Book Title: Jainpad Sangraha 05
Author(s): Jain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay
View full book text
________________
( ७९ ) कहिय न जाय । हो जी म्हारै विछुरत वनि नहिं आय ॥ वधाई० ॥१॥ दुख खोयौ सव जनमको, आनंद वदाय । हो जी मैं तो शुभ विधि पूजौं पाय ॥ वधाई.
(१९०) राग-अलहिया जल्द तितालो। सुण तौ माहीवाला, क्योंजी क्यौंजी क्योंजी जिया रिंदगी(1) ॥ सुण० ॥ टेक॥ प्रभु न विसरि जाना वे रचिया विपयनसौं। करन सला जिन वंदगी हो ।। सुण० ॥१॥ देहमैं मगन सदा वै भुलानी, आतमनूं देह भरीसारी गंदगी हो ।। सुण ॥२॥ रहना भला तैनूं वे, जिनदे चरन तटवे, ऐसानूं बनें विधि चंदगी हो ॥ सुण०॥३॥
(१९१)
राग-बिलावल कनड़ी तेतालो। अष्ट कर्म म्हारौ काई करसी जी, हूं म्हारै ही घर राखू राम ॥ अष्ट० ॥ टेक ॥ इन्द्री द्वारै चित दौरत है, सो वशकै नहिं करस्यूं काम ॥ अष्ट० ॥१॥ इनका जोर इताही मुझपै, दुख दिखलाबैं इन्द्रीग्राम । जाळू जानूं मैं नहिं मानूं, भेदविज्ञान करूं विसराम ॥ अष्ट० ॥२॥ कहूं राग कहुं दोष करत थौ, तव विधि आते मेरे धाम । सो विभाव नहिं धारूं कवहूं, शुद्ध सुभाव रहूं अभिराम ॥ अष्ट० ॥३॥जिनवर मुनिगुरुकी बलि जाऊं, जिन वत
१ मध्यवाला-अन्तरात्मा।

Page Navigation
1 ... 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115