Book Title: Jainpad Sangraha 01
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 225
________________ (२६) इनतें प्रीति न ला विछुएँगे, पावगो दुख-खान रे॥तू० ॥॥ इकसे तन आतम मति आनँ, यो जड़ है तू ज्ञान रे। मोहउदय वश भरम परत है, गुरु सिखवत सरधान रे ।। तू० ॥२॥ वादल रंग सम्पदा जगकी, छिनमैं जात विलान रे। तमाशवीन वनि यातें बुधजन, सवतें ममता हान रे ॥तू० ॥३॥ (६२) राग-ईमन तेतालो। - हो विधिनाकी मोपै कही तौ न जाय ॥हो० ॥टेक।। सुलट उलट उलटी सुलटा दे, अदरस पुनि दरसाय ॥ हो० . ॥१॥उर्वशि नृत्य करत ही सनमुख,अमर परत हैं पाँय (2)। ताही छिनमैं फूल वनायो, धूप पर कुम्हलाय (2)॥हो॥२॥ । नागा पाँय फिरत घर घर जव, सो, कर दीनौं राय । ताहीको नरकनमैं कूकर, तोरि तोरि तन खाय ॥ हो० ॥३॥ करम उदय भूलै मति आपा, पुरुपारथको ल्याय । बुधजन ध्यान धरै जब मुहुरत, तब सव ही नसि जाय ॥ हो॥४॥ (६३) जिनवानीके सुनेसौं मिथ्यात मिटै। मिथ्यात मिटै समकित प्रगटै ॥ जिनवानी० ॥ टेक ॥ जैसे प्रात होत रवि ऊगत, रैन तिमिर सव तुरत फटै ॥ जिनवानी० ॥ १ ॥ अनादिकालकी भूलि मिटावै,अपनी निधिघटमैं उघटै। त्याग विभाव सुभाव सुधारै, अनुभव करतां करम कटै ॥ जिनवानी० ॥२॥ और काम तजि सेवो याकौं, या विन नाहिं अज्ञान घटै ॥ वुधजन याभव परभवमाही, याकी हुंडी तुरत पटै| जिनवानी० ॥३॥

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