Book Title: Jainpad Sangraha 05
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay
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(१२)
न्मूरति न्यारा रे वावा० ॥२॥ मुझ विभाव जड़ कर्म रचत हैं, करमन हमको फेरा रे । विभाव चक्र तजि धारि सुभावा, अव आनंदघन हेरा रे॥ वावा०॥३॥खरच (१) खेद नहिं अनुभव करते, निरखि चिदानंद तेरा रे। जप तप व्रत श्रुत सार यही है, बुधजन कर न अवेरा रे ॥ वावा०॥४॥
(२६) "और सवै मिलि होरि रचावे, हूं काके सँग खेलौंगी होरी ॥ और० ॥ टेक ॥ कुमति हरामिनि ज्ञानी पियापै, लोभ मोहकी डारी ठगौरी । भोरै झूठ मिठाई खवाई, खोसि लये गुन करि वरजोरी ॥ और० ॥१॥ आप हि तीनलोकके साहिव, कौन करै इनकै सम जोरी । अपनी सुधि कबहूँ नहिं लेते, दास भये डोलैं पर पौरी ॥ और० ॥२॥ गुरु वुधजनतें सुमति कहत है, सुनिये अरज दयाल सु मोरी । हा हा करत हूं पॉय परत हूं, चेतन पिय कीजे मो ओरी ॥ और० ॥३॥
• धर्म विन कोई नहीं अपना, सव संपति धन थिर नहिं जगमैं, जिसा रैनसपना ॥ धर्म० ॥ टेक ॥ आगैं किया सो पाया भाई, याही है निरना । अव जो करैगा
सो पावैगा, तातें धर्म करना ॥धर्म० ॥१॥ ऐसें सव • संसार कहत है, धर्म किये तिरना । परपीड़ा विसनादिक
१ छीन लिये । २ जवरदस्ती।

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