Book Title: Jainpad Sangraha 01
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 232
________________ (३९) (९७) राग-सोरठ। हमकों कछु भय ना रे, जान लियो संसार ॥ हमकौं० टंक ।। जो निगोद में सो ही मुझमें, सो ही मोखमँझार । निश्चय भेद कछ भी नाही, भेद गिनै संसार | हमकौं० ॥१॥ परवश है आपा विसारिकै, राग दोपकौं धार । जीवत भरत अनादि कालते, यों ही है उरझार ॥ हमकों ॥२॥ जाकरि जैसे जाहि समयमै, जो होतव जा द्वार । सो वनि है टरि है कछु नाही, करि लीनों निरधार।हमकों ॥३॥ अगनि जरावे पानी वो, विछुरत मिलत अपार। सो पुगल रूपी में बुधजन, सबकी जाननहार ॥ हमकों० ॥४॥ (९८) ___ राग-सोरठ। आज तो वधाई हो नाभिद्वार ॥ आज० ॥ टेक ॥ मरुदेवी माताके उरमैं, जनमें ऋपभकुमार || आज०॥१॥ सची इन्द्र सुर सब मिलि आये, नाचत हैं सुखकार । हरपि हरपि पुरके नरनारी, गावत मंगलचार ॥ आज. ॥२॥ एसौ चालक हवो ताकै, गुनको नाहीं पार । तन मन वचत बंदत बुधजन, है भव-तारनहार ।। आज०॥२॥ (९९) सुणिल्यो जीव सुजान,सीख सुगुरु हितकी कही। सुणि ॥टेको रुल्यो अनन्ती वार, गतिगतिसाता ना लही॥सुणि. ॥१॥ कोइक पुन्य सँजोग, श्रावक कुल नरगति लही।

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