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THE FREE INDOLOGICAL
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-The TFIC Team.
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श्रीवीतरागाय नन
जैनपदसंग्रह पांचवाँ भाग।
अर्थात्
कविवर बुधजनजीके पदोंका संग्रह ।
जिसे श्रीजैनग्रन्थरत्नाकरकार्यालयके स्वामियोंने
बम्बईके निर्णयसागर प्रेस वालकृष्ण रामनन्द घाणेकरके प्रबन्ध
छपाकर प्रकाशित किया।
श्रीचीर नि० संवत् २४३६ । ई० मन १९१० ॥
पहलीवार।
मूल्य छह थाना
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निवेदन।
इस पदसंग्रहमें बुधजनजीके बनाए हुए केवल उन्ही पदोंको छपाया है, जो बुधजनविलासमें संग्रह हैं । जहा तक हम जानते है, बुधजननीके पद इनके सिवाय और नहीं होंगे। यदि इनके अतिरिक्त और कोई पढ होंगे और हमें कहींसे प्राप्त हो सकेंगे, तो हम उन्हें इसकी द्वितीयावृत्तिमें शामिल कर देंगे।
वुधजनजीकी कविता मारवाड़ी शब्दोंकी मात्रा बहुत अधिक है और संगोधककी मातृभाषा मारवाड़ी नहीं है। इसलिये यद्यपि यह पदसंग्रह जैसा चाहिये वैसा शुद्ध नहीं छप सका होगा, तौ भी इसके संशोधनमें मारवाड़ी सज्जनोंकी सहायतासे भरसक परिश्रम किया गया है । इस वातपर भी ख्याल रक्खा गया है कि, रचयिताके प्रयोग किये हुए शब्दोंमें कुछ लौट फेर न हो जावे । मारवाड़ी वा अन्य किसी भाषाके किसी शब्दको सुधार कर प्रचलित हिन्दीमें वा शुद्धसंस्कृतरूपमें करनेकी कोशिश नहीं की गई है। स्थान स्थानपर ऐसे शब्दोंका अर्थ भी टिप्पणीमें लिख दिया गया है, जो कठिन थे अथवा सर्वसाधारणकी समझमें नहीं आ सकते थे । जो शब्द अथवा वाक्य परिश्रम करने पर भी समझमें नहीं आये हैं, उनके आगे प्रभांक (2)' कर दिये है। पदोंके राग वा ताल जैसे बुधजनविलासमें लिखे हुए थे, वैसेके वैसे लिख दिये है। अनेक पद ऐसे भी हैं, जिनके राग वगैरह नहीं दिये गये, क्योंकि मूल प्रतिमें रागादिके नाम मिले नहीं और संशोधक खयं उन्हें लिख नहीं सका।
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( २ )
इस संग्रहमें पंजाबी भाषाके कई एक पद ऐसे छाप दिये गये हैं, जो मूर्ख लेखकोंकी कृपासे रूपान्तरिक हो गये है और पंजाबी भाषा नहीं जाननेसे हमारे द्वारा उनका संशोधन ठीक ठीक नहीं हो सका है । आशा है कि, इस विषयमें पाठक हमको क्षमा प्रदान करेंगे ।
इस संग्रहकी प्रेसकापी हमारे एक इन्दौरनिवासी मित्रने ३न्दौरके जैनमन्दिरकी एक हस्तलिखित प्रतिपरसे करके भेजी है और उसका संशोधन हमने अपने पासकी एक दूसरी प्रतिपरसे किया है | बस इन दो प्रतियोंके सिवाय बुधजनविलासकी और कोई प्रति हमें नहीं मिल सकी ।
कविवर बुधजनजीका यथार्थ नाम पं० विरघीचन्दजी था । आप खंडेलवाल थे और जयपुरके रहनेवाले थे । आपके बनाये हुए चार ग्रन्थ प्रसिद्ध है और वे चारों ही छन्दोबद्ध है । १ तत्त्वार्थबोध, २ बुधजनसतसई, ३ पंचास्तिकाय, और ४ बुधजनविलास । ये चारों ग्रन्थ क्रमसे विक्रम संवत, १८७१ - ८१-९१ और ९२ में बनाये गये हैं । बस आपके विषयमें हमको इससे अधिक परिचय नहीं मिल सका ।
बम्बई - चन्दावाड़ी |
श्रावणकृष्णा ८
श्रीवीर नि० २४३६
नाथूराम प्रेमी ।
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पदोंकी वर्णानुक्रमणिका।
स
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पदरल्या । पृष्ठ
पटसंख्या
४४ आज मनरो वन है जिन. १०९, ८ नरज म्हागं मानो जी० १७.४६ आयो जी प्रमु याप कर० ११५. 11. अरज कह (नचलीम रह) २३७ आयो प्रमु नारे इग्बार० १३७ १. अहो देखो वलदानी० ३९६७ आज मुखढाई क्याई. १६२ २१ अरेहार ते तो सुपरी० ४९ / ७३ आनद भयो निरचन१७७ २५ व अप करत लजाय० २१ ९० लाज लाया है उनाही. २२३ ? हो मेरी नुनी वीनती० ८२.
इ ३. अब घर आये चेतनराय० ९१, ५१ इस वक जो भविक्जन० १२४ ४० अब ये क्या हुन पात्री. १०००
र ४३ अब तू जान २ तन० १०७॥२३ उनम नरभव पायक मति० ५५ ४६ वी हो जावाजा यान० १११.०ी रे सुद्धानी जीव १४५ ५४ अहो । अब विलन न० १३१.८ टमाहीन्हाने लागि गो० १६५ ५. अग्जजिनगज यह मेरी० १३. ५८ जब हम निश्चय जान्या. १९४९ रूपम तुमसे ताल मेग० १२२ ६३ अदभुत हरप भया गै० १५२/ ७२ अजी ने तो हेन्या पटन. १७४/३० ऐमा ध्यान लगावो भवः ७४. ७९ अष्ट कन म्हारी काई. १९१/५८ ऐसे प्रमुक गुनन कोड० १३८ ८६ अब तेरी मुनि वातही १९८ / ९५ ऐसे गुरके गुननन. २३० ८४ अनी मेन नाभिनंदन० २०३
यो ८५ अवता या जोग नाही २० २०६/६४ ओर तो निहारी दुन्खिया० १५३ १९ अब जगजीता वै मानू २४०
औ या
। १ और टौर क्यों हेन्त प्याग ४. 1. आगे कहा करसी भैया० २०.१० और सबै मिलि होरि० २६ ३९ आजती वधाईहो नाभि० ९८०
क ४३ आनंद हरप अपार दुम० १०२/ १ किंकर अरज करत जिन० १,
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पृष्ठ
पदसख्या पृष्ठ
पदसंख्या ३ काल अचानक ही ले० ५. ६ करम देत दुख जोर हो० १३.३० छवि जिनराई रानै छै ७३. १३ कंचनदुति व्यंजन लच्छ० २८० ३४ छिन न विसारां चितसौ० ८६ ३५ कीपर करौ जी गुमान० ८
ज ३७ कर ले हो जीव सुकृत० ९२./ १० जगतमैं होनहार सो होवै २१ ४५ कुमतीको कारज कूडौ० ११२०, २६ जिनवानीके सुनेसौं मि० ६३. ५१ कोई भोगको न चाहो० १२५/ ५४ जगतपति तुम हौ श्रीजि० १३० ६८ कृपा तिहारी विन जिन० १६३ | ५७ जिनवानी प्यारी लागै छै० १३६ ७२ क्यों रे मन तिरपत है. १७२ / ७० जिनगुन गाना मेरे मन० १६८ ७८ कहा जी कियौ भव० १८७ ७३ जो मोहि मुनिको मिलावै. १७६ ८१ करदा कुपेंच मेरै है. १९६ | ८६ जमारा नी वे तेरा नाहक. २०७ ८९ करि करि कर्म इलाज० २१५ | ८८ जीवा जी थाने किण वि० २१४
| ९९ जियरा रे तू तो भोग० २३९ ७ गुरुदयाल तेरा दुख लखि० १६. ३८ गुरुने पिलाया जी ज्ञान. __९४. ९८ ठाईसौं गुनाको धारी० २३७ ५९ गाफिल हवा क्या तू० १४१ | ८६ गाता ध्याता तारसी जी० २०९ ८ तू काई चालै लाग्यौ रे० १८. ८९ गहो नी धर्म नित आयु० २१६ १७ तन देख्या अथिर घिना० ३७
१७ तेरो करि लै काज वखत० ३८ ६ चन्दजिनेसुर नाथ हमारा १२. १८ तनके मवासी हो अया० ४१. १० चेतन खेल सुमति सग० २३./ १९ तारो क्यों न तारो जी ४५ २४ चुप रे मूढ अजान हम० ५७०/ २२ तोकौं सुख नहिं होगा लो० ५२ ३५ चदाप्रभु देव देख्या दुख० ८९. २४ त्रिभुवननाथ हमारो ५८ ५२ चन्दजिन विलोकवेत फंद० १२६ / २५ तेरी बुद्धि कहानी सुनि० ६० ६. चन्द जिननाथ हमारा० १४४ २५ तू मेरा कया मान रे० ६१ ६८ चेतन मो मातौ भव व. १६४ | २९ तें क्या किया नादान तैं तो ७१ ७५ चेतन तोसौं आज होरी० १८०४२ तेरो गुन गावत हूं मैं. १०४ ८३ चेतन आयु थोरी रे० २०२६२ तुम विन जगमैं कौन. १४८ '००चरनन चिन्ह चितारि. २४२ ६४ तूही तूही याद आवै ज० १५४
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पदसख्या [ पृष्ट
पदसख्या ६५ तिहारी याद होते ही० १५७ / १८ नैन शान्त छवि देखि० ४२
७ तुम चरननकी भरन० १६१/ २२ निरखे नाभिकुमारजी ५३ ७५ तू पहिचान रे मन जिन. १७९ / ४८ नरदेहीको धरी तो कछ १२१ ७७ ते तो गुरु सीख नमानी १८५/६१ निरखि छवी परमेसुरकी. १४७ ८२ तुम मुध आर्य मोर. १९७६२ निसि दिन लख्या कर रे १४९ ८२ तू तो है जानम नाही. १९९९ नेमिजीके संग चली. १६७ ९१ तेरी आवत नीडो काल २२१ / ९१ निज कारज क्याँन किया० २२० ९७ ते ना जानी तोहि उप० ०१६ ९८ तू आतम निरभय ढोलि० २३८
१ प्रात भयो मव भविजन० १
२ पतितउधारक पतित र० ३ ९ थे ही मोनें तारोजी प्रभु० १९
९ प्रभूजी अरज म्हारी उर० २० ३१ थाका गुण गाम्या जी० ७७.२० प्रभ थास अरज हमारी हो ४७ ३८ थामा गुन गास्या जी० ९६.
५६ परमजननी धरमकथनी० १३४ ४८ ये म्हारे मन भाया जी० ११
६० प्रभुजी चन्द जिनदा म्हें. १४३ ८० यारी थारी चेतन मति.
६५ पूजन जिन चालो री मि० १५६ ८१ थे चितचाहीदा नजरूं० १९४
७७ पूजत जिनराज आज. १८४
८७ पार छ पारै छ दिन पा० २११ २७ देखो नया आज उछाव. ६६./
९० प्रभु थाका वचनमै वहुत० २१९ ५० दुनिया का ये हवाल क्यों० १२३ ५३ टेखे मुनिराज आज० १२९ ९६ देख्या थारो सुद्ध सरूप० २३३ / ५ वधाई राजे हो आज राज
११ वावा में न काहका कोई २५ १२ धर्म विन कोई नहीं अपना. २७ / १४ बधाई भई हो तुम निर० ३०. १३ धनि सरधानी जगमै २९०/ १४ वधाई चन्दपुरीमै आज ३२. २३ पनि चन्दप्रभटेव ऐसी मु० ५६.३५ वन्यौ म्हारै या घरीमै रग ८७. ९४ धन्य मुदत्त मुनि वानि० २२९ ३७ वेगि सुधि लीज्या शारी० ९३.
| ७८ वधाई भई है महावीर. १८९ ७ नरभव पाय फेरि दुख० १४८० वानी जिनकी वखानी हो. १९२ १५ निजपुरमै आज मची० ३४ ८३ वूया रे भोळा जीव मूर० २०१
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पृष्ठ
पदसंख्या । पृष्ठ
पदसंख्या ९४ वोयो रे जन्म यो ही नी. २२८ | ४७ मुनि वन आये वना ११७.
४८ मैं ऐसा देहरा वनाऊं० १२० . १९ भजन विन यों ही जन० ४४ ५२ मदमोहकी शराव पी० १२७ २० भवदधि तारक नवका० ४६ / ५६ मेरे आनंद करनौं १३५ २३ भला होगा तेरा यों ही ५४०६२ मनुवो लागि रयो जी० १५० ३४ भोगारा लोभीड़ा नरभव. ८४.६४ म्हारा मनकै लग गई. १५५ ४३ भज जिनचतुर्विशतिनाम १०६ / ६६ माई आज महामुनि डोले १५८ ७४ भई आज वधाई निरखत. १७७ / ७० मुझे तुम शान्त छवी दर. १६९ ७४ भये आज अनंदा जनमै० १७८ ७१ मानुप भव अव पाया रे० १७०
७२ मूने थे तो तारो श्रीजिन० १७३ ३ म्हे तो थापर वारी वारी० ६. ७६ मग वतलाना मानूं मो० १८३ ५ मनकै हरष अपार चित० ११. ८७ मानै छै मानै छै यौही० २१२ १४ म्हारी सुणिज्यो परम० ३१.८८ मुजनू जिन दीठा प्यारा वे २१३ १६ मोका तारो जी तारोजी. ३५. ९० मिनखगति निठा मिली. २१८ २१ मैं देखा आतमरामा ५०० ९३ मानौ मन भेवर सुजान० २२६ २५ मेरी अरज कहानी सुनि० ५९. ९५ मेरा तुमीसौं मन लगा २३१ २८ मैं देखा अनोखा ज्ञानी वे० ६७.९६ म्हारा जी श्री जी मेरा० २३२ २८ मेरोमनुवा अति हरपाय० ६८ ९७ मेरा सपरदेसी भूल न० २३५ २८ मोहि अपना कर जान० ६९. ९९ मैं तो अयाना थानै न० २४१ २९ मैं तेरा चेरा अरज सुनो० ७०० ३. मेरा साई तो मोम नाही. ७५./ ३१ म्हारी भी सुणि लीज्यौ० ७६. ४ या नित चितवो उठिकै० ७, ३४ म्हारी कौन सुनै थे तौ० ८५.२० याद प्यारी हो म्हानै था० ४४. ३८ मति भोगन राची जी० ९५० ३३ याही मानौं निश्चय मानौं० ८३. ४० म्हारौ मन लीनौ छै थे० १०१. ६१ यौ करौ उपगार मोपै १४६ ४२ मनुवा वावला हो गया० १०५. ८४ या काया माया थिर नर० २०४ ४४ म्हे तो थाका चरणा० १०८० ८५ येती तौ विचारौं जगमैं. २०५ ४५ म्हे तो ऊभा राज थाने० १११. ८७ यौ ही थाने ओलॅवो० २१० ४६ महाराज थानें सारी० ११६. ८९ यो मन मेरौ निपट हठीलो २१४
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पृष्ट पदसंख्या | पृष्ठ
पदसंख्या
| ७९ गुण ती माहीवाला क्यो० १९० ३२ रे मन मेरा, तू मेरो क० ८०.९१ समझ भव्य अनमति सो० २१२ ६३ रागद्वेष हकार सागकार० १५१ ९: मुख पावागे यासों मेरा० २२७ ६९ रे मन मूरत वावरे. १६६ /
। ५ हो जिनवानी जू तुम० १०. ४७ लक्ष जी आज चट जिन० ११८०/११ हे आतमा देखी दुति० २४, १०० लूम झूम बरसे बदरवा० २४३ १६ हम भरन का जिन० ३६
१९ हरना जी जिनराज मोरी० ४३ ७१ वीतराग मुनिराजा मो० १७१ ।१२६ हो विधिनाकी मोप कहीं० १.
| ३२ हो मना जी चारी वानि० ७८ ४ श्रीजिनपूजनको हम आये ८.३२ हो प्रभुजी म्हारो छ ना० ७९ . १८ श्रीजी तारनहारा ये तो ४० ३९ हमकी कछु भय ना रे० ९४. २७ भिवयानी निगानी जिन. १५.४४ हो जो म्हे निशिदिन० ११०. ७६ श्रीजिनवर दरवार० १८१/४६ ह कब देख वे मुनिराई हो ११४. ८१ गरन गही मैं तेरी. १९५ | ५३ हो राज म्हें ती वारी जी १२८ ९७ श्रीजा म्हाने जाणी छौ २३४ १६६ हो चेतन जी ज्ञान करीला० १५९
हता निशिदिन सेऊ. १६० ७ सारट तुम परसाट तैआ० १५ ७६ हो जी म्हारी याही मानू. १८२ २७ सम्यग्ज्ञान विना तेरो ज० ६४. ७८ हमारी पीर तो हरी जी. १८८ २९ मुनियो हो प्रभु आदिजि० ७२० ८३ हो चेतन अभी चेत लै २०० ३९ मुणिल्यो जीव मुजान मी० ९९.८६ हो जिय ज्ञानी रे ये ही. २०८ ४२ मीख तोहि भापतहू या. १०३, ९२ हे देखो भोली वरज्यौ न. २२४ ५५ सुरनरमुनिजनमोहनकी० १३२ / ९२ हो टेवाधिदेव म्हारी० २२५ ५८ सुन करि वानी जिनवर० १४० ५९ सुमरी क्यों ना चन्द जि० १४२ / 32 ज्ञान विन थान न पावागे ८१, ७७ सजनी मिल चाली ये० १८६ | ३६ ज्ञानीथारीरीतरी अचौ० ९..
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पद भजनोंकी पुस्तकें ।
IT जैनपदसंग्रह प्रथमभाग-कविवर दौलतरामजीकृत ।)
जैनपदसंग्रह द्वितीयभाग-पं० भागचन्द्रजीकृत ।) जैनपदसंग्रह तीसराभाग-कवि० भूधरदासजीकृत ।) जैनपदसंग्रह चौथाभाग-कवि० द्यानतरायजीकृत ॥
माणिकविलास-कविवर माणिकचन्दजीकृत र भजनोका संग्रह .... .... ... .... ) ई जैनभजनसंग्रह-यतिनयनसुखजीकृत.... .... ) वृन्दावनविलास-इसमें कविवर वृन्दावनजीकी और
और कविताओंके सिवाय पदोंका भी संग्रह है हीराचन्द अमोलकके पद-इसमें हिन्दीके ९४ पद और १४ मराठीके पदोंका संग्रह है ....
मिलनेका पताश्रीजैनग्रन्थरत्नाकरकार्यालय-हिराबाग, र
पो० गिरगांव-बम्बई.
2-occee
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श्री जैनग्रन्थरत्नाकरकार्यालय - बम्बई में मिलनेवाले जैनग्रन्थोंका सूचीपत्र |
प्रद्युम्नचरित्र - सरलहिन्दीमें रत्नकरंडश्रावकचार बड़ा - वचनिका पं० सदाखजीकी आत्माख्यातिसमयसार - वचनिका सहित
भगवती आराधनासार - वचनिका सहित पुण्यास्रवपुराण - ५६ कथाओंका संग्रह धर्मसंग्रहश्रावकाचार - सरलहिन्दी टीकासहित पार्श्वपुराण - पं० मूधरदासजीकृत छन्दोबद्ध धर्मपरीक्षा - हिन्दी वचनिका
"
24.6
"3
33
""
1800
वृहद्रव्यसंग्रहसप्तभंगीतरंगिणी-
स्याद्वादमंजरी - प्रवचनसारपरमागम - कविवर वन्दावनजीकृत
8.30
33
""
"5
...
2000
...
4006
१)
वनारसीविलास - वनारसीदासजीके जीवनचरित्रसहित... १0) स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा - भाषावचनिका सहित पंचास्तिकायसमयसार - संस्कृत और हिन्दी टीकासहित
0000
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चौवीसीपाठ पूजनक्षत्रचूडामणिकाव्य-मूल और सरलहिन्दी टीका
6006
1.00
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33
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२
तत्वार्थ वालवोधनी टीकाभाषापूजासंग्रहजैनसिद्धान्तदर्पण - पं० गोपालदासजीकृत
सुशीला उपन्यास - बहुत ही सुन्दर संशयतिमिरप्रदीप - पं० उदयलालजीकृत
...
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4330
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बुधजन सतसई ।
कविवर वुधजनजीके बनाये हुए ७०० दोहे |
नीति, उपदेश, वैराग्य, और सुभाषित विषयोंके प्रत्येक पुरुष स्त्रीके कंठ करने लायक सात सौ दोहे इस पुस्तकमें है । कविता बहुत ही अच्छी है, बहुतही शुद्धतासे छपाई गई है । कठिन २ शब्दोंपर जगह जगह टिप्पणीमें अर्थ लिख दिया है । सब लोग खरीद सकें इसलिये मूल्य बहुत ही थोड़ा अर्थात् केवल ) तीन आना रक्खा है । एक एक प्रति सबको मंगा लेना चाहिये ।
שון
१1
नोट - इनके सिवाय हमारे यहा सबं जगहके सब प्रकारके छपे हुए जैनग्रन्थ मिलते हैं । चिट्ठीपत्री इस ठिकानेसे लिखिये -
श्रीजैन ग्रन्थरत्नाकर कार्यालय
हीराबाग पो० गिरगांव - बम्बई | '
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श्रीवीतरागाय नम पदसंग्रह पंचमभाग। कविवर वुधजनजीकृत पदोंका संग्रह ।
राग-भैरों (प्रभाती) प्रात भयो सब भविजन मिलिक, जिनवर पूजन आवो ॥ प्रात० ॥ टेक || अशुभ मिटावो पुन्य वढायो, नैननि नींद गमावो ॥ प्रा०॥१॥ तनको धोय धारि उजरे पट, सुभग जलादिक ल्यावो । वीतरागछवि हरखि निरखिक, आगमोक्त गुन गावो । प्रा० ॥२॥ शास्तर सुनो भनो जिनवानी, तप संजम उपजावो । धरि सरधान ' देव गुरु आगम, सात तत्त्व रुचि लावो ॥ प्रातः ॥३॥ दुःखित जनकी दया ल्याय उर, दान चारिविधि द्यावो । राग दोप तजि भजि निज पदको, वुधजन शिवपद पावो ॥ प्रात०॥४॥
(२)
“राग-भैरों (प्रभाती) किंकर अरज करत जिन साहिव, मरी ओर निहारो ॥किंकर० ॥ टेक || पतितउधारक दीनदयानिधि, सुन्यौ
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तोहि उपगारो । मेरे औगुनपै मांत जावो, अपनी सुजस विचारो॥ किं०॥१॥ अव ज्ञानी दीसत हैं तिनमैं, पक्षपात उरझारो । नाहीं मिलत महाव्रतधारी, कैसे है निरवारो ॥ किं० ॥२॥ छवी रावरी नैननि निरखी, आगम सुन्यौ तिहारो । जात नहीं भ्रम क्यौं अव मेरो, या दूषनको टारो ॥ किं० ॥३॥ कोटि वातकी वात कहत हूं, यो ही मतलव म्हारो। जौलौं भव तोलौं वुध। जनको, दीज्ये सरन सहारो॥ किं०॥४॥
राग-षट्ताल तितालो। पतितउधारक पतित रटत है, सुनिये अरज हमारी हो। पतित० ॥ टेक ॥ तुमसो देव न आन जगतमैं, जासौं करिये पुकारी हो ।।१०॥१॥ साथ अविद्या लगि अनादिकी, रागदोप विस्तारी हो । याहीतै सन्तति करमनिकी, जनममरनदुखकारी हो ॥१०॥२॥ मिलै जगत जन जो भरमावै, कहै हेत संसारी हो। तुम विनकारन शिवमगदायक, निजसुभावदातारी हो ॥ पतित० ॥ ३ ॥
तुम जाने विन काल अनन्ता, गति गतिके भव धारी हो। , अव सनमुख वुधजन जांचत है, भवदधि पार उतारी हो।
पतित०॥४॥
राग-षट्ताल तिताला। और और क्यों हेरत प्यारा, तेरे हि घटमैं जाननहारा
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( ३ )
|| और० ॥ टेक ॥ चलन हलन थल वास एकता, जात्यान्तरतें न्यारा न्यारा ॥ और० ॥ १ ॥ मोहउदय रागी द्वेषी है, क्रोधादिकका सरजनहारा । भ्रमत फिरत चारों गति भीतर, जनम मरन भोगत दुख भारा ॥ और० ॥ २ ॥ गुरु उपदेश लखै पद आपा, तबहिं विभाव करें परिहारा । है एकाकी बुधजन निश्चल, पावै शिवपुर सुखद अपारा ॥ और० ॥ ३ ॥
(५)
राग-पताल तितालो ।.
काल अचानक ही ले जायगा, गाफिल होकर रहना क्या रे || काल० ॥ टेक ॥ छिन हूँ तोकूं नाहिं वचावें, तौ सुभटनका रखना क्या रे || काल० ॥ १ ॥ रंच सवाद), करिनके कार्जे, नरकनमै दुख भरना क्या रे । कुलजन पथिकनिके हितकाजैं, जगत जालमैं परना क्या रे ॥ काल० ॥ २ ॥ इंद्रादिक कोउ नाहिं वचैया, और लोकेका गरना क्या रे । निश्चय हुआ जगतमें मरना, कष्ट परै तव डरना क्या रे || काल० ॥ ३ ॥ अपना ध्यान करत खिर जावें, तो करमनिका हरना क्या रे । अब हित करि आरत तजि बुधजन, जन्म जन्ममैं जरना क्या रे || ॥ काल० ॥ ४ ॥
(€)
म्हे तो थांपर वारी, वारी वीतरागीजी, शांत छवी थांकी आनंदकारी जी ॥ हे० ॥ टेक ॥ इंद्र नरिंद्र फनिंद मिलि
१ अन्य लोगोका |
*
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( ४ )
सेवत, मुनि सेवत रिधिधारी जी ॥ हे० ॥ १ ॥ लखि अविकारी परउपगारी, लोकालोकनिहारी जी ॥ म्हे० ॥ २ ॥ सब त्यागी जी कृपातिहारी, बुधजन ले बलिहारी जी ॥ हे० ॥ ३ ॥
( ७ )
राग - रामकली, जलद तितालो ।
या नित चितवो उठिकै भोर, मैं हूं कौन कहांतें आयो, कौन हमारी ठौर ॥ या नित० ॥ टेक ॥ दीसत कौन कौन यह चितवत, कौन करत है शोर । ईश्वर कौन कौन है सेवक, कौन करे झकझोर || या नित० ॥ १ ॥ उपजत कौन मरे को भाई, कौन डरै लखि घोर । गया नहीं आवत कछु नाहीं, परिपूरन सव ओर ॥ या नित० ॥ २ ॥ और औरमैं और रूप है, परनति करि लइ और । स्वांग धरैं डोलौ याहीतैं, तेरी बुधजन भोरे ॥ या नित० ॥ ३ ॥ (-6)
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श्रीजिनपूजनको हम आये, पूजत ही दुखद मिटाये ॥ श्रीजिन० ॥ टेक ॥ विकलप गयो प्रगट भयो धीरज, अदभुत सुख समता वरसाये । आधि व्याधि अब दीखत नाहीं, धरम कलपतरु ऑगन थाये ॥ श्रीजिन० ॥ १ ॥ इते मैं इन्द्र चक्रवति इतमैं, इतमैं फनिंद खरे सिर नाये | मुनिजनवृन्द करें श्रुति हरषत, धनि हम जनमैं पद परसाये ॥ श्रीजिन० ॥ २ ॥ परमौदारिकमैं परमातम,
१ शब्द | २ भोलापन - मूर्खत्व |
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( ५ )
ज्ञानमई हमको दरसाये । ऐसे ही हममें हम जानें, बुधजन गुन मुख जात न गाये || श्रीजिन० ॥ ३ ॥ ( ९ ) राग-ललित एकतालो । बधाई राजै हो आज राजे, बधाई राजै, नाभिरायके द्वार। इंद्र सची सुर सब मिलि आये, सजि ल्याये गजराजै ॥ वधाई० ॥ १ ॥ जन्मसदनतै सची ऋषभ ले, सोपि
ये सुरराजै । गजपै धारि गये सुरगरिपै, न्होंन करनके काजै ॥ बधाई० ॥ २ ॥ आठ सहस सिर कलस जु ढारे, पुनि सिंगार समाजै | ल्याय धस्यौ मरुदेवी करमै, हरि नाच्यौ सुख साजै ॥ बधाई० ॥ ३ ॥ लच्छन व्यंजन सहित सुभग तन, कंचनदुति रवि लाजै । या छवि बुधजनके उर निशि दिन, तीनज्ञानजुत राजै ॥ वधाई० ॥ ४ ॥ ( १० ) राग-ललित जलद तितालो ।
८ हो जिनवानी जू, तुम मोकौं तारोगी ॥ हो० ॥ टेक ॥ आदि अन्त अविरुद्ध वचनतें, संगय भ्रम निरवारोगी ॥ हो० ॥ १ ॥ ज्यौं प्रतिपालत गाय वत्सकौं, त्यों ही मुझको पारोगी । सनमुख काल वाघ जब आवै, तव तत्काल उवारोगी || हो० ॥ २ ॥ वुधजन दास वीनवै माता, या विनती उर धारोगी । उलझि रह्यौ हूं मोहजालमैं, ताक तुम सुरझारोगी ॥ हो० ॥ ३ ॥
( ११ ) राग बिलावल कनड़ी ।
मनकै हरष अपार-चितकेँ हरप अपार, वानी सुनि
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( ६ )
॥ टेक ॥ ज्यौं तिरषातुर अम्रत पीवत, चातक अंबुद धार ॥ वानी सुनि० ॥ १ ॥ मिथ्या तिमिर गयो ततखिन ही, संशयभरम निवार । तत्त्वारथ अपने उर दरस्यौ, जानि लियो निज सार ॥ वानी सुनि० ॥ २ ॥ इंद नरिंद फनिंद पेदीधर, दीसत रंक लगार । ऐसा आनँद बुधजनके उर, उपज्यौ अपरंपार ॥ वानी सुनि० ॥ ३ ॥ ( १२ )
राग- अलहिया । चन्दजिनेसुर नाथ हमारा, महासेनसुत लगत पियारा ॥ चन्द० ॥ टेक ॥ सुरपति नरप्रति फनिपति सेवत, मानिमहा उत्तम उपगारा । मुनिजन ध्यान धरत उरमाहीं, चिदानंद पदवीका धारा || चन्द० || १ || चरन शरन बुधजन जे आये, तिन पाया अपना पद सारा । मंगलकारी भवदुखहारी, स्वामी अद्भुतउपमावारा ॥ चन्द० ॥ २ ॥ (१३)
राग- अलहिया बिलावल - ताल धीमा तेताला ।
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" करम देत दुख जोर, हो साईंयां ॥ करम० ॥ टेक ॥ कैइ परावृत पूरन कीनैं, संग न छांड़त मोर, हो साइँयां ॥ करम० ॥ १ ॥ इनके वशतैं मोहि बचावो, महिमा सुनी अति तोर, हो साईयां ॥ करम० ॥ २ ॥ वुधजनकी विनती तुमहीसौं, तुमसा प्रभु नहिं और, हो साईंयां
॥ करम० ॥ ३ ॥
१ मेघ २ पदवीधर ।
י
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( ७ )
(०१४ ) राग बिलावल धीमो तेतालो ।
नरभव पाय फेरि दुख भरना, ऐसा काज न करना हो ॥ नरभव० ॥ टेक ॥ नाहक ममत ठानि पुद्गलसी, करमजाल क्यों परना हो ॥ नरभव० ॥ १ ॥ यह तो जड़ तू ज्ञान अरूपी, तिल तुप ज्यों गुरु चरना हो । राग दोप तजि भजि समताक, कर्म साथके हरना हो । नरभव० ॥ २ ॥ यो भव पाय विषय-सुख सेना, गज चढ़ि ईधन ढोना हो । बुधजन समुझि सेय जिनवर पद, ज्यौ भवसागर तरना हो ॥ नरभव० ॥ ३ ॥
(१५)
राग-विलावल इकतालो ।
सारद ! तुम परसादतै, आनंद उर आया ॥ सारद० ॥ टेक ॥ ज्याँ तिरसातुर जीवकौं, अम्रतजल पाया ॥ सारद० ॥ १ ॥ नय परमान निखेपतैं, तत्त्वार्थ बताया। भाजी भूलि मिथ्यातकी, निज निधि दरसाया ॥ ॥ सारद० ॥ २ ॥ विधिना मोहि अनादितें, चहुँगति भरमाया । ता हरिवेकी विधि सबै, मुझमाहिं बताया ॥ सार० ॥ ३ ॥ गुन अनन्त मति अलपतैं, मोपै जात न गाया । प्रचुर कृपा लखि रावरी, बुधजन हरपाया ॥ सारद० ॥ ४ ॥
(१६)
गुरु दयाल तेरा दुख लखिकें, सुन लै जो फुरमात्रै है ॥ गुरु० ॥ तोमै तेरा जतन बतावै, लोभ कछू नहिं
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( ८ ) चावै है। गुरु०॥१॥पर सुभावको मोस्या चाहै, अपना ' उसा वनावै है । सो तो कवहूं हुवा न होसी, नाहक रोग लगावै है । गुरु० ॥२॥ खोटी खरी जस करी कुमाई, तैसी तेरै आवै है । चिन्ता आगि उठाय हियामैं, नाहक जान जलावै है। गुरु०॥३॥ पर अपनावै सो दुख पावै, वुधजन ऐसे गाव है। परको त्यागि आप थिर तिष्टै, सो अविचल सुख पावै है ।। गुरु० ॥४॥
राग-आसावरी । अरज झारी मानो जी, याही मारी मानो, भवदधि. हो तारना झारा जी ॥ अरज० ॥ टेक ॥ पतितउधारक पतित पुकार, अपनो विरद पिछानो ॥ अरज० ॥१॥ मोह मगर मछ दुख दावानल, जनममरन जल जानो । गति गति भ्रमन भंवरमैं डूबंत, हाथ पकरि ऊंचो आनो ॥ अरज० ॥२॥ जगमैं आन देव बहु हेरे, मेरा दुख नहिं भानो । वुधजनकी करुना ल्यो साहिव, दीजे अविचल थानो ॥ अरज० ॥३॥
(१८) ___ राग-आसावरी जोगिया ताल धीमो तेतालो।
तू काई चालै लाग्यो रे लोभीड़ा, आयो छै बुढ़ापोतू. ॥ टेक ॥ धंधामाहीं अंधा है कै, क्यों खोवै छै आपो रे ॥ तू० ॥१॥ हिमत घटी थारी सुमत मिटी छै, भाजि गयो तरुणापो। जम ले जासी सब रह जासी, सॅग जासी , १ सरीसा।
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पुर्ने पापो रे ॥ तू० २॥ जग स्वारथको कोइ न तेरो, यह, निहचै उर थापो । वुधजन ममत मिटावी मनतें, करि। मुख श्रीजिनजापो रे ॥ तू० ॥३॥
(१९) राग-आसावरी जोगिया ताल धीमो तेतालो। थे ही मोने तारो जी, प्रभुजी कोई न हमारो॥थे ही० ॥ टेक ॥ हूं एकाकि अनादि कालते, दुख पावत, हूं भारोजी॥थे ही०॥१॥विन मतलवके तुम ही स्वामी, मतलवको संसारो । जग जन मिलि मोहि जगमै राखे, तू ही कादनहारो॥थे ही० ॥ २॥ वुधजनके अपराध मिटावो, शरन गह्यो छै थारो। भवदधिमाहीं डूबत मोको, कर गहि आप निकारो॥थे ही० ॥३॥
(२०) राग-आसावरी मांझ, नाल धीमो एकतालो। प्रभूजीअरज ह्मारी उर धरोप्रभू जी०॥टेक॥ प्रभू जी नरक निगोद्यांमै रुल्यो, पायौ दुःख अपार॥ प्रभूजी०॥॥ प्रभू जी, हूं पशुगतिमैं ऊपज्यो, पीठ सह्यौ अतिभार । प्रभू जी० ॥ २॥ प्रभू जी, विपय मगनमें सुर भयो, जात न जान्यो काल ।। प्रभू जी०॥३॥प्रभू जी, नरभव कुल श्रावक लह्यो, आयो तुम दरवार ॥ प्रभू जी० ॥४॥ प्रभू जी, भव भरमन वुधजनतनों, मेटौ करि उपगार ॥ प्रभू जी० ॥ ५॥
१ पुण्य-शुभ म।
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( १० )
(-२१ ) राग - आसावरी ।"
जगतमैं होनहार सो होवै, सुर नृप नाहिं मिटावै ॥ जगत ॥ टेक ॥ आदिनाथसेकौं भोजनमैं, अन्तराय उपजावै । पारसप्रभुकौं ध्यानलीन लखि, कमठ मेघ वरसावै ॥ जगत० ॥ १ ॥ लखमणसे सँग भ्राता जाकै, सीता राम गमावै । प्रतिनारायण रावणसेकी, हनुमत लंक जरावै ॥ जगत० ॥ २ ॥ जैसो कमावै तैसो ही पावै, यों बुधजन समझावै । आप आपकों आप कमावौ, क्यौं परद्रव्य कमावै ॥ जगत० ॥ ३ ॥
(-२२ )
राग - भासावरी जलदतेतालो ।·
आगे कहा करसी भैया, आजासी जब काल रे ॥ आगें ● ॥ टेक ॥ ह्यां तौ तैनें पोल मचाई, व्हां तौ होय समाल रे ॥ आगैं० ॥ १ ॥ झूठ कपट करि जीव सताये, हया पराया माल रे । सम्पतिसेती धाप्या नाहीं, तकी विरानी वाल
॥ आगैं० ॥ २ ॥ सद्रा भोगमैं मगन रह्या तू, लख्या नहीं निज हाल रे । सुमरन दान किया नहिं भाई, हो जासी पैमाल रे ॥ आगैं० ॥ ३ ॥ जोवनमैं जुवती सँग भूल्या, भूल्या जव था बाल रे । अब हू धारो वुधजन समता, सदा रहहु खुशहाल रे ॥ आगैं० ॥ ४ ॥
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(२३)
राग - आसावरी जोगिया जलद तेतालो । चेतन, खेल सुमतिसँग होरी ॥ चेतन० ॥ टेक ॥ तोरि
१ सतुष्ट नहीं हुआ । २ दूसरेकी । ३ स्त्री । ४ पायमाल - नष्ट ।
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आनकी प्रीति सयाने, भली बनी या जोरी ॥ चेतन० ॥१॥ डगर डगर डोल है यो ही, आव आपनी पौरी' निज रस फगुवा क्यों नहिं वांटो, नातर ख्वारी तोरी ॥ चेतन० ॥ २ ॥ छोर कपाय त्यागि या गहि लै, समकित केसर घोरी । मिथ्या पाथर डारि धारि लै, निज गुलालकी झोरी ॥ चेतन० ॥३॥ खोटे भेप धरै डोलत है, दुख पावै वुधि भोरी । वुधजन अपना भेप सुधारो, ज्यों विलसो शिवगोरी ॥ चेतन० ॥४॥
(२४). राग-आसावरी जोगिया जल्द तेतालो। हे आतमा! देखी दुतितोरी रे॥ हे आतमा० ॥टेक।। निजको ज्ञात लोकको ज्ञाता, शक्ति नहीं थोरी रे ॥ हे आतमा० ॥१॥ जैसी जोति सिद्ध जिनवरम, तैसी ही मोरी रे॥ हे आतमा०॥२॥ जड़ नहिं हुवो फिरे जड़के वसि, के जड़की जोरी रे ॥ हे आतमा० ॥३॥ जगके काजि करन जग टहलै, वुधजन मति भोरी रे॥ हे आतमा०॥४॥
वावा! मैं न काहू का, कोई नहीं मेरा रे॥वावा० ॥टेका सुर नर नारक तिरयक गतिमैं, मोको करमन घेरा रे ।। वावा० ॥१॥ मात पिता सुत तिय कुल परिजन, मोह गहल उरझेरा रे। तन धन वसन भवन जड़ न्यारे, हूं चि१ पौर-घर । २ धूल ।
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(१२)
न्मूरति न्यारा रे वावा० ॥२॥ मुझ विभाव जड़ कर्म रचत हैं, करमन हमको फेरा रे । विभाव चक्र तजि धारि सुभावा, अव आनंदघन हेरा रे॥ वावा०॥३॥खरच (१) खेद नहिं अनुभव करते, निरखि चिदानंद तेरा रे। जप तप व्रत श्रुत सार यही है, बुधजन कर न अवेरा रे ॥ वावा०॥४॥
(२६) "और सवै मिलि होरि रचावे, हूं काके सँग खेलौंगी होरी ॥ और० ॥ टेक ॥ कुमति हरामिनि ज्ञानी पियापै, लोभ मोहकी डारी ठगौरी । भोरै झूठ मिठाई खवाई, खोसि लये गुन करि वरजोरी ॥ और० ॥१॥ आप हि तीनलोकके साहिव, कौन करै इनकै सम जोरी । अपनी सुधि कबहूँ नहिं लेते, दास भये डोलैं पर पौरी ॥ और० ॥२॥ गुरु वुधजनतें सुमति कहत है, सुनिये अरज दयाल सु मोरी । हा हा करत हूं पॉय परत हूं, चेतन पिय कीजे मो ओरी ॥ और० ॥३॥
• धर्म विन कोई नहीं अपना, सव संपति धन थिर नहिं जगमैं, जिसा रैनसपना ॥ धर्म० ॥ टेक ॥ आगैं किया सो पाया भाई, याही है निरना । अव जो करैगा
सो पावैगा, तातें धर्म करना ॥धर्म० ॥१॥ ऐसें सव • संसार कहत है, धर्म किये तिरना । परपीड़ा विसनादिक
१ छीन लिये । २ जवरदस्ती।
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(१३) सेय, नरकविपै परना ॥ धर्म० ॥२॥ नृपके घर सारी सामग्री, ताकै ज्वर तपना । अरु दारिद्रीकै हू ज्वर है, पाप उदय थपना ।। धर्म ॥३॥ नाती तो स्वारथके साथी, तोहि विपत भरना । वन गिरि सरिता अगनि जुद्धमैं, धर्महिका सरना ॥ धर्म० ॥ ४॥ चित बुधजन सन्तोप धारना, पर चिन्ता हरना । विपति पड़े तो समता रखना, परमातम जपना ॥ धर्म० ॥५॥
(२८)
राग-टोडी ताल होलीकी। कंचन दुति व्यंजन लच्छन जुत, धनुप पांचसै ऊंची काया ॥ कंचन० ॥ टेक ॥ नाभिराय मरुदेवीके सुत, पदमासन जिन ध्यान लगाया ॥ कंचन०॥१॥ये तिन सुत व्योहार कथनमैं, निश्चय एक चिदानंद गाया। अपरस अवरन अरस अगंधित, वुधजन जानि सु सीस नवाया ।। कंचन० ॥२॥
(२९). धनि सरधानी जगमैं, ज्यो जल कमल निवास ॥धनि०० ॥ टेक ॥ मिथ्या तिमिर फट्यो प्रगट्यो शशि, चिदानंद परकास ॥ धनिः॥१॥पूरव कर्म उदय सुख पावें, भोगत ताहि उदास । जो दुखमैं न विलाप करै, निरवैर सहे तन त्रस ॥ धनि० ॥२॥ उदय मोहचारित परवशि है, द्र नहिं करत प्रकास । जो किरिया करि हैं निरवांछक, करें नहीं फल आस ॥ धनि० ॥३॥ दोपरहित प्रभु
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( १४ )
धर्म दयाजुत, परिग्रह विन गुरु तास । तत्त्वारथरुचि है जाके घट, बुधजन तिनका दास ॥ धनि० ॥ ४ ॥
(-३० ) राग - सारंग |
धाई भई हो, तुम निरखत जिनराय, बधाई भई हो ॥ टेक ॥ पातक गये भये सव मंगल, भैटत चरनकमल जिनराई ॥ वधाई ० ॥ १ ॥ मिटे मिथ्यात भरमके बादर, प्रगटत आतम रवि अरुनाई । दुरबुध चोर भजे जिय जागे, करन लगे जिनधर्म कमाई || वधाई० ॥ २ ॥ हगसरोज फूले दरसनतैं, तुम करुना कीनी सुखदाई । भापि अनुव्रत महाविरतको, बुधजनको शिवराह बताई ॥ बधाई० ॥ ३ ॥
( · ३१ )
{
राग - सारंगकी मांझ ताल दीपचन्दी |
म्हांरी सुणिज्यो परम दयालु, तुमसौं अरज करूं म्हांरी० ॥ टेक ॥ आन उपाव नहीं या जगमैं, जग तारक जिनराज, तेरे पाय परूं ॥ म्हांरी० ॥ १ ॥ साथ अनादि लागि विधि मेरी, करत रहत बेहाल, इनकौं कौलौं भरूं ॥ म्हांरी० ॥ २ ॥ करि करुना करमनको काटो, जनम मरन दुखदाय, इनतें बहुत डरूं ॥ म्हांरी० ॥ ३ ॥ चरन सरन तुम पाय अनूपम, वुधजन मांगत येह - गति गति नाहिं फिरूं ॥ म्हांरी० ॥ ४ ॥
( ३२ ) बधाई चन्दपुरी मैं आज || वधाई ० ॥ टेक ॥ महा
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( १५)
सुत-चंद्रकुंवरजू, राज लह्यौ सुख साज । वधाई० ॥१॥ सनमुख नृत्यकारिनी नाचत, होत मृदंग अवाज । भैंट करत नृप देश देशके, पूरत सवके काज ॥ वधाई० ॥२॥ सिंहासनपै सोहत एसो, ज्यों शशि नखंत समाज । नीति निपुन परजाको पालक, वुधजनको सिरताज ॥ वधाई ॥३॥
(३३). ___ राग-लूहरि सारंग। अरज करूं (तसलीम करूं) ठाडो विनऊं चरननको चेरो। अरज०॥ टेक ।। दीनानाथ दयाल गुसाई, मोपर करुना करिकै हेरो। अरज० ॥१॥ भव वनमै निरवल मोहि लखिके, दुष्टकर्म सब मिलिके घेरो। नाना रूप वनाकै मेरो, गति चारोंमें दयो है फेरो ॥ अरज० ॥२॥ दुखी अनादि कालको भटकत, सरनो आय गह्यो मैं तेरो । कृपा करो तो अब वुधजनपै, हरो वेगि संसार वसेरो ।। अरज०॥३॥
(३४)
तथानिजपुरमै आज मची होरी ॥ निज० ॥ टेक ॥ उमॅगि चिदानंदजी इत आये, इत आई सुमती गोरी ॥ निज० ॥१॥ लोकलाज कुलकॉनि गमाई, ज्ञान गुलाल "मी झोरी ॥ निज० ॥२॥ समकित केसर रंग वनायो,
रितकी पिचुकी छोरी ॥ निज० ॥३॥ गावत अजया कर नक्षत्र तारागण । २ प्रजा । ३ कुलकी लाज ।
व्र
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( १६ ) गान मनोहर, अनहद झरसौं वरस्योरी ॥ निज० ॥४॥ देखन आये वुधजन भीगे, निरख्यौ ख्याल अनोखोरी ॥ निज० ॥५॥
- राग-राहरि सारंग जलद तेतालो।
मोकौं तारो जी तारो जी किरपा करिकै ॥ मोकौं। ॥ टेक ।। अनादि कालको दुखी रहत हूं, टेरत हूं जमतें डरिकै ॥ मोका० १॥ भ्रमत फिरत चारौं गति भीतर, भवमाही मरि मरि करिकै । डूवत अगम अथाह जलधिमैं, राखो हाथि पकरि करिकै। मोकौं० ॥२॥ मोह भरम विपरीत वसत उर, आप न जानों निज करिकै ।तुमसव ज्ञायक मोहि उवारो, बुधजनको अपनो करिकै ॥ मोकौं० ॥३॥
राग-सारंग। 0 . हम शरन गयौ जिन चरनको ।। हम० ॥ टेक ।। अव औरनकी मान न मेरे, डर हु रह्यो नहिं मरनको ॥ हम ॥ १॥ भरम विनाशन तत्त्वप्रकाशन, भवदधि तारन तरनको । सुरपति नरपति ध्यान धरत वर, करि निश्चय दुख हरनको ॥ हम० ॥२॥ या प्रसाद ज्ञायक निज मान्यौ, जान्यौ तन जड़ परनको । निश्चय सिधसो पै कपायतें, पात्र भयो दुख भरनको ॥ हम ॥३॥ प्रभु विन और नहीं या जगमैं, मेरे हितके करनको। वुधजनकी अरदास यही है, हर संकट भव फिरनको/ हम० ॥४॥
१ मिद्ध भगवान सरीखा। ।
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(१७)
(३७).
राग-सारंग। तन देख्या अथिर घिनावना ॥ तन० ॥ टेक ॥ वाहर चाम चमक दिखलावै, माही मैल अपावना । वालक ज्वान बुढ़ापा मरना, रोगशोक उपजावनातन० ॥१॥ अलख अमूरति नित्य निरंजन, एकरूप निज जानना । वरन फरस रस गंध न जाके, पुन्य पाप विन मानना ॥ तन० ॥२॥ करि विवेक उर धारि परीक्षा, भेद-विज्ञान विचारना । वुधजन तनतें ममत मेटना, चिदानंद पद धारना ॥ तन० ॥३॥
(३८)
राग-सारंग लूहरि। ... तेरो करि लै काजवखतफिर ना तेरो०॥टेकनरभव तेरे वश चालत है, फिर परभव परवश परता ॥ तेरो० ॥१॥ आन अचानक कंठ दवैगे, तव तोकौं नाहीं शरना। यात विलमन ल्यायवावरे, अवही कर जो है करना। तेरो० ॥२॥सवजीवनकी दया धार उर, दानसुपात्रनि कर धरना। जिनवर पूजि शास्त्र सुनि नित प्रति, वुधजन संवर आचरना ।। तेरो० ॥३॥
(३९) राग-लहरि मीणांको चालमें। 0 अहो ! देखो केवलज्ञानी, ज्ञानी छवि भली या विराजै हो-भली या विराजै हो ॥ अहो० ॥ टेक ॥ सुर नर मुनि याकी सेव करत हैं, करम हरनके काजै हो ॥ अहो.
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(१८)
॥१॥ परिग्रहरहित प्रातिहारजजुत, जगनायकता छाजे हो । दोष विना गुन सकल सुधारस, दिविधुनि मुखतें गाजै हो ।। अहो देखो० ॥२॥ चितमैं चितवत ही छिनमाहीं, जन्म जन्म अघ भाजै हो । वुधजन याकौं कबहुँ न विसरो, अपने हितके काजै हो ॥ अहो० ॥३॥रा
राग-सारंग लहरि। श्रीजी तारनहारा थे तो, मोनें प्यारा लागोराज॥श्री० ॥ टेक ॥ वार सभा विच गंधकुटीमैं, राज रहे महाराज ॥ श्री०॥१॥ अनत कालका भरम मिटत है, सुनतहिआप अवाज ॥श्री० ॥२॥ बुधजन दास रावरो विनवै, . थासू सुधरै काज ॥ श्री० ॥ ३ ॥
(४१)
राग-पूरवी एकताला। तनके मवासी हो, अयाना ॥तनके० ॥टेक ॥ चहुँगति फिरत अनंतकालतें, अपने सदनकी सुधि भौराना ॥तनके० ॥१॥ तन जड़ फरस-गंध-रसरूपी, तू तो दरसनज्ञाननिधाना, तनसौं ममत मिथ्यात मेटिकै, वुधजन अपने शिवपुर जाना ॥ तनके० ॥२॥
राग-पूरवी एकतालो। नैनशान्त छविदेखि छके दोऊ ।। नैन० ॥ टेक ॥ अव अद्भुत दुति नहिं विसराऊं, बुरा भला जग कोटि कहो को ॥ नैन० ॥१॥बड़भागन यह अवसर पाया, सुनियो जी
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( १९ )
अत्र अरज मेरी कहूं । भवभवमैं तुमरे चरननको, बुधजन दास सदा हि बन्यौ रहुं ॥ नैन० ॥ २ ॥
(x2) राग- पूरवी जल्द विनालो ।
हरना जी जिनराज, मोरी पीर ॥ हरना०॥ टेक ॥ आन देव संये जगवासी, सरयाँ नहीं मेरो काज ॥ हरना० ॥ १ ॥ जगमें बसत अनेक सहज ही, प्रनवत विविध समाज । तिनप इष्ट अनिष्ट कल्पना, मैटोगे महाराज ॥ हरना० ॥ २ ॥ पुद्गल राचि अपनपौ भूल्यौ, विरथा करत इलाज । अत्रहिं जथाविधि वेग वतावो, बुधजनके सिरताज ॥ हरना० ॥३॥ (xx) राग- पूरवी ।
भजन विन यों ही जनम गमायो || भजन० ॥ टेक ॥ पानी पैल्यां पाल न बांधी, फिर पीछे पछतायो ॥ भज० ॥ १ ॥ रामा-मोह भये दिन खोबत, आशापाश वधायो । जप तप संजम दान न दीनों, मानुप जनम हरायो ॥ जन० ॥ २ ॥ देह सीस जब कापन लागी, दसन चलाचिल थायो । लागी आगि भुजावन कारन, चाहत कूप खुदायो || भजन० ॥ ३ ॥ काल अनादि गुमायो भ्रमतां, कबहुँ न थिर चित ल्यायो । हरी विषयसुखभरम भुलानो, मृगतिसना वग धायो ॥ भजन० ॥ ४ ॥
(४५) राग- पूरवी ।
तारो क्यों न, तारो जी, म्हें तो थांके गरना आया ॥ के चारों ओर जो बँधिया बाबते हैं ।
१ पहले, पूर्वमें ।
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·
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(२०)
टेक ॥ विधना मोकौं चहुँगति फेरत, बड़े भाग तुम दरशन पाया ।। तारो० ॥१॥ मिथ्यामत जल मोह मकरजुत, भरम भौरमैं गोता खाया । तुम मुख वचन अलंबन पाया, अब वुधजन उरमैं हरषाया ॥ तारो० ॥२॥
भवदधि-तारक नवका, जगमाही जिनवान ।। भव० ॥ टेक ॥ नय प्रमान पतवारी जाके, खेवट आतमध्यान ।। भव० ॥१॥ मन वच तन सुध जे भवि धारत, ते पहुँचत शिवथान । परत अथाह मिथ्यात भँवर ते, जे नहिं गहत अजान ॥ भव०॥ २॥ विन अक्षर जिनमुखते निकसी, परी वरनजुत कान। हितदायक वुधजनकों गनधर, गूंथे ग्रंथ महान ॥ भव०॥३॥
4 राग-धनासरी धीमो तितालो। प्रभु, थांसू अरज हमारी हो ॥ प्रभु० ॥ टेक ॥ मेरे हितू न कोऊ जगतमैं, तुम ही हो हितकारी हो ॥ प्रभु० ॥१॥ संग लग्यौ मोहि नेकून छोड़े, देत मोह दुख भारी। भववनमाहिं नचावत मोकों, तुम जानत हो सारी ॥ प्रभु०॥२॥ थांकी महिमा अगम अगोचर, कहि न सकै बुधि म्हारी। हाथ जोरकै पाय परत हूं, आवागमन निवारी हो ॥ प्रभु०॥३॥
(४८)
तथायाद प्यारी हो, म्हांनै थांकी याद प्यारी । हो म्हांनै टेक॥ भात तात अपने स्वारथके. 'तम हित पररप..
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(२१) गारी ॥ हो म्हांन० ॥१॥ नगन छवी सुन्दरता जाप, कोटि काम दुति वारी । जन्म जन्म अवलोकौं निशिदिन, बुधजन जा वलिहारी । हो म्हांनै० ॥२॥
राग-गौड़ी ताल आदि तितालो। अरे हाँ रे तें तो सुधरी बहुत विगारी ॥ अरे०॥ टेक॥ ये गति मुक्ति महलकी पौरी, पाय रहत क्यों पिछारी ॥ अरे० ॥१॥ परकौं जानि मानि अपनो पद, तजि ममता दुखकारी। श्रावक कुल भवदधि तट आयो, वूड़त क्यों रे अनारी ॥ अरे० ॥२॥ अवहूं चेत गयो कछु नाही, राखि आपनी वारी। शक्तिसमान त्याग तप करिये, तब वुधजन सिरदारी ॥ अरे० ॥३॥
(५०)
राग-काफी कनड़ी। । में देखा आतमरामा । मैं० ॥ टेक ॥ रूप फरस रस गंधते न्यारा, दरस-ज्ञान-गुनधामा । नित्य निरंजन जाकै नाही, क्रोध लोभ मद कामा ॥में० ॥१॥ भूख प्यास सुख दुख नहिं जाकै, नाहीं वन पुर गामा । नहिं साहिब नहिं चाकर भाई, नहीं तात नहिं मामा ॥ मैं० ॥२॥ भूलि अनादिथकी जग भटकत, लै पुद्गलका जामा । वुधजन संगति जिनगुरुकीतें,मैं पाया मुझठामा॥मै॥३॥
__राग-काफी कनडी-ताल-पसतो। अव अघ करत लजाय रे भाई ॥ अव० ॥ टेक ॥ श्रावक घर उत्तम कुल आयो. भंटे श्रीजिनराय ॥ अव०
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( २२ )
॥ १ ॥ घन वनिता आभूषन परिगह, त्याग करौ दुखदाय । जो अपना तू तजि न सकै पर, सेयां नरक न जाय ॥ अब० ॥ २ ॥ विषयकाज क्यौं जनम गुमावै, नरभव कब मिलि जाय । हस्ती चढ़ि जो ईंधन ढोवै, बुधजन कौन वसाय ॥ अब० ॥ ३ ॥
(५२)
राग - काफी कनड़ी |
" तोकौं सुख नहिं होगा लोभीड़ा ! क्यौं भूल्या रे पर - भावनमें ॥ तोकौं० ॥ टेक ॥ किसी भाँति कहुँका धन आवै, डोलत है इन दावनमें ॥ तोकौं० ॥ १ ॥ व्याह करूं सुत जस जग गावै, लग्यौ रहै या भावनमें ॥ तोकौं ० ॥ २ ॥ दरव परिनमत अपनी गौंतें, तू क्यौं रहित उपायनमैं ॥ तोकौं० ॥ ३ ॥ सुख तो है सन्तोष करनमैं, नाहीं चाह वढावनमैं ॥ तोकौं ० ॥ ४ ॥ कै सुख है वुधजनकी संगति, कै सुख शिवपद पावनमें ॥ तोकौं० ॥ ५ ॥
(५३) राग - कनड़ी ।
निरखे नाभिकुमारजी, मेरे नैन सफल भये ॥ निर० ॥ टेक ॥ नये नये वर मंगल आये, पाई निज रिधि सार ॥ निरखे० ॥१॥ रूप निहारन कारन हरिने, कीनी आंख हजार । वैरागी मुनिवर हू लखिकै, ल्यावत हरष अपार ॥ निरखे० ॥ २ ॥ भरम गयो तत्त्वारथ पायो, आवत ही दरवार | बुधजन चरन शरन गहि जाँचत, नहिं जाऊं ॥ निरखे० ॥ ३ ॥
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(२३)
(५४)
गग-कनड़ी। . भला होगा तरो यों ही, जिनगुन पल न भुलाय हो । भला. ॥ टेक ॥ दुख मैटन सुखदैन सदा ही, नमिक मन वच काय हो ॥ भला० ॥२॥ शक्री चक्री इन्द्र फनिन्द्र सु, वरनन करत थकाय हो। केवलज्ञानी त्रिभुवनस्वामी ताको निशिदिन ध्याय हो । भला० ॥२॥ आवागमन सुरहित निरंजन, परमातम जिनराय हो । बुधजन विधितें पूजि चरन जिन, भव भवमै सुखदाय हो । भला०||३||
राग-कनड़ी। उत्तम नरभव पायक, मति भूले रे रामा । मति भू०॥ टेक ॥ कीट पशुका तन जव पाया, तव तू रह्या निकामा। अब नरदेही पाय सयान, क्यों न भर्ज प्रभुनामा । मति भू० ॥१॥ सुरपति याकी चाह करत एर, कव पाऊं नरजामा। ऐसा रतन पायक भाई, क्यो खोबत विन कामा । मति भू० ॥२॥ धन जोवन तन सुन्दर पाया, मगन भया लखि भामा । काल अचानक झटक खायगा, परे रहेंगे ठामा ॥ मति० ॥३॥ अपने स्वामीके पदपंकज, करो हिये विसरामा । मटि कपट भ्रम अपना वुधजन, ज्यों पाचौ शिवधामा । मति भू०॥४॥
धनि चन्दप्रभदेव, ऐसी सुबुधि उपाई ॥ धनि०॥टेक॥ जगमें कठिन विराग दगा है, सो दरपन लखि तुरत
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(२४) उपाई ॥धनि० ॥१॥ लौकान्तिक आये ततखिन ही, चढ़ि सिविका वनओर चलाई। भये नगन सब परिग्रह तजिकै, नग चम्पातर लोच लगाई ॥धनि० ॥२॥ महासेन धनि धनि लच्छमना, जिनकैं तुमसे सुत भये साई। वुधजन वन्दत पाप निकन्दत, ऐसी सुवुधि करो मुझमाई ।। धनि०॥३॥
चुप रे मूढ अजान, हमसौं क्या वतलावै ॥ चुप० ॥ टेक ॥ ऐसा कारज कीया तैन, जासों तेरी हान । चु० ॥१॥ राम विना हैं मानुष जेते, भ्रात तात सम मान । कर्कश वचन वकै मति भाई, फूटत मेरे कान ॥ चुप० ॥२॥ पूरव दुकृत किया था मैंने, उदय भया ते आन । नाथविछोहा हूवा यातें, पै मिलसी या थान ।। चुप० ॥३॥ मेरे उरमैं धीरज ऐसा, पति आवै या ठान । तव ही निग्रह है है तेरा, होनहार उर मान || चुप० ॥४॥ कहां अजोध्या कहँ या लंका, कहाँ सीता कह आन । वुधजन देखो विधिका कारज, आगममाहिं वखान ।। चुप०॥५॥
(५८)
राग-कनड़ी एकतालो। त्रिभुवननाथ हमारौ, हो जी ये तो जगत उजियारी ॥ त्रिभुवन० ॥ टेक ॥ परमौदारिक देहके माही, परमातम हितकारौ ॥ त्रिभुवन० ॥१॥ सहजै ही जगमाहिं रह्यौ छै, दुष्ट मिथ्यात अॅधारौ। ताकौं हरन करन समकित
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दार
(२५) रवि, केवलज्ञान निहारौ ॥ त्रिभुवन० ॥२॥ त्रिविध शुद्ध भवि इनकी पूजौ, नाना भक्ति उचारौ । कर्म काटि वुधजन शिव लै हौ, तजि संसार दुखारौ ॥ त्रिभु० ॥३॥
(५९)
राग-दीपचंदी। मेरी अरज कहानी, सुनि केवलज्ञानी ।मेरी० ॥टेक॥ चेतनके सँग जड़ पुद्गल मिलि, सारी वुधि वौरानी । मेरी० ॥१॥भव वनमाहीं फेरत मोकौं, लख चौरासी थानी । कौलौं वरनौं तुम सब जानो, जनम मरन दुखखानी ।। मेरी० ॥२॥ भाग भलेतें मिले वुधजनको, तुम जिनवर सुखदानी । मोह फांसिको काटि प्रभूजी, कीजे केवलज्ञानी । मेरी० ॥३॥
तेरी बुद्धिकहानी, सुनि सूद अज्ञानी ।। तेरी० ॥ टेक।। तनक विषय सुख लालच लाग्यो, नंतकाल दुखखानी ॥ तेरी० ॥१॥ जड़ चेतन मिलि वंध भये इक, ज्यौं पयमाही पानी । जुदा जुदा सरूप नहिं मान, मिथ्या एकता मानी ॥ तेरी० ॥२॥हूं तो वुधजन दृष्टा ज्ञाता, तन जड़ सरधा आनी । ते ही अविचल सुखी रहेंगे, होय मुक्तिवर प्रानी ।। तेरी० ॥३॥
(६१)
राग-ईमन । तू मेरा कह्या मान रे निपट अयाना ॥ तू० ॥ टेक ॥ भव वन वाट मात सुत दारा, वंधु पथिकजन जान रे।
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( २६ ) इनसेप्रीति न ला विछुरेंगे, पार्वगो दुख-खान रे॥ तू० ॥१॥ इकसे तन आतम मति आनँ, यो जड़ है तू ज्ञान रे। मोहउदय वश भरम परत है, गुरु सिखवत सरधान रे । तू० ॥२॥ वादल रंग सम्पदा जगकी, छिनमैं जात विलान रे। तमाशवीन पनि यातें बुधजन, सवतैं ममता हान रे ॥तू० ॥३॥
राग-ईमन तेतालो। __ हो विधिनाकी मोपै कही तो न जाय ॥हो० ॥टेक।। सुलट उलट उलटी सुलटा दे, अदरस पुनि दरसाय॥हो० ॥१॥उर्वशि नृत्य करत ही सनमुख, अमर परत हैं पॉय (2)। ताही छिनमैं फूल बनायौ, धूप पर कुम्हलाय (1) होगा। नागा पॉय फिरत घर घर जव, सो कर दीनौं राय । ताहीको नरकनमैं कूकर, तोरि तोरि तन खाय ॥ हो०॥३॥ करम उदय भूलै मति आपा, पुरुषारथको ल्याय । बुधजन ध्यान धरै जव मुहुरत, तव सव ही नसि जाय ॥ हो॥४॥
(६३) • जिनवानीके सुनेसौं मिथ्यात मिटै। मिथ्यात मिटै समकित प्रगटै| जिनवानी० ॥ टेक ॥ जैसैं प्रात होत रवि ऊगत, रैन तिमिर सब तुरत फटै ॥ जिनवानी०॥ १ ॥ अनादिकालकी भूलि मिटावै,अपनी निधिघटमैं उघटै। त्याग विभाव सुभाव सुधारै, अनुभव करतां करम कटै ॥ जिनवानी० ॥२॥ और काम तजि सेवो याकौं, या विन नाहिं अज्ञान घटै। बुधजन याभव परभवमाही, याकी इंडी
पटै| जिनवानी० ॥३॥
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(२७)
(६४)' सम्यग्ज्ञान विना, तेरो जनम अकारथ जाय ॥ सम्यग्ज्ञान० ॥ टेक ॥ अपने सुखमें मगन रहत नहिं, परकी लेत वलाय । सीख सुगुरुकी एक न माने, भव भवमैं दुख पाय ॥ सम्यग्ज्ञान०॥१॥ ज्यों कपि आप काठलीलाकरि, प्रान तजे विललाय। ज्यो निज मुखकरि जालमकरिया, आप मरै उलझाय ॥ सम्यग्ज्ञान० ॥२॥ कठिन कमायो सब धन ज्वारी, छिनमैं देत गमाय । जैसे रतन पायके भोंदू, विलखे आप गमाय ॥ सम्यग्ज्ञान० ॥३॥ देव शास्त्र गुरुको निहचैकरि, मिथ्यामत मति ध्याय । सुरपति वांछाराखत याकी, ऐसी नर परजाय ॥ सम्यग्ज्ञान०
राग-झंझोटी। शिवथानी निगानी जिनवानि हो ॥ शिव०॥टेक॥ भववनभ्रमन निवारन-कारन, आपा-पर-पहचानि हो ॥शिव० ॥१॥ कुमति पिशाच मिटावन लायक, स्याद मंत्र मुख आनि हो। गिव०॥२॥ वुधजन मनवचतन: करि निशिदिन, सेवो सुखकी खानि हो ॥ शिव०॥३॥
(:) देखो नया, आज उछाव भया ॥ देखो० ॥ टेक ॥ चंदपुरीमें महासेन घर, चंदकुमार जया ॥ देखो० ॥१॥ मातलखमनासुतको गजपै, लै हरि गिर गया। देखो० ॥२॥ आठ सहस कलसा सिर ढारे, वाजे वजत नया ॥ देखो० ॥३॥ सोपि दियो पुनि मात गोदमै, तांडव
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( २८ )
नृत्य थया || देखो० ॥ ४ ॥ सो वानिक लखि बुधजन हरपै, जै जै पुरमें किया ॥ देखो० ॥ ५ ॥
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मैं देखा अनोखा ज्ञानी वे ॥ मैं० ॥ टेक ॥ लारें लागि आनकी भाई, अपनी सुध विसरानी वे ॥ मैं० ॥ १ ॥ जा कारनतें कुगति मिलत है, सो ही निजकर आनी वे ॥ मैं० ॥ २ ॥ झूठे सुखके काज सयानें, क्यौं पीड़े है प्रानी वे मैं ० ० ॥ ३ ॥ दया दान पूजन व्रत तप कर, बुधजन सीख वखानी वे ॥ मैं० ॥ ४ ॥
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(२६८ )
राग - जंगलो |
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मेरो मनुवा अति हरपाय, तोरे दरसनसौं ॥ मेरो० ॥ टेक ॥ शांत छवी लखि शांतभाव है, आकुलता मिट जाय, तोरे दरसनसौं ॥ मेरो० ॥ १ ॥ जब लौं चरन निकट नहिं आया, तव आकुलता थाय । अब आवत ही निज निधि पाया, निति नव मंगल पाय, तोरे दरसनसौं ॥ मेरो० ॥ २ ॥ बुधजन अरज करै कर जोरै, सुनिये श्रीजिनराय । जब लौं मोख होय नहिं तव लौं, भक्ति करूं गुन गाय, तोरे दरसनसौं | मेरो० ॥ ३ ॥
(०६९)
मोहि अपना कर जान, ऋषभजिन ! तेरा हो ॥ मोहिο ॥ टेक ॥ इस भवसागरमाहिं फिरत हूं, करम रह्या करि घेरा हो ॥ मोहि० ॥ १ ॥ तुमसा साहिव और न मिलिया, सह्या भौत भटभेरा हो ॥ मोहि० ॥ २ ॥ बुधजन अरज करै निशि वासर, राखौ चरनन चेरा हो ॥ मोहि० ॥३॥
"
( ६ ७
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(२९)
(७०) । मैं तेरा चेरा, अरज सुनो प्रभु मेरा ॥ मैं० ॥ टेक ।। अष्टकर्म मोहि घेरि रहे है, दुख दे हैं वहुतेरा ॥ मैं०॥१॥ दीनदयाल दीन मो लखिकै, मैटो गति गति फेरा ॥ मै० ॥२॥ और जंजाल टाल सव मेरा, राखो चरनन चेरा॥ मैं० ॥ ३॥ वुधजनओर निहारि कृपा करि, विनवै वारंवेरा ॥ मे०॥४॥
(७१)
राग-अहिंग। ते क्या किया नादान, ते तो अमृत तजि विप लीना॥ तैः॥ टेक ॥ लख चौरासी जौनिमाहिते, श्रावक कुलमैं आया। अव तजि तीन लोकके साहिब, नवग्रह पूजन • धाया ॥ तै० ॥१॥ वीतरागके दरसनहीतें, उदासीनता आवै। तू तो जिनके सनमुख ठाड़ा, सुतको ख्याल खिलावै ॥ तै० ॥२॥ सुरग सम्पदा सहजै पावै, निश्चय मुक्ति मिलावै । ऐसी जिनवर पूजनसेती, जगत कामना. चावै ॥ तें ॥३॥ वुधजन मिलें सलाह कहै तब, तू वा खिजि जावै। जथा जोगकों अजथा माने, जनम जनम दुख पावै ॥ तै० ॥४॥
(७२)
राग-खंमाच । सुनियो हो प्रभु आदि-जिनंदा, दुख पावत है वंदा' ॥सुनियो०॥टेक॥ खोसि ज्ञान धन कीनौ जिंदा (), डारि
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१ वारंवार ।
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( ३० )
ठगौरी धंदा ॥ सुनियो० ॥ १ ॥ कर्म दुष्ट मेरे पीछें लाग्यौ, तुम हो कर्मनिकंदा ॥ सुनियो० ॥ २ ॥ बुधजन अरज करत है साहिब, काटि कर्मके फंदा ॥ सुनियो० ॥३॥ (७३) राग - खंमाच ।
छवि जिनराई राजै है || छवि० ॥ टेक ॥ तरु अशोकतर सिंहासनपै, बैठे धुनि घन गाजै है || छवि० ॥ १ ॥ चमर छत्र भामंडलदुतिपै, कोटि भानदुति लाजै है । पुष्पवृष्टि सुर नभतैं दुंदुभि, मधुर मधुर सुर वाजे है ॥ छवि० ॥ २ ॥ सुर नर मुनि मिलि पूजन आवैं, निरखत मनड़ो छाजै छ । तीनकाल उपदेश होत है, भवि बुधजन हित काजै छै || छवि० ॥ ३ ॥
(७४)
राग - खमाच ।
ऐसा ध्यान लगावो भव्य जासौं, सुरग मुकति फल पावो जी ॥ ऐसा० ॥ टेक ॥ जामैं बंध परै नहिं आगें, पिछले बंध हटावो जी || ऐसा० ॥१॥ इष्ट अनिष्ट कल्पना छांड़ो, सुख दुख एक हि भावो जी । पर वस्तुनिसौं ममत निवारी, निज आतम लौ ल्यावो जी ॥ ऐसा० ॥ २ ॥ मलिन देहकी संगति छूटै, जामन मरन मिटावो जी । शुद्ध चिदानंद बुधजन है कै, शिवपुरवास बसावो जी ॥ ऐसा० ॥ ३ ॥
- (hou)
राग - खंमाच ।
"मेरा सांई तौ मोमैं नाहीं न्यारा, जानें सो जाननहारा ॥ मेरा० ॥ टेक ॥ पहले खेद सह्यौ विन जानें, अब सुख
'
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अपरंपारा ॥ मेरा०॥१॥ अनत-चतुष्टय-धारक ज्ञायक, गुन परजै द्रव सारा । जैसा राजत गंधकुटीमें, तैसा मुझमें म्हारा ॥ मेरा० ॥२॥ हित अनहित मम पर विकलपते, करम वंध भये भारा। ताहि उदय गति गति सुख दुखमें, भाव किये दुखकारा || मेरा० ॥३॥ काल, लवधि जिनआगमसेती, संशयभरम विदारा । वुधजन जान करावन करता, हों ही एक हमारा ॥ मेरा० ॥४॥
(७)
राग गारो जल्द तेतालो। म्हारी भी सुणि लीन्यो, हो मोकों तारणा, सुफल भये लखि मोरे नैन । म्हारी० ॥ टेक ॥ तुम अनंत गुन ज्ञान भरे हो, वरनन करत देव थकत हैं, कहि न सके' मुझ वैन ॥ म्हारी० ॥१॥ हम तो अनत दिन अनत भरम रहे, तुमसा कोऊ नाहिं देखिये, आनंदघन चित चन ॥ म्हारी० ॥२॥ वुधजन चरन गरन तुम लीनी, वांछा मेरी पूरन कीजे, संग न रहे दुखदैन ॥ म्हां ॥३॥
(७७)
राग-गारो कान्हरो।' यांका गुण गास्यां जी आदिजिनंदा ॥ थांका०॥ टेक ॥ थांका वचन सुण्यां प्रभु मून, म्हारा निज गुण, भास्यां जी ॥ आदि० ॥१॥ म्हांका सुमन कमलमैं निहि दिन, थांका चरन वसास्यां जी ॥ आदि० ॥ २॥ मूनें लगन लगी छै, सुख द्यो दुःख नसास्यां जी॥
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( ३२ )
॥ ३ ॥ वुधजन हरष हिये अधिकाई, शिवपुरवासा पास्यां जी || आदि० ॥ ४ ॥
(७८) राग-कान्हरो ।
हो मना जी, धारी वानि, बुरी छै दुखदाई ॥ हो० ॥ टेक ॥ निज कारिजमैं नेकु न लागत, परसौं प्रीति लगाई ॥ हो० ॥ १ ॥ या सुभावसौं अति दुख पायो, सो अब त्यागो भाई ॥ हो० ॥ २ ॥ वुधजन औसर भागन पायो, सेवो श्रीजिनराई ॥ हो० ॥ ३ ॥
(७९)
राग - गारो कान्हरो ।
हो प्रभुजी, म्हारो छै नादानी मनड़ो || हो० ॥ टेक ॥ हूं ल्यावत तुम पद सेवनकौं, यो नहिं आवत है-बगडो जी ॥ हो० ॥ १ ॥ याकौ सुभाव सुधारि दयानिधि, माचि रह्यौ मोटो झगड़ो जी ॥ हो० ॥ २ ॥ वुधजनकी विनती सुन लीजे, कंहजे शिवपुरको डगड़ो जी ॥ हो ० ॥३॥ (co)
1
रे मन मेरा, तू मेरो कह्यौ मान मान रे ॥ रे मन ० ॥ टेक ॥ अनत चतुष्टय धारक तूही, दुख पावत बहुतेरा ॥ रे मन० ॥ १ ॥ भोग विषयका आतुर हैकै, क्यों होता है चेरा ॥ रे मन० ॥ २ ॥ तेरे कारन गति गतिमाहीं, जनम लिया है घनेरा ॥ रे मन० ॥ ३ ॥ : जिनचरन शरन गहि बुधजन, मिटि जावै भव ॥ रे मन० ॥ ४ ॥
ܐ
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( ३३ )
(८१) ज्ञान विन थान न पावोगे, गति गति फिरोगे अजान ॥ज्ञान० ॥ टेक ।। गुरुउपदेश लह्यौ नहिं उरमैं, गह्यौ नहीं सरधान ॥ ज्ञान० ॥१॥ विषयभोगमै राचि रहे करि, आरति रौद्र कुध्यान । आन-आन लखि आन भये तुम, परनति करि लई आन ॥ ज्ञान० ॥२॥ निपट कठिन मानुष भव पायौ,और मिले गुनवान । अव बुधजन जिनमतको धारो, करि आपा पहिचान ॥ ज्ञान० ॥३॥
(८२)
राग-केदारो, एकतालो। अहो मेरी तुमसौं वीनती, सब देवनिके देव ॥ अहो. ॥टेक ॥ वे दूषनजुत तुम निरदूषन, जगत हितू स्वयमेव ।। अहो० ॥१॥ गति अनेकमैं अति दुख पायौ, लीनै जन्म अछेव । हो संकट-हर दे बुधजनकौं, भव भव तुम पदसेव ॥ अहो० ॥२॥
(८३)
राग-केदारो।। याही मानौं निश्चय मानौं, तुम विन और न मानौं ॥याही०॥ टेक ॥ अवलौं गति गतिमैं दुख पायौ, नहिं लायौ सरधानौं ॥ याही० ॥१॥ दुष्ट सतावत कर्म नि तर, करौ कृपा इन्हें भानौं । भक्ति तिहारी भव भव। जौलौ लहाँ शिवथानौं। याही० ॥२॥
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(३४) (.८४)
राग-सोरठ। भोगांरी लोभीड़ा, नरभव खोयौ रे अजान ॥ भोगांरा० ॥ टेक ॥ धर्मकाजको कारन थौ यौ, सो भूल्या तू बान । हिंसा अँनृत परतिय चोरी, सेवत निजकरि जान ॥ भोगांरा० ॥१॥ इंद्रीसुखमैं मगन हुवौ तू, परकों आतम मान । वंध नवीन पड़े छै यातें, होवत मौटी हान ॥ भोगांरा० ॥२॥ गयौ न कछु जो चेतौ वुधजन, पावौ अविचल थान । तन है जड़ तू दृष्टा ज्ञाता, कर ले यौं सरधान ॥ भोगांरा० ॥३॥
• म्हारी कौन सुने, थे तो सुनि ल्यो श्रीजिनराज॥ म्हारी० ॥ टेक ॥ और सरवमतलवके गाहक,म्हारौ सरत न काज। मोसे दीन अनाथ रंकको, तुमतें वनत इलाज ।। म्हारी० ॥१॥निज पर नेकु दिखावत नाही, मिथ्या तिमिर समाज । चंदप्रभू परकाश करौ उर, पाऊं धाम निजाज ॥ म्हारी० ॥२॥थकित भयो हूं गति गति फिरतां, दर्शन पायौ आज । वारंवार वीन वुधजन, सरन गहेकी लाज ॥ म्हारी० ॥३॥
(०८६)
राग-सोरठ। छिन न विसारी चितसौं, अजी हो प्रभुजी थान ॥छिन० ॥ टेक ॥ वीतरागछवि निरखत नयना, हरप 'भयो सो उर ही जाने । छिन० ॥१॥ तुम मत खारक हर १ भोगोंका लोभी।
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(३५) दाख चाखिकै, आन निमोरी क्यों मुख आनै । अब तौ सरनै राखि रावरी, कर्म दुष्ट दुख दे छै म्हांनै ॥ छिन० ॥२॥ वम्यौ मिथ्यामत अबत चाख्यौ, तुम भाख्यौ धाखौ मुझ काने । निशि दिन थांको दर्श मिलो मुझ, बुधजन ऐसी अरज वखाने । छिन० ॥३॥
(८७) वन्यौ म्हारे या घरीमै रंग ॥ वन्यौ० ॥ टेक ॥ तत्त्वारथकी चरचा पाई, साधरमीकों संग ॥ वन्यौ० ॥१॥ श्रीजिनचरन वसे उरमाहीं, हरप भयो सव अंग । ऐसी विधि भव भवमै मिलिज्यो, धर्मप्रसाद अभंगावन्यौ० ॥२॥
(८८)
राग-सोरठ। कीपर करौ जी गुमान, थे तो के दिनका मिजमान ॥कीपर० ॥ टेक ॥ आये कहांते कहां जावोगे, ये पर राखो ज्ञान ॥ कींपर० ॥१॥ नारायण वलभद्र चक्रवति, नाना रिद्धिनिधान । अपनी अपनी वारी भुगतिर, पहुंचे परभव थान ॥ कींपर० ॥२॥झूठ बोलि मायाचारीतै, मति पीड़ों परप्रान । तन धन दे अपने वश वुधजन, करि उपगार जहान ॥ कींपर०॥३॥
राग-सोरठ, एकतालो। चढाप्रभु देव देख्या दुख भाग्यौ । चंदा० ॥ टेक ।। धन्य देहाड़ो मन्दिर आयौ, भाग अपूरव जाग्यो । चंदा० १ नीमकी फली-निम्बोरी । 3 किमपर । ३ दिन ।
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(३६) ॥१॥ रह्यो भरम तव गति गति डोल्यौ, जनम-मरन-दौं दाग्यौ । तुमको देखि अपनपौ देख्यौ, सुख समतारस पाग्यौ ॥ चंदा० ॥२॥ अव निरभय पद वेग हि पोस्यों, हरष हिये यौ लाग्यो । चरनन सेवा करै निरंतर, वुधजन गुन अनुराग्यौ ॥ चंदा० ॥३॥
• राग-सोरठ। ज्ञानी थारी रीतिरौ अचंभौ मोनैं आवै छै ॥ ज्ञानी० ॥ टेक ॥ भूलि सकति निज परवश है क्यों, जनम जनम दुख पावै छै॥ ज्ञानी० ॥१॥ क्रोध लोभ मद माया करि करि, आपो आप फंसावै छै। फल भोगनकी वेर होय, तव, भोगत क्यों पिछतावै छै ॥ज्ञानी० ॥२॥ पापकाज करि धनकौं चाहै, धर्म विपैमैं बतावै छै । वुधजन नीति अनीति बनाई, सांचौ सौ बतरावै छै ॥ ज्ञानी० ॥३॥
अव घर आये चेतनराय, सजनी खेलौंगी मैं होरी ॥ अव० ॥टेक॥ आरस सोच कानि कुल हरिकै,धरि धीरज वरजोरी ॥ सजनी० ॥१॥ तुरी कुमतिकी वात न झै, चितवत है मोओरी । वा गुरुजनकी वलि वलि जाऊं,दूरि करी मति भोरी ॥ सजनी० ॥२॥ निज सुभाव जल हौज भराऊं, घोरूं निजरेंग रोरी । निज ल्यौं ल्याय शुद्ध पिचकारी, छिरकन निज मति दोरी ॥ सजनी० ॥३॥ गाय रिझाय आप वश करिके, जावन द्यौं नहि पोरी। बुधजन रचि मचि रहूं निरंतर,शक्ति अपूरव मोरी॥सजनी० ॥४॥
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(९२)
राग-सोरठ। - कर ले हो जीव, सुकृतका सौदा कर लै, परमारथ कारज कर लै हो । करि० ॥ टेक ॥ उत्तम कुलकौं पायकै, जिनमत रतन लहाय । भोग भोगवे कारनैं, क्यों शठ देत गमाय ॥ सौदा० ॥१॥ व्यापारी वनि आइयौ, नरभव हाट बजार । फल दायक व्यापार करि, नातर विपति तयार ॥ सौदा० ॥२॥ भव अनन्त धरतौ फिस्यौ, चौरासी वनमाहिं । अव नरदेही पायकैं, अघ खोवै क्यों नाहिं ॥ सौदा० ॥ ३॥ जिनमुनि आगम परखकै, पूजौ करि सरधान । कुगुरु कुदेवके मानतें, फिखौ चतुर्गति थान ॥ सौदा० ॥४॥ मोह नींदमां सोवतां, हूवौ काल अटूट । वुधजन क्यों जागौ नहीं, कर्म करत है लूट ॥ सौदा० ॥५॥
राग-सोरठ। . बेगि सुधि लीज्यो मारी, श्रीजिनराज ॥ वेगि० ॥ टेक ॥ डरपावत नित आयु रहत है, संग लग्या जमराज ॥ वेगि० ॥१॥ जाके सुरनर नारक तिरजग, सब भोजनके साज।ऐसौकाल हस्यौ तुम साहब, यातें मेरी लाज॥बेगि० ॥२॥ परघर डोलत उदर भरनकौं, होत प्रात” सांज। डूवत आश अथाह जलधिमैं, द्यो समभाव जिहाज । वेगि० ॥३॥ घना दिनाको दुखी दयानिधि, औसर पायौ आज । बुधजन सेवक ठाड़ी विनवै, कीज्यौ मेरौ काज ॥ वेगि० ॥४॥
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(३८)
राग-सोरठ। गुरुने पिलाया जी; ज्ञान पियाला ॥ गुरु० ॥ टेक ।। भइ वेखबरी परभावांकी, निजरसमैं मतवाला ।। गुरु०॥ १॥ यो तो छाक जात नहिं छिनहूं, मिटि गये आन जजाला । अदभुत आनंद मगन ध्यानमें, वुधजन हाल सझाला ॥ गुरु०॥२॥
(९५)
राग-सोरठ। मति भोगन राचौ जी, भव भवमै दुख देत घना ॥ मतिः ॥ टेक ।। इनके कारन गति गतिमाही, नाहक नाचौ जी । झूठे सुखके काज धरममैं, पाडौ खांची जी ॥ मति० ॥१॥ पूरव कर्म उदय सुख आयां, राचौ माचौ जी। पाप उदय पीड़ा भोगनमैं, क्यौं मन काचौ जी ॥ मतिः॥२॥ सुख अनन्तके धारक तुम ही, पर क्यों जांची जी । वुधजन गुरुका वचन हियामैं, जानौं सांची जी ।। मति० ॥३॥
(९६) थांका गुन गास्यां जी जिनजी राज, थांका दरसनते अघ नास्या॥थांका०॥ टेक ॥ थां सारीखा तीनलोकमैं, और न दूजा भास्या जी ॥ जिनजी० ॥१॥ अनुभव रसतें सींचि सींचिकै, भव आताप वुझास्यां जी । बुधजनको विकलप सब भाग्यौ, अनुक्रमतें शिव पास्यां जी ॥
...॥२॥
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(३९) (९७)
राग-सोरठ। हमकों कछु भय ना रे, जान लियो संसार ॥ हमको टंक ॥जो निगोदमें सो ही मुझमें, सो ही मोखमॅझार। निश्चय भेट कछ भी नाही, भेद गिर्ने संसार ॥ हमकों० ॥१॥ परवश 8 आपा विसारिक, राग दोषको धार । जीवत मरत अनादि कालतें, यों ही है उरझार ॥ हमकौं० ॥२॥ जाकरि जैसे जाहि समयमै, जो होतब जा द्वार । सोवनि है टरि है कछु नाही. करि लीनों निरधार॥हमको० ॥३॥ अगनि जरावे पानी वोचे, विठुरत मिलत अपार। सो पुद्गल रूपी में बुधजन, सबको जाननहार ॥ हमकों ॥४॥
(९८)
__ गग-सोरठ। आज तो वधाई हो नाभिद्वार ॥ आज० ॥ टेक ॥ मरुदेवी माताके उरम, जनमै ऋषभकुमार ।। आज० ॥१॥ सची इन्द्र सुर सब मिलि आये, नाचत है सुखकार । हरपि हरपि पुरके नरनारी, गावत मंगलचार ॥ आज० ॥२॥ ऐसौ वालक हूवो ताक, गुनको नाही पार । तन मन वचतें वंदत वुधजन, हे भव-तारनहार ॥ आज०॥२॥
सुणिल्योजीवसुजान,सीख सुगुरु हितकी कही ।। सुणिक ॥टेकरुल्यो अनन्तीवार, गतिगतिसाताना लही।सुणिः ॥१॥ कोइक पुन्य संजोग, श्रावक कुल नरगति लही।
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(४०)
मिले देव निरदोष, वाणी भी जिनकी कही । सुणि० ॥२॥ चरचाको परसंग, अरु सरध्यामैं वैठियो।ऐसा औसर फेरि, कोटि जनम नहिं भैटिवो । सुणि० ॥३॥ झूठी आशा छोडि, तत्त्वारथ रुचि धारिल्यो । यामैं कछु न विगार आपो आप सुधारिल्यो। सुणि० ॥४॥ तनको आतम मानि, भोग विषय कारज करौ । यौ ही करत अकाज, भव भव क्यों कूवे परौ ॥ सुणि० ॥५॥ कोटि ग्रंथको सार, जो भाई वुधजन करौ । राग दोष परिहार, याही भवसौं उद्धरौ।। सुणि० ॥६॥
(१००)
राग-सोरठ। अव थे क्यों दुख पावौ रे जियरा, जिनमत समकित धारौ ॥ अव० ॥ टेक ॥ निलज नारि सुत व्यसनी सूरख, किंकर करत बिगारौ । साहिब सूम अदेखक भैया, कैसे करत गुजारौ ॥ अव०॥१॥ वाय पित्त कफ खांसी तन दृग, दीसत नाहि उजारौ । करजदार अरुवेरुजगारी, कोऊ नाहिं सहारौ ॥ अव०॥२॥ इत्यादिक दुख सहज जानियौ, सुनियो अव विस्तारौ । लख चौरासी अनत । भवनलौं, जनम मरन दुख भारौ॥ अव०॥३॥ दोपरहित जिनवरपद पूजौ, गुरु निरग्रंथ विचारौ । बुधजन धर्म दया उर धारी, व्है है जै जैकारौ ॥ अब० ॥४॥
(१०१)
राग-सोरठ। - म्हारौ मन लीनौ छै थे मोहि, आनंदघन जी॥ म्हारो०
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(४१)
॥ टेक ॥ ठौर और सारे जग भटक्यौ, ऐसो मिल्यौ नहिं कोय । चंचल चित मुझि अचल भयो है, निरखत चरनन तोय ॥ म्हारो० ॥१॥ हरप भयो सो उर ही जानें, वरनौं जात न सोय । अनतकालके कर्म नसँग, सरधा आई जोय ॥ म्हारो० ॥२॥निरखत ही मिथ्यात मिट्यो सव, ज्या रविते दिन होय । वुधजन उरमें राजो नित प्रति, चरनकमल तुम दोय ॥ म्हारो० ॥३॥
(१००)
गग-सोरठ। आनंद हरप अपार, तुम भैंटत उरमै भया ॥ आनंद० ॥ टेक ॥ नास्या तिमिर मिथ्यात, समकित सूरज ऊगिया। आनंद० ॥१॥ मिटि गयो भव आताप, समता रससौं सीचिया । जान्या जगत असार, निज नरभवपद लखि लिया ॥ आनंद० ॥२॥ परमौदारिक काय, शुद्धातम पद तुम धरे । दोप अठारे नाहिं, अनत चतुष्टय गुन भरे॥ ॥ आनंद० ॥३॥ उपजी तीर्थविभूति, कर्म घातिया सव हरे।तत्त्वारथ उपदेश, देव धर्म सनमुख करे। आनंद० ॥४॥ शोभा कहिय न जाय, सिंहासन गिर मेरसों 10 कलपवृक्षके फूल, वरपत हैं चहुंओरसौं ॥ आनंद ॥ ५॥ वाजत दुंदभि जोर, सुनि हरपत भवि घोरसौं । भामडल भव देखि, छूटत हैं भवि सोरसौ ॥ आनंद० ॥६॥ तीन छत्र निशि चंद, तीन लोक सेवा करें। चौसठ चमर सफेद, गंधोदकसे सिर ढरें ॥ आनंद० ॥ ७ ॥ वृक्ष
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(४२) अशोक अनूप, शोक सरव जनकौ हरै। उपमा कहिय न जाय, वुधजन पद वंदन करै । आनँद ॥८॥
(१०३) __. राग-विहाग। सीख तोहि भाषत हूं या, दुख मैंटन सुख होय ॥ सा. ख०॥ टेक ॥ त्यागि अन्याय कषाय विषयकौं, भोगि न्याय ही सोय ॥ सीख० ॥१॥ मंडै धरमराज नहिं दंडे, सुजस कहै सब लोय । यह भी सुख परभौ सुख हो है, जन्म जन्म मल धोय ॥ सीख० ॥२॥ कुगुरु कुदेव । कुधर्म न पूजौ, प्रान हरौ किन कोय । जिनमत जिनगु
रु जिनवर सेवौ, तत्त्वारथ रुचि जोय ।। सीख० ॥ ३ ॥ हिंसा अँनृत परतिय चोरी, क्रोध लोभ मद खोय । दया दान पूजा संजम कर, वुधजन शिव है तोया सीख०॥४॥
(१०४) तेरौ गुन गावत हूं मैं, निजहित मोहि जताय दे॥ते. रौ० ॥ टेक ॥ शिवपुरकी मोकौं सुधि नाही, भूलि अनादि मिटाय दे ॥ तेरौ० ॥१॥ भ्रमत फिरत हूं भव वनमाही, शिवपुर वाट वताय दे । मोह नींदवश घूमत हूं नित, ज्ञान बधाय जगाय दे॥तेरौ० ॥२॥ कर्म शत्रु भव भव दुख दे हैं, इनतें मोहि छुटाय दे । वुधजन तुम चरना सिर नावै, एती वात वनाय दे ॥ तेरौ०॥३॥
(१०५)
राग-विहाग। वावला हो गया ॥ मनुवा० ॥ टेक- परवश
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(४३) वसतु जगतकी सारी, निज वश चाहै लया ।। मनुवा० ॥ १॥ जीरन चीर मिल्या है उदय वश, यो मांगत क्यों नया ॥ मनुवा० ॥२॥ जो कण वोया प्रथम भूमिमैं, सो कब औरै भया ॥ मनुवा० ॥३॥ करत अकाज आनको निज गिन, सुधपद त्याग दया ॥ मनुवा०॥४॥ आप आप चोरत विषयी है, वुधजन ढीठ भया ॥ मनुवा० ॥५॥
(१०६) भज जिन चतुर्विंशति नाम ॥ भजि० ॥ टेक ॥ जे भजे ते उतरि भवदधि, लयौ शिव सुखधाम ॥ भज०॥ १॥ ऋषभ अजित संभव स्वामी, अभिनंदन अभिराम । सुमति पदम सुपास चंदा, पुष्पदंत प्रनाम ।। भज० ॥२॥ शीत श्रेयान् वासुपूजा, विमल नन्त सुठाम । धर्म सांति जु कुंथु अरहा, मल्लि राखै माम ॥ भज० ॥ ३ ॥ मुनिसुवृत नमि नेमिनाथा, पार्स सन्मति स्वाम । राखि निश्चयजपो वुधजन, पुरै सवकी काम ॥ भज० ॥ ४ ॥
(१०७)
राग-मालकोस। अव तू जान रे चेतन जान, तेरी होवत है नित हान ।। अव० ॥ टेक ॥ रथ वाजि करी असवारी, नाना विधि भोग तयारी । सुंदर तिय सेज सँवारी, तन रोग भयौ या ख्वारी ॥ अव० ॥१॥ ऊंचे गढ़ महल बनाये, वहु तोप सुभट रखवाये । जहाँ रुपया मुहर धराये, सब
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('४४ ) छोड़ि चले जम आये ॥ अव० ॥२॥ भूखा है खाने लागै, धाया पट भूषण पागै । सत भये सहस लखि मांगे, या तिसना नाही भागै ॥ अव० ॥३॥ ये अथिर सौज परिवारी, थिर चेतन क्यों न सम्हारौ । वुधजन ममता सव टारौ, सव आपा आप सुधारौ ॥ अव० ॥४॥
(१०८) राग-कालिंगड़ो परज धीमो तेतालो। म्हे तो थांका चरणां लागां, आन भावकी परणति त्यागां ।। म्हे० ॥ टेक ॥ और देव सेया दुख पाया, थे पाया छौ अव वड़भागां ॥ म्हे० ॥१॥ एक अरज म्हांकी सुण जगपति, मोह नींदसौं अवकै जागां । निज सुभाव थिरता बुधि दीजे, और कछू म्हे नाहीं मांगां ॥ म्हे० ॥२॥
(१०९)
राग-कालिंगड़ो। आज मनरी बनी छै जिनराज ॥ आज० ॥ टेक ॥ थांको ही सुमरन थांको ही पूजन, थांको ही तत्त्वविचार ॥ आज० ॥१॥थांके विछुरै अति दुख पायौ, मोपै कह्यौ न जाय । अव सनमुख तुम नयनौं निरखे, धन्य मनुष परजाय ॥ आज० ॥२॥ आज हि पातक नास्यो मेरौ, ऊतरस्यौं भव पार । यह प्रतीत वुधजन उर आई, लेस्यों शिवसुख सार ।। आज०॥३॥
(११०) हे जी म्हे निशिदिन ध्यावां, ले ले वलहारियां ॥ होजी०
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(१५) कालोकालोक निद्वारक खामी. द न हमारियां ॥ होती॥१॥ घट चालीनों गुन धारक, दोष अठारह टालियां बुधवन भरने आयी यांक, ये गरणागत पालियां हो जी ॥२॥
गर-परजा हनों भा राज यांनं अरज भरांछां, मानों महाराज ॥ ॥ टंक ।। कंवलज्ञानी त्रिभुवननामी, अंतरजामी सिरताज ।। न्हे ॥१॥नाह त्रु बोटी नंग लाग्यो, व. हुत र ई अनाजायात बेगि बचावा स्वानं, शन न्हाकी लाज ॥ हे॥२॥ चार डाल अनेक बार, गांव न्याल मृगराज | नौ बुवजन किंकरके हितम. बील कहा जिनराज ॥ न्हे ॥६॥
राग कालिंगड़ी। कुमतीको कारज कृती, हो जी ॥ कुमतीटेक॥ . यांकी नारि अगनी मुमती, मतो कह है रबाजी। कुन्नती० ॥ १॥ अनन्तानुबंधीकी जाइ, त्रांव लोभ मद भाई। माया बहिन पिता मिथ्यामत, या कुल कुमती पाईजी। कुमती० ॥२॥ घरको ज्ञान धन वादि लुमात्र, राग दोष सजा । तब निवल लखि पकार करन रिस, गति गति नात्र नचात्र । कुनती० ॥३॥ या परिकरसों ममत निवारी, बुवजन नीर सन्तारी । घरममुना मुमती 5ग रात्री, मुक्ति महलम पधारी ।। कुमती॥४॥
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( ४६ )
( ११३). राग - कालिंगड़ो |
अजी हो जीवा जी थां श्रीगुरु कहै छै, सीख मानौं जी ॥ अजी० ॥ टेक ॥ विन मतलवकी थे मति मानौं; मतलवकी उर आनौं जी ॥ अजी ० ॥ १ ॥ राग दोषकी परनति त्यागौ, निज सुभाव थिर ठानौं जी । अलख अभेद रु नित्य निरंजन, थे बुधजन पहिचानौं जी ॥ अजी ०
॥ २ ॥
D
(998)0
हूं कब देखूं वे मुनिराई हो || हूं० ॥ टेक ॥ तिल तुष मान न परिग्रह जिनकें, परमातम ल्यौं लाई हो ॥ हूं० ॥ १ ॥ निज स्वारथके सव ही बांधव, वे परमारथभाई हो । . सब विधि लायक शिवमगदायक, तारन तरन सदाई हो ॥ हूं० ॥ २ ॥
( ११५)
आयौ जी प्रभु थांपै, करमारौ पीड़यौ आयौ | आयौ ० ॥ टेक ॥ जे देखे तेई करमनि वश, तुम ही करम नसायौ ॥ आयौ ॥ १ ॥ सहज स्वभाव नीर शीतलको, अगनि कपाय तपायौ । सहे कुलाहल अनतकालमैं, नरक निगोद डुलायौ ॥ आयौ० ॥ २ ॥ तुम मुखचंद निहारत ही अव, सब आताप मिटायौ । बुधजन हरष भयौ उर ऐसे, रतन चिन्तामनि पायौ ॥ आयौ ० ॥ ३ ॥
( ११६ ) राग- परज ॥
महाराज, थानें सारी लाज हमारी, छत्रत्रयधारी ॥
"
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(४७) महाराज० ॥ टेक ॥ मैं तो थारी अद्भुत रीती, नीहारी हितकारी ।। महाराज ॥१॥ निंदक तो दुख पावै सहजे, वंदक ले सुख भारी। असी अपूरव वीतरागता, तुम छविमाहिं विचारी ॥ महाराज० ॥२॥राज त्यागिक दीक्षा लीनी, परजनप्रीति निवारी । भये तीर्थकर महिमाजुत अव, संग लिये रिधि सारी ॥३॥ मोह लोभ क्रोधादिक मारे, प्रगट दयाके धारी । वुधजन विनवै चरन कमलको, दीजे भक्ति तिहारी ॥ महाराज०॥४॥
(१०७) मुनि वन आये बना । मुनि० ॥ टेक ॥ शिव वनरी व्याहनको उमगे, मोहित भविक जना ॥ मुनि० ॥१॥ रतनत्रय सिर सेहरा वांधे, सजि संवर वसनासंग वराती द्वादश भावन, अरु दशधर्मपना ।। मुनि० ॥२॥ सुमति नारि मिलि मंगल गावत, अजपा (१) गीत घना । राग दोपकी अतिशवाजी, छूटत अगनि-कना । मुनि० ॥३॥ दुविधि कर्मका दान वटत है. तोपित लोकमना । शुकल ध्यानकी अगनि जला करि, होम कर्मघना ॥ मुनि०॥४॥ शुभ वेल्यां शिव वनरि वरी मुनि, अदभुत हरप बना। निज मंदिर, निश्चल राजत, वुधजन त्याग घना ॥ मुनि० ॥५॥
(१९८) लख जी आज चंद जिनंद प्रभूकों, मिथ्यातम मम भागौ ॥ लखें टेक ॥ अनादिकालकी तपति मिटी सव,
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(४८) सतौ जियरौ जागौ । लब० ॥१॥ निज संपति निजहीमैं पाई, तव निज अनुभव लागौ । वुधजन हरपत आनंद वरषत, अमृत झरमैं पागौ ॥ लखें० ॥२॥
(११९) थे म्हारे मन भायाजी चंद जिनंदा, बहुत दिनामैं पाया छौ जी ॥ ३० ॥ टेक ॥ सव आताप गया ततखिन ही, उपज्या हरष अमंदा ॥थे० ॥१॥ जे मिलिया तिन ही दुख भरिया, भई हमारी निंदा । तुम निरखत ही भरम गुमाया, पाया सुखका कंदा ॥ थे०॥२॥ गुन अनन्त मुखतें किम गाऊं, हारे फनिंद मुनिंदा । भक्ति तिहारी अति हितकारी, जॉचत वुधजन वंदा । थे०॥ ३ ॥
(१२०) मैं ऐसा देहस बनाऊं, ताकै तीन रतन मुक्ता लगाऊं ॥ मैं० ॥ टेक ॥ निज प्रदेसकी भीत रचाऊं, समता कुली धुलाऊंचिदानंदकी मूरति थापूलखिलखि आनंद पाऊं
मैं ॥ १॥ कर्म किजोड़ा तुरत वुहारूं, चादर दया विछाऊं । क्षमा द्रव्यसौं पूजा करिकै, अजपा गान गवाऊं ॥ मैं० ॥॥२॥ अनहद वाजे वजे अनौखे, और कडू नहिं चाऊं । वुधजन यामैं वसौ निरंतर, याही वर मैं पाऊं। मैं ॥३॥
(१२१) • राग-गजल रेखता कालिंगड़ो। नरदेहीको धरी तो कछू धर्म भी करो । विषयोंके संग राचि क्यों, नाहक नरक परो । नर० ॥ टेक ॥ चौरासि
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(४९) लाख जॉनि तैन, केई वार धरी । तू निजसुभाव पागिकै, पर त्याग ना करी। नर० ॥१॥तू आन देव पूजता है, होय लोभमें । तू जान पूछ क्यों पर, हैवान कूपमें ॥ नर० ॥२॥ है धनि नसीव तेरा जन्म, जैनकुल भया । अवतो मिथ्यात छोड़ दे, कृतकृत्य हो गया । नर० ॥३॥ पूरवजनममें जो करम, तूने कमाया है । ताके उदको पायके, सुख दुःख आया है । नर० ॥ ४ ॥ भला बुरा मान मती, तू फेरि फॅसैगा । वुधजनकी सीख मान, तेरा काज सधगा ॥ नर० ॥५॥
(११) ऋपभ तुमसे स्वाल मेरा, तुही है नाथ जगकेरा ॥ऋ. पभ० ॥ टेक ।। सुना इंसाफ है तेरा, विगरमतलब हितू मेरा ॥ तपभ० ॥१॥ हुई अर होयगी अव है, लखो तुम ज्ञानमें सब है । इसीसे आपसे कहना, औरसे गरज क्या लहना ॥ ऋपभ०॥ २॥ न मानी सीख सतगुरकी, न जानी बाट निज घरकी। हुआ मद मोहमें माता, घने विपयनके रंग राता ॥ ऋपभ० ॥३॥ गिना परद्रव्यको मेरा, तवं वसु कर्मने घेरा । हरा गुन ज्ञान धन मेरा, करा विधि जीवको चेरा ॥ ऋपभ० ॥ ४ ॥ नचावै स्वांग रचि मोकॉ, कहूं क्या खवर सब तोकों । सहज भइ वात अति वॉकी, अधमको आपकी झॉकी ।। ऋपभ० ॥ ५ ॥ कहूं क्या तुम सिंफत सांई, बनत चर्हि इन्द्रसों गाई ।
१ सवाल-याचनाका प्रश्न- २ प्रगमा।
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i
( ५० )
तिरे भविजीव भव सरतें, तुम्हारा नाव उर धरतें ॥ ऋपभ० ॥ ६ ॥ मेरा मतलब अवर नाहीं, मेरा तो भाव मुझमाहीं । वाहि पर दीजिये थिरता, अरज वुधजन यही
करता ॥ ऋषभ० ॥ ७ ॥
( १२३ )
दुनियांका ये हवाल क्यों पहिचानता नहीं । दिन आफतव ऊगा, सो रैनको नहीं || दुनि० ॥ टेक ॥ तनसेति तेरी एकता, क्यों भानता नही । होता है जाना स्यात स्यात, जानता नहीं ॥ दुनि० ॥ १ ॥ नित भूख प्यास शीत धाम, देह व्यापतैं । तू क्यों तमोशवीन दुखी, मान आपतैं | दुनि० ॥ २ ॥ दिलंचंदगी दिलेंगीरी व्है निज, पुन्य पापतैं । (फिर) करमजाल फँसता क्यों, करि विलाप तैं ॥ दुनि० ॥ ३ ॥ मतलव गरजी ये सब, कुटुंब घरभरा मतवाय चढ़ी तेरे, किन सीर ना करा | दुनि० ॥ ४ ॥ इनकी खुशामदीसे, तू केई वार मरा । इतना सयान लीजे, इन वीच क्यों परा ॥ दुनि० ॥ ५ ॥ आई हैं बुलबुल शॉमको, सब ओर ओरतें । करि रैनका वसेरा, 'बिछुरेंगी भोरतें || दुनि० ॥ ६ ॥ इनपै न नेकु रीझो, खीजो न जोरतें । भोगोगे विपति भौ भौ, मिथ्यात दौर - तैं | दुनि० ॥ ७ ॥ वाजीगरोंका ख्याल जैसा, लोकस'स्पदा | इसके दिमाकसेती, दोजकमें झंपदा ॥ दुनि० ॥
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१ सूर्य । २ तमाशा देखनेवाला । ३ खुशी । ४ रज । ५ सध्याको । घमंडसे |
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( ५१ ) ८॥ जल्दी परेज कीजे, परके मिलापका । दिलमस्त रहो वुधजन, लखि हाल आपका ॥ दुनि० ॥९॥
(१२४) इस वक्त जो भविकजन, नहिं सावधान होगा । इस गाफिलीसे तेरा, खाना खराव होगा । इस०॥ टेक ॥मिथ्यातका अँधेरा, गम नाहिं मेरा तेरा । दिन दोयका वसेरा, चलना सितोव होगा। इस० ॥१॥ जेवर जहान'माई, दामिनि ज्यों दे दिखाई। इसपै गरूरताई, जिससे
जवाल होगा । इस०॥२॥ ज्वानीमें हुवा जॉलिम, सव देखते हि औलम । रमता विरानी वालम, यातै वेहाल 'होगा । इस० ॥३॥ झूठे मँजेकेमाई, सव जिंदगी गमाई। अजहूँ सॅतोप नाहीं, मरना जरूर होगा । इस०॥ ४ ॥ जीवोंपै मिहर दीजे, जोरूं-परेज कीजे । जरंका न लोभ लीजे, वुधजन संवाव होगा ॥ इस० ॥५॥
(१२५) कोई भोगको न चाहो, यह भोग वंदै वला है।कोई० ॥ टेक ।। मिलना सहज नहीं है, रहनेकी गम नहीं है, "सेनें-सेती सुनी है, रावनसा खाक मिला है ॥ कोई० . ॥॥ वानीते हिरन हरिया, रसनात मीन मरिया, करनी 'करी पंकरिया, पावक पतँग जला है ॥ कोई० ॥१॥ अलि नासिकाके काजै, वसिया है कौले-मांजै, जव होय
१ परहेज-त्याग । २ जल्दी। ३ खरावी। ४ जुल्मकरनेवाला-अन्यायी। ५ मनुष्य । ६ स्त्री। ७ मजे । ८ स्त्री-साग । ९धनका । १० पुण्य । ११ बुरी वला है । १२ सेवन करनेसे। १३ हथिनी । १४ हाथी। १५ पकड़ा गया।
१६ कमलमें।
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( ५२ )
गई सांजै, ततखिन पिरान दला है | कोई ० ॥ २ ॥ वि - पयोंसे रागताई, ले जात नर्कमाई, कोई नहीं सहाई,. काटें तहां गला है | कोई ० ॥ ३ ॥ बुधजनकी सीख लीजे, आतुरता त्याग दीजे, जलदी संतोष कीजे, इसमें तेरा भला है | कोई ० ॥ ४ ॥
·
( १२६ )
चन्दजिन विलोकवेतें, फंद गलि गया । धंद सब जगतके विफल, आज लखि लिया || चंद० ॥ टेक ॥ शुद्ध, चिदानंद - खंध, पुद्गल के माहिं । पहिचान्या हममें हम, सं-शय भ्रम नाहिं ॥ चंद० ॥ टेक ॥ सो न ईस सो न दास, सो नहीं है रंक | ऊंच नीच गोत नाहिं, नित्य है निशंक || चंद० ॥ १ ॥ गंध वर्न फरस स्वाद, वीस गुन नहीं । एक आतमा अखंड, ज्ञान है सही ॥ चंद० ॥ २ ॥ परकौं जानि ठानि परकी, वानि पर भया, परकी साथ दुनियांमैं, खेदकों लया ॥ चंद० ||३|| काम क्रोध कपट मान, लोभकौं करा । नारकी नर देव पशू होयके फिरा ॥ चंद० ॥ ४ ॥ ऐसे वखतके बीच ईस, दरस तुम दिया । मिहरवान होय दास आपका किया ॥ चंद० ॥५॥ जौलौं कर्म काटि मोख धाम ना, & गया । तौलौं बुधजनकौं शर्न राख करि मया ॥ चंद० ॥६॥
.
(- १२७ )
/ मद मोहकी शराव पी खराब हो रहा । बकता है वे - हिसाव ना कितावका कहा || मद० ॥ टेक ॥ देता नहीं
१ प्राण ।
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( ५३ : (जवान तुझे क्या गरूर है। ये वक्त चला जाता, इसकी .जरूर है ।। मद० ॥१॥ र जिंदगी जवानी, जाहिर' जहानमें । सव सपनेकी दौलत, रहती न ध्यानमें ॥ मर० ॥२॥ झूठे मजेकेमाहीं, सव सम्पदा दई । तेरे ओकूप (१) सेती, तू आपदा लई ॥ मद० ॥३॥ साहिब है सभीका ये, इसक क्या लिया। करता है स्वाल सवपै, वेशर्म हो गया ॥ मद०॥४॥ निज हालका कमाल है, सम्हाल तो करो। सव साहिवी है इसमें, बुधजन निगह धरो॥ मद०॥५॥
(१२८)
राग-मल्हार । हो राज म्हें तो वारी जी, थांन देखि ऋषभ जिन जी, अरज करूं चित लाय ॥ हो० ॥ टेक ॥ परिग्रहरहित सहित रिधि नाना, समोसरन समुदाय । दुष्ट कर्म किम जीतियो जी, धर्म क्षमा उर ध्याय ॥ हो०॥१॥ निंदनीक दुख भोगवे, वंदक सव सुख पाय । या अदभुत वैरागता जी, मोते वरनी न जाय ॥ हो० ॥२॥ आन देवकी मानते, पाई वहु परजाय । अव वुधजन शरनों गोजी, आवागमन मिटाय ॥ हो० ॥३॥
(१२९)
राग-मल्हार। देखे मुनिराज आज जीवनमूल वे॥ देखे० टेक ॥ सीस लगावतसुरपति जिनकी, चरन कमलकी धूल वे॥दे० ॥१॥
घमड । २धन।
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(५४) सूखी सरिता नीर बहत है, वैर तज्यौ मृग सूर वे। चालत मंद सुगंध पवन वन, फूल रहे सव फूल वे ॥ देखे० ॥२॥ तनकी तनक खबर नहिं तिनकौं, जर जावी जैसे तूल वे। रंक रावतें रंच न ममता, मानत कनकौं धूल वे॥ देखे० ॥३॥ भेद करत हैं चेतन जड़कौ, मैंटत हैं भवि-भूल वे। उपगारक लखि वुधजन उरमैं, धारत हुकम कवूल वे ॥ देखे० ॥४॥
(१३०)
राग-मल्हार। जगतपति तुम हौ श्रीजिनाई॥जगत० ॥ टेक । और सकल परिग्रहके धारक, तुम त्यागी हौ सांई ॥ जगत०) ॥१॥गर्भमास पँदरै लौ धनपति, रत्नवृष्टि वरसाई। जनम समय गिरिराज शिखरपर, न्हौंन कस्यौ सुरराई ॥ जगत० ॥२॥ सदन त्यागि वनमैं कच लौंचत, इंद्रन पूजा रचाई । सुकलध्यानः केवल उपज्यौ, लोकालोक दिखाई ॥ जगत० ॥३॥ सर्व कर्म हरि प्रगटी शुद्धता, नित्य निरंजनताई । मनवचतन बुधजन वंदत है, यो समता सुखदाई ॥जगत० ॥४॥
(१३१) । अहो! अव विलम न कीजे हो। भवि कारज कर लीजे हो ।। अहो॥ टेक ॥ चौरासी लख जौनिवीचमैं, नरभव कव लीजे ॥ अहो० ॥१॥ श्रवन अंजुली धारि जिनेश्वर, वचनामृत पीजे । निज स्वभावमैं राचि पराई, परनति तजि दीजे ॥ अहो० ॥२॥ तनक विषयहित
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काल अनन्ता, भव भव क्यों छीजे । वुधजन जिनपद सेय सयान, अजर अमर जीजे ॥३॥
(१३२)
राग-गौड़ मल्हार। सुरनरमुनिजनमोहनको मोहि, दर्शन देखन दैरी ॥ भव भरमनते दुखी फिरत हूं, अव जिन चरनन रहने दै॥ सुर० ॥१॥ सूर स्याल कपि सिंह न्यौलकी, विपति हरी इन सरनों दै । वलिहारी वुधजन या दिनकी, बड़े भाग पद परसन दै ।। सुर० ॥२॥
(१३३)
राग-रेखता। अरज जिनराज यह मेरी, इसा औसर वतावोगे । अरज० ॥ टेक ॥ हरो इन दुष्ट करमनको, मुकतिका पद दिलावोगे ॥ अरज०॥१॥ करूं जव भेप मुनिवरका, अवर विकलप विसारूंगा। रहूंगा आप आपेमें, परिग्रहको विडारूंगा ॥अरज० ॥२॥ फिऱ्या संसार सारमें, दुखी में सव लख्या दुखिया । सुनत जिनवानि गुरुमुखिया, लख्या चेतन परम सुखिया ॥ अरज० ॥३॥ पराया आपना जाना, बनाया काज मन माना । गहाया कुगति तैखाना, लहाया विपति विललाना ॥ अरज०) ॥४॥ जगतमें जनम अर मरना, डरा में आ लिया शरना । मिहर वुधजनपै या करना, हरो परते ममत धरना ।। अरज० ॥५॥
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(५६)
(१३४) परमजननी घरमकथनी, भवार्णवपारको तरनी ।। परम०॥ टंक ॥ अनच्छरि घोष आपतकी, अछरजुत गनधरौं बरनी ॥ परम०॥ १॥ 'निखेपी-नयनुजोगनितें, भविनकों तत्त्व अनुसरनी । विथरनी शुद्ध दरसनकी, मियातम मोहकी हरनी ॥ परम० ॥२॥ मुकति मंदिरके चढ्नकों, मुगमसी सरल नीसरनी । अँधेरे कूपमै परतां, जगतउद्धारकी करनी ॥ परम०॥३॥ तृपाक ताप मेटनकों, करत अम्रत वचन झरनी । कथंचित्वाद आदरनी, अवर एकान्त परिहरनी ॥ परम० ॥४॥ तेरा अनुभौ . करत मोका, बनत आनंद उर भरनी । फियो संसार दुखिया हूं,गही अव आनि तुम सरनी ॥५॥ अरज बुधजनकी मुन जननी, हरी मेरी जनम मरनी । नमूं कर जोरि मन वचत, लगाके सीसकों धरनी ॥ परम०॥६॥
(१३)
राग-विलावल। मेरे आनंद करनकों, तुम ही प्रभु पूरा ॥ मेरे० ॥ टेका और सबै जगमैं लखे, दूपनजुत कूरा ॥ मेरे० ॥१॥ मोह शत्रुके हरनकों, तुम ही हो सूरा । मोकों मोह दवात है, कर याकौं दूरा ।। मेरे० ॥२॥ केवलज्ञान छिपात है, ताको करि चरा।ज्यों प्रगटें मोमाहिके, नाना गुन भूरा । मेर०॥३॥ वुधजन विनती करत है, जिन
१ आम-मचे टवक्री। २ निक्षेप नयके अनुयोगसे । ३ विन्तारनी । ४ न. 'नी! ५ म्याद्वाद।
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( ५७ )
चरन हजूरा । मेरौ संकट मैटिये, बाजै ज्यों
मेरे० ॥ ४ ॥
तूरा ॥
( ० १३६ )
राग- परज मारू ।
जिनवानी प्यारी लागे छै महाराज | सत्र दुखहारी अति सुखकारी ॥ जिनवानी० ॥ टेक ॥ अनंत जनमके कर्म मिटत है, सुनत हि तनक अवाज || जिनवानी० ॥१॥ षट द्रव्यनको कथन करत है, गुन परजाय समाज । हेयाय बतावत सिगरे, कहत है काज अकाज ॥ जिनवानी० ॥ २ ॥ नय निखेप परमाण वचनतें, परमत हरत मिजाज । बुधजन मन वांछा सव पूरै अंमृत स्याद अवाज ॥ जिनवानी० ॥ ३ ॥
(• १३७ )
आयो प्रभु तोरे दरवार, सब मो कारज सरिया ॥ आयो० ॥ टेक ॥ निरखत ही तुम चरनन ओर, मोह तिमिर मो हरिया || आयो० ॥ १ ॥ मैं पाई मेरी निधि सार, अवल रह्या विसरिया । अब हूवा उर हरष अपार, कृत्य कृत्य तुम करिया || आयो० ॥ २ ॥ जड़ वेतन नहिं मान्या भेद, राग दोष जव धरिया । तव हूवा ये निपट कुज्ञान, करम बंधमै परिया ॥ आयो० ॥३॥ इष्ट अनिष्ट सँजोगन पाय, दुष्ट दवानल जरिया । तुम पाये वड़भागनि जोग, निरखत हिय गया हरिया ॥ आयो ० ॥ ४ ॥ धारत ही तुम वानी कान, भरम भाव सवग
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(५८) रिया । बुधजनके उर भई प्रतीत, अव भवसागर तरिया ॥ आयो० ॥४॥
(१३८) ऐसे प्रभुके गुनन कोउ कैसे कहै ॥ ऐसे० ॥ टेक ॥ दरस ज्ञान सुख वीर्ज अनन्ता, और अनंत गुन जामै रहै ॥ ऐसे० ॥१॥ तीन काल परजाय द्रव्य गुन, एक समय जाको ज्ञान गहै । ऐसे० ॥२॥ जो निज शक्ति गुपत छी अनादी, सो सव प्रगट अव लहलहै । ऐसे० ॥३॥ नंतानंत काललौंजाको, सांत सुथिर उपयोग बहै। ऐसे०॥४॥ मन वच तनतें बंदत वुधजन, ऐसे गुननकौं आप चहै , ॥ ऐसे० ॥५॥
. (१३९)
राग-ठुमरी। अब हम निश्चय जान्या हो जिन तुम सरन सहाई। जनम मरनका डर है जगमैं, रोग सोग दुखदाई ॥ अव० ॥ टेक ॥ तुमकौं सेवत समता आई, विपता तुरत भगाई ॥ अव०॥१॥ अनंत कालमैं जीव अनन्ते, तुमतै शिवगति पाई । अबहूं भविजन तुमतें तिरहैं, ये आगममैं गाई । अब० ॥२॥ शत्रु मित्र तेरे कोऊ नहिं, सुख साता यौं · आई। अपना भला चहत जे बुधजन, तोकौं सेवें भाई ॥ अब० ॥३॥
(१४०)
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सुन करि वानी जिनवरकी म्हारै, हरप हि न समाय ॥ सुन० ॥ टेक ॥ अनादि कालकी तपन बुझाई, निज
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निवि मिली अघार जी ॥ सुनः॥१॥ मंगय भर्म विप. जय नासा, मन्यक बुधि उपजाय जी || सुन० ॥२॥ अब निरभयपद पाया उरमें वर्दी मन वत्र काय जी|सुनः ॥३॥ नरभव सुफल भया नब मेरा, वुधजन भैंटत ‘पाय जी ।। सुन० ॥३॥
(४)
र अल्ल्या बिलावल। गाफिल हूवा क्या तू डोले, दिन जाता है भरतीमें "गाफिल।क।चौकस करी रहत है नाही, चों अँजुली जल झरतीमैं । एनं तेरी आयु घटत है, बचे न बिरियां मरतीम ॥ गाफिल०॥१॥ कंठ व तब नाहिं बनेगा, नाज बना ले नरती। फिर पछताये कडून होगा, कृप सुदै नहिं बरतीम ।। गाफिल०॥२॥मानुष भव तरा श्रावक कुल, कठिन मिल्या है धरतीम । बुवजन भवधि उतरी चर्दिक, समनित नवका तिरतीम ।। गाफिल०॥३॥
(१४२) सुमरी क्यों ना चन्द जिनमुर, ज्या भवभवकी विपति हरी । मुमरी०॥ टेक ।। सुरपति नरपति पूजत जिनकी, सन्मुख फनपति नमत वरौ ॥ सुमरो० ॥१॥ तन धन परिजन-मांझ लुमाकर, क्यों करमनके फंद परी ।। सुमरी० ॥२॥ मिथ्या तिमिर अनादि रोग हग, दरसन करिक परौ करो। सुनरी० ॥३॥ विषय भोगमैं रात्रि रह क्यों, यातें गति गति विपति भरौ ।। सुमरी०॥४॥ बुधजन
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( ६० )
आतम ध्यान नाव चढ़ि, भवसागरकौं बेगि तिरौ ॥ सुमरौ० ॥ ५ ॥
( ० १४३ ) राग-लूहरि सारंग । {"
प्रभु जी चन्द जिनंदा म्हें तौ थांका चरनन बंदा ॥ प्रभु जी० ॥ टेक ॥ अनादिकालके देत करम दुख, डारि नंदके फंदा ॥ म्हें तौ० ॥ १ ॥ क्रोध लोभ मद मान हिया मैं, कर राख्या है गंदा | ज्ञान ध्यान धन खोसि हमारौ, कर दीना है जिंदा ( १ ) ॥ म्हें तौ० ॥ २ ॥ वारंवार बीनवै वुधजन, करौ करमक मंदा । तुम गुन गाऊं और न ध्याऊं, पाऊं शिव सुखकंदा || म्हें तौ० ॥ ३ ॥
( १४४ )
'चन्द जिन नाथ हमारा, भविनकौं पार उतारा जी । • ॥ चंद० ॥ टेक ॥ तीन काल परजाय द्रव्य गुन, एक समयमैं जानत सारा ॥ चंद० ॥ १॥ इंद नरिंद मुनिंद फनिंदा, सेवत मिलिमिलि सारा । जाकी दुति सम कोटि चंद नहिं, करि लीना निरधारा ॥ चंद० ॥ २ ॥ ऐसा और कोइ नहिं मिलिया, हेरा सब संसारा । बुधजन वंदत पाप निकंदत, तारन तरन निहारा || चंद० ॥ ३ ॥
(९१४५) राग - भैरौं ।
उठौ रे सुज्ञानी जीव, जिनगुन गावौ रे ॥ उठौ० ॥ क ॥ निसि तौ नसाय गई, भानुकौ उद्योत भयौ, ध्यालगावौ प्यारे, नीदकौं भगावौ रे || उठौ० ॥ १ ॥
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( ६१ )
भव वन चौरासी वीच, भ्रमतौ फिरत नीच, मोह जाल फंद पर्यो, जन्म मृत्यु पावौ रे ॥ उठौ ० ॥ २ ॥ आरज पृथ्वीमैं आय, उत्तम जनम पाय, श्रावक कुलको लहाय, मुक्ति क्यौं न जावौ रे ॥ उठौ० ॥ ३ ॥ विषयनि राचि राचि, बहुविध पाप सांचि, नरकनि जायके, अनेक दुःख पावौ रे || उठौ० ॥ ४ ॥ परकौ मिलाप त्यागि, आतमके जाप लागि, सुबुधि बतावै गुरु, ज्ञान क्यौं न लावौ रे ॥ उठौ० ॥ ५ ॥
(१४६ )
राग भैरवी ।"
यौ करौ उपगार मोपै ॥ यौ० ॥ टेक ॥ अनॅतकालके करम देत दुख, ये नहिं मिटत मिटाये मोपै ॥ यौ० ॥१॥ ज्यावत मारत जा जा गतिमै, ता ता गतिमैं फेरी रोपैं । इन करमनको नाश कियौ तुम, यातें करत निहोरे तोपैं ॥ यौ० ॥ २ ॥ दीनदयाल कृपा हि करोगे, मोमैं हैं अपराध हि जोपै । हरौ कर्ममल बुधजनको सव, ज्यौं जगमगती जोती ओपै ॥ यौ० ॥ ३ ॥
( १४७ ) • राग-झिंझोटी |
निरखि छवी परमेसुरकी कांई, नमिकरि दोष गमो दे जीव ॥ निरखि ० ॥ टेक ॥ भ्रमत भ्रमत गति गतिके माहीं, बड़े भाग भए लादे जीव ॥ निरखि० ॥ १ ॥ आन जॅजाल त्यागि मन मेरा, इनके चरन लगा दे जीव ॥ निरखि० ॥ २ ॥ जन्म मरनकी विपति मिटैगी, तोकौं
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(६२)
मोखि मिला दे जीव ॥ निरखि०॥३॥ वुधजन सहजै सुरगति देहे, बहुरि अनॅत सुख द्यावै जीव ॥ नि'रखि० ॥४॥
(१४८) तुम विन जगमैं कौन हमारा ॥ तुम०॥ टेक ॥ जौलौं 'स्वारथ तौलौं मेरे, विन स्वारथ नहिं देत सहारा। और न कोई है या जगमैं, तुम ही हौ सवके उपगारा ॥ तुम० ॥ २॥ इंद नरिंद फनिंद मिलि सेवत, लखि भवसागरतारनहारा ।। तुम० ॥३॥ भेद विज्ञान होत निज परका, संशय भरम करत निरवारा ।। तुम०॥ ४ ॥ अनेक जन्मके पातक नासे, बुधजनके उर हरम अपारा ।। तुम० ॥५॥
(१४९) निसि दिन लख्या कर रे; तन मन वचन थिर रे। ये ज्ञानमइ जिनराजकौं, ज्यौं है सुफल मन रे ॥ निसि० ॥ टेक ॥ ये भवि तेरा धन रे, तोकौं मिले जिन रे। कर पूज चरननकी सदा, सॅचि पुन्यका धन रे ॥ निसि० ॥१॥ सुनिक वचन जिन रे, सरधान धरि उर रे। करि जन्म तेरेका भला, या भली है छिन रे ॥ निसि० ॥ २॥ वुधजन कहै सुन रे, सव पापकों हन रे । अव मिल्या औसर है भला, करि जाप जिन जिन रे । निसि०॥३॥
, मनुवो लागि रह्यौ जी, मुनिपूजा विन रह्यौ न जाय
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( ६३ )
॥ मनुवो० ॥ टेक ॥ कोटि वात पिय क्यों कहौ, हूं मानूं नहिं एक । वोधमती गुरु ना नमूं, याही म्हांरै टेक ॥ मनुवो० | ॥ १ ॥ जन्म मृत्यु सुख दुख विपति, बैरी मीत समान ।राग दोष परिग्रहरहित, वे गुरु मेरे जान ॥ मनुवो० ॥२॥ सुर शिवदायक जैन गुरु, जिनकै दया प्रधान । हिंसक भोगी पातकी, कुगतिदाइ गुरु आन ॥ मनुवो० ॥ ३ ॥ खोटी कीनी पीव तुम, मुनिके गल अहि डारि । थे तो नरकां जायस्यो, वे नहिं काढ़े डारि ॥ मनुवो० ॥ ४ ॥ श्रेणिक सँगतै चलणा, खायक समकित धार । आप सातमा नरक हरि, पहुॅचे प्रथममॅझार ॥ मनुवो० ॥ ५ ॥ तीर्थकर पद धारसी, आवत कालमॅझार | वुधजन पद वंदन करै, मेरी विपता टार ॥ मनुवो० ॥ ६ ॥
( १५१ ) राग - सोरठ।
राग दोष हंकार त्यागकरि शुद्ध भया जी थे तौ ॥ राग० ॥ टेक ॥ तारन तरन सुविरद रावरो, मेरी ओर निहार, ॥ राग० ॥ १ ॥ द्रव गुन परजय तीनकालका, लखि लीना' विस्तार । धुनि सुनि मुनिवर गनधर कीनै, आगम भवि - हितकार ॥ राग० ॥ २ ॥ जा मति करिकै जा विधि करिकै, उतर गये हौ पार । सो ही वुधजनकौं वुधि दीजे, कीजे, यौ उपगार ॥ राग० ॥ ३ ॥
( १५२ )
अदभुत हरष भयौ यौं मनमैं, जिन साहिव दीठे नैननमैं ॥ अदभुत० ॥ टेक ॥ गुन अनन्त मति निपट अलप
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(६४) है, क्यौंकरि सो वरनौं वैननमैं । अदभुत० ॥ १॥ भरम नस्यौ भास्यौ तत्त्वारथ, ज्यौं निकस्यौ रवि वादर-घनमैं ॥ अदभुतः॥२॥ऋद्धि अनादी भूली पाई, वुधजन राजै अति चैननमै । अदभुत० ॥३॥
(१५३)
राग-जंगलो। ओर तो निहारौ दुखिया अति घणौ हो सांइयां ॥ ओर० ॥टेक।। गति च्यारन धारिवो सांइयां, जनम मरनको कष्ट अपार; म्हारा साइयां ॥ ओर०॥१॥ तारण विरद तिहारौ सांइयां, मोहि उतारोगे पार। बुधजनदास तिहारौ सांइयां, कीजे यौ उपगार: म्हारा सांइयां ।। ओर ॥२॥
(१५४), तूही तूही याद आवै जगतमैं ॥ तूही० ॥ टेक ॥ तेरे पद पंकज सेवत हैं, इंद नरिंद फनिंद भगतमैं ॥ तूही० ॥१॥ मेरा मन निशिदिन ही राच्या, तेरे गुन रस गान प्रगतमै ।। तूही० ॥२॥ भव अनन्तका पातक नास्या, तुम जिनवर छवि दरस लगतमैं ॥ तूही०॥३॥ मात तात परिकर सुत दारा, ये दुखदाई देख भगत मैं । तूही० ॥४॥ वुधजनके उर आनंद आया, अब तो हूं नहिं जाऊं कुगतिमैं ॥ तूही० ॥५॥
(१५५)
राग-दीपचंदी। म्हारा मनकै लग गई मोहकी गांठि, मैं तौ जिनआग
खोलों ॥ म्हारा० ॥ टेक ॥ अनादि कालकी धुलि
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( ६५ )
. रही गाठी, ज्ञान छुरीसौं छोलौं ॥ म्हारा० ॥ १ ॥ अष्ट करम ज्ञानावरनादिक, मो आतम ढिग जौलौं । राग दोप विकलप नहिं त्यागौं, तोलौं भव वन डोला || म्हारा० ॥२॥ भेद विज्ञानकी दृष्टि भई तव, परपद नाहिं टटोलों । विषय कपाय वचन हिंसाका, मुखत कबहुँ न बोलीं ॥ म्हारा० ॥ ३ ॥ धन्य जथारथवचन जिनेसुर, महिमा वरनौ कोलौं । बुधजन जिनगुनकुसुम गूंथिंक, विधिकरि कंठमें पोलौं || म्हारा० ॥ ४ ॥
( १५६ )
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• राग - संमाच झंझोटी । ❤
पूजन जिन चालौ री मिल साथनि ॥ पूजन० ॥ टेक ॥ आज देहाड़ौ है भला, आवौं जिन आंगनि ॥ पूजन० ॥ १ ॥ आठौं दृव्य चहोड़िकै, कीये गुन भापनि । अपना कलमख खोय हैं, करि हैं प्रतिपालनि ॥ पूजन० ॥ २ ॥ चित चंचलता मेटिकै लागी प्रभु पॉयनि । सव विधि मनवांछा मिले, फिरि होहि न चायनि ॥ पूजन० ॥ ३ ॥
तिहारी याद होते ही, मुझे अम्रत वरसता है । जिंगर तपता मेरा भ्रमसों, तिसैं समता सरसता है ॥ तिहारी ० ॥ १ ॥ दुनीके देव दाने सत्र, कदम तेरे परसता हैं । ति हाने रस देखनको, हजारों चंद तरसता है ॥ तिहारी ०
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(०१५७)
रंगा-रेखता ।
व आहेन । २ हृदय ।
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( ६६ )
twe
॥ २ ॥ तुम्हींने खूवं भविजनको, बताया भित-रसता है । उसी रसते चले सायर, तुम्हारे बीच बसता है ॥ तिहारी० ॥ ३ ॥ विमुख तुमसों भये जितने, तिते दोर्जेकमें धसता है । मुरीद तेरा सदा बुधजन, आपने हाल मसता है ॥ तिहारी० ॥ ४ ॥
•( १५८)
राग - मल्हार ।
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माई आज महामुनि डोलें । मतिवंता गुनवंत काहुसौं, बात कछू नहिं खोलें || माई० ॥ टेक ॥ तू नहिं आई ये घर आये, चरन कमल जल धोलें ॥ माई० ॥ १ ॥ विधिप
गाहे असन कराये, निधि वैधि गई अतोलै ॥ माई० ॥ २ | नगर जिमाथा कोइ न रहाया, यौं अचरज कहौं कोलै ॥ माई० ॥ ३ ॥ धन्य मुनीसुर धनि ये दानी, बुधजन इम मुख वोलै ॥ माई० ॥ ४ ॥
(०१५९)
राग - सोरठ ।
हो चेतन जी ज्ञान करौला जी || हो० ॥ टेक ॥ ॥
• विनाशी नित्य निरंजन, नेकन डर न धरौला | होहूं
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१ ॥ देखन जान स्वभाव अनादी, ताहिन ना विसरों
राग दोष अज्ञान धारतां, गति गति विपति भरौला ॥
॥ २ ॥ पूर्व कर्मका बंध हरौला, जो आपमैं धीर करें
१ बहिश्तका रास्ता - स्वर्गका मार्ग । २ नरकमें । ३ शिष्य । ४ च ५ करोगे ।
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(६७) वुधजन आप जिहाज वैठिक, भवदधि-वारि तिरौला ॥ हो० ॥३॥
(१६०) हूं तौ निशिदिन सेऊ थांका पाय, म्हारौ दुख भानौ ॥ १० ॥ टेक ॥ चौरासीमें डोलती जी, नीठि पहुँच्यौ छौं आय ॥ म्हारो० ॥१॥ आन देवकों सेवतां जी, जनम अकारथ जाय ।। म्हारो० ॥२॥ मन वच तन वंदन करूंजी, दीजै कर्म मिटाय ॥ म्हारो० ॥३॥ वुधजनकी या वीनती जी, सुनिज्यौ श्रीजिनराय ॥ म्हारो० ॥४॥
(१६१)
राग-अडाणी। तुम चरननकी शरन, आय सुख पायौ ॥ तुम० ॥ टेक ॥ अवलों चिर भव वनमें डोल्यौ, जन्म जन्म दुख पायौ ॥ तुम० ॥१॥ ऐसो सुख सुरपतिकै नाहीं, सौ मुख जात न गायौ । अव सव सम्पति मो उर आई, आज परमपद लायौ ॥ तुम० ॥२ ॥ मन वच तनतें पूजनले राखौं, कबहुँ न ज्या विसरायो । वारंवार वीनवै न, कीजै मनको भायौ ॥ तुम० ॥३॥
(१६२)
राग-टोंगी। तपताज सुखदाई वधाई, जनमैं चन्दजिनाई ॥ आज०.
१.॥ महासेन घर चंदपुरीमैं, जाये लछमना माई ॥ हज० ॥१॥ चतुरनिकाय देव देवी मिलि, नाचत गावत आई । अव भविजनके पातक टरि हैं, पथ चलि है
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शिवदाई | आज० ॥२॥ वड़े भाग वुधजनके आये, सहजै सव निधि पाई । सव पुरके घर घरमैं मंगल, वाजे बजत सवाई । आज० ॥३॥
(१६३)
राग-अलहिया विलावल। . कृपा तिहारी विन जिन सइयाँ, कैसे उधरैगो विषयसुख लइयां। कृपा० ॥ टेक ।। जो कछु भोजन हरत समयछिन, तन यह विलखि बने मुरझैया । कृपा० ॥१॥पहलें याकी वान सुधारो, दिखलावौ तत्त्वाथें गुसइयां । तब ये जानै उर सरधानै, तजै कुबुद्धि सुवुद्धि गहइयां ॥ कृपा० ॥ २॥ बहुत पातकी भवदधि तारे, पतितउधारक सांचे सइयां । वुधजन दास परयौ भवदधिमैं, वेगि तारिये गहकर बहियां ॥ कृपा० ॥३॥
(१६४)
• राग-अड़ाणूं। चेतन मो-मातौ भव बनमैं, गति गति भरमत डोले ॥ चेतन० ॥ टेक ।। अनत ज्ञान दरसन सुख वीरज, ढांपि दिये रंग होलै ॥ चेतन०॥ १॥ अलप भोगमैं मगन होय है, हित अनहित नहिं तोले। मनमैं और करत तन
ओरै, और हि मुखतें बोलै ॥ चेतन० ॥२॥ गुरु उपदे'श धार ले भाई, तजि विकलप झकझोलै । वैरागी निज लौं लागी, सो बुधजन शिवको लै ॥ चेतन० ॥३॥
(१६५)
राग-सोरठ। उमाहौ म्हानै लागि गयौ छ, मुक्ति मिलनरो ॥ उमा
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( ६९ )
हौ ० ॥ टेक ॥ अव ही अपूरव आनंद आयो, जिनदरसनतैं लाहौ ॥ उमाहौ० ॥ १ ॥ तन कारागृह आशा बेड़ी, सुत तिय साथ उगाही । रोग सोग डर त्रास होत नित, सब छूटनको चाहौ ॥ उमाहौ० ॥ २ ॥ भव वन सघन कठिन अँधियारौ, जन्म मरनकौ दाहौ । श्रीगुरु शरन मिल्यो बुधजनकौँ, अब संगय रह्यौं काहौ ॥ उमाहौ० ॥३॥ (०१६६ )
राग-विलावल |
रे मन मूरख बावरे मति ढीलन लावै । जप रे श्रीअरहन्तकों, यौ औसर जावै ॥ रे मन० ॥ टेक ॥ नरभत्र पाना कठिन है, यौं सुरपति चाहै । को जानै गति कालकी, यौ अचानक आवै ॥ रे मन० ॥ १ ॥ छूट गये अब छूटते, जो छूट्या चावै । सब छूटैं या जाल, यौं आगम गावै || रे मन० ॥ २ ॥ भोग रोगकौं करत हैं, इनकौं मत लावै । ममता तजि समता गहौ, बुधजन सुख पावै ॥ रे मन० ॥ ३ ॥
(०१६७)
राग-झंझौटी |
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मिजी के संग चली जाती जाती री मैं ॥ नेमिजी० ॥ टेक ॥ वा छिन खबर भई नहिं मोकौं, तातें मैं पछताती; पछताती री में ॥ नेमिजी० ॥ १ ॥ यौ जंजाल कुटुंब परिजन सत्र, कोइ न मेरे साती; साती री मैं ॥ नेमिजी० ॥२॥ या घर भीतर छिन हू बसिवौ, दावानलसी ताती; ताती
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(७०) रीमैं । नेमिजी० ॥३॥ एकाकी वनमें जा बसिके, ध्याऊंगी दिन राती रातीरी मैं ॥ नेमिजी०॥४॥ वुधजन गावै सो सुख पावै, या रजमतिकी वाती, बाती री मैं ॥ नेमिजी० ॥५॥
(१६८) । जिनगुन गाना मेरे मन माना ॥ जिन० ॥ टेक ॥ जिन ध्याया तिन शिवपुर पाया, सुख अनन्तका थाना । जिन० ॥१॥ भरम मिट्या तिनका छिनमाही, निज परमातम आना ॥ जिन० ॥२॥ आन ज्ञानतें गति गति भटका, जनम मरन दुख पाना | जिन० ॥ ३ ॥ अव वुधजन कहुँ नाहिंन भटकै, चरन शरन मिल जाना । जिन०॥४॥
(१६९)
राग-जंगलो। मुझे तुम शान्त छबी दरसाया, देखत आनंद आया । मुझे० ॥ टेक ॥ अंदर बाहर परिगृह नाही, नासा दृष्टि लगाया ॥ मुझे० ॥१॥ मैं हेरा संसार समूचा, तोसा निरख न पाया । मुझे०॥२॥ नाहर सूर बिलाव ऊंदरा, इकठे मिलि बतराया । मुझे० ॥३॥ तपत हमारी जीव अनादी, सीतल समता पाया ॥ मुझे०॥४॥ इंद नरिंद फनिंद मुनिंद मिल, चरन कमल सिर नाया ॥ मुझे० ॥ -५॥ धन्य दिवस धनि भाग हमारे, वुधजन तुम गुन
।। मुझे०॥६॥
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( ७१ )
(०१७० ) राग - झंझोटी ।
मानुष भव अब पाया रे, कर कारज तेरा ॥ मानुष० ॥ टेक ॥ श्रावकके कुल आया रे, पाया देह भलेरा । चलन सितावी होयगा रे, दिन दोय वसेरा ॥ मानुष० ॥ १ ॥ मेरा मेरा मति कहै रे, कह कौन है तेरा । कष्ट पड़ै जब देहपै रे, कोई आत न नेरा ॥ मानुप० ॥ २ ॥ इन्द्रीसुख मति राच रे, मिथ्यातॲधेरा । सात विसन दे त्याग रे, दुख नरक घनेरा ॥ मानुष० ॥ ३ ॥ उरमै समता धार रे, नहिं साहब चेरा । आपाआप विचार रे, मिटिज्या गतिफेरा ॥ मानुष० ॥ ४ ॥ ये सुध भावन भावै रे, बुधजन तिनकेरा | निस दिन पद वंदन करै रे, वे साहिव मेरा ॥ मानुप० ॥ ५ ॥
(०१७१)
राग - जंगलौ ।
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वीतराग मुनिराजा मोकौं दरस बता जा, दरसवती जा धरम सुना जा ॥ वीतराग० ॥ टेक ॥ परिगृह रत नं नगन छवि थांकी, तारनतरन जिहाजा ॥ वीतराग० ॥ १ ॥ जीवन मरन विपति अर संपति, दुख सुख किंकर राजा । सवमैं समता रमता निजमै, करत आपनौ काजा ॥ वीत - राग० ॥ २ ॥ तन कारागृह भोग भुजॅगसा, परिकर शत्रु समाजा । ऐसी जानि त्याग वन वसिकै, राखत धर्म इलाजा ॥ वीतराग० ॥ ३ ॥ कर्मविनासी मुनि वनवासी,
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(७२) तीनलोक सिरताजा । आप सारिसा करि वुधजनकौं, तुमकौं मेरी लाजा ॥ वीतराग० ॥४॥
(१७२)
राग-सोरठ। क्यों रे मन तिरपत है नाहि कोय ॥ क्यों०॥ टेक ।। अनादि कालका विषयन राच्या, अपना सरवस खोय ॥ क्यौं० ॥१॥नेकु चाखकै फिर न वाहुरे, अधिका लपटै जोय । झंपापात लेत पतंग ज्यौं, जलि वलि भस्मी होय ॥ क्यौं० ॥२॥ ज्यौं ज्यौं भोग मिलै त्यौं तृष्णा, अधिकी अधिकी होय । जैसैं घृत डारेरौं पावक, अधिक जरत है सोय ॥ क्यौं० ॥३॥ नरकनमाही भव सागर लौं, दुख भुगतैगो कोय । चाहि भोगकी त्यागौ वुधजन, अविचल शिवसुख होय ॥ क्यौं ॥४॥
(१३) मूनें थे तौ तारौ श्रीजिनराज, यौँ ही थांकौ जस सुणिजे छै ॥ मू३० ॥ टेक ॥ तारन तरन सुभाव रावरो, सब 'जग जनकै मुख भणिजे छै ॥ मू३० ॥१॥ चोर चिंडाल । भील वेश्याकौं, त्यार दये अवलौं कहिजे छै । अव औसर 'मेरा है प्रभु जी, यामैं ढील नहीं कीजे छै ॥ मू०॥२॥ भव सागरमैं मोह मगर मछ, पकड़ रह्यौ म्हारौ चित छीजे छै । पार उतारौ अब वुधजनकौं, शरनागतकी सुधि लीजे छै॥ मून० ॥३॥
(१७४ ) 0 अजी मैं तौ हेस्या षटमतसार, दयासवमैं सिरै ॥ अजी०
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( ७३ ) ॥ टेक ।। दुष्ट जीव पर प्रान सतावे, सो ही नरकनि माय, जाय विपता भरै ।। अजी० ॥१॥ या विन जप तप सव ही झूठे, यों भाप जिनराज, सुजन मनमैं धरै ।। अजी० ॥२॥जो सुख दे सो तौ सुख पावै, दुख पाव जो जीव, परको दुःख करें ।। अजी० ॥३॥ जो त्रस थावर रक्षा करि है, तिनके मन वच काय, पॉयवुधजन परै॥अजी० ॥४॥
(१७५) आनंद भयौ निरखत मुख जिनचंद ॥ आनंद०॥टेका सत्र आताप गयो तखिन ही, उपज्यौ हरप अमंद आनंद० ॥१॥भूल थकी रागादिक कीन, तब बांधे क्रमवंद । इनकी कृपाते अव मिटिले हैं, विपताके सव फंद ॥आनंद० ॥२॥ केवल स्वेत सुभग सुछतापर, वारों कोटिक चंद । चरन कमल वुधजन उर भीतर, ध्यावें गिव सुखकद ।। आनंद० ॥३॥
(१७६)
राग कालिंगड़ा । जो मोहि मुनिकों मिलावै, ताकी वलिहारी ॥ जो० ॥ टेक | मिथ्या व्याधि मिटत नहिं उन विन, वे निज अमृत पावै ॥ ताकी०॥१॥इंद नरिंदफनिंदतीनों मिलि, उन चरना सिर नावै। सव परिहारी परउपगारी, हित उपदेश सुनावै ॥ ताकी० ॥२॥ तजि सव विकलप निज
१ कमवध । २ पिलाये।
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(७४) पदमाही, निसिदिन ध्यान लगावै । जन्म सुफल वुधजन तव व्है है, जब छवि नैन लखावै ॥ ताकी० ॥३॥
(.१७७) - भई आज वधाई, निरखत श्रीजिनराई। भई० ॥टेक॥ गया अमंगल पाया मंगल, जन्म सुफल भया भाई॥भई० ॥१॥ तीनलोककी सारी सम्पति, अर सारी ठकुराई।
ठकुराई ।
कटाछ होत ही, मेरी
मेरी मुझमें पाई ॥ भई०
॥२॥ इन विन राचे भोग विसनमैं, तातै विपदा लाई। अव भ्रम नास्या ज्ञान प्रकास्या, पिछली वुध विसराई ॥ भई० ॥ ३॥ सवहितकारी परउपगारी, गनधर वानि वताई । वुधजन अनुभव करके देखी, सांची सरधा आई ॥ भई०॥४॥
(१७) भये आज अनंदा, जनमें चंद्रजिनंदा ॥ भये० ॥टेक। चतुर-निकाय देव मिलि आये, इन्द्र भया है बंदा भये ॥१॥ महासेन घर मात लछमना, उपजाया सुख कंदा। जाके तनमें बड़ी जोति अति, मलिन लगे है चंदा ॥ भये० ॥२॥ अव भविजन मिलि सुख पावेंगे, कटिहैं कर्मके फंदा। याहीके उपदेश जगतमैं, होगा ज्ञान अमंदा॥भये०
॥३॥ धन्य घरी धनि भाग हमारा, दूर भया दुख 'दंदा । वुधजन वारवार इम भाषे, चिरजीवौ यह नंदा ।
२०॥४॥
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(७५)
(१८९)
राग-ईमन कल्यान चौतालो। तू पहिचान रे मन, निज स्वरूप ज्ञायक अनूप परमभूप गुनका निधान ।। टेक ॥ सुरलोक नरलोक नागलोक, लोकालोक विलोक सुजान ॥ तू पहिचान०॥१॥ विधिवश हो भरमत अनादि जग, धारत जन्म मरन दुख जान॥सुधनय सुध हेशिवमें विराजै, जैसौ वुधजन करत वखान ॥ तू पहिचान० ॥२॥
(१८०)
राग-काफी, ताल-दीपचंदी!, चेतन तोसौं आज होरी खेलौंगी रे ॥ चेतन० ॥ टेक ॥ अनंत दिवस क्यो अनतहि डोल्यौ, ताको वदला अव ल्यौंगी रे ॥ चेतन० ॥१॥ जो ते करी सो भंडुवा गवाऊं, संजमतें कर वाँधोगी रे । त्रास परीपह लगैगी तेरै, तब सुधताई आवेगी रे ॥ चेतन० ॥ २ ॥ जिन तोकौं दुख दै भरमायौं, ता दुरमतिको भगावौंगी रे । खोटे भेष धरे लंगर तें, अब शुभ भप बना द्यौगी रे ॥ चेतन० ॥२॥ समकित दरस गुलाल लगाऊंज्ञान सुधारस छिरकोंगी रे। चारित चोवा चरचौं सब तन, दया मिठाई खवावौंगी रे चेतन० ॥४॥वुधजन यौ तन सफल कराँगी, विधि-विपदा सब चूरोगी रे । हिल मिल रहुँ विछुरौं नहिं कवहूं, मनकी आशा पूराँगी रे ॥ चेतन० ॥ ५॥ . - १ शुद्ध निश्श्यनयने । २ अन्यस्वानोंमें।
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(७६) ( १८१)
राग-कनड़ी। श्रीजिनवर दरवार खेलूंगी होरी ॥ श्री जिन०॥ टेक।। पर विभावका भेष उतारूं, शुद्ध सरूप बनाय, खेलूंगी होरी ॥ श्रीजिन० ॥१॥ कुमति नारिकों संग न राखू, सुमति नारि बुलवाय, खेलूंगी होरी॥ श्रीजिन० ॥२॥ मिथ्या भसमी दूर भगाऊं, समकित रंग चुवाय, खेलूंगी होरी ॥ श्रीजिन० ॥३॥ निज रस छाक छक्यौ बुधजन अव, आनंद हरष वढ़ाय, खेलूंगी होरी ॥श्रीजिन०॥४॥
(१८२)
राग
होजी म्हारी याही मानूं काई मानूंजी प्रभूजी, ॥ होजी० ॥ टेक ॥ भव भवमैं तुम दरसन पाऊं, सुपर्ने
और नहीं जानूं ॥ होजी० ॥१॥ काल अनादि गयौ भटकत ही, अव तौ करमनकौं भानूं। तुम विन मेरी कहौ कहुं कासौं, वुधजन मांगे शिवथानूं ॥ होजी० ॥२॥
(१८३)
राग-कनड़ी। (पंजावी) मग वतलाना मानूं मोखिदा हो साइंयांमगाटेक।। तेंडे चरन दानिवे, इक सरना मेरे ताई, ओरतें नाहिं पुकारना, हो साइंयां ॥ मग० ॥ १॥ भवदधि भारीतें तूहि उतस्या मेरे सांई, मैंनूं भी पार उतारना, हो साइयां ॥ मग० ॥२॥ वुधजन चेराकों विधि जकस्खा दुखदाई, हाथ पकरिके उवारना, हो साइयां ॥ मग० ॥३॥ १ मुझको । २ मोक्षका।
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(७७) (१८४)
राग-भैरों। पूजत जिनराज आज, आपदा हरी । दरस्यौ तत्त्वार्थ मोहि धन्य या घरी ॥ पूजत० ॥ टेक ॥ छल वल मद क्रोध मेरी, ऊंचता करी । अव लौ या जानत सो, वात निरवरी ॥ पूजत० ॥१॥ राजपदी छोरिक, विरागता धरी । तासौं जिनराज भये, दृष्टि या परी ।। पूजत० ॥२॥ आन भाव जन्म जन्म, कीन बहु वरी। यातें गति चार वीच, विपति अति भरी ॥ पूजत० ॥ ३ ॥ वुधजन जिन
शरन गयो, मिट गई मरी । आपमाहिं आप लख्यौ, शुद्ध .' • आपरी ॥ पूजत० ॥ ४ ॥
(१८५)
-17...
...
.
राग-भैरवी। तें तो गुरु सीख नमानी, नमानीरे मोरे जिया फिरविपयनिसौंरतिमानी ॥ तै०॥ टेक॥ इनहीके कारन चहुँगति, डोल्यौ रे भाई । सुन ताकी कौलग कहूं कहानी ॥ तें तौ० ॥१॥ गई सो गई अव वुधजन समझौ रे भाई, तू तौ करिलै जिनमत उर सरधानी ।। तें तौ० ॥ २ ॥
(१८६)
राग-झिंझोटी। सजनी मिलि चालौं ये पूजनकाज ॥ सजनी० ॥ टेक ॥ . समोसरन वन आय विराजे, वीरनाथ महाराज ॥ सज- '.
नी० ॥१।। सखियन संग चेलना रानी, भगत करै मन- ! लाय । वे प्रभु दीनदयाल जगतके, हितकर धर्म-जिहाज ! ॥ सजनी० ॥२॥
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( ७८ )
(१८७) राग-ललित, एकतालो ।
कहाजी कियौ भव धरिकैं रे वाह वाहोजी तुम ॥ कहा० ॥ टेक ॥ नरभव श्रीजिनवरमत पायौ, लख चौरासी फिरिकैं; रे वाह वाहो ॥ कहा० ॥ १ ॥ परद्रव्यनितें रीझत खीजत, या कुटिलाई करिकै । भटके हो अति भटकोगे पुनि, जन्म मरन दुख भरिकै, रे वाह वाहो ॥ कहा० ॥ २ ॥ अव सुख दुखमें बूड़त हो क्यों, तनमें आप विसरिकैं । करि पुरुषारथ शिवपुर चालौ, बुधजन भवदधितरिकै, रे वाह वाहो ॥ कहा० ॥ ३ ॥
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(१८८) राग-ललित एकतालो ।
हमारी पीर तो हरौ जी, अजी, यौं सुनियों जी सेवक ओर चितइयौं || हमारी० ॥ टेक ॥ हम जगवासी तुम जगनायक, इतनी रीति निवहियौ || हमारी० ॥ १ ॥ ज्ञान आपना भूलि रहे हैं, मोह नींद वग गइयाँ । कर्म चोर मिलि हमकों लूटत, करुना धारि जगड्यौ जी ॥ हमारी० ॥ २ ॥ दुखी अनादि काल भव भरमत, जिन तुम दर्शन लड्यौ । अब फिरना हरि गरना दीजे, बुधजन सीस नमड्यौ जी | हमारी० ॥ ३ ॥ (१८९) राग-ललित एकतालो ।
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बधाई भई है महावीर, हो जी म्हारै, नैंनन लखि हर५ ॥ बधाई० ॥ टेक ॥ वनि आई सव मौज री, मुख
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( ७९ ) कहिय न जाय । हो जी म्हारै विछुरत वनि नहिं आय ॥ वधाई० ॥१॥ दुख खोयौ सव जनमको, आनंद वदाय । हो जी मैं तो शुभ विधि पूजौं पाय ॥ वधाई.
(१९०) राग-अलहिया जल्द तितालो। सुण तौ माहीवाला, क्योंजी क्यौंजी क्योंजी जिया रिंदगी(1) ॥ सुण० ॥ टेक॥ प्रभु न विसरि जाना वे रचिया विपयनसौं। करन सला जिन वंदगी हो ।। सुण० ॥१॥ देहमैं मगन सदा वै भुलानी, आतमनूं देह भरीसारी गंदगी हो ।। सुण ॥२॥ रहना भला तैनूं वे, जिनदे चरन तटवे, ऐसानूं बनें विधि चंदगी हो ॥ सुण०॥३॥
(१९१)
राग-बिलावल कनड़ी तेतालो। अष्ट कर्म म्हारौ काई करसी जी, हूं म्हारै ही घर राखू राम ॥ अष्ट० ॥ टेक ॥ इन्द्री द्वारै चित दौरत है, सो वशकै नहिं करस्यूं काम ॥ अष्ट० ॥१॥ इनका जोर इताही मुझपै, दुख दिखलाबैं इन्द्रीग्राम । जाळू जानूं मैं नहिं मानूं, भेदविज्ञान करूं विसराम ॥ अष्ट० ॥२॥ कहूं राग कहुं दोष करत थौ, तव विधि आते मेरे धाम । सो विभाव नहिं धारूं कवहूं, शुद्ध सुभाव रहूं अभिराम ॥ अष्ट० ॥३॥जिनवर मुनिगुरुकी बलि जाऊं, जिन वत
१ मध्यवाला-अन्तरात्मा।
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(८०)
लाया मेरा ठाम । सुखी रहत हूं दुख नहिं व्यापत, बुधजन हरपत आठौं जाम ॥ अष्ट० ॥ ४ ॥
( १९२ )
राग- अलहिया बिलावल ।
वानी जिनकी बखानी, हो जी, थानें सब मुनि मनमैं आनी ॥ वानी० ॥ टेक ॥ मिथ्याभानी सम्यकदानी, म्हारा घटमैं वसौ हितदानी ॥ वानी० ॥ १ ॥ निश्चय ब्योहार जितावनहारी, नय निक्षेप प्रमानी । तुम जानै विन भववन भटक्यौ, करौ कृपा सुखदानी ॥ वानी० ॥ २ ॥ जिते तिरे भवि भवदधिसेती, तिन निश्चय उर आनी । अवहूं तिरिहै बुधजन तुमतैं, अंकित स्यादनिशानी ॥ वानी० ॥३॥ /
( १९३ )
राग - धनासरी ।
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.
धारी थारी चेतन मति भोरी रे, तैं तौ अपनी आप हि वोरीरे ॥ धारी० ॥ टेक ॥ सिर डारै मोह ठगौरी रे, सँग राग दोष दो 'थोरी रे । तू रचि रह्यौ इनतें सोंरी रे, ये करत कहा तोसौं जोरी रे ॥ थारी० ॥ १ ॥ क्रोधादिक भाव बनावै रे, तातैं जन्म मरण दुख पावै रे । यौ औसर गुरु समझावै रे, जो मानें तौ वचि जावै रे ॥ थारी ० ॥ २ ॥ द्रव थान काल ले आया रे, भावी न अन्यथा थाया रे । जो बुधजन धीरज लाया रे, सो अविचल सुखको पाया रे ॥ थारी० ॥ ३ ॥
१ दुष्ट |
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(८१)
( १९४) थे चितचाहीदा नजरूं आया ॥ थे०॥ टेक॥ निशिदिन ध्यावां नीवे मंगल गावां हरषावां चरनन पूज रचाया ॥ थे०॥१॥ अव नहिं विसरूं जी वे ये वर दीजे सुन लीजे वुधजन सरना पाया । थे० ॥२॥
(१९५)
राग-ईमन जल्द तितालो। शरनगही मैं तेरी,जगजीवन जिनराज जगतपति।।शर० ॥ टेक ॥ तारन तरन करन पावन जग, हरन करम भवफेरी ॥ शरन० ॥१॥ ढूंढ़त फिस्यौ भखौ नाना दुख, कहुँ न मिली सुखसरी । यात तजी आनकी सेवा, सेव रावरी हेरी ॥ शरन० ॥ २ ॥ परमैं मगन विसाखौ आतम, धस्यो भरम जगकेरी । ये मति तजूं भजू परमातम, सो वुधि कीजे मेरी ॥ शरन० ॥३॥
(१९६ )२ __ करमूंदा कुपेंच मेरे है दुख दाइयां हो । करमूंदा० ।। टेक ॥ करमहरन महिमा सुनि आयो, सुनिये मैड़ी साइयां हो । करमूंदा० ॥१॥ कवहुंक इंद नरिद वनायौ, कवहुंक रंक वनाइयां । कवहुंक कीट गयंद रचायौ, ऐसे नाच नचाइयां ॥ करमूंदा० ॥२॥ जो कुछ भई सो तुमही जानौं, मैं जानत हूं नाइयां । कर्मबंध तुम काटे जाविधि, सो विधि मोहि दिवाइयां ॥ करमूंदा० ॥३॥
१ चित्त जिनको चाहता था, ऐसे आप दिखलाई दिये। २ काँका । ३ मेरी।
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(८२)
(१९७)
राग-ईमन धीमो तेतालो। तुम सुध आयें मोरै आनंदकी उठत हियरा चाह हां ॥ तुम० ॥ टेक ।। तेरे नामके जापका, फल आगम लेखा। सिंह स्याल वानर तरे, कहुं कोलौं विसेखा ॥ तुम० ॥१॥ अपने जियके काजका, कोई नाहीं देख्या । तुमही हो प्रभु एकले, मैं सब विधि पेख्या ॥ तुम० ॥२॥
( १९८)
राग-बरवा। अव तेरीसुनि वातड़ी,चुप रहौ रे जिया, धंधा रेकरता' ॥अव०॥टेक॥ काल अनन्त निगोदमें, भरम्या इम भाई।। अष्टादश भव सांसमै, धारे दुखदाई ॥ अव० ॥१॥ पुनि विकलत्रय ऊपज्या, पुनि हुआ असैनी । अव सैनी मानुप भया, पाया कुल जैनी ॥ अव० ॥२॥ अशुभ किये है नारकी, नाना दुख पावै । शुभतें सुरगन सुख लहै, आगम इम गावै ॥ अव०॥३॥ दोउ शुभाशुभ त्यागिकैं, अपना पद ध्यावें। वुधजन तव थिरता लहै, फिर जन्म न पावै ॥ अव०॥४॥
( १९९)
___ राग-सिंधड़ा। तू तो है ज्ञानमैं नाहीं तन धनमैं ॥ तू० ॥ टेक ॥ सपरस गंध वरन रस रूपी, जानपनौं नहिं इनमें ॥ तू० ॥१॥ पर-परनति परनति करवतें,भ्रमत फिरत है गतिन
॥तू० ॥२॥ विन आवरन स्वच्छ जव है है. तव १६ट। - -
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(८३) तोमैं तू इनमैं ॥ तू० ॥३॥ बुधजन जानपनौ ही अपनौ, तज ममता जन जनमैं ॥ तू०॥४॥
(१२००)
राग-सिंधड़ा। हो चेतन अभी चेत लै, मर जानेकी गम क्या ॥ हो. ॥ टेक । मानुप है गाफिल नहिं रहना, आपा आप पि. छान लै ॥ हो० ॥१॥ सिरंडा हो विपयनसौं लपटा, दुख पावैगा जान दै। आगें भवमैं क्या तू करैगा, ताका जतन विचारि लै ॥ हो० ॥२॥ जिनवरकी वानी उर धारौ, मिथ्या मोह निवारि लै। वुधजन अपना परका भला करि, समता सुखकर धारि लै । हो०॥ ३ ॥
___ (२०१) वूड्यौ रे भोळा जीव, मूरख वृड्यौ रे ॥वूड्यौ रे ॥ टेक ॥ जिनधर्मामृत छोड़िक रे, पीवत जहर मिथ्यात । आन देव पूजत फिर्यो, सुन्यौ कुगुरुकी वात ॥वूड्यौ रे० ॥१॥ पेट भरनके कारनैं रे, करौ अनीति अज्ञान । चोरी चुगली झूठी वकि, हरै हरखिक प्रान ॥ वूड्यौ० ॥२॥ अरुचि हियाम धार लै रे, भोग भुजंग समान । वुधजन आतम परखि ल्यो, करि करि भेदविज्ञान ॥ वूड्यो० ॥ ३ ॥
(२०२)
राग-सिंघड़ा। चेतन आयु थोरी रे, भोगमैं क्यों भुलायो रे। विषयमैं
१ पागल।
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( ८४ )
क्यौं लुभायौ रे, तू तौ उलझत है जंजाल ॥ चेतन० ॥ टेक ॥ मनुष जनममैं आयबौ रे, सुलभ जगतमैं नाहिं । गयौ न मोती पायसी रे, सागरका जलमाहिं ॥ चेतन० ॥ १ ॥ राज विभौ जोवन तन सुंदर, रानी जुतसिंगार । जल बुदवद दामिनिका चमका, विनसत होत न वार ॥ चेतन० ॥२॥ नैन पतंग मतंग फरसतैं, मृग श्रवना आधार । अलि नासा सफरी रसनातैं, प्रान तजत निरधार ॥ चेतन० ॥ ३ ॥ पराधीन ये निश्चल नाहीं, आखिर होत गिलान । सेवनका फल नरक मिलत है, त्यागेतैं निरवान ॥ चेतन० ॥ ४ ॥ बुरी भली दोऊ कह दीनी, कर लै आप पिछान । ऐसा कारज करिये बुधजन, जामैं सदा कल्यान ॥ चेतन० ॥ ५ ॥
अनी ( ? ) मेरा नाभिनंदन जगवंदन स्वामी, पूजन काज चलै ॥ अनी० ॥ टेक ॥ मिलि साधरमी चलौ देहरे, उत्तम दरव सु लै ॥ अनी० ॥ १ ॥ करि पूजा प्रभुका गुन गावैं, निहचल होय भलै || अनी० ॥ २ ॥ भव भवमैं बुधजन सुख लै है, अनुक्रम मुक्ति मिलै ॥ अनी० ॥ ३ ((२०४)
राग - जंगलो ।
"या काया माया थिर न रहैगी, झूठा मान न कर रे ॥
१ मन्दिरको ।
( २०३ ) राग - झंझोटी ।
१६४ ॥
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(८५)
या० ॥ टेक ।। खाई कोट ऊंचा दरवाजा, तोप सुभटका भैर रे । छिनमै खोसि मुदी (1) लै तब ही, रंक फिरै घर, घर रे ॥ या० ॥ तन सुंदर रूपी जोवनजुत, लाख सुभटका बल रे । सीत-जुरी जब आन सतावै, तव कांपै थर थर रे ।। या० ॥२॥ जैसा उदय तैसा फल पावै, जाननहार तू नर रे। मनमें राग दोष मति धारै, जनम मरनते डर रे॥ या० ॥३॥ कही वात सरधा कर भाई !, अपने परतख लख रे । शुद्ध सुभाव आपना वुधजन, मिथ्याभ्रम परिहर रे ॥ या० ॥४॥
(२०५) येती तो विचारौ जगमें पार्वनां है, हे जिया ॥ येती. ।। टेक॥ पाई नरदेह मति भूलै म्हारा हे जिया ॥ येती०॥ १॥ लख चौरासीकै माहिं तू फिरैलो वावरा । जनम मरण दुख होय, म्हारा हे जिया ॥ येती० ॥ २ ॥ तेरा साहिब तुझहीमाहिं विराजै जीयरा। बुधजन क्यों रह्या भूल, म्हारा हे जिया ॥ येती० ॥३॥
(२०६) अव तौ या जोग नाही रे, अरे हो अजान ।। अव०॥ टेक । सिरपर काल फिरत नहिं दीस, चेत वुढ़ापा आईरे ।। अव०॥ १॥ कोडि मुहर दीयां नहि जीवौ, हेलो पाड़ि सुनाई रे ॥ अव० ॥२॥ धरम विना नरभव तू खोवत, ज्यों आंधे निधि पाई रे ॥ अव० ॥ ३ ॥ १ समूह । २ शीत-ज्वर । ३५ प।४ पाहुंना-महमान। ५चिल्लाकरके।
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( ८६ )
त्यागि मिथ्यात धारि समकितकौं, बुधजन है सुखदाई रे ॥ अब० ॥ ४ ॥
( २०७ )
राग - माच ।
जंमारा नी वे तेरा नाहक वीता ॥ जमारा० ॥ टेक ॥ या तौ धारी कुमतिड़ल्या दुख दीता भलां दुख दीता ॥ जमारा० ॥ १ ॥ धरम विसारि विषय सुख सेवत, अंमृत तजि विष लीता ॥ जमारा० ॥ २ ॥ आन देव सेया तजि जिनकौं, रह्या रीतेका रीता || जमारा० ॥ ३ ॥ अव बुधजन संवरकौं पकरौ, तासौं रहोगे नचीता ॥ जमारा० 11 8 11
( २०८ )
राग - खंमाच ।
हो जिय ज्ञानी रे ये ही सुणि जइयौ रे ॥ हो० ॥ टेक ॥ भ्रमतौ आयौ नरभवमाहीं, बिछुरत वार न लड्यौ रे ॥ हो० ॥ १ ॥ जो चेतै तौ ही सुख पावै, विन चेतैं दुख पइयौ रे ॥ हो० ॥ २ ॥ हित करिक्रै बुधजन भापत है, जिनसरधान करइयौ रे ॥ हो० ॥ ३ ॥
( २०९ )
राग - खंमाच ।
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9
गातां ध्यातां तारसी जी भरोसौ महावीरकौ ॥ गातां०
॥ टेक ॥ हेरि थक्यौ सबमाहीं ऐसौ, नाहीं कोऊ पीरको
॥ गातां० ॥ १ ॥ जे तिर गये ते इनके जपतैं, मेटि कर ।
१ जीवनसमय । २ कुमतिने ।
३०.
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(८७)
भव भीरको । वुधजन समता ल्यो पाचौगे, शिवपुर भवदधितीरको ।। गातां ॥२॥
(३१०)
राग-खंमाच। यौही थान ओलंबो, हो जिय ज्ञानी॥ यो ही० ॥ टेक॥ रतन मनुषभव पाय कठिनते, सो नाहक क्यों खोयवौ ॥ यो ही० ॥१॥ प्रभु विसारि पर-कंचन-कामिनि, उर चितवत क्यों चोरिवी ॥ यो ही० ॥२॥ आपा आप सम्हारौ बुधजन, फेरि न ऑसर पायवौ ॥ यो ही० ॥३॥
(२११)
राग-संमाच। पार के पार छ दिन पार है, विधि मोकौं दिन पार छ ॥ पारः ॥ टेक । अरघ मध्य पताल लोकम, फेरै छिन छिन सारै छ । मिश्र गृहीत अगृहीत प्रमाणो, ग्रहण करत उरझारै छै ।। पार० ॥१॥ कते कल्प गये तुम जानों, च्या छ अर मारेछ । जघन मध्य उत्कृष्ट आयु करि, गति गतिमाही डार छै॥पार० ॥२॥ अध्यवसाय नोगके सोई, सबै भाव विस्तारै छ । वुधजन चरन शरन दिन पकरी, दुख हरित्री थां-सारे छै॥ पारै० ॥३॥
(१२)
गग-खंमाच। मान छ मान छ यों ही मान छ, मुरडॉट जी मुरख मान छ॥ मान० ॥ टेक ॥ जीव अरूपी रूपी तनकों,
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(८८) आपनपो करि जानै छै॥ मान० ॥१॥ आप अकरता थाप हियामैं, पाप करत नहिं छानै छै। अशुभ तजत है शुभ आदरिकै, शुद्ध भाव नहिं आनै छै॥ मान० ॥२॥ दृव्य अभेदमैं भेद कल्पकै, अजथा रीति वखानै छै ।भेद अभेदी एक अनेकी, वुधजन दोऊ ठानै छै। मान० ॥३॥
(२१३)
राग-सिद्धकी खंमाच तेतालो। मुजनूं जिन दीठा प्यारा वे, ध्यान लगाय उरमाहिं निहारा ॥मुज,०॥ टेक॥ और सकल स्वारथके साथी, विन स्वारथ ये म्हारा ॥ मुजनूं०॥१॥ आन देव परिगृहके धारी,ये परिगृह” न्यारा॥ मुजनूं०॥२॥ सकल जगत जन राग बढ़ावत, ये प्रभु राग निवारा ॥ मुजj०॥३॥ चरन शरन जॉचत है बुधजन, जव लौं वै निरवारा॥मुज०॥४॥
(२१४) जीवा जी थाँनै किण विधि राखां समझाय, हो जी म्हारा हो जी ॥ जीवा जी० ॥ टेक ॥ घणां दिनांका विगज्या तीवण, कुमति रही लपटाय ॥ जीवा जी० ॥१॥ यातौ थाने पर घर राखै, लालच विसन लगाय । मोमदिरातें किया बावला, दीना रतन गमाय ।। जीवा जी०॥ ॥२॥ एक स्यात मुझरूप निहारी, निज घरमाहीं आया बुधजन अविचल सुख पाचौगे, सब संकट मिट जाय ॥ जीवा जी०॥३॥
१ मुझको । २ दिखा । ३ शाक। ४ मोहरूपी शरावसे । ५ छनभर ।
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(८९) (२१५)
राग-परज। करि करि कर्म इलाज, जीवाजी हो ल्यो मोखरौ॥ करि० ॥ टेक ॥ विधि दुष्टन सँग जगतमैं, पावत हो संताप । तीनलोककी प्रभुता लायक, रंक भये क्यों आप ॥ करि० ॥१॥निज स्वभावमैं लीन होयक, रागरु-दोष मिटाय । वुधजन विलँव न कीजिये हो, फेर न या परजाय । करि० ॥२॥
___ राग-अडाणों। गहो नी धर्म, नित आयु घटै जी ॥ गहो० ॥ टेक।। याभव सुख परभव सुख है है, पूर्व कमाये कर्म कटेजी। गहो० ॥१॥ तन तेरेकी रीति निरखि लै, पोषत पोपत जोर हटै जी। मात तात सुत झूठे जगके, जम टेरै तव नाहि नैटै जी ॥ गहो० ॥ २॥ लाभ जतनमैं दिन मति खोवै, मिलि है जो तेरे लेख पटै जी । वुधजन जतन विचारौ ऐसा, जासौं अगली विपति मिटै जी ॥गहो० ॥३॥
(२१७) . यो मन मेरौ निपट हठीलो॥ यौ० ॥ टेक ॥ कहा करूं वरज्यौ न रहत है, दौरि उठत जैसैं सर्प उकीली । यौ० ॥१॥ वारंवार सिखावत श्रीगुरु, यौ नहिं मानत गज गरवीलौ । दुख पावत तौहू नहिं ध्यावत, बुधजन निजपद अचल नवीलो ।। यौ०॥२॥
१लो न सहज सुख मोक्षका ? २ गहो न-ग्रहण कर लो न ? । ३ इकार नहीं करता है । ४ विना कीला हुआ। ५ नवीन ।
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(९०)
(२१८)
राग-सोरठ। मिनखगति निठी मिली छै आय ॥ मिनख० ॥ टेक ॥ । काकताल किधी अंधवटेरी, उपमा कौन बनाय ।। मिनख० ॥१॥ पूरन विपति नरकगतिमाही, ज्ञान पशू नहिं पाय। देव ऊंचपदहमैं जांचे, कधि उपजौं नर आय ॥ मिनख० ॥२॥ यह गति दान-महातपकारन, अजरअमरपददाय । सो ही भोग व्यसनमै खोवै, अमृत तजि विष पाय ॥ मिनख० ॥३॥ जल अंजुलि ज्यौं आयु घटत है, करिलै वेगि उपाय । बुधजन वारंवार कहत है, शठसौं नाहिं बसाय || मिनख०॥४॥
(२१९)
राग-सोरठ। प्रभु थांका वचनमैं बहुत वनै छै रडी ।। प्रभु० ॥ टेक ।। अशुभ भाव सहजै मिटि जै हैं, मिटि जै हैं सव ही गति कूडी ॥ प्रभु०॥ १ ॥ विषय मगन जिन वचन अपूठे, तिनकी सब विधितै मति बूड़ी। सरधा करि मुनि वचन सुनत ही, सुख पायौ निंदक हू चूड़ी ॥ प्रभु० ॥ २ ॥ दया दान भवि बँलध्या जोते, संवर तप हल धारै जूड़ी। धर्म खेतमैं मोक्ष धान लै, सहज मिलै विधि सुरगति तूंडी ॥प्रभु० ॥३॥
१ मनुष्यगति । २ कठिनाईसे। ३ सुन्दरता । ४ खोटी। ५ उलटे । ६ चाहालिनीने । ७ वैल । ८ जूआ। ९ तुष-पंयाल ।
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( ९१ )
( २०० )
निज कारज क्यों न कियौ अरे हे जिया तैं, निज देख्यौ धारौ यौ नसीब हे जिया तैं । निज० ॥ टेक ॥ या rasi सुरपति अति तरसै, सहजै पाय लियौ ॥ निज० ॥१॥ मिथ्या जहर कह्यौ गुरु तजिचौ, तैं अपनाय पियौ । दया दान पूजन संजममैं, कवहॅू चित न दियौ ॥ निज० ॥ २ ॥ बुधजन औसर कठिन मिल्यौ है, निश्चय धारि हियौ । अव जिन- ' मत सरधा दिढ़ पकरौ, तब है सफल जियौ ॥ निज० ॥३॥ ( २२१ )
तेरौ आवत नीड़ो काल, वरज्यौ ना रहै ॥ तेरौ ० ॥ टेक ॥ जोवन गयौ वुढापौ आयौ, ढीली पड़ गई खाल, वरज्यौ ना रहै ॥ तेरौ ० ॥ १ ॥ घरी घरी कर वीतत वैरसैं, करि है सब पैमाल, वरज्यौ ना रहै ॥ तेरौ० ॥ २ ॥ भोग व्यसनमैं दिन मत खोवै, वूड़ेगौ जग जाल ॥ तेरौ ० ॥ ३ ॥ परकौं त्यागि लागि शुभ मारग, बुधजन आप सम्हाल, वरज्यौ ना रहै ॥ तेरो ० ॥ ४ ॥
((२२२ )
समझ भव्य अव मति सोवै रे, उठ रे सोवत जनम गयौ तोकौं ॥ समझ० ॥ टेक ॥ काय कुटी तौ टूटि गई है, क्यों नहिं जोवै रे । कुंजर काल गहै तब तेरा, क्या वश 'हो रे ॥ समझ० ॥ १ ॥ अनंत काल थावर त्रस जीवामाहीं खोवै रे । अव पुरुषारथ करिवेकौ दिन, सो क्यों
१ निकट - नजदीक । २ वर्षे - सालें ।
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( ९२ )
गोवै रे ॥ समझ० || २ || नरभव रतन पाय नहिं समझै, सो दधि वोवै रे । निज-सुभाव-सुध - वारि करममल, बुधजन धोवै रे ॥ समझ० ॥ ३ ॥
( २२३ ) राग - सोरठ।
आज लग्यौ है उमाहौ यो मनमैं, संग वुरौ, करमनकौ हरेस्यां ॥ आज० ॥ टेक ॥ तीनलोकपति बंदत जाकौं, तिनके पद- पंकज-रज परस्यां ॥ आज० ॥ १ ॥ सुनि जिनवानी बात पिछानी, संशय मोह भरम परिहरस्यां ॥ आज० ॥ २ ॥ परसँग त्यागि पाय निज सम्पति, बुधजन सुखसौं शिवतिय वरस्यां ॥ आज० ॥ ३ ॥
( २२४ )
हे देखो भोळौ वरज्यों न मानै, यौ जीव विषयांरो भातौ ॥ देखो ० ॥ टेक ॥ परम दयाल सिखावत हितकौं, यौ विपरीत पिछानै ॥ हे० ॥ १ ॥ परघर गमन करत निशि वासर, अपनी बुधि नहिं जानै । दुखी भयौ खोयौ सब जिनतैं, तिनहीसौं रति आनै ॥ हे० ॥ २ ॥ भाग अपूरव उदय भये तव, भैंटे श्रीजिन थाने । तुम सरधान धारि उर बुधजन, पासी शिवसुख-थानै ॥ हे० ॥ ३ ॥ (४२२५)
हो देवाधिदेव म्हारी, अरज सुनौ जी ॥ हो० ॥ टेक ॥ नरकनका दुःख कहौ, कौलौ भनौं जी । एकलेकै
१ उदधि - समुद्र । २ हरूंगा-नष्ट करूंगा । ३ स्पर्श करुगा । ४ परिहरण करूंगा, नष्ट करूंगा । ५ वरण करूंगा - व्याहूंगा । ६ विषयोका उन्मत । ७ 1८ ਹਰਿਆ 1
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( ९३ ) मार दई, लाख जनों जी ॥ हो० ॥१॥ यावर विकलत्रय, पंचेन्द्री बनौ जी । गीत घाम भूख प्यास, त्रास घनौ जी । हो० ॥२॥ सागरलौं सुरगतिम, सुक्त सुनो जी। भोगनमें लीन रह्यो, अघ न गनी जी॥ हो० ॥३॥नर. भवमै आय लह्यो, दासपनो जी । वुधजनपै दया धारि, कर्म हनौ जी॥हो ॥४॥
(२२६) मानौ मन भंवरसुजान हो राज, नरभव चौ थिर ना रहे होराज॥मानौ० ॥टेक ॥ काल करन कछु नाहिं विचारों, कर ल्यो कारज आज । मानौ० ॥१॥ नव जीवन सुंदर तन संपति, दारा सुतको समाज । थिति पूरी करि करि नग जै है, परेई रहेंगे इलाज । मानौ० ॥२॥ निज हित तजि विषयन हित राची, औसर खोत अकाज । अनुचित काज करत हो वुधजन, आवत क्यों नहिं लाज ॥ मानौ० ॥३॥
(२२७).
राग-विहाग। सुख पावोगे यासाँ, मेरा सुघर चेतन गुन गाय रे ॥ सुखः ॥ टेक ॥ गायां विना विगार करत है, तुम विन कहाँ कई कासों। चेतन० ॥२॥ जिन गाया तिन ही शिव पाया, सीख देत हूं तासौं । चेतन० ॥शायातें सास सास वुधजन जपि, गयों न आवे सासौं। चेतन० ॥३॥ १ खासखासने-हरएक संस। २ गई हुई चास फिर नहीं आती है।
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(९४)
(१२८)
राग-जैजैवंती। बोयो रे जन्म यौ ही, नीठ नीठ पायौ छै भाई ॥ ॥बोयौ०॥ टेक ॥ जोयौ नाहीं हेत वैन, जिनवर गायौ छै। धोयौ नाहिं पाप मैल, खोयौ पुन्य कुमायौ छै ॥ बोयौ० ॥१॥ सोयौ तूं पराई सेज, गोयौ माल बिरानौं छै। झूठ वोलि पीड़ि प्राणी, विभव बढ़ायौ छै । बोयो० ॥२॥मरि सो अनन्त काल, थावर वनायौ छै । अणुसी मिनख भव, काकताल पायौ छै ॥ वोयौ० ॥३॥ जो बुध अवै चेते, तौ न गमायौ छै। जिन पूज व्रत पाल, सिवसुखदायो छ । ॥ वोयौ०॥४॥
(२२९)
राग-बिलावल। धन्य मुदत्त मुनि वानिसुनाई। धन्य० ॥ टेक । मित्र कल्यान मिले मो अव ही, तिन मोहि मुनिकी छवि दरसाई ॥ धन्य० ॥१॥ टरत शिकार स्वानगन छोड़े, सो अघ क्यौं हु न मिटत कदाई । ता कारन सिर छेदूं मेरी, सो मुनि मेरी विपति मिटाई ॥ धन्य० ॥२॥ भूपजसोमति लखि अति हरष्यौ, उर तत्त्वारथ सरधा आई । मित्र सहित पुनि पंच शतक नृप, भोग विमुख है दिच्छा पाई ॥धनि०॥ ३॥ कुँवर अभयरुचि अर भगनीजुत, क्षुल्लक भये पुनि हुए मुनिराई । जोगी देवी मारदत्त नृप, वुधजन सुलटे सुरपद पाई ॥ धनि० ॥४॥ ' १ खोया । २ कठिनाईसे । ३ देखा।
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( ९५ )
(0330)~
ऐसे गुरुके गुननकौं गावौ भविया ॥ ऐसे० ॥ टेक ॥ सदन त्यागि वनवास कियौ है, तन धन परिजन छोरि दिया ॥ ऐसे० ॥ १ ॥ पोप निशा सरिता तट बैठे, नगनरूप जिन ध्यान लिया | ऐसे० ॥ २ ॥ जेठ दिवस गिरि ऊपर ठाड़े, सूरज - सनमुख वदन किया | ऐसे ० ॥ ३ ॥ विरख तल सावन जब वरपत, डांस मछरकी विपति सया ॥ ऐसे० || ४ || शत्रु मित्र समभाव लये तिन, करुणावत्सल जीवदया | ऐसे० ॥ ५ ॥ वाघ दुष्ट नर दोष करें तव, ध्यानथकी नहिं भाग गया ॥ ऐसे० ॥ ६ ॥ विरत विना (१) भोजन नहिं जाचैं, भूख सहत वपु सूख गया ॥ ऐसे० ॥ ७ ॥ रतनत्रयजुत धर्म धेरै दश, निज पर - णति सुख मगन ठया ॥ ऐसे० ॥ ८ ॥ अहनिशि मुनिकौं वंदन मेरी, कर्म शत्रु जग जीति लया ॥ ऐसे० ॥ ९ ॥ कव दर्शन व्है ऐसे गुरुकौ, बुधजनके उर हरष भया ॥ ऐसे० ॥ १० ॥
(( २३१ )
राग - कालिंगड़ा ।
मेरा तुमीसौं मन लगा ॥ मेरा० ॥ टेक ॥ याद नहिं भूल दावो सुणा (?), निशि दिन आनंद पगा ॥ मेरा० ॥ १ ॥ इस दुनियां विच ढूंढ थका मैं हो साई, तुम विन कोइ न सगा ॥ मेरा० ॥ २ ॥ शांत भया उर तुम वच सुनतां, हो साई जन्मांतर दुख दगा ॥ मेरा० ॥ ३ ॥ थारे चरन
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(९६) विच चित बुधजनका, हो सांई निशिदिन रंग रगा ॥ मेरा० ॥४॥
(२३२) म्हारा जी श्रीजी मेरा भला हो किया।म्हारा जी०॥ टेक ॥ दुखिया था मैं नादिकालका, ताकौँ तुमने सुखी किया ।। म्हारा जी० ॥१॥ अव लों मिले तिन मो भरमाया, ज्ञान ध्यानको भूलि गया। तुम निरखत मेरा संशय भाग्या, निज पद निजमें पाय लिया ॥ म्हारा जी०॥२॥ पर उपगारी सव सरदारी, या लखि वुधजन शरन गया। ज्ञान विना मैंने क्रम वांधे, तिनकौं खोलौ कीजे भया । म्हारा'जी० ॥३॥
(२३३)
राग-केसरां। देख्यौ थारौ सुद्ध सरूप रे, जिया म्हारा, जानिक दर्पण ऊजलो रे लाल जिया ॥ देख्यौ०॥ टेक ॥ यौ ही थारौ सहज स्वभाव रे, जिया म्हारा । सव आ झलकै ज्ञानमैं, लाल जिया । देख्यौ० ॥ १॥ करि करि ममत कुवाण रे, जिया म्हारा । तू गति गति मरतो फिरे, लाल जिया ॥ देख्यौ० ॥२॥ इन्द्री मन वसि आन रे, जिया म्हारा। ये ना जग जालमैं, लाल जिया ॥ देख्यौ०॥३॥ थारै देको ठेठको मिलाप रे जिया म्हारा। तुही छुड़ावै तौ छुटै लाल जिया । देख्यौ० ॥ ४ ॥ वुधजन आयौ संभाल रे १ कर्म । २ जैसा । ३ बुरी आदत । ४ देहका । ५ हमेशाका ।
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(१०० (४)
गग-भैरों। चरनन चिन्ह चितारि चित्तम, चंदन जिन चौवीस जनं ॥ टेक ॥ रिपभ वृषभ गज अजितनाथक, संभवक द बांज सदं । अभिनंदन कपि कोक सुमतिक, पदम दमप्रभ पाय धरूं ॥ चरनन० ॥ १ ॥ स्वस्ति सुपारस
द चंदक, पुप्पटत पद मत्स्य बलं । सुर्रतम शीतल रिनकमलम, श्रेयांस गड़ा वनचलं ॥ चरनन० ॥२॥
सा वासु बराह विमलपद, अनंतनाथके सहि पलं । र्मिनाथ कुंस गांत हिरनजुत, कुंथुनाथ अज मीन ८॥ वरनन० ॥३॥ कलश मल्लिकूरम मुनिसुव्रत, मि कमल सतपत्र तरूं । नेमि संग्व फनि पास वीर रि. लखि वुधजन आनन्द रूं । चरनन० ॥४॥
(२४)
गण-मल्हार। लूम झूम बरसै बदरवा, मुनिजन ठाड़े तरुवर तरवा ।। ककारी घटा तसी वीज डरावै, वे निधरक मानों काठ जरवा।। ल्म झूम० ॥१॥ बाहरि को निकस ऐने में, पड़बड़े घर हू गलि गिरवा । झंझा वायु बहे अति सियरी,
हले निज बलके घरवा ।। लूम०॥२॥ देखि उन्हें ज्या प्य मुनाव, ताकी तो कर हूं नौकरवा । सफल होय सिर व परतिक, बुधजनके नव कारज सरवा ।। लूम० ॥३॥
(सनामोऽय पदसंग्रहः)
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(२३९) जियरा रे तू तौ भोग लुभावै काल गमावै तौ या भली वात नहीं ॥ जियरा० ॥ टेक ॥ पापकौ नाहीं डर डोलता घर घर मूरखकौं सुध नाहिं, बंध वधाई ॥ जियराव ॥१॥ चौरासीमाहिं फिरि हुवो आरज नर, क्यों न करे निज काज विपतिमैं कौन सहाई ॥ जियरा० ॥२॥ जिनपद बंदि सिर तत्त्व प्रतीत कर, वुधजन सुखदाई मुक्ति लहाई॥ जियरा०॥३॥
..( २४०)
संग-जंगला। अब जग जीता वे मानूं ॥ अव० ॥ टेक ॥ सांत छवी थांकी जी, निरखते नैना हो साईं। विसर गया छा सो निधि लीता वे मानूं ॥ अब० ॥१॥धन्नि घरी म्हांकी जी, चर ननकू सिर नाया । वुधजनकौं थे कृतकृत कीता वे मानूं ॥ अव०॥२॥
(२४१) मैं तौ अयाना थाँनै ना जाना, जानै जो भला जया सो।। मैं० ॥ टेक ॥ विन जानै दुख गति गतिमाहीं, लया। काल अनन्तेकी तू जाना ।। मैं० ॥१॥ जिन जाना ते शिवपुरमाहीं, गया अष्ट कर्मनकौं भाना ॥ मैं० ॥ २, अव सिर नायके वुधजन साचे, हो साइया बहुति
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(९८) दुख पाये हैरानी । तै०॥४॥ वुधजन औसर अजत्र मिल्यों है, धरि सरधा जिनवानी ॥ तै० ॥५॥
(३७)
___ राग-सोरठ। ठाइसौं गुनाको धारी जीव, काई जाना कत्र होसी ॥ ठाइसौं०॥टेक ॥ भोग विसनमें राचे माचे, मानुप भव यों ही खोसी । ठाइसौं०॥१॥धारि उदासी | वनवासी, निज सुखमें कर संतोसी । सांत सुभाव विमल जलसेती, भव भवके पातक घोसी ।। ठाइसौं० ॥२॥ वदन निहारूं देन उर धारूं, ध्यान धरूं मन ईकोसी । ऐसी दशा कीजे बुंघसनकी, ज्या हो जाऊं निरदोसी ॥ठाईसौं ॥३॥
... (२३८)
राग-परज । तू आतम निरभव डोलि नी । मोह गहल विच बात विगड़ती, मिथ्याभ्रम तजि घोलि नी ।। तू० ॥ टेक ॥ तू चंतन यो जड़ रूपी है, या उरमाहीं तोलि नी । तन अनन्त धारे छोड़े ते, ये अनादिका भोलि नी ।। तू० ॥ १ पिरद्रव्य लेवतें दुख पार्व,राजगजनका (१)वोलि नी। यातें परतें ममत न करिये, कर लें ऐसा कोलि नी॥तू० ॥२॥ उपजे विनस जर मरै सो, पुदगलका झकझोलि नी! तू अविनाशी जिनवर भासी, बुधजन दिल विच खोलि नी । तु०॥३॥
ना२८ मूलगुणाचा वारी मानि। लन अर्थान निर्भर होकर
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( ९७ )
जिया म्हारा । ज्यौं निकसै भव जालसौं, लाल जिया ॥ देख्यौ० ॥ ५ ॥
( २३४ )
राग आसावरी ।
श्रीजी म्हांने जाणौ छो तौ महांकी सुधि लीज्यो र्ज ॥ श्री० ॥ टेक ॥ म्हे भूल्या महानैं विधि बांध्या, थे छुटकारा दीज्यो जी ॥ श्री० ॥ १ ॥ अव म्हे शरण थांके आया, थे निरवाह करीज्यो जी । जोलौं रहै वुधजन जगमाहीं, तोलौं दर्शन दीज्यो जी ॥ श्री० ॥ २ ॥
( २३५ )
राग- धनासरी ।
मेरा सपरदेसी (?) भूल न जाना वे, सुनि लेना वे ॥ मरा० ॥ टेक ॥ दृष्टा ज्ञाता नित्य निरंजन, तू है सिद्ध समानां ॥ मेरा० ॥ १ ॥ मोहित होय अनादि कालका, अजथा जथा पहचाना। राग दोप कीना परसेती, यातें है मरजाना ॥ मेरा० ॥ २ ॥ तेरी भूलि मैटि तोही मैं, करि तेरा सरधाना | बुधजन थिर व्है त्यागि अथिरता, पावोग शिवथाना ॥ मेरा० ॥ ३ ॥
( २३६).-.
तैं ना जानी तोहि उपयोग हि देत दिखानी ॥ तें ॥ टेक ॥ ज्यौं फूलनमैं वास वसत है, त्यों तू तनमैं ज्ञानं ॥ तैं० ॥ १ ॥ ये तेरे कवहूं मति मानै, क्रोध लोभ छ मानी ॥ तैं० ॥ २ ॥ जैसैं राजत सिद्ध मुकति मैं,
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