Book Title: Jainpad Sangraha 05
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 71
________________ ( ५७ ) चरन हजूरा । मेरौ संकट मैटिये, बाजै ज्यों मेरे० ॥ ४ ॥ तूरा ॥ ( ० १३६ ) राग- परज मारू । जिनवानी प्यारी लागे छै महाराज | सत्र दुखहारी अति सुखकारी ॥ जिनवानी० ॥ टेक ॥ अनंत जनमके कर्म मिटत है, सुनत हि तनक अवाज || जिनवानी० ॥१॥ षट द्रव्यनको कथन करत है, गुन परजाय समाज । हेयाय बतावत सिगरे, कहत है काज अकाज ॥ जिनवानी० ॥ २ ॥ नय निखेप परमाण वचनतें, परमत हरत मिजाज । बुधजन मन वांछा सव पूरै अंमृत स्याद अवाज ॥ जिनवानी० ॥ ३ ॥ (• १३७ ) आयो प्रभु तोरे दरवार, सब मो कारज सरिया ॥ आयो० ॥ टेक ॥ निरखत ही तुम चरनन ओर, मोह तिमिर मो हरिया || आयो० ॥ १ ॥ मैं पाई मेरी निधि सार, अवल रह्या विसरिया । अब हूवा उर हरष अपार, कृत्य कृत्य तुम करिया || आयो० ॥ २ ॥ जड़ वेतन नहिं मान्या भेद, राग दोष जव धरिया । तव हूवा ये निपट कुज्ञान, करम बंधमै परिया ॥ आयो० ॥३॥ इष्ट अनिष्ट सँजोगन पाय, दुष्ट दवानल जरिया । तुम पाये वड़भागनि जोग, निरखत हिय गया हरिया ॥ आयो ० ॥ ४ ॥ धारत ही तुम वानी कान, भरम भाव सवग #

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