिसे सतांपतिनक्षत्रोंके स्वामी सूर्यने अच्छता-असूर्यताको प्राप्त किया । अथवा दारुणा-काष्ठके द्वारा वृत्तिको परिवर्तित कर सतां पतिः-सज्जनोंके स्वामी उन जयकुमारने गुरु-भगवान् वृषभदेवके अनुग्रह-प्रसन्नता की प्राप्तिसे अच्छता-स्फटिकताको प्राप्त किया ॥१॥ अर्थ-तदनन्तर आत्महितमें जागरूक जयकुमारके राजतत्त्व-प्रजापालन रूप राजतत्त्वका परित्याग होनेसे पश्यतः-चराचरका अवलोकन करने वाले हरतः-महादेव श्रीवृषभदेवकी समिना-उदित-वर्णता-ऋषभदेव द्वारा प्रतिपादित वर्णता-दिगम्बर मुद्रा जाता-सम्पन्न हुई, अर्थात् भगवान् ऋषभदेवने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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