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चतुर्थभाग।
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भाई ! ज्ञानका राह सुहेला रे ॥ भाई० ॥ टेक ॥ दरव न चहिये देह न दहिये, जोग भोग न नवेला रे॥ भाई० ॥१॥ लड़ना नाहीं मरना नाही, करना वेला तेला रे।पढ़ना नाहीं गढ़ना नाही, नाच न गावन मेला रे ॥ भाई० ॥२॥ न्हानां नाहीं खांना नाही, नाहि कमाना धेला रे। चलना नाहीं जलना नाहीं, गलना नाहीं देला रे ॥माई०॥३॥जो चित चाहै सो नित दाहै, चाह दूर करि खेला रे । धानत यामें कौन कठिनता, वे परवाह अकेला रे ॥ भाई० ॥४॥
प्रभु नेरी महिमा किहि मुख गावें ॥ टेक ॥ गरम छमारा अगाउ कनक नग (?) सुरपति नगर वनाचें ॥ प्रमु०॥१॥ क्षीर उदधि जल मेरु सिंहासन, मल मल इन्द्र नहुलावें । दीक्षा समय पालकी बैठो, इन्द्र कहार कहावें ।। प्रभु० ॥२॥ समोसरन रिध ज्ञान महातम, किहिनिधि सरव बतावें। आपन जातकी बात कहा शिव, बात सुनें भवि जावें ॥ प्रभु० ॥३॥ पंच कल्यानक थानक स्वामी, जे तुम मन वच ध्या। घानत तिनकी कौन कथा है, हम देखें सुख पाएँ । प्रभु०॥४॥
१ सहज । २ स्नान करना । ३ अभिषेक करावें। ...