Book Title: Jainpad Sangraha 01
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ASARASTRAATMASRASTRASTRA श्रीपोतरागाय नमः। जैनपदसंग्रह प्रथमभाग। अर्थात् स्वर्गीय कविवर दौलतरामजीके १२४ पद्रोंका संग्रह। जिसको देवरीनिवासी श्रीनाथूरामप्रेमीने संशोधित किया और मुम्बयीस्थ-जैनग्रन्धरत्नाकरकार्यालयने मुम्बईके निर्णयसागरप्रेसमें वा. रा. घाणेकरके द्वारा छपाकर प्रसिद्ध किया। श्रीवीरनिर्वाण संवत् २४३५ । ईसवी सन् १९०९. तृतीयवार १००० प्रति] [मूल्य ६ आने । Page #4 --------------------------------------------------------------------------  Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका। हर्पका विषय है कि, आज हम अपने मजनप्रेमी पाठकोंके सप्रमुख दौलतविलासका द्वितीय संस्करण उपस्थित करनेको समर्थ हुए हैं । अबकी बार इसको हम जैनपदसंग्रह प्रथमभागके नामसे प्रकाशित करते हैं। क्योंकि जिस अभिप्रायसे हमने इसका दौलतविलास नाम रक्खा था, खेद है कि, उसकी पूर्ति न हो सकी। अर्थात् कविवर दौलतरामजीकी समस्त कविताका विलास हमको प्राप्त नहीं हो सका । एक एक पदपर एक एक पुस्तक देनेकी सूचना देनेपर भी हमारे जैनीभाइयोंके प्रमादसे हमको कविवरके समस्त पद नहीं मिले। लाचार हमने इसका नाम कविवर दौलतरामजीका पदसंग्रह रख दिया। पदसंग्रह नाम रखनेका एक कारण यह भी है कि, जैनियोंमें पदोंका बढ़ा मारी भंडार होने पर भी आजतक किसीने इसके प्रकाशित करनेका प्रयत्न नहीं किया। और दो चार महाशयोंकी कृपासे जो दो चार छोटी मोटी पुस्तकें संग्रह होकर प्रकाशित भी हुई हैं; वे ऐसी अशुद्ध और बेसिलसिले हैं कि, उनका प्रकाशित होना न होना बराबर ही है । इसलिये हमारी यह इच्छा हुई है कि, एक एक कविका एक एक पदसंग्रह पृथक् पृथक् करके क्र. मशः प्रकाशित करें । अर्थात् जैसे यह दौलतरामजीका पदसंग्रह प्रथमभाग है, उसीप्रकार पं० भागकचंदजीके पं० भूधरदासजीके संग्रहका द्वितीयभाग संग्रहका तृतीयभाग, कविवर द्यानतरायजीके संग्रहका चतुर्थभाग, आदि नामसे वह पदभंडार अपने पाठकोंके सम्मुख उपस्थित करें। ऐसा किये बिना हम अपने प्राचीन कवियोंके काव्य ऋणसे किसीप्रकार मुक्त नहीं हो सकते । यह कितनी बड़ी लज्जाकी बात है कि, हमारे लिये दिनरात परिश्रम करके हमारे पूर्वकवि जो एक भंडार बनाके रख गये हैं, उसे हम मेंडारोंमें पड़ा पड़ा सड़ने देवें, मूर्ख लेखकोंकी कलमकुटारसे नष्टभ्रष्ट होने देवं और उसके उद्धारका कुछ भीप्रयत्न न करें। आशा है कि, Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मात्मा पाठका इस कृत्यमें पुस्तकादिसे सहायता देकर हमारे उत्साहको बढ़ावेंगे, जिससे हम इस कठिन कार्यको सहज कर सके। - छहढाला दौलतरामजीका एक खतंत्र ग्रन्थ है, वह पदोंमें संम्मिलित नहीं हो सकता । इसलिये इस संस्करणमें हमने उसको संग्रह नहीं किया है।इसके सिवाय नंबर ३२ 'नाथ मोहि तारत क्यों ना? क्या तकसीर हमारी, नाथ मोहि०'यह पद भी निकाल दिया है।क्योंकि यथार्थमें यह एक दूसरे कविका है।किसी कृपानाथने पुस्तकके लोभसे दौलतकी छाप डालकर हमारे पास भेज दिया था । इस संग्रहमें दो चार पद भी हमको इसीप्रकारके जान पड़ते हैं, परन्तु कोई दृढ़ प्रमाण मिले विना उन्हें पृथक् करनेको जी नहीं चाहता हैं। यदि कोई महाशय ऐसे पदोंकी सूचना हमको देवेंगे, तो बड़ा. उपकार होगा । आगामी संस्करणमें वे पद अवश्य हटा दिये जायेंगे। प्रथमसंस्करण छप चुकनेपर कई महाशयोंने दौलतरामजीके और भी भजन हमारे पास भेजनेकी कृपा की हैं, परन्तु उनमें अधिकांश सज्जन ऐसे ही निकले, जिन्होंने या तो द्यानतकी जगह दौलत करके अथवा आंचलीमें कुछ उलट पुलट करके भेजी है। शेष जों पद नवीन प्राप्त हुए हैं, उन्हें हमने अन्तमें लगा दिये हैं । ___ अवके संस्करणमें हमने टिप्पणी अधिक लगवाई है । इससे पदोंके गूढंशब्द वाक्य तथा भाव समझनेमें बहुत सुभीता होगा। दौलतरामजीके पद ऐसे गंभीर और कठिन हैं कि, पाठकोंको समझानेके लिये इच्छा न रहते. भी हमको टिप्पणी लगाना पड़ी। जिस शब्दकी एक वार टिप्पणी की जा चुकी है, दूसरीवार आनेपर उसकी टिप्पणी नहीं दी है । पहले संस्करणकी अपेक्षा इसवार विशेष परिश्रमसे इस ग्रन्थकी शुद्धता की गई है । इतने पर भी दृष्टिदोषसे कुछ अशुद्धि रह गई हो, तो पाठकगण क्षमा करें और सुधारके पढ़ें। ताः १०-१-०७ ई० 1 पन्नालाल वाकलीवाल । Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीतरागाय नमः' जैनपदसंग्रह । १. मंगलाचरण स्तुति | दोहा । सकल ज्ञेय ज्ञायक तदपि, निजानंदरसलीन । सो जिनेन्द्र जयवंत नित, अरिरजरहसविहीन १ पद्धरिछन्द । जय वीतराग विज्ञानपूर | जय मोहतिमिर को हरन सूर ॥ जय ज्ञान अनंतानंत धार । हंगसुख - वीरज- मंडित अपार ||२|| जय परम शांति: मुद्रा समेत । भविजनको निज- अनुभूति-हेत || भवि भागन - वश जोगेवशाय । तुम धुनि है सुनि विभ्रम नसाय || ३ || तुम गुन चिंतत निजः 3 चार घातिया कर्म । २ अनन्तदर्शन, अनन्तसुख, अनन्त-: वीर्य । ३ भव्यजनोंके भाग्यसे । ४ मनवचनकायके योगों के कारण। Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपदसंग्रहपर-विवेक-प्रघटै, विघटें आपद अनेक ॥ तुम जंगभूषन दूषनवियुक्त।सब महिमायुक्त विकल्पमुक्त ॥ ४ ॥ अविरुद्ध शुद्ध चेतनखरूप परमात्म परमपावन अनूप॥शुभ-अशुभ-विभावअभाव कीन। खाभाविकपरनतिमय अछीन ॥ ५॥ अष्टादश-. दोषविमुक्त धीर । सुचतुष्टयमय राजत गभीर ।। मुनि गनधरादि सेवत महंत । नव केवललब्धिरमा धरंत ॥ ६ ॥ तुम शासन सेय अमेय जीव । शिव गये जाहिं जै हैं सदीव ॥ भवसागरमें दुख खारवारि । तारनको और न आप टारि ॥७॥ यह लखि निजदुखगेदहरनकाज । तुम ही निमित्तकारन इलाज ॥ जाने, तातैं मैं शरन आय । उचरों निजदुख जो चिर लहाय ॥ ८॥ मैं भ्रम्यो अपनपो विसरि आप । अपनाये विधिफल पुण्यपाप ॥ निजको परको करता पिछान । परमें अनिष्टता इष्ट ठान ।।९।। आकुलित भयो अज्ञान धारि । ज्यों मृग मृगतृष्णा जान वारि॥तन-परनतिमें आपौ चितार। __ .१ अपरिमाणं । २ रोग । ३ कर्मफल । ४ पानी। ' Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमभाग। कवहूं न अनुभयो खपद सार ।। १० ।। तुमको विन जाने, जो कलेश । पाये सो तुम जानत जिनेश ।। पशु-नारक नर-सुरगतिमझार । भव घर घर मखो अनंत वार ॥ ११॥ अब काललब्धिवलत दयाल । तुम दर्शन पाय भयो खुशाल ॥ मन शांत भयो मिट सकलबंद । चाख्यो खातमरस दुखनिकंद ।। १२ । तातें अव ऐसी करहु नाथ । विछुरै न कभी तुव चरनसाथ ।। तुम गुन-गनको नहिं छेव देव ! जगतारनको तुअ विरद एव ॥ १३॥ आतमके अहित विषय-कपाय । इनमें मेरी परनति न जाय ॥ में रहों आपमें आप लीन । सो करो होहं ज्यों निजाधीन ॥ १४ ॥ मेरे न चाह कछु और ईश । रत्नत्रयनिधि दीजे मुनीश ॥ मुझ . कारजके कारन सु आप । शिवं करहु हरहु मम मोहताप ॥ १५॥ शशि शांतिकरन तपहरन-हेत । खयमेव तथा तुम कुशल देत ।। पीवत पियूष ज्यों रोग जाय । सों तुम अनुभवते १ पार । २ मोक्ष । HELHI Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपदसंग्रहभव नसाय ॥ १६ ॥ त्रिभुवन तिहुँकालमझार कोय । नहिं तुम विन निजसुखदाय होय ॥ मो उर यह निश्चय भयो आज । दुखजलधिउतारन तुम जहाज ॥ १७॥ दोहा। तुम गुन-गन-मनि गनपती, गनत न पावहिं पार । दौलवल्पमति किमि कहै, नमों त्रियोगसँभार १८ देखो जी आदीश्वर स्वामी, कैसा ध्यान लगाया है। कर ऊपरकर सुभग विराजे, आसन थिर ठहराया है ॥ देखो जी० ॥ टेक ।। जगतविभूति भूतिसम तजकर, निजानंद-पद ध्याया है । सुरभित-वासा, आशावासा नासादृष्टि सुहाया है । देखो जी० ॥ १ ॥ कंचनवरन चलै मन रंच न, सुरंगिर ज्यों थिर थाया है। जास १ गणधरदेव २ मनवचनकाय । ३ भस्म जैसी। ४ सुगंधित । ५ दिशारूपी वस्त्र-दिगम्बरता । ६ सुमेरु । Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमभाग। पास अहि मोर मृगी हैरि, जातिविरोध नशाया है। देखो जी ॥२॥ शुधउपयोग हुताशनमें जिन, वसुविधि समिधे जलाया है। श्यामलि अलिकावलि शिर सोहै, मानों धुआँ उड़ाया है ।। देखो जी० ॥ ३॥ जीवन मरन अलाभ लाभ जिन, तृन मनिको सम भाया है। सुरनर-नाग नमर्हि पद जाके, दौल तास जस गाया है ।। देखो जी ॥४॥ ३. जिनवर-आनन-भान निहारत, भ्रमतमधान नसाया है । जिन० ॥ टेक ।। वचन-किरन-प्रसरनतें भविजन, मनसरोज सरसाया है । भवदुखकारन सुखविसतारन, कुपथ सुपथ दरसाया है । जिन०॥ १॥ विनसाई कर्ज जलसरसाई, निशिचर समर दुराया है। तस्कर प्रवल कषाय पलाये, जिन धन बोध चुराया है ।। जिनः ॥२॥ लखियत उडु न कुभाव कहूं अव, मोह . १ सिंह । २ होम करनेकी लकड़ियें। ३ काई, दूसरी-पक्षमेंअमानरूपी काई। ४ कामदेव । ५ चोर । ६ तारे। . Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपदसंग्रहउलूक लजाया है। हंस कोकको शोक नश्यों निजा-परिनतिचकवी पाया है । जिन०॥३॥ कर्मबंधकजकोष बंधे चिर, भवि-अलि मुंचन पाया है । दौल उजास निजातम अनुभव, उर जग अंतर छाया है ॥ जिन०॥४॥ . . पारस जिन चरन निरख, हरख यों लहायो, चितवत चंदा चकोर ज्यों प्रमोद पायो । टेक॥ ज्यों सुन घनघोर शोर, मोरहर्षको न ओर, रंक निधिसमाजराज, पाय मुदित थायो । पारस०॥१॥ ज्यों जन चिरछंधित होय, भोजन लखि सुखित होय, भेषज गद-हरन पाय, सरुज सुहरखायो । पारस० ॥ २॥ वासर भयो धन्य आज, दुरित दूर परे भाज, शांतदशा देख महा, मोहतम पलायो॥ पारस०॥ ३॥ जाके गुन जानन जिम, भानन भवकानन इम, जान दौल शरन आय, शिवसुख ललचायो । पारस०॥४॥ १ आत्मा। २ चकवा । ३ कर्मवंधरूपीकमलोंके कोष बंधे हुए थे उनसे । ४ छोर । ५ वहुतकालका भूखा ।-६ दवाई। ७ रोगी। - Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथममाग। वंदों अदभुत चन्द्र वीर जिन, भवि-चकोरचितहारी ॥ वंदो० ॥ टेक । सिद्धारथनृपकुलनभ-मंडन, खंडन भ्रमतम भारी। परमानंद-जलधिविस्तारन, पाप-ताप-छयकारी ।। वंदों ॥१॥ उदित निरंतर त्रिभुवन अंतर, कीरति किरन पसारी । दोपमलंककलंकअटंकित, मोहराहु निरवारी ।। वंदों० ।। २ ।। कर्मावरॅन-पयोद-अरोधित, वोधित शिवमगचारी । गनधरादि मुनि उडॅगन सेवत, नित पूनमतिथि धारी ।। वंदों० ॥शा अखिल अलोकाकाश-उलंघन, जासु ज्ञानउजियारी । दौलत मनसा-कुमुदनि-मोदन, जयो चरमजगतारी ।। वंदों॥४॥ निरखत जिनचंद्र-वदन, खपरसुरुचि आई। १ वर्द्धमानभगवान् । २ दोपा-रात्रि । ३ पापरूपी कलंक । ४ कर्मावरणरूपी बादलोंसे जो ढकता नहीं है। ५ तारागण । ६म. नरूपी कुमोदनीको हर्पित करनेवाला । ७ अन्तिम तीर्थंकर । Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ जैनपदसंग्रह - निरखत० ॥ टेक ॥ प्रगटी निज आनकी, पिछान ज्ञान भानकी, कला उदोत होत काम, जामैनी पलाई । निरखत० ॥ १ ॥ सास्वत आनंद स्वाद, पायो विनस्यो विषाद, आनमें अनिष्ट इष्ट, कल्पना नसाई । निरखत० ॥ २ ॥ साधी निज साधकी, समाधि मोहव्याधिकी, उपाधिको विराधिर्के, अराधना सुहाई । निरखत० ॥ ३ ॥ धन दिन छिन आज सुगुनि, चिंते जिनराज अबै, सुधरे सब काज दौल, अचल सिद्धि पाई | निरखत || ४ | ७. जबतें आनंद - जननि दृष्टि परी माई । तवतें संशय विमोह भरमता विलाई | जवतें० ॥ टेक ॥ मैं हूं चितचिह्न भिन्न परतें पर जड़ स्वरूप, दोउनकी एकता सु, जानी दुखदाई | जबतें • ॥ १ ॥ रागादिक बंधहेत, बंधन बहु विपति देत, संवर हित जान तासु, हेतु ज्ञानताई । १ रात्रि | Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपदसंग्रहकेवलसमय जास वच-रविन जगभ्रम-तिमिर हरा । सुदृगबोधचारित्रपोते लहि, भवि भवसिंधुतरा ॥ भज०॥३॥ योगसँहार निवार शे. पैविधि, निवसे वसुमधुरा । दौलत जे याको जस गावें, ते हैं अज अमरा ।। भज०॥४॥ - जगदानंदन जिन अभिनंदन, पदअरविंद नमूं मैं तेरे । जंग०॥ टेक ॥ अरुनवरन अघतापहरन वर, वितरन कुशल सु शरन बड़ेरे । पद्मासंदन मदन-मद-भंजन, रंजनमुनिजनमनअलिकेरे।। जग०॥१॥ये गुन सुन मैं शरनें आयो, मोहि मोह दुख देत घनेरे।ता मदभानन खपरपिछानन, तुमविन आन न कारन हेरे ॥ जग०॥२॥ तुम पदशरन गही जिननें ते, जामन-जरा-मरन-निरवेरे । तुमतें विमुख भये शठ तिनको, चहुंगति विपतमहाविधि परे । जग० ॥३॥ तुमरे अमित सुगुनज्ञानादिक, सतत मु १ वचनरूपीरज सूर्यने । २ जहाज । ३ शेषके चारअघातिकर्म। ४ मोक्ष। ५ लक्ष्मीके घर । ६ मदनाशकः। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपदसंग्रह। कर्म कर्मफलमाहिं न राचे, ज्ञानसुधारस पोजे॥ हे जिन०॥३॥ मुझ कारजके तुम कारन वर, अरज दौलकी लीजे । हे जिन०॥४॥ : - २४. शामरियाके नाम जपेते, छूटजाय भवभामरियां । शाम० ॥ टेक ॥ दुरित दुरंत पुन पुरत फुरत गुन, आतमकी निधि आगरियां । विघटत है परदाह चाह झट, गटकत समरस गागरियां । शाम० ॥ १॥ कटत कलंक कर्म कलसायन, प्रगटत शिवपुरडाँगरियां, फटत घटाधन मोह छोह हट प्रगटत भेद ज्ञान घरियां। शामगा। कृपाकटाक्ष तुमारीहीतें, जुगलनागविपदा टरियां । धार भये सो मुक्तिरमावर, दौल नमें तुव पागरियां ।। शाम० ॥३॥ - २५. , शिवमगदरसावन स्वरो दरस । शिवमग० १ भवभ्रमण । २ पाप। ३ छिपते हैं। ४ स्फुरित होता है। ५ गटकते हैं अर्थात् पीते हैं । ६ कालिख । ७ मोक्षका रास्ता। ८ रागद्वेष । ९ तुह्मारा नाम धारण करकें । १० आपको। Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . प्रथमंभाग । २९ ॥ टेक ॥ परं पद- चाह- दाह -गदनाशन, तुम वचभेपज - पान सरस । शिवमग० ॥ १ ॥ गुणचितवत निज अनुभव प्रघटै, विघटै विधिठग दुविध तरस | शिवमग० ॥ २ ॥ दौल अवांची संपति सांची पाय र थिर राच सरस | शिवमग० ||३|| २६. मेरी सुध लीजे रिपभस्वाम । मोहि कीजें शिवपथगाम ॥ टेक ॥ मैं अनादि भवभ्रमत दुखी अव, तुम दुखमेटत पाधाम । मोहि मोह घेरा कर चेरा, पेरा चहुंगति विपतठाम । मेरी० ॥ १ ॥ विपयन मन ललचाय हरी मुझ, शुद्धज्ञान संपति ललाम | अथवा यो जड़को न दोष मम, दुखसुखता, परनतिसुकाम || मेरी ० ॥ २ ॥ भाग जगे अब चरन जपे तुम, वच सुनके गहे सुरौनग्राम | परमविराग ज्ञानमय मुनिजन, जपत तुमारी सुदाम || मेरी - || ३ || निर्विकार संपतिकृति १ पुद्गलसम्बन्धी चाहका दाहरूपीरोग नाशकरनेके लिये दवाई | २ अवाच्य, जिसका वर्णन न हो सके । ३ गुणोंके समूह । ४ गुणोंकी माला । Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपदसंग्रह। तेरी, छविपर वारों कोटि काम । भव्यनिके भवहारन कारन, सहज यथा तमहरन घाम ॥ मेरी० ॥ ४॥ तुम गुनमहिमा कथनकरनको, गिनत गैनी निजबुद्धि खोम । दौलतनी अज्ञान परन ती, हे जगत्राता कर विराम | मेरी०॥५॥ २७. - मोहि तारो जी क्यों ना ? तुम तारक त्रिजग त्रिकालमें, मोहि० ॥ टेक ।। मैं भवउदधि पखो दुख भोग्यो, सो दुख जात कहो ना। जामनमरन अनंततनो तुम, जाननमाहिं छिप्यो ना ॥ मोहि ॥ १॥ विषय विरसरस विपम भख्यो मैं, चख्यो न ज्ञान सलोना । मेरी भूल मोहि दुख देवै, कर्मनिमित्त भलो ना ॥ मोहि ॥२॥ तुम पदकंज धरे हिरदै जिन, सो भवताप तप्यो ना। सुरगुरुहूके वचनकरनकर, तुम जसगगन नप्यो ना ॥ मोहि०॥३॥ कुगुरु कुदेव कुश्रुत सेये मैं, तुम मत हृदय घखो ना । परम १ सूरज । २ गणधर । ३ कोताही कमी । ४ की। ५ वचनरूपी किरणोंसे अथवा हाथों से । ६ मापा नहीं गया। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमभाग ।. विराग ज्ञानमय तुमजा, ने विन काज सखो ना ॥ मोहि० ॥ ४॥मो सम पतित न और दयानिधि, पैतिततार तुम सोना । दौलतनी अरदास यही है, फिर भववास वसों ना ॥ मोहि०॥५॥ २८. मैं आयो, जिन शरन तिहारी। मैं चिरदुखी विभावभावतें, स्वाभाविक निधि आप विसारी॥ मैं० ॥१॥ रूप निहार धार तुम गुन सुन, वैन होत भवि शिवमगचारी । यो ममकारजके कारन तुम, तुमरी सेव एव उरधारी ।। मैं० ॥२॥ मिल्यो अनंत जन्मतें अवसर, अब विनऊं हे भवसरतारी । परमें इष्ट अनिष्ट कल्पना, दौल कहै झट मेट हमारी॥ मैं० ॥३॥ .. मैं हरख्यो निरख्यो मुख तेरो। नॉसान्यस्तनयन भ्रूहेलय न, वयन निवारन मोह अंधेरो ।। मैं०॥१॥ परमें कर मैं निजबुधि अबलों, भव १ पापी २ पापियोंका तारनेवाला । ३ अर्जी । ४ नासिकापर लंगाई है दृष्टि जिसने ५ हिलते नहीं हैं। ... - - Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ जैनपदसंग्रह | " सरमें दुख सह्यो घनेरो । सो दुखभानन खपर. पिछानन, तुमविन आन न कारन हेरो ॥ मैं० ॥ २ ॥ चाह भई शिवराहलाहकी, गयो उछाह असंजमकेरो । दौलत हितविराग चित आन्यो, जान्यो रूप ज्ञानहग मेरो ॥ मैं० ॥ ३ ॥ ३०. प्यारी लागे म्हाने जिन छवि थारी ॥ टेक ॥ परमनिराकुलपद दरसावत, वर विरागताकारी । पटभूषन विन पै सुंदरता, सुरनरमुनिमनहारी || प्यारी० ॥ १ ॥ जाहि विलोकत भवि निज निधि लहि, चिरविभावता टारी । निरेनिमेपतें देख सैचीपति, सुरत सफल विचारी || प्यारी० ||२|| महिमा अकथ होत लख ताको, पशु सम समकितधारी । दौलत रहो ताहि निरखनकी, भव भव ठेव हमारी || प्यारी० ॥ ३ ॥ ३१.. निरख सुख पायो, जिन मुखचंद | नि० ॥ टेक ॥ मोह महातम नाश भयो है, उरअंबुज १ लाभ - प्राप्तिकी । २ टिमकाररहित । ३ इन्द्रः । ४ देवपणा । Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमभाग। प्रफुलायो । ताप नस्यो बढ़ि उदधि अनंद । निरख० ॥१॥ चकवी कुमति विछुर अति विलखै, आतमसुधा सवायो । शिथिल भये सब विधिगनफंद ॥ निरख० ॥२॥ विकट भवोदधिको तट निकट्यो, अघतरुमूल नसायो । दौल लह्यो अव सुपद खछंद । निरख० ॥३॥ निरख सखि ऋपिनको ईश यह ऋपभ जिन, परखिके स्वपर परसोंज छारी । नैन नाशाग्र घरि मैन विनसायकर, मोनजुत खास दिशि-सुरभिकारी ॥ निरख० ॥ १॥ धरासम शांतियुत नरामरखत्ररनुत, विद्युतरागादिमद दुरितहारी। जास मपास भ्रमनाश पंचास्य मृग, वासकार प्रीतिकी रीति धारी ।। निरख०॥२॥ध्यानदवमाहि विधिदारु प्रजरांहि शिर, केशशुभ जिमि धुआं दिशि विधारी । फँसे जगपंक जनरंक तिने १ परपरणति । २ काम | ३ दिशाओंको सुगन्धित करनेवाली। ४ मनुष्य देय विद्याधरोंसे वन्दनीय । ५ रहित । ६ पाप । ७ घरण।८सिंह।९ध्यानरूपीअग्निमें। १० कर्मरूपी इंधन ११ विस्तारी। wamnavamm ation ३ मा." Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपदसंग्रहकाढ्ने, किधों जगनाह यह वाँह सारी । निर. ख०॥३॥ तप्त होटकवरन वसन विन आमर. न, खरे थिर ज्यों शिखर मेरुकारी । दौलको दैन शिवधौलें जगमौल जे, तिन्हें करजोर वंदन हमारी । निरख०॥ ४॥ ध्यानपान पानि गहि नासी, वेसठ प्रकृति अरी । शेष पंचासी लाग रही हैं, ज्यों जेवरी. जरी ॥ ध्यान० ॥ टेक ॥ दुठ अँनंगमातंगभंगकर, है प्रबलंगहरी । जा पदभक्ति भक्तजन-दुख दावानल मेघझरी ।। ध्यान० ॥ १॥ नवल धवल पले सोहै कलमें, क्षुधतृषव्याधि टरी । हलत न पलक अलंक नख बढ़त न, गति नभमाहिं करी। ध्यान० ॥२॥जा विन शरन मरनजरधरधर, महा असात भरी । दौल तास पद दास होत हैं, बास मुक्तिनगरी ।। ध्यान० ॥३॥ . .१ पसारी .। २ तपाये हुए सोनेकासा रंग | ३ मेरुका। ४ मुक्तिरूपी महल ।.५ ध्यानरूपी तलवार । ६ घातियाकर्मोकी. प्रकृतियें। ७ कामदेवरूपी हंस्तीको मारनेवाले । ८ बलवान सिंह। R.मांस व रुधिर । १०शरीरमें । ११ केश।. ... . : . Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपदसंग्रह:छीजिये । कर्म कर्मफल माहिं न रावत, ज्ञान सुधारस पीजिये । प्रभुमोरी० ॥ १॥ सम्यग्दः र्शन ज्ञान चरननिधि, ताकी प्राप्ति करीजिये। मुझकारजके तुम बड़कारन, अरज दौलकी ली: जिये । प्रभु मोरी० ॥२॥ वारी हो वधाई या शुभ साजै । विश्वसेन ऐरीदेवीगृह जिनभवमंगल छाजै। वारी०॥टेक।। सव अमरेश अशेष विभवजुत, नगर नागपुर आये । नाग-दत्त सुरइन्द्रवचनतें, ऐरावत सज धाये । लखजोजन शतवदन वदनवसु रदै प्रतिसर ठहराये । सर-सर सौ-पन-वीस नलिनप्रति, पदम पचीस विराजै । वारी हो० ॥ १॥ पदमपदमप्रति अष्टोत्तरशत, ठने सुदल मनहारी । ते सब कोटि सताइसपै मुद, जुत नाचत सुरना री। नवरसगान ठान काननको, उपजावत सु. खभारी । वंकलैलावत लंकलचावत, दुतिलखि .१ न्यून नहोवे ! २ शान्तिनाथ भगवानकी माता । ३ भगवान के जन्मका उत्सव । ४ सम्पूर्ण । ५ हस्तिनापुर । ६ कुवेर । ७ दात.. Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमभाग। दामनि लाजै । वारी हो०॥२॥ गोप गोप॑तिय जाय मायढिग, करी तास थुति सारी । सुखनिद्रा जननीको कर नमि, अंक लियो जगतारी । लै वसुमंगल द्रव्य दिशसुरींचलीं अग्रशुभकारी । हरखि हैरी चख सहस करी तव, जिनवर निरखनकाजै । वारी हो० ॥ ३॥ ता गजे. न्द्र प्रथम इन्द्रने, श्रीजिनेन्द्र पधराये । द्वितिय छत्र दिय तृतिय, तुरिय-हरि, मुदधरि चमर दुराये। शेषशक जयशब्द करत नभ, लंघ सुराचल छाये । पांडुशिला जिन थाप नची संचि, दुंदुभिकोटिक बाजै । वारी०॥ ४॥ पुन सुरेशने श्रीजिनेशकोजन्मन्हवन शुभ ठानो । हेमकुंभ सुरहाथहिं हाथन, क्षीरोदधिजल आनो । वदनउदरअवगाह एक चौ, वसुयोजन परमानो । सहसआठकर करि हरि जिनशिर, ढारत जयधुनि १ गुप्त रूपसे । २ इन्द्राणी । ३ गोदमें । ४ भगवान । ५ दिकन्यका देवियाँ। ६ इन्द्र। ७ ऐशान इन्द्र । ८ सानत्कुमार और माहेन्द्र । ९ वाकीके सव इन्द्र। १०. सुमेरु। ११ इन्द्राणी। .१२ सोनेके कलशोंके मुख एक योजन,उदर चारयोजन और-गहराई आठ योजन थी। . . . . Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपदसंग्रहगाजै । वारी० ॥५॥ फिर हरिनारि सिंगार खामितन, जजे सुरा जस गाये । पूरवेली विधिकर पयान मुद,-ठान पिताघर लाये । मनिमय आंगनमें कनकासन, पै श्रीजिन पधराये । तांडव नृत्य कियो सुरनायक, शोभा सकल समाजै । वारी० ॥६॥ फिर हरि जगगुरुपितरतोष शान्तेशै घो जिन नामा। पुत्रजन्म उत्साह नगरमें, कियो भूप अभिरामा । साध सकल निजनिजनियोग सुर-असुर गये निजधामा । त्रिपदधारि जिनचारुचरनकी, दौलत करत सदा जै ।वारी०॥७॥ ४५. *. हे जिन ! तेरो सुजस उजागर, गावत हैं मुनिजन ज्ञानी । हे जिन ॥ टेक ॥ दुर्जयमोह महाभट जाने, निजवश कीने जगपानी । सो तुम ध्यानकृपान पानिगहि, ततछिन ताकी थिति ::१ इन्द्राणी । २ पूर्वकी । ३ जिन भगवानके पिताकी स्तुतीकसके । ४ शान्तिनाथनाम । ५ घोषणा करके । ६. तीर्थकरत्व, चक्रवर्तित्व और कामदेवत्व इन तीन पदोंके धारी। .. Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमभाग। भानी । हे जिन० ॥१॥ सुप्त अनादि अविद्यानिद्रा, जिन जन निजसुधि विसरानी । खै सचेत तिन निजनिधि पाई, श्रवन सुनी जब तुमवानी । हे जि०॥२॥ मंगलमय तू जगमें उत्तम, तुही शरन शिवमगदानी । तुवपद-सेवा परम औषधी, जन्मजरामृतगद हानी । हे जिनक ॥३॥ तुमरे पंजकल्यानकमाही, त्रिभुवन मोददशा ठानी। विष्णु, विदंवर, जिष्णु, दिगम्बर, वुध, शिव कह ध्यावत ध्यानी । हे जिन०॥४॥ सर्व दर्वगुनपरजयपरनति, तुम सुवोधमें नहिं छानी । तातें दौलदास उरआशा, प्रगट करो निजरससानी । हे जिन०॥५॥ हे मन ! तेरी को कुटेव यह, करनेविषयमें धावैहै। हे मन० ॥ टेक ।। इनहीके वश तू अनादितै, निजस्वरूप न लखावै है । पराधीन छिन छीन समाकुल, दुरगतिविपति चखावै है । हे १ जन्ममरणजरारूपी रोग । २ इन्द्रियोंके विषयमें । Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपदसंग्रहमनः ॥ १॥ फरस विषयके कारन वारन, गरतैपरत दुख पावै है । रसना इंद्रीवश झेप जलमें, कंटक कंठ छिदावै है । हे मन० ॥२॥ गंध. लोल पंकज मुंद्रितमें अलि निजपान खपावै है। नयनविषयवश दीपशिखामें अंग पतंग जरावे है। हे मन० ॥ ३॥ करनविषयवश हिरन अरनमें, खलकर प्रान लुनावै है । दौलत तज इनको जिनको भज, यह गुरु शीख सुनावै है। हे० ॥ ४॥ ४७४ .. हो तुम शठ अविचारी जियरा, जिनवृष पा. य वृथा खोवत हो। हो तुम०॥ टेक ॥ पी अ. नादि मदमोह स्वगुननिधि, भूल अचेत नींदसो. वत हो । हो तुम०॥१॥ स्वहितसीखवच सुगुरु पुकारत, क्यों न खोल उरहग जोवत हो । ज्ञानविसार विषयविष चाखत, सुरतरंजारि कनक .१ हाथी। २ गढेमें पड़कर। ३ मछली। ४ वंदकमलोंमें । ५ कानके विषयसे । ६ वनमें । ७ जिनधर्म । ८ हियेकी आंखें। ९ कल्पवृक्षको जलाकर। १० धत्तूरा । Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ प्रथमभाग। बोवत हो ॥ हो तुम० ॥ २॥ स्वारथ सगे सकल जगकारन, क्यों निजपापभार ढोवत हो। नरभवसुकुल जैनवृप नौका, लह निज क्यों भवजल डोवत हो ॥ हो तुम० ॥ ३॥ पुण्यपापफल-वातव्याधिवश, छिनमें हँसत छिनक रोवत हो । संयमसलिल लेय निजउरके, कलिमल क्यों न दौल धौवत हो ॥ हो तुम० ॥ ४॥ ४८. हो तुम त्रिभुवनतारी हो जिन जी, मो भव- । जलधि क्यों न तारत हो । टेक ।। अंजन कियो निरंजन तातें, अधमउधारविरद धारत हो । हरि वराह मर्कट झट तारे, मेरी वेर ढील पारत हो। हो तुम० ॥ १॥ यों वहु अधम उधारे तुम तौः मैं कहा अधम न मुहि टारत हो । तुमको करनो परत न कछु शिव, पथ लगाय भव्यनि तारत हो । हो तुम० ॥ २॥ तुम छविनिरखत सहज टरै अध, गुणचिंतत विधि रज झारत हो । दोलन और चहै मो दीजे, जैसी आप भावना रत हो । हो तुम०.॥३॥ .. .. . Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपदसंग्रह ___ मान ले या सिख मोरी, झुकै मत भोगन ओरी । मानले० ॥ टेक ॥ भोग भुजंगभोगसम जानो, जिन इनसे रति जोरी । ते अनंत भव भीम भरे दुख, परे अधोगति पोरी; बँधे दृढ पातकडोरी । मान० ॥ १॥ इनको त्याग विरागी जे जन, भये ज्ञानवृषधोरी। तिन सुख लह्यो अचल अविनाशी, भवफांसी दई तोरी; रमै तिनसँग शिवगौरी । मान० ॥२॥ भोगनकी अभिलाषहरनको, त्रिजग संपदा थोरी। यातें ज्ञानानंद दौल अब, पियौ पियूष कटोरी; मिटै भवव्याधि कठोरी ॥ मान० ॥३॥ - छोडिदे या बुधि भोरी, वृथा तनसे रति जोरी । छांड०॥ टेक ॥ यह पर है न रहै थिर पोषत, सकल कुमलकी झोरी । यासों. ममता कर अनादितें, बँधो कर्मकी डोरी, सहै दुख १ सर्पके फणकी समान । २ भयानक । ३ पौर।४ पापकी डोरमें। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमभाग । जलधि हिलोरी । छोड़ि दे या बुधि भोरी; वृथा० ॥ १॥ यह जड़ है तू चेतन यौँ ही, अपनावत वरजोरी । सम्यकदर्शन ज्ञान चरण निधिः ये हैं संपत तोरी, सदा विलसौ शिवगोरी ॥ अंड़ि दे या बुधि भोरी; वृथा० ॥२॥ सुखिया भये सदीव जीव जे, यासें ममता तोरी। दौल सीख यह लीजे पीजे: ज्ञानपियूस कटोरी, मिटे परचाह कठोरी ॥ छोड़ि दे या बुधि भोरी; वृथा०॥३॥ भाव हित तेरा, सुनि हो मन मेरा, भाखू० ॥ टेक ॥ नरनरकादिक चारों गतिमें, भटक्यो तू अधिकानी । परपरनतिमें प्रीतिकरी निजपरनति नाहिं पिछानी, सहे दुख क्यों न घनेरा।। । भा०॥१॥ कुगुरुकुदेवकुपंथपंकसि, तै वहु खेद लहायो । शिवसुख देन जैन जगदीपक, सो तें कबहुं न पायो, मिट्यो न अज्ञानअँधेरा।। भा० ॥ २॥ दर्शनज्ञानचरन तेरी निधि, सो '४ मा." Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपदसंग्रह | विधिठेगन ठगी है। पांचों इंद्रिनके विपयनमें, तेरी बुद्धि लगी है, भया इनका तू चेरा ॥ भाखूं || ३ || तू जगजालविषै बहु उरइयो, अब कर ले सुरझेरा । दौलत नेमिचरनपंकजका, हो तू. भ्रमर सेवेरा, नशै ज्यों दुख भवकेरा || भाखूं ||४|| ५२. ५० ऐसा मोही क्यों न अधोगति जावै, जाको जिनवानी न सुहावै । ऐसा० ॥ टेक ॥ वीतरा गसे देव छोड़कर, भैरव यक्ष मनावै । कल्पलता दयालुता तजि हिंसा इन्द्रायनि वावै || ऐसा ॥ १ ॥ रुचै न गुरु निर्ग्रन्थभेप बहु, परिग्रही गुरु भावै | परंधन परतियको अभिलापै, अशर्ने अशोधित खावै || ऐसा ० || २ || परकी विभव देख है सोगी, परदुख हरख लहावे । धर्महेतु इक दाम न खरचै, उपवन लक्ष बहावै ॥ ऐसा ॥ ३ ॥ जो गृहमें संचय बहु अघ तौ, वनहूमें उठ जावै । अम्बर त्याग कहाय दिगम्बर, वाघ १ कर्मरूपी ठगोंने । २ शीघ्र ही । ३ वोवै । ४ भोजन । ५ विनाशोधा हुआ । ६ दुःखी । ७ बाग बनानेमें लाखों रुपये । Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमभाग । - ५१ म्बर तन छावै । ऐसा०॥ ४॥ आरंभ तज शठ यंत्रमंत्र करि, जनपै पूज्य मनावै । धामवाम तज दासी राखै, वाहिर मढ़ी बनावै ॥ ऐसा०॥ ५॥ नाम धराय जती तपसी मन, : विपयनिमें ललचावै । दौलत सो अनंत भव भटकै, औरनको भटकावै ॥ ऐसा०॥६॥ ऐसा योगी क्यों न अभयपद पावै, सो फेर न भवमें आवै । ऐसा० ॥ टेक ॥ संशय-विभ्रममोह विवर्जित, स्वपरस्वरूप लखावै । लखं परमातमचेतनको पुनि, कर्मकलंकमिटावै ॥ ऐसा योगी० ॥१॥ भवतनभोगविरक्त होय तन, ना सुभेप बनावै । मोहविकार निवार निजातम,अनुभवमें चित लावै ॥ ऐसा योगी० ॥२॥ वस-थावर-वध त्याग सदा परमादंदशा छिटकावे । रागादिकवश झूठ न भाखै, तृणहु न अदत गहावे ॥ऐसा योगी०॥३॥ वाहिर नारि त्यागि अंतर चिदब्रह्म सुलीन रहावै । परमा१ संसार और देह भोगोसे विरक्त । २ विना दिया। - - Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ जैनपदसंग्रह। किंचन धर्मसार सो, विविधप्रसंग वहावै ॥ऐसा योगी०॥ ४॥ पंचसमिति त्रयगुप्ति पाल व्यवहार-चरनमग धावै । निश्चय सकलकपायरहित है, शुद्धातम थिर थावै ॥ ऐसा योगी० ॥५॥ कुंकुम पंक दास रिपु तृण मणि, व्यालमाल सम भावै । आरतरौद्र कुध्यान विडार, धर्मशुकलको ध्यावै ॥ ऐसा योगी० ॥६॥ जाके सुखसमाजकी महिमा, कहत इन्द्र अकुलावै । दौल तासपद होय दास सो. अविचलऋद्धि लहावै ।। ऐसागाणा लखो जी या जिय भोरेकी वात, नित करत अहितहित घातें । लखोजी० ॥ टेक । जिन गनधर मुनि देशवृती समकिती सुखी नित जाते। सो पय ज्ञान न पान करत न, अघोत विषयविष खातें ॥ लखो० ॥१॥ दुखस्वरूप दुखफैलद जलँदसम, टिकत न छिनक विला । तजत न जगत न भजत पतित नित, रचत न फिरत --१.दो प्रकारका परिग्रह । २ तृप्त होता है । ३ दुखरूप फल देनेवाला।४वादल। . . . . . . . . . . . Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ जैनपदसंग्रह। धनादि प्रगट पर, ये मुझते हैं भिन्नप्रदेशें । इ. नकी परनति है इन आश्रित, जो इन भाव परनवें वैसें ॥ ज्ञानी० ॥१॥ देह अचेतन चेतन मैं इन, परनति होय एकसी कैसें। पूनगलन खभावधरै तन, मैं अज अचल अमल नभ जैसें॥ ज्ञानी० ॥२॥ पर परिनमन न इष्ट अनिष्ट न, वृथा रागरुष द्वंद भयेसें । नसै ज्ञान निज फँसै बंधमें, मुक्त होय समभाव लयेसें ।। ज्ञानी ॥३॥ विषयचाहदवदाहनशै नहिं, बिन निज सुधासिंधुमें पैसें । अब जिनवैन सुने श्रवननतें, मिटै विभाव करूं विधि तैसें ॥ ज्ञानी० ॥ ४॥ ऐसो अवसर कठिन पाय अब, निजहितहेत विलंब करेसें । पछताओ बहु होय सयाने, चेतत दौल छुटो भवभैसें ।। ज्ञानी० ॥५॥ ५८. अपनी सुधि भूल आप, आप दुख उपायो, ज्यों शुक नभचाल विसरि नलिनी लटकायो॥ अपनी० ॥ टेक ॥ चेतन अविरुद्धशुद्ध, दरा १ पूरण होने और गलन होनेरूप स्वभाववालापुद्गल होता है ।। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपदसंग्रह। ७५. जिनरागदोषत्यागा वह सतगुरू हमारा। जिनराग० ॥ टेक ॥ तज राजरिद्ध तृणवत निज काज संभारा । जिनराग०॥१॥ रहता है वह वनखंडमें, धरि ध्यान कुठारा । जिन मोह महा तरुको, जड़मूल उखारा । जिनराग०. ॥ २॥ सर्वांग तज परिग्रह, दिगअंबर धारा। अनंतज्ञानगुनसमुद्र, चारित्र भंडारा ॥ जिनराग० ॥ ३ ॥ शुक्लामिको प्रजालके वसुकानन जारा। ऐसे गुरूको दौल है, नमोऽस्तु हमारा ।। जिनराग० ॥ ४॥ चिदरायगुन मुनो सुनो, प्रशस्त गुरुगिरा। समस्त तज विभाव, हो स्वकीयमें थिरा । चिद० ।। टेक ॥ निजभावके लखाव विन, भवाब्धि परा। जामन सरन जरा त्रिदोष, अग्निमें जरा | चिद०॥१॥ फिर सादि औ १ यह पद दौलतरामजीका नहीं मालूम होता, इसका पाठ भी गड़बड़ है। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमभाग। ७१ अनादि दो, निगोदमें परा । तहँ अंकके असंख्यभाग, ज्ञान ऊवरा ॥ चिद०॥ २॥ तहां भव अंतर मुहूर्तके, कहे गनेश्वरा । छयासठ सहस त्रिशत छतीस, जन्मधर मरा ॥ चिद० ॥ ३ ॥ यों वशि अनंतकाल फिर, तहांतें नीसरा । भूजलं अनिल अनल प्रतेक, तरुमें तन धरा ।। चिद०॥ ४ ॥ अंधरीर कुंथु कान, मच्छ अवतरा । जलथल खचर कुनर नरक, असुर उपज मरा, ॥ चिद० ॥ ५ ॥ अवके सुथल सुकुल सुसंग, वोध लहि खरा । दोलत त्रिरत्नसाध लाध, पद अनुत्तरा ।। चिद०॥६॥ ७७. . चित चिंतकै चिदेश कव, अशेष पर यूं। . दुखदा अपार विधि दुचार,-की चमूं दमूं ॥ चित चिं०॥ टेक ॥ तजि पुण्यपाप थाप आप, आपमें रमूं। कव राग-आग शर्म-वाग, दागनी १ आत्मा । २ सम्पूर्ण । ३ परपदार्थ । ४ वमन कर दूं-छोड़ दूं। ५ कर्म । ६ दो चार अर्थात् आठ । ७ फौज । ८ आत्मामें। ९ रमण करूं । १० कल्याणरूप वागकी जलानेवाली । Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ जैनपदसंग्रह। शैy ॥ चित चिंतकै० ॥ १ ॥ गज्ञानभानते मिथ्या, अज्ञानतम दमूं। कब सर्व जीव प्रोणिभूत, सत्त्वसों छy ॥ चित चिंतकै० ॥ २ ॥ जैलमल्ललिप्त-कल सुकर्ल-, सुबल्ल परिन । दलकें त्रिशल्लमल्ल कव, अटल्लप, पमू । चित चिंतक ॥३॥ कब ध्याय अज अमरको फिर न, भवविपिन भमूं। जिन पूर कौले दौलको यह, हेतु हौं नमूं ॥ चितकै० ॥ ४ ॥ ७८. जिन छवि लखत यह बुधि भयी । जिन ॥ टेक ॥ मैं न देह चिदंकमय तन, जड़ फरसरसमयी। जिनछवि० ॥ १ ॥ अशुभशुभफल कम दुखसुख, पृथकता सब गयी । रागदोषविभावचालित, ज्ञानता थिर थयी। जिनछवि० ॥ २ ॥ परिगहन आकुलता दहन, विनशि १ शमन करूं, शांत करूं । २ दर्शन और ज्ञानरूपी सूर्यसे । ३ दशप्राणमयी । ४ जड़ । ५ शरीर । ६ शुक्लध्यानके वलसे। ७ माया, मिथ्यात, निदानरूप तीन शल्यरूपी पहलवानोंको । ८ मोक्षपद । ९ प्रतिज्ञा । Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३ ७९. प्रथमभाग। शमता लयी। दौल पूरैवअलभ आनंद, लह्यो • भवथिति जयी ॥ जिन० ॥३॥ जिनवैन सुनत, मोरी भूल भगी । जिनवैन. ॥टेका कर्मस्वभाव भाव चेतनको, भिन्न पिछानन सुमति जगी । जिन० ॥ १ ॥ जिन अनुभूति सहज ज्ञायकता, सो चिर रुष-तुप-मैल-पगी। स्यादवाद-धुनि-निर्मल-जलतें, विमल भई समभाव लगी। जिन ॥२॥ संशयमोहभरमता विघटी, प्रगटी आतैमसोज सगी । दौल अपूरव मंगल पायो, शिवसुख लेन होस उमगी॥ जिन०॥३॥ जिनवानी जान सुजान रे । जिनवानी० ॥ टेक ।। लागरही चिरतें विभावता, ताको कर अवसान रे । जिनवानी० ॥ १॥ द्रव्यक्षेत्र अरु कालभावकी, कथनीको पहिचान रे । जाहि पिछाने खपरभेद सब, जाने परत निदान रे । १ पूर्वमें जिसका लाभ नहीं हुआ ऐसा । २ निजपरणति । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपदसंग्रह | 198 जिनवानी || २ || पूरव जिन जानी तिनहीने, भांनी संसृतवान रे । अब जानें अरु जानेंगे जे, ते पावें शिवथान रे ॥ जिनवानी० ॥ ३ ॥ कह 'तुषमाष' मुनी शिवभूती, पायो केवल-ज्ञान रे । यों लखि दौलत सतत करो अवि, चिद्वचनामृतपान रे || जिनवानी० ॥ ४ ॥ ८१. जम आन अचानक दावैगा, जम आन० ॥ टेक | छिनछिन कटत घटत थितै ज्यों जल, अंजुलिको झर जावैगा । जम आन० || १ || जन्म तालतरुतें पर जियफल, कोलग बीच रहावैगा । क्यों न विचार करै नर आखिर, मरन महीमें आवैगा ॥ जम: आन० || २ || सोवत मृत जागत जीवत ही, श्वासा जो थिर थावैगा । जैसें कोऊ छिपै सदासों, कबहूं अवशि पलावैगा ॥ जम आन० || ३ || कहूं कबहुं कैसें हू कोऊ: - १ नाश की । २ भ्रमणकी आदत । ३ आयु । ४ जन्मरूपी ताड़वृक्षसे पड़ करके जीवरूपी फल वीचमें कवतक रहेगा ? वह तो नीचे पड़ेगा ही, अर्थात् मरेगा ही । ५ भागेगा ।. Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमभाग। अंतकसे न वचावैगा। सम्यकज्ञानपियूष पियेसों, दौल अमरपद पावैगा । जम आन० ॥ ४॥ ८२. - - ___ छांड़त क्यो नहिरे, हे नर ! रीति अयानी । वारवार सिख देत सुगुरु यह, तू दे आनाकानी ॥ छोड़त०॥ टेक ।। विषय न तजत न भजत बोध व्रत, दुखसुखजाति न जानी । शर्म चहै न लहै शठ ज्यों घृतहेत विलोवत पानी ॥ छांइत० ।। १ ।। तन धन सदन स्वजनजन तुझसों, . यह परजाय विरानी । इन परिनमन-विनश-उपजनसों, ते दुख सुखकर मानी ॥ छोड़त० ॥ २॥ इस अज्ञानतें चिरदुख पाये, तिनकी अंकथ कहानी । ताको तज दृग-ज्ञान-चरन- भज, निजपरनति शिवदानी ।। छाड़त०॥ ३॥ यह दुर्लभ नरभव सुसँग लहि, तत्त्व-लखावन वानी । दौल न कर अब परमें ममता, धर समता सुखदानी ॥ छांडत०॥ ४॥ १ जमराजसे । २ सम्यग्ज्ञानरूपी अमृत । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपदसंग्रह | ८३. राचि रह्यो परमाहिं तू अपनो रूप न जाने रे । राचि रह्यो० टेक || अविचल चिनमूरत विनमूरत, सुखी होत तस ठाने रे । राचि रह्यो० ॥ १ ॥ तन धन भ्रात तात सुत जननी, तू इनको निज जाने रे । ये पर इनहिं वियोगयोगमें, यों ही सुख दुख मानै रे || राचि ० ॥ २ ॥ चाह न पाये पाये तृष्णा, सेवत ज्ञान जघानै रे ॥ विपतिखेत विधिबंधहेत पैं, जान विषय रस खानै रे || राचि ० || ३ || नरभव जिनश्रुतश्रवण पाय अब कर निज सुहित सयानै रे । दौलत आतम-ज्ञान-सुधारस, पीवो सुगुरु बखानै रे || राचि रह्यो० ॥ ४ ॥ " ८४. तू काहेको करत रति तनमें, यह अहितमूल जिम कांरासदन । तू काहेको ० ॥ टेक ॥ चरमपिहित पैल- रुधिर-लिप्त मल, -द्वारखवै छिन - १ कारागार जहलखाना । २ चमड़े से ढकी हुई । ३ मांस । ७६ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपदसंग्रह । गई अब हू नर, धर दृग-चरन सम्हारै ॥ मोहिड़ा०॥४॥ __ मेरे कब है वा दिनकी सुधरी। मेरे ॥ टेक ॥ तन विनवसन असनविन वनमें, निवसों नासादृष्टि धरी। मेरे०॥ १ ॥ पुण्यपापपरसों कब विरचों, परचों निजनिधि चिर-विसरी । तज उपाधि सजि सहजसमाधी, सहों घाम-हिम-मेघझरी । मेरे० ॥२॥ कब थिरजोग घरों ऐसो मोहि, उपल जान मृग खाज हरी । ध्यान कमान तान अनुभव-शर, छेदों किहि दिन मोह अरी ॥ मेरे०॥३॥ कब तृनकंचन एक गनों अरु, मनिजड़ितालय शैलेंदरी । दौलत सतगुरुचरनसेव जो, पुरवो आश यहै हमरी ।। मेरे०॥४॥ ‘लाल कैसे जावोगे, असरनसरन कृपाल १ धूप-शीत-वर्षा । २ पत्थर । ३ अनुभवरूपी वाण । ४ रत्नजड़ित महल । ५ पर्वतकी कंदरा।. Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमभाग। लाल० ॥ टेक ॥ इक दिन सरस वसंतसमयमें, केशवकी सब नारी । प्रभुप्रदच्छनारूप खड़ी है, कहत नेमिपर वारी । लाल० ॥१॥ कुंकुम लै मुख मलत रुकमनी, रँग छिरकत गांधारी । सतभामा प्रभुओर जोर कर, छोरत है पिचकारी ॥ लाल० ॥२॥ व्याह कबूल करो तौ छूटौ, इतनी अरज हमारी । ओंकार कहकर प्रभु मुलके, छाँड़ दिये जगतारी ।। लाल. ॥३॥ पुलकितवदन मदनपितु-भामिनि, निज निज सदन सिधारी । दौलत जादववंशव्योमशशि, जयो जगतहितकारी ॥ लाल० ॥ ४ ॥ ९५. शिवपुरकी डॅगर समरससों भरी, सो विषयविरस-रचि चिरविसरी । शिव०॥ टेक ॥ सम्यकदरश-बोध-व्रतमय भव, दुखदावानल मेघ १ स्वीकार । २ मगनप्रति-ऐसा भी पाठ है । मदनपितुभामिनि-मदन अर्थात् प्रद्युम्न कामदेवके पिता श्रीकृष्णकी खियें। ३ 'जादववंशव्योममणि' ऐसा भी पाठ है । जदुवंशरूपी आकाशके चन्द्रमा नेमिनाथ भगवान् । ४ मार्ग। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ जैनपदसंग्रह | झरी | शिवपुर० ॥ १ ॥ ताहि न पाय तपाय देह बहु, जनममरन करि विपति भरी । काल पाय जिनधुनि सुनि मैं जन, ताहि लहूं सोइ धन्य घरी || शिव० ॥ २ ॥ ते जन धनि या माहिं चरत नित, तिन कीरति सुरपति उचरी । विषयचाह भवराह त्याग अब, दौल हरो रजरेहसिअरी || शिवपुर० ॥ ३ ॥ ९६. तोहि समझायो सौ सौ बार, जिया तोहि समझायो० ॥ टेक ॥ देख सुगुरुकी परहितमें रति, हितउपदेश सुनायो । सो सौ बार० ॥ १॥ विषयभुजंग सेय सुख पायो, पुनि तिनसों लपटायो | स्वपदविसार रच्यौ परपदमें, मैदरत ज्यों बोरायो । सौ सौ बार० ॥ २ ॥ तन धन स्वजन नहीं हैं तेरे, नाहक नेह लगायो । क्यों न तजै भ्रम चाख समामृत, जो नित संतसुहायो ॥ सौ सौ बार० || ३ || अब हू समझ १ चारघातिया कर्म । २ शरावी - मद्यप । ३ समता रूपी अमृते । Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - प्रथमभाग। कठिन यह नरभव, जिन वृष विना गमायो । ते विलखें मनि डार उदधिमें, दौलत को पछतायो । सौ सौ० ॥ ४॥ न मानत यह जिय निपट अनारी । सिख देत सुगुरु हितकारी ॥ न मानत०॥ टेक ॥ कुमतिकुनारिसंग रति मानत, सुमतिसुनारि विसारी । न मानत० ॥ १॥ नरपरजाय सुरेश चहें सो, चखि विपविपय विगारी । त्याग अनाकुल ज्ञान चाह पैर, आकुलता विसतारी । न मानत० ॥२॥ अपनी भूल आप समतानिधि, भवदुख भरत भिखारी । परद्रव्यनकी परनतिको शट, वृथा वनत करतारी ॥ न मानत० ॥ ३॥ जिस कपाय-दव जरत तहां अभि, लापछटा घृत डारी । दुखसों डरै करै दुखकारन,-तं नित प्रीति करारी ॥ न मानत. ॥ ४॥ अतिदुर्लभ जिनवैन श्रवनकरि, संशय१ जिन्होंने । २ धर्म । ३ पुद्गलसम्बधी । ४ कर्ता । ५ गाढ़ी । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपदसंग्रह। मोहनिवारी । दौल स्वपर-हित-अहित... होवहु शिवमगचारी ॥ न मानत०॥५॥ ___ हम तो कबहूं न हित उपजाये। • सुदेव-सुगुरु-सुसंगहित, कारन पाय गमाये, हम तो० ॥ टेक ॥ ज्यों शिशु नाचत आप. मांचत, लखनहार बौराये । त्यों श्रुतंबांचत न राचत, औरनको समुझाये ॥ हम तो॥ सुजस-लाहकी चाह न तज निज, प्रभुता . हरखाये । विषय तजे न जे निजपदमें, परपः दअपद लुभाये॥ हम तो० ॥२॥ जिन-जाप न कीन्हों, सुमनचाप-तप-ताये । चे. तन तनको कहत भिन्न पर, देह सनेही थाये . हम तो०॥३॥ यह चिर भूल भई हमरी अब कहा होत पछताये । दौल अजौं भवभौग मत, यों गुरु वचन सुनाये । हम तो०॥४. १ मग्न होते । २ शास्त्र पढ़ते । ३ सुयशके लाभकी हर मन हुए। ५ जिनदेवका जाप । ६ सुमनचाप-कामदेवकी तपनमें तप्त। . .. . MAR .. .. Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमभाग । ९९. हम तो कबहूं न निजगुन भाये । तन निज मान जान तनदुखसुख में विलखे हरखाये । हम तो० ॥ टेक ॥ तनको गरन मरन लखित'नको, धरन मान हम जाये । या भ्रमभौर परे भवजल चिर, चहुंगति विपत लहाये | हम तो ० ॥ १ ॥ दरशबोधत्रत सुधा न चाख्यो, विविध विषय-विष खाये । सुगुरु दयाल सीख दइ पुनि पुनि, सुनि सुनि उर नहिं लाये ॥ हम तो ० ॥ २ ॥ बहिरातमता तजी न अन्तर -दृष्टि न है निज ध्याये | धाम - काम-धन- रामाकी नित, आश- हुताश- जलाये ॥ हम तो० || ३ || अचल अनूप शुद्ध चिद्रूपी, सब सुखमय मुनि गाये | दौल चिदानंद स्वगुन मगन जे, ते जिय सुखिया धाये ॥ हम तो० ॥ ४ ॥ ८९ १००. हम तो कबहूं न निज घर आये । परघर १ भावना की । २ उत्पन्न हुए । ३ आशारूपी अग्निमें । Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपदसंग्रह। फिरत बहुत दिन बीते, नाम अनेक धराये ॥ हम तो० ॥ टेक ॥ परपद निजपद मानि मगन है, परपरनति लपटाये । शुद्ध बुद्ध सुखकंद मनोहर, चेतनभाव न भाये ॥ हम तो०॥१॥ नर पशु देव नरक निज जान्यो, परजय-बुद्धि लहाये । अमल अखंड अतुल अविनाशी, आतमगुन नहिं गाये । हम तो० ॥२॥ यह बहु भूल भई हमरी फिर, कहा काज पछताये। दौल तजो अजहूँ विषयनको, सतगुरु वचन सुनाये ॥ हम तो० ॥ ३ ॥ १०१. . मानत क्यों नहिं रे, हे नर ! सीख सयानी। भयो अचेत मोह-मद पीके, अपनी सुधि विसरानी ॥ टेक ।। दुखी अनादि कुबोध अवृततें, फिर तिनसों रति ठानी । ज्ञानसुधा निजभाव न चाख्यो, परपरनति मति सानी । मानत० ॥१॥ भव असारता लखै न क्यो जहँ, नृप द्वै कृमि विटे-थानी । सधन निधन नृप दास १ कीट । २ विष्ठाके स्थानमें। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपदसंग्रह। नमें ॥ २॥ इस तनमें तूं बे, क्या गुन देख लुभाया। महा अपावन वे, सतगुरु याहि व. ताया ॥ सतगुरु याहि अपावन गाया, मलमूत्रादिकका गेहा । कृमिकुल-कलित लखत घिन आवै, यासों क्या कीजे नेहा ? ॥ यह तन पाय लगाय आपनी, परनति शिवमगसाधनमें । तो दुखदंद नशै सब तेरा, यही सार है इस तनमें ॥३॥ भोग भले न सही, रोगशोकके दानी । शुभगति रोकन बे, दुर्गतिपथअगवानी ॥ दुगतिपथअगवानी हैं जे, जिनकी लगन लगी इनसों । तिन नानाविधि विपति सही है, विमुख भया निजसुख तिनसों। कुंजर झेख अलि शर्लभ हिरन इन, एकअक्षवशें मृत्यु लही। यातें देख समझ मनमाहीं, भवमें भोग भले न सही.॥ ४ ॥ काज सरै तब बे, जब निजपद आराधै। नशै भावलि बे, निरावाधपद लाधै। निरावाधपद लाधै तब तोहि, केवल दर्शन ज्ञान : १ हाथी । २ मछली । ३ भौंरा-भ्रमर । ४ पतंग । ५ एक एक इंद्रियके वशसे । ६ भवोंका समूह । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमभाग। जहाँ । सुख अनन्त अतिइन्द्रियमंडित, वीरज अचल अनंत तहाँ ॥ २॥ ऐसा पद चाहै तो भज निज, वारवार अव को उचरे । दौल मुख्यउपचार रनत्रय, जो सेवै तो काज सरै जकड़ी ११०. पभादि जिनेश्वर ध्याऊं, शारद अंवा चित लाऊं। देविधि-परिग्रह-परिहारी, गुरु नमहुँ स्वपरहितकारी ॥ हितकार तारक देव श्रुत गुरु, परख निजउर लाइये । दुखदाय कुपथविहाय शिवमुख,-दाय जिनवृप ध्याइये ॥ चिरतै कुमग पगि मोहठगकर, ठग्यो भैव-कानन पखो। व्यालीसद्रिकलख जोनिमें, जरमरनजामन-दवं जखो ॥ १ ॥ जब मोहरिपु दीन्हीं घुमरिया, तसुवश निगोदमें परिया। तहाँ खास एकके माही, अष्टादश मरन लहाहीं ॥ लहि मरन अन्तमुहूर्तमें, छयासठसहस शततीन ही। षट १ "जिन भी पाठ है । २ संसारख्पी वन । ३ चौरासीलाख योनि । ४ बद्धावस्था, मृत्यु, और जन्मरूपी अग्निमें जला। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० जैनपदसंग्रह । तीस काल अनंत यों दुख, सहे उपमाही नहीं । कबहूं लही वर आयु छिति-जल, पवन-पावकतरुतणी । तसु भेद किंचित् कहूं सो मुनि, कह्यो जो गौतमगणी ॥ २॥ पृथिवी दय भेद बखाना, मृदु माटी कठिन पखाना । मृदु दादशसहस बरसकी, पाहन वाईस सहसकी। पुनि सहस सात कही उदक त्रय, सहसवर्ष समीरकी । दिन तीन पावक दशसहस तरु, प्रमित नाश सुपीरकी ॥ विनघात सूच्छम देह: धारी, घातजुत गुरुतन लह्यो । तहँ खनन तापन जलन व्यंजन, छेद भेदन दुख सह्यो ॥३॥ शंखादि दुइंद्री पानी, थिति द्वादशवर्ष बखानी । यूकादि तिइंद्री हैं जे, वासर उनचास जियें ते॥ जीवै छमास अलीप्रमुख, व्यालीससहस उरगतनी । खगकी बहत्तरसहस नवपूर्वांग सरीसृपंकी भनी ॥ नर मत्स्य पूरवकोटकी थिति, करमभूमि बखानिये । जलचर विकल . १ पृथ्वी । २ पानी । ३ जूआंआदि । ४ भ्रमरआदि । ५ स पविशष ... ... . Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमभाग। १०१ विन भोगभूनर, पशु त्रिपल्य प्रमानिये ॥४॥ अघवशकर नरकवसेरा, भुगतै तहँ कष्ट घनेरा। छेदै तिलतिल तन सारा, छेपै ३हपूतिमझारा ॥ मंझार वज्रानिल पचावे, धरहिं शूली ऊपरें । सींचे जु खारे वारिसों दुठ, कहें व्रण नीके करें। वेतरणिसरिता समल जल अति, दुखद तरु सेंबलतने । अति भीम वन असिक्रांतसम देल, लगत दुख देवै धनें ॥ ५॥ तिस भूमें हिम गरमाई, सुरगिरिसम असं गल जाई । तामें थिति सिंधुतनी है, यो दुखद नरक अवनी है। अवनी तहाँकीत निकसि, कवहूं जनम पायो नरो । सर्वांग सकुचित अति अपावन, जठर जननीके परो ॥ तहँ अधोमुख जननी रसांश,थकी जियो नवमास लों । ता पीरमें कोउ सीर नाही, सहै आप निकास लों ॥ ६ ॥ जनमत जो संकट पायो, रसनात जात न गायो । लहि वालपनै दुख भारी, तरुनापो लयो १ भोगभूमिया मनुष्य और पशु । २ दुर्गधिके भरे तालाव । ३ फौई। ४ तलवारकी धार । ५ पत्ते । ६ लोहा । ७ पृथिवी । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ जैनपदसंग्रह। दुखकारी ॥ दुखकारि इष्टवियोग अशुभ, सँयोग सोग सरोगता । परसेवं ग्रीषम सीत पावस, सहै दुख अति भोगता । काहू कुतिय काहू कुबांधव, कहुँ सुता व्यभिचारिणी । किसहू विसैन-रत पुत्र दुष्ट, कलत्र कोऊ परऋणी ॥७॥ वृद्धापनके दुख जेते, लखिये सब नयननतें ते । मुख लाल बहै तन हालै, विन शक्ति न वसन सभालै ॥ न सँभाल जाके देहकी तो, कहो वृषकी का कथा ? तब ही अचानक आन जम गह, मनुज जन्म गयो वृथा ॥ काहू जनम शुभठान किंचित, लह्यो पद चहुंदेवको । अभियोग किल्विषे नाम पायो, सह्यो दुख परसेवको ॥८॥ तहँ देख महत सुरऋद्धी, झूखो विषयनकरि गृद्धी । कबहूं परिवार नसानो, शोकाकुल है विललानो ॥ विललाय अति जब म १ दूसरोंकी सेवा, नोकरी । २-४ दुष्टखी । ३ व्यसनी।. ५. लाला लार । ६ धर्मकी। ७ चार प्रकारके देवे। ८-९ आभियोग और किल्विष देवोंमें एक प्रकारके नीचे सेवकोंके समान देव होते हैं। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमभाग। रन निकट्यो, सह्यो संकट मानसी । सुरविभव दुखद लगी जवै तव, लखी माल मेलान सी॥ तवही जु सुर उपदेशहित समु, झायियो समुझ्यो न त्यों। मिथ्यात्वजुत च्युत कुगति पाई, लहै फिर सो स्वपद क्यों? ॥९॥ यों चिरभव अटवी गाही, किंचित साता न लहाही । जिनकथित धरम नहिं जान्यो, परमाहिं अपनपो मान्यो ।। मान्यो न सम्यक त्रयातम, आतम अनातममें फँस्यो। मिथ्याचरन दृग्ज्ञान रंज्यो, जाय नवग्रीवक वस्यो । पै लह्यो नहिं जिनकथित शिवमग, वृथा भ्रम भूल्यो जिया । चिदभावके दरसाव विन सव, गये अहले तप किया ॥ १० ॥ अब अदभुत पुण्य उपायो, कुल जात विमल तू पायो । यातें सुन सीख सयाने, विषयनसों रति मत ठाने । ठाने कहा रति विषयमें ये, विषम विधरसम लखो। यह देह मरत अनंत इनको, त्याग आतमरस चखो ॥ या रसरसिकजन वसे शिव अव, वसे पुनि वसि हैं सही । दौ१ भाला । २ मुरझानी हुई । ३ व्यर्थ । ४ सर्प । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ जैनपदसंग्रह । लत स्वरचि परविरचि सतगुरु, शीख नित उर घर यही ॥ ११ ॥ __ होली १११. ___ ज्ञानी ऐसी होली मचाई० ॥ टेक ॥ राग कियो विपरीत विपन घर, कुमति कुसौति सुहाई । धार दिगंबर कीन्ह सु संवर, निज-परभेद लखाई । घात विषयनिकी वचाई ॥ ज्ञानी ऐसी०॥ १॥ कुमति सखा भजि ध्यानभेद सम, तनमें तान उड़ाई । कुंभक ताल मृदंगसों पूरक, रेचक बीन बजाई । लगन अनुभवसों लगाई ॥ ज्ञानी ऐसी०॥ २॥ कर्मवलीता रूप नाम अरि, वेद सुइन्द्रि गनाई । दे तप अमि भस्म करि तिनको, धूल अघाति उड़ाई । करी शिव तियकी मिलाई ।। ज्ञानी ऐसी० ॥३॥ ज्ञानको फाग भागवश आवै, लाख करौ चतुराई । सो गुरु दीनदयाल कृपाकरि, दौलत तोहि बताई । नहीं चितसे विसराई ॥ ज्ञानी ऐसी होली मचाई ।। ४॥ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०५ प्रथमभाग । ११२. मेरो मन ऐसी खेलत होरी ॥ टेक ॥ मन मिरदंग साजकरि त्यारी, तनको तमूरा बनोरी । सुमति सुरंग सरंगी बजाई, ताल दोउ कर जोरी | राग पांचों पद कोरी || मेरो मन० ॥ १ ॥ समकृति रूप नीर भर झारी, करुना केशर घोरी । ज्ञानमई लेकर पिचकारी, दोउ करमाहिं सम्होरी | इन्द्रि पांचों सखि बोरी | मेरो मन० || २ || चतुर दानको है गुलाल सो भरि भरि मूठि चलोरी । तपमें बांकी भरि निज झोरी, यशको अवीर उड़ोरी । रंग जिनधाम मचौरी || मेरो मन० || ३ || दौल वाल खेलें ले अस होरी, भवभव दुःख टलोरी । शरना इक श्रीजिनको री, जगमें लाज हो तोरी । मिलै फगुआ शिवगौरी ॥ मेरो मन० ॥ ४ ॥ ११३. प्रभु निरखत जिनचंद री माई ॥ टेक ॥ दुति देख मंद भयौ निशिपति, आन सु पग लिपटाई | प्रभु सुचंद वह मंद होत है, जिन Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ जैनपदसंग्रह। सासमँझारी । जनममरन नवदुगुन विथाकी; कथा न जात उचारी ॥ सुध लीज्यो० ॥३॥U जल ज्वलन पवन प्रतेक तरु, विकलत्रयतनधारी । पंचेंद्री पशु नारक नर सुर विपति भरी भयकारी ॥ सुधलीज्यो० ॥४॥ मोह महारिपु नेक न सुखमय, होन दई सुधि थारी । सो दुठ मंद भयो भागनतें, पाये तुम जगतारी । ॥ सुध लीज्यो० ॥ ५॥ यदपि विरागि तदपि तुम शिवमग, सहजप्रगटकरतारी । ज्यों रविकिरन सहजमगदर्शक, यह निमित्ति अनिवारी। सुध ली० ॥ ६ ॥ नाग छाग गज बाघ भील दुठ, तारे अधम उधारी । सीसनवाय पुकारत अबके, दौल अधमकी बारी॥ सुधली० ॥७॥ १२१. मत राचो धीधारी, भव रंभैथंभसम जानके। मत राचो । टेक ॥ इंद्रजालको ख्याल मोह ठग, विभ्रमपास पसारी । चहुँगति विपतिमयी . १ अठारहबारकी । २ पृथ्वीकाय । ३ अग्निकाय । ४ बुद्धिमानो ! ५ केलेके खंभे समान । - - - - -- Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमभाग। ११३ जामें जन, भ्रमत भरत दुख भारी । मत०॥१॥ रामा मा, मा बामा, सुत पितु, सुता श्वसो, अवतारी । को अचंभ जहां आप आपके पुत्र दशा विस्तारी॥ मत राचो० ॥२॥ घोर नरक दुख और न छोर नलेशन सुख विस्तारी।सुरनर प्रचुर विषयजुर जारे, को सुखिया संसारी॥ मत राचो० ॥३॥ मंडल द्वै आँखंडल छिनमें, नृप कृमि, सधन भिखारी। जा सुत विरह मरी द्वै वाघिनि, ता सुत देह विदारी ॥ मत राचो० ॥४॥ शिशु न हिताहितज्ञान तरुन उर, मदनदहन परजारी । वृद्ध भये विकलांगी थाये, कौन दशा सुखकारी? ॥ मत राचो० ॥५॥ यो असार लख छार भव्य झट, भये मोखमगचारी । यातें होउ उदास दौल अव, भज जिनपति जगतारी ।। मत० ॥ ६ ॥ १२२. नित पीज्यो धीधारी, जिनवानि सुधार्सम १ स्त्री । २ वहिन । ३ कुत्ता । ४ देव । ५ लट । ६ कामाग्नि । ७ जनशास्त्रोंको । ८ अमृतसमान । . . ... . ma- mandu ८गा.१ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ जैनपदसंग्रह | जानके, नित पी० ॥ टेक ॥ वीरमुखारविंदतें प्रगटी, जन्मजरा-गर्द टारी । गौतमादिगुरु-उरघट व्यापी, परम सुरुचिकरतारी ॥ नित० ॥ १ ॥ सलिलसमान कलिलैमलगंजन बुधमनरंजनहारी । भंजन विभ्रमधूलि प्रभंजन, मिथ्या- जलदनिवारी || नित पी० ॥ २ ॥ कल्योनकतरु उपवनधरिनी, तैरनी भवजलतारी | बंधँविदारन 'पैनी छैनी, मुक्तिनसैनी सम्हारी ॥ नित पी० || ३ || स्वपरस्वरूप प्रकाशनको यह, भानुकलां अविकारी | मुनि- मन- कुमुदिनि-मोदन - शशिभा, शमसुखं सुमनसुबारी ॥ नि० ॥ ४ ॥ जाको सेवत बेवेत निजपद, नशत अविद्या सारी । तीनलोकैपति पूजत जाको, जान त्रिजगहितकारी | L १ महावीरस्वामीके मुखकमलसे । २ रोग । ३ जलकी समान । ४ पापरूपी मैलको नष्ट करनेवाली । ५ " मंगलतरुहि उपावन धरनी" ऐसा भी पाठ है । ६ नौका । ७ कर्मबंध । ८ तीखी छैणी । ९ मुनियोंकी मनरूपी कुमोदनीको प्रफुल्लित करनेकेलिये चंद्रमाकी रोशनी । १० समता- रूपी सुख ही हुआ पुष्प, उसकेलिये अच्छी वाटिका | ११ जानते वा अनुभवते हैं। १२ तीन भुवनके राजा इन्द्रादिक । Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमभाग। ११५ नित० ॥५॥ कोटि जीभसों महिमा जाकी, कहि न सके पविधारी । दौल अल्पमति केम कहै यह, अधमउधारनहारी ।। नि०॥ ६ ॥ १२३. मत कीज्यो जी यारी, घिनगेह देह जड़ ; जानके, मत की० ॥ टेक ॥ मात-तात-रज-वीर: जसों यह, उपजी मलफुलवारी । अस्थिमालपल-नसाजालकी, लाल लाल जलक्यारी॥ मत की० ॥१॥ कर्मकुरंगथलीपुतली यह, मूत्रपुरीपभँडारी । चर्ममँडी रिपुकर्मघड़ी धन, धर्मचुरावनहारी ॥ मत कीज्यो० ॥ २ ॥ जेजे पावन वस्तु जगतमें, ते इन सर्व विगारी । खेदमेट्रॅकफक्तंदमयी बहु, मदंगदव्यालपिटारी ॥ मत की० ॥ ३॥ जा संयोग रोगभव तोलों, जा वियोग शिवकारी । बुध तासों न ममत्व करें यह, मूहमतिनको प्यारी॥मत की०॥४॥ १ वनधारी इन्द्र । २ घृणाका घर । ३ हाड़ माँस नसोंके समूहकी । ४ कर्मरूपी हिरनोंको फंसानेवाली जगहपर पुतलीके. समान। ५ विष्टा । ६ पसीना । ७ चरवी। ८ दुःख । ९ मदरोगरूपी सांपके लिये पिटारी। १० संसाररूपीरोग। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ जैनपदसंग्रह। जिन पोषी ते भये सदोषी, तिन पाये दुख भारी । जिन तप ठान ध्यानकर शोपी, तिन परनी शिवनारी ॥ मत की० ॥ ५॥ सुरधनु शरदजलद जलबुदबुद, त्यों झट विनशनहारी। यातें भिन्न जान निज चेतन, दौल होहु शर्मधारी ।। मत की० ॥ ६॥ १२४. जाऊं कहां तज शरन तिहारे ॥ टेक ॥ चूक अनादितनी या हमरी, माफ करो करुणा गुन धारे ॥ १॥ डूबत हों भवसागरमें अब, तुम विनको मुह वार निकारे ॥ २॥ तुम सम देव अवर नहिं कोई, तातें हम गह हाथ पसारे ॥३॥ मोसम अधम अनेक उधारे, वरनत हैं श्रुत शास्त्र अपारे ॥४॥"दौलत" को भवपार करो अब, आयो है शरनागत थारे ॥५॥ tattitutet समाप्त। - १क्षीण की । २ इन्द्रधनुष्य । ३ शरदऋतुके वादल । ४ समताके धारी। Page #62 --------------------------------------------------------------------------  Page #63 --------------------------------------------------------------------------  Page #64 --------------------------------------------------------------------------  Page #65 --------------------------------------------------------------------------  Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ USERSerseaseRSERSERSEASRSERea Srasteraseas श्रीवीतरागाय नमः जैनपदसंग्रह द्वितीयभाष। अर्थात् पण्डित भागचन्द्रजीकृत पदोंका संग्रह । RERCISBNCREENotessorsonEOSUKHECENEFERes जिसे श्रीजैनग्रन्थरलाकरकार्यालयबम्बईने मुम्बयीस्थ ' निर्णयसागर प्रेसमें छपाकर. e starasesrasesasasaraseastoassasarasaaRSEEN प्रकाशित किया। श्रीवीर नि० सं० २४३४ । प्रश्रमग्रार १००० प्रति ] [ मूल्य |J आने । ForSREERSERSEREERSERSONSERSERY Page #67 --------------------------------------------------------------------------  Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना | पाठक महाशय ! पूरे एक वर्षके पीछे हम अपनी प्रतिज्ञाको पूर्ण कर सके । अर्थात् जैनपदसंग्रह प्रथमभाग प्रकाशित करनेके एक वर्ष पश्चात् यह दूसरा भाग आपके सम्मुख उपस्थित करने में समर्थ हुए । इस भाग में ईसागढ़ निवासी कविवर भागचन्द्रजीके बनाये हुए पदोंका संग्रह है। उक्त कविवरके बनाये हुए और भी अनेक भजन सुने जाते हैं, परन्तु उनके प्राप्त करनेका कोई साधन न होनेसे हमको इतनेहीसे संतोष करना पड़ा है । दानवीर शेठ माणिकचन्द्रजीके पुस्तकालय में एक पदोंकी पोथी है, उसीपर यह भाग तयार किया गया है । दूसरी पुस्तकके अभासे इसके संशोधन करनेमें बहुत परिश्रम किया गया है, इतनेपर भी अनेक स्थान भशुद्ध और भ्रमपूर्ण रह गये हैं । आशा है कि आगामी संस्करण में यह त्रुटि दूर हो जावेगी । किसी पदमें अशुद्धि जान पड़े और उनका पाठान्तर स्मरण हो, तो सज्जन पाठकों को उसकी सूचना देनी चाहिये । वह सहर्ष साभार स्वीकार की जावेगी। इसके सिवाय जो महाशय कविवर भागचन्द्रजीके इन पदोंके अतिरिक्त अन्य भजन विनती आदि भेजने की कृपा करेंगे, उनके हम बहुत कृतज्ञ होगे, और धूमरा संस्करण छपने पर उन्हें प्रत्येक पदपर एक २ पुस्तक भेटमें भेज देंगे । परन्तु पुस्तक के कोमसे कोई महाशय किसी दूसरे कविके बदले " भागचन्द्र " की छाप डालकर भेजने की कृपा न करें । हमारी इच्छा थी कि पहले भागके समान इसे भी टिप्पणीसहित प्रकाशित करें, परन्तु संशोधन में अन्य पुस्तकोंकी सहायता न मिल सकने के कारण ऐसा न किया जा सका। हो सका तो आगमी संस्करणमें टिप्पणी लगा दी जायेंगी । मूल प्रति रागोंके नाम जिसप्रकार लिखे थे हमने उसीके अनुसार Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . जैनपदसंग्रह. हो ॥ १॥ जिन अशुभोपयोगकी परनति, सत्तासहित : विनाशी हो । होय कदाच शुभोपयोग तो, तहँ भी रहत उदासी हो ॥२॥ छेदत जे अनादि दुखदायक, दुविधि बंधकी फाँसी हो । मोह क्षोभ रहित जिन परनति, विमल मयंक-कला सी हो ॥३॥ विपय-चाह-दव-दाह खुजावन, साम्य सुधारस-रासी हो । भागचन्द ज्ञानानंदी पद, साधत सदा हुलासी हो ॥ धन० ॥४॥ यही इक धर्ममूल है मीता!निज समकितसार-सहीता। यही० ॥ टेक ॥ समकित सहित नरकपदवासा, खासा बुधजन गीता। तहते निकसि होय तीर्थकर, सुरगन जजत सप्रीता ॥ १ ॥ स्वर्गवास हू नीको नाही, विन समकित अविनीता । तहतें चय एकेंद्री उपजत, भ्रमत सदा भयभीता ॥ २ ॥ खेत बहुत जोते हु वीज विन, रहित धान्यसों रीता। सिद्धि न लहत कोटि तपहूते, वृथा कलेश सहीता ॥ ३ ॥ समकित अतुल अखंड सुधारस, जिन पुरुषननें पीता। भागचन्द ते अजर अमर भये, तिनहीने जग जीता ।। यही इक धर्म० ॥४॥ ४. राग ठुमरी। ___ जीवनके परिनामनिकी यह, अति विचित्रता देखहु ज्ञानी ॥ टेक ॥ नित्य निगोदमाहितें कदिकर, नर पर• जाय पाय सुखदानी । समकित लहि अंतर्मुहूर्तमें, केवल Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयभाग. . पाय वर शिवरानी ॥२॥ मुनि एकादश गुणथानक चढ़ि, गिरत तहांत चितभ्रम ठानी । भ्रमत अर्घपुद्गलमावतेन, किंचित् ऊन काल परमानी ॥२॥ निज परिनामनिकी सभालमें, तात गाफिल मत व्है प्रानी । बंध मोक्ष परिनामनिहीलों, कहत सदा श्रीजिनवरवानी ।। ॥ ३ ॥ सकल उपाधिनिमित भावनिसों, भिन्न सु निज परनतिको छानी। ताहि जानि रुचि ठानि होहु थिर, भागचन्द यह सीख सयानी ।। जीवनके पर० ॥४॥ परनति सब जीवनकी, तीन भाँति वरनी। एक पुण्य एक पाप, एक रागहरनी ॥ परनति० ॥ टेक ॥ ताम शुभ अशुभ अंध, दोय करें कर्मबंध, वीतराग परनति ही, भवसमुद्रतरनी ॥१॥ जावत शुद्धोपयोग, पावत नाहीं मनोग, तावत ही करन जोग, कही पुण्य करनी ॥ २॥ त्याग शुभ क्रियाकलाप, करो मत कदाच पाप, शुभमें न मगन होय, शुद्धता विसरनी ॥३॥ उंच उंच दशा धारि, चित प्रमादको विडारि, ऊंचली दशात मति, गिरो अधो धरनी ॥४॥ भागचन्द्र या प्रकार, जीव लहै सुख अपार, याक निरधार स्याद, बादकी उचरनी ॥ परनति० ॥५॥ . जीव ! तू भ्रमत सदीव अकेला । सँग साथी कोई नहिं Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपदसंग्रह. तेरा ॥टेक॥ अपना सुखदुख आप हि भुगते, होत कुटुंब न भेला ।.स्वार्थ भय सव विछुरि जात है, विघट जात ज्यों मेला ॥१॥ रक्षक कोइ न पूरन व्है जब, आयु अंतकी वेला । फूटत पारि बधत नहिं जैसे, दुद्धर जलको ठेला । ॥ २॥ तन धन जोवन बिनशि जात ज्यो, इन्द्रजालका खेला । भागचन्द इमि लख करि भाई, हो सतगुरुका घेला ॥ जीव तू भ्रमत० ॥३॥ आकुलरहित होय इमि निशदिन, कीजे तत्वविचारा हो । को मैं कहा रूप है मेरा, पर है कौन प्रकारा हो ॥ टेक ॥१॥ को भव-कारण वंध कहा को, आस्रवरोकनहारा हो । खिपत कर्मबंधन काहेसों, थानक कौन हमारा हो ॥ २ ॥ इमि अभ्यास किये पावत है, परमानंद अपारा हो। भागचंद यह सार जान करि, कीजे वारंपारा हो ॥ आकुलरहित होय० ॥३॥ राग भैरव। सुन्दर दशलच्छन वृष, सेय सदा भाई। जासते ततच्छन जन, होय विश्वराई ॥ टेक ।। क्रोधको निरोध शांत, सुधाको नितांत शोध, मानको तजौ भजौ स्वभाव कोमलाई ॥१॥ छल बल तजि सदा विमलभाव संरलताई भजि, सर्व जीव चैन दैन, वैन कह सुहाई ॥२॥ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . द्वितीयभाग. ज्ञान तीर्थ स्नान दान, ध्यान भान हृदय आन, दया-चरन धारि करन-विषय सव विहाई ॥ ३ ॥ आलस हरि द्वादश तप, धारि शुद्ध मानस करि, खेहगेह देह जानि, तजौ नेहताई ॥४॥ अंतरंग वाह्य संग, त्यागि आत्मरंग पागि; शीलमाल अति विशाल, पहिर शोभनाई ।। ५ ॥ यह वृप-सोपान-राज, मोक्षधाम चढ़न काज । तनसुख () निज गुनसमाज, केवली वताई ॥ सुन्दर०॥६॥ प्रभाती। गेड़शकारन सुहृदय,धारन कर भाई!. . जेनते जगतारन जिन, होय विश्वराई ।। टेक ।। नर्मल श्रद्धान ठान, शंकादिक मल जघान, देवादिक विनय सरल, भावतें कराई ॥१॥ शील निरतिचार धार, मारको सदैव मार, अंतरंग पूर्ण ज्ञान, रागको विंधाई ॥२॥ स्थाशक्ति द्वादश तप, तपो शुद्ध मानस कर, भात रौद्र ध्यान त्यागि, धर्म शुक्ल ध्याई ॥३॥ जथाशक्ति वैयावृत, धार अष्टमान टार, रक्ति श्रीजिनेन्द्रकी, सदैव चित्त लाई॥४॥ प्रारज आचारजके, वंदि पाद-चारिजकों, नक्ति उपाध्यायकी, निधाय सौख्यदाई ॥५॥ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपदसंग्रह. प्रवचनकी भक्ति जतनसेति वुद्धि धरो नित्य, आवश्यक क्रियामें न, हानि कर कदाई ॥६॥ धर्मकी प्रभावना सु, शर्मकर वढावना सु, जिनप्रणीत सूत्रमाहि, प्रीति कर अघाई ।। ७॥ ऐसे जो भावत चित, कलुपता वहावत तमु, चरनकमल ध्यावत वुध, भागचंद गाई । पोड़श० ॥८॥ १०. प्रभाती। श्रीजिनवर दरश आज, करत सौख्य पाया । अप्ट प्रातिहार्यसहित, पाय शांति काया ।। टेक ॥ वृक्ष है अशोक जहां, भ्रमर गान गाया। सुन्दर मन्दार-पहुप, वृष्टि होत आया ॥१॥ ज्ञानामृत भरी वानि, खिरै भ्रम नसाया । विमल चमर ढोरत हरि, हृदय भक्ति लाया ॥२॥ सिंहासन प्रभाचक्र, वालजग सुहाया। देव दुंदुभी विशाल, जहां सुर बजाया ॥ ४ ॥ मुक्ताफल माल सहित, छत्र तीन छाया । भागचन्द अद्भुत छवि, कही नहीं जाया ॥ श्रीजिन०॥५॥ ११. राग ठुमरी। वीतराग जिन महिमा थारी, वरन सके को जन त्रिभुवनमें ॥ वीतराग० ॥ टेक ॥ तुमरे अतट चतुष्टय प्रगट्यो, निाशेषावरनच्छय छिनमें । मेघ पटल विघटनतें प्रगटत, Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयभाग. जिमि मार्तंड प्रकाश गगनमें || वीतराग० ॥ १ ॥ अप्रमेय ज्ञेयन के ज्ञायक, नहि परिनमत तदपि ज्ञेयनमें | देखत नयन अनेकरूप जिमि, मिलत नही पुनि निज विपयनमें ॥ वीतराग० ||२|| निज उपयोग आपने स्वामी, गाल दिया निश्चल आपनमें । है असमर्थ वाह्य निकसनको, लवन घुला जैसें जीवनमें ॥ वीतराग० ॥ ३ ॥ तुमरे भक्त परम सुख पावत, परत अभक्त अनंत दुखनमें । जैसो मुख देखो तेसो है, भासत जिम निर्मल दरपनमें ॥ वीतराग० ॥ ४ ॥ तुम कपाय विन परम शांत हो, तदपि दक्ष | कमरिहतनमें । जैसे अतिशीतल तुपार पुनि, जार देत द्रुम भारि गहनमें ॥ वीतराग० ॥ ५ ॥ अब तुम रूप जथारथ पायो, अब इच्छा नहिं अन कुमतनमें । भागचन्द अम्रतरस पीकर, फिर को चाहे विष निज मनमें ॥ वीतराग० ॥ ६ ॥ १२. राग डुमरी । बुधजन पक्षपात तज देखो, साँचा देव कौन है इनमें ॥ बुधजन० ॥ टेक ॥ ब्रह्मा दंड कमंडलधारी, स्वांत भ्रांत वश सुरनारिनमें । मृगछाला माला मौंजी पुनि, विषयासक्त निवास नलिनमें ॥ बुधजन० ॥ १ ॥ शंभू खट्टाअंगसहित पुनि, गिरिजा भोगमगन निशदिनमें । हस्त कपाल १ जीवन शब्दका अर्थ जल भी होता है । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ . जैनपदसंग्रह. वारी वे ॥ श्रीगुरु छै० ॥ २ ॥ तिनके चरनसरोरुह ध्यावै, भागचन्द् अघटारी वे ॥ श्रीगुरु० ॥ ३ ॥ ३०. राग खम्माच । सारौ दिन निरफल खोयवौ करै छै । नरभव लहिकर प्रानी विनज्ञान, सारौ दिन नि० ॥ टेक ॥ परसंपति लखि निजचितमाहीं, विरधा मूरख रोयवौ करे है ॥ सारो० ॥ १॥ कामानलतें जरत सदा ही, सुन्दर कामिनी जोयवो करै छै ॥ सारो० ॥ २ ॥ जिनमत तीर्थस्थान न ठानै, जलसों पुद्गल धोयवो करै छै ॥ सारो० ॥ ३ ॥ भागचन्द इमि धर्म विना शठ, मोहनींद में सोयवो करै छै ॥ सारो० ॥ ४ ॥ ३१. राग परज । A सम आराम विहारी, साधुजन सम आराम विहारी ॥ ॥ टेक ॥ एक कल्पतरु पुष्पन सेती, जजत भक्ति विस्तारी ॥ एक कंठविच सर्प नाखिया, क्रोध दर्पजुत भारी ॥ राखत एक वृत्ति दोउनमें, सवहीके उपगारी ॥ समआरा०॥१॥ सारंगी हरिबाल चुखावै, पुनि मराल मंजारी । व्याघ्रबालकरि सहित नन्दिनी, व्याल नकुलकी नारी ॥ तिनके चरन कमल आश्रय, अरिता सकल निवारी | सम आ० ॥२॥ अक्षय अतुल प्रमोद विधायक, ताकौ धाम अपारी । काम धरा विव गढ़ी सो चिरतें, आतमनिधि अविकारी ॥ खनत Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयभाग. १७ ताहि ले कर करमें जे, तीक्षण बुद्धि कुदारी ॥ समआराम० ३ निज शुद्धोपयोगरस चाखत, परममता न लगारी । निज सरधान ज्ञान चरनात्मक, निश्चय शिवमगचारी ॥ भागचंद ऐसे श्रीपति प्रति, फिर फिर ढोक हमारी ॥ समआरामचि ० ॥४॥ ३२. राग सोरठ । इष्टजन केवली म्हाकै इष्टजिन केवली, जिन सकल कलिमल दली ॥ टेक ॥ शान्ति छवि जिनकी विमल जिमि, चन्द्रदुति मंडली | संत-जन- मनके- कि- तर्पन सघन घनपटली ॥ ॥ इष्टजिन के० ॥ १ ॥ स्यात्पदांकित धुनि सुजिनकी, बदनतें निकली | वस्तुतत्त्वप्रकाशिनी जिमि, भानु किरनावली ॥ इष्टजिन० || २ || जासुपद अरविंदकी, मकरंद अति निरमली । ताहि धान करै नमित हर, -मुकुट-दुतिमनि अली ॥ इष्टजिन० || ३ || जाहि जजत चिराग उपजत, मोहनिद्रा दी । ज्ञानलोचनतें प्रगट लखि, धरत शिववटगली ॥ इष्टजिन० ॥ ४ ॥ जासु गुन नहिं पार पावत, बुद्धि ऋद्धि बली । भागचंद सु अलपमति जन, की तहां क्या चली ॥ इष्टजिन० ॥ ५ ॥ ३३. राग सोरठ । स्वामी मोह अपनो जानि तारौ, या विनती अव चित धारी ॥ टेक ॥ जगत उजागर करुनासागर, नागर नाम २ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'जैनपदसंग्रह. १८ तिहारौ || स्वामी मोह० ॥ १ ॥ भव अटवीमें भटकत भटकत, अब मैं अति ही हारी । स्वामी मोह० ॥ २ ॥ भागचन्द स्वच्छन्द ज्ञानमय, सुख अनंत विस्तारौ ॥ स्वामी मोह० ॥ ३ ॥ ३४. राग सोरठ देशी । थांकी तो वानी में हो, निज स्वपरप्रकाशक ज्ञान ॥ टेक ॥ एकीभाव भये जड़ चेतन, तिनकी करत पिछान ॥ थांकी तो० ॥ १ ॥ सकल पदार्थ प्रकाशत जामें, मुकुर तुल्य अमलान ॥ थांकी तो० ॥२॥ जग चूड़ामनि शिव भये ते ही, तिन कीनों सरधान ॥ थांकी तो० ॥ ३ ॥ भागचंद बुधजन ताहीको, निशदिन करत बखान ॥ थांकी तो ० ॥४॥ ३५. राग सोरठ मल्हार में । गिरिवनवासी मुनिराज, मन वसिया झारें हो ॥ टेक ॥ कारनविन उपगारी जगके, तारन-तरन-जिहाज ॥ गिरिवन० ॥ १ ॥ जनम- जरामृत -गद-गंजनको, करत विवेक इलाज ॥ गिरिवन० ॥ २ ॥ एकाकी जिमि रहित केसरी, निरभय स्वगुन समाज || ३ || निर्भूपन निर्वसन निराकुल, सजि रत्नत्रय साज ॥ गिरिवन० ॥ ४ ॥ ध्यानाध्ययनमाहिं तत्पर नित, भागचन्द शिवकाज ॥ गिरिवन० ॥५॥ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयभाग. ३६. राग सोरठ। म्हांक घट जिनधुनि अब प्रगटी । जागृत दशा भई अब मेरी, सुप्त दशा विघटी । जगरचना दीसत अब मोको, जैसी रँहटघटी । म्हांक घट० ॥१॥ विनम तिमिर-हरन निज दृगकी, जैसी अँजनवटी । तातै स्वानुभूति प्रापतित परपरनति सव हटी ।। म्हांक घट० ॥२॥ ताक दिन जो अवगम चाह, सो तो शठ कपटी। ताते भागचन्द निशिवासर, इक ताहीको रटी।म्हांक घट०॥३॥ राग सोरठ। आव न भोगनमें तोहि गिलान ।। टेक।। तीरथनाथ भोगतजि दीन, तिनत मन भय आन। तू तिनतें कहुँ डरपत नाहीं, दीसत अति बलवान ॥ आवै न० ॥१॥ इन्द्रियतृप्ति काज तू भोग, विषय महा अघखान । सो जैसे घृतधारा जार, पात्रकग्वाल वुझान ॥ आवै न० ॥२॥ जे सुख तो तीछन दुखदाई, ज्यों मधुलिप्त-कृपान । ताते भागचन्द इनको तजि, आत्मस्वरूप पिछान ॥आवन०॥३॥ ३८. राग सोरठ। - स्वामीजी तुम गुन अपरंपार, चन्द्रोजवल अविकार ॥ टेक ॥ ज तुम गर्भमाहिं आये, तवै सव सुरगन मिलि आय रतन नगरीमै बरपाये, अमित अमोघ सुदार ॥ स्वामी Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' २० जैनपदसंग्रह. जी० ॥ १ ॥ जन्म प्रभु तुमने जब लीना, न्हवन मंदिरपे हरि कीना । भक्ति करि सची सहित भीना, बोला जयजयकार | स्वामीजी० ॥ २ ॥ जगत छनभंगुर जव जाना, भये तव नगनवृत्ती वाना । स्तवन लौकांतिकसुर ठाना, त्याग - राजको भार | स्वामीजी० ॥ ३ ॥ घातिया प्रकृति जबै नासी, चराचर वस्तु सबै भासी । धर्मकी वृष्टि करी खासी, केवलज्ञान भँडार ॥ स्वामीजी० ॥ ४ ॥ अघाती प्रकृति सुविघटाई, मुक्तिकान्ता तब ही पाई । निराकुल आनँद असहाई, तीन लोकसरदार | स्वामीजी० ॥ ५ ॥ पार गनधर हू नहिं पावै, कहां लगि भागचन्द गावै । तुम्हारे चरनांवुज ध्यावै, भवसागरसों तार ॥ स्वामीजी० ॥ ६ ॥ ३९. राग मल्हार । मान न कीजिये हो परवीन ॥ टेक ॥ जाय पलाय चंचला कमला, तिट्टै दो दिन तीन । धनजोवन छनभंगुर सब ही, होत सुछिन छिन छीन ॥ मान न० ॥ १॥ भरत नरेन्द्र खंड-खट-नायक, तेहु भये मदहीन । तेरी बात कहा भाई, तू तो सहज हि दीन ॥ मान न० ॥ २ ॥ भागचन्द मार्दव - रससागर, माहिं होहु लवलीन | तातैं जगतजाल में फिर कहुं, जनम न होय नवीन ॥ मान न० ॥ ३ ॥ ४०. राग मल्हार । अरे हो. अज्ञानी, तूने कठिन मनुपभव पायो ॥ टेक ॥ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयभाग. २१ लोचनरहित मनुपके करमें, ज्यों बटेर खग आयो ॥ अरे हो० ॥ १ ॥ सो तू खोवत विपयनमाहीं, धरम नहीं चित लायो | अरे हो० ॥ २ ॥ भागचन्द उपदेश मान अत्र, जो श्रीगुरु फरमायो || अरे हो० ॥ ३ ॥ ४१ राग मल्हार । वरसत ज्ञान सुनीर हो, श्रीजिनमुखघनसों ॥ टेक || शीतल होत सुबुद्धिमेदिनी, मिटत भवातप-पीर ॥ चरसत० ॥ १ ॥ स्यादवाद नयदामिनि दमकै, होत निनाद गंभीर | वरसत० ॥ २ ॥ करुनानदी वसै चहुं दिशित, भरी सो दोई तीर ॥ वरसत० ॥ ३ ॥ भागचन्द अनुभवमंदिरको तजत न संत सुधीर ॥ वरसत ॥४॥ ४२. राग मल्हार । Havaran श्रीजिनवानी ॥ टेक ॥ स्यात्पद चपला चमकत जाएँ, बरसत ज्ञान सुपानी ॥ मेघघटा० ॥ १ ॥ धरममस्य जातें बहु चांदै, शिवआनंद फलदानी ॥ मेघ घटाः || २ || मोहन धूल दवी सव यातें, क्रोधानल सुबुज्ञानी ॥ मेघघटा० ॥ ३ ॥ भागचन्द बुधजन केकीकुल, लखि हरखें चितज्ञानी ॥ मेघ० ॥ ४ ॥ ४३. राग धनाश्री । प्रभू थांकों लखि ममचित हरपायो ॥ टेक ॥ सुंदर चिंता Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ जैनपदसंग्रह. रतन अमोलक, रंकपुरुप जिमि पायो ॥ प्रभू० ॥१॥ निर्मलरूप भयो अव मेरो, भक्तिनदीजल न्हायो ॥ प्रभू थांको० ॥२॥ भागचन्द अव मम करतलमें, अविचल शिवथल आयो ॥ प्रभू०॥३॥ ४४. राग मल्हार। प्रभू म्हांकी सुधि, करना करि लीजे ॥ टेक ॥ मेरे इक अवलम्बन तुम ही, अव न विलम्ब करीजे ॥ प्रभू० ॥१॥ अन्य कुदवे तजे सब मैंने, तिनतै निजगुन छीजे ॥प्रभू० ॥२॥ भागचन्द तुम शरन लियो है, अब निश्चलपद दीजे ॥ प्रभू० ॥३॥ ४५. राग कलिंगड़ा। ऐसे साधू सुगुरु कव मिल हैं ।। टेक ॥ आप त अरु परको तारें, निष्प्रेही निरमल हैं ॥ ऐसे० ॥१॥ तिलतुषमात्र संग नहिं जाकै, ज्ञान-ध्यान-गुन-बल हैं । ऐसे साधू० ॥२॥ शान्तदिगम्बर मुद्रा जिनकी, मन्दिरतुल्य अचल हैं। ऐसे०॥३॥ भागचन्द तिनको नित चाहै, ज्यों कमलनिको अल है। ऐसे०॥४॥ राग कहरवा कलिंगड़ा। केवल जोति सुजागी जी, जव श्रीजिनवरके ॥ टेक ॥ लोकालोक विलोकत जैसे, हस्तामल वड़भागी जी के० ॥ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० जैनपदसंग्रह. ॥३॥ जव भ्रमनींद त्याग निजमें निज, हित हेत सम्हारत. है। वीतराग सर्वज्ञ होत तव, भागचन्द हितसीख कहै । चेतन० ॥४॥ दोहा। विश्वभावव्यापी तदपि, एक विमल चिद्रूप । ज्ञानानंदमयी सदा, जयवंतौ जिनभूप ॥ छन्द चाल। ' : सफली मम लोचनद्वंद्व । देखत तुमको जिनचंद । मम तनमन शीतल एम । अम्रतरस सींचत जेम ॥ . तुम वोध अमोघ अपारा । दर्शन पुनि सर्व निहारा ॥ आनंद अतिन्द्रिय राजै । वल अतुल स्वरूप न त्याजै ॥ इत्यादिक स्वगुन अनन्ता । अन्तर्लक्ष्मी भगवंता। वाहिज विभूति बहु सोहै । चरनन समर्थ कवि को है। तुम वृच्छ अशोक सुस्वच्छ । सव शोकहरनको दच्छ । तहां चंचरीक गुंजारें। मानों तुम स्तोत्र उचारें ॥ शुभ रत्नमयूख विचित्र । सिंहासन शोभ पवित्र ॥: तहां वीतराग छवि सोहै । तुम अंतरीछ मनमोहै। . चर कुन्दकुन्द अवदात । चामरव्रज सर्व सुहात ।। तुम ऊपर मघवा ढारै । धर भक्ति भाव अघ टारै । मुक्ताफल माल समेत । तुम ऊर्द्ध छनत्रय सेत ॥ . मानों तारान्वित चन्द । त्रय मूर्ति धरी दुति वृन्द ।। - शुभ दिव्य पटह बहु वा । अतिशय जुत अधिक विराजें। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयभाग. तुमरो जस घोकें मानों । त्रैलोक्यनाथ यह जानों ॥ हरिचन्दन सुमन सुहाये । दशदिशि सुगंधि महकाये ॥ अलिपुंज विगुंजत जामें । शुभ वृष्टि होत तुम सा ॥ १०॥ भामंडल दीप्ति अखंड । छिप जात कोट मार्तंड || जग लोचनको सुखकारी । मिथ्यातमपटल निवारी ॥ तुमरी दिव्यध्वनि गाऊँ । विन इच्छा भविहित काजै ॥ जीवादिक तत्त्वप्रकाशी । भ्रमतमहर सूर्यकलासी ॥ इत्यादि विभूति अनंत । वाहिज अतिशय अरहंत । देखत मन भ्रमतम भागा । हित अहित ज्ञान उर जागा ॥ तुम सब लायक उपगारी । में दीन दुखी संसारी ॥ तातें सुनिये यह अरजी । तुम शरन लियो जिनवरजी ॥ मैं जीवद्रव्य विन अंग । लागो अनादि विधि संग ॥ ता निमित पाय दुख पाये । हम मिथ्यातादि महा ये । निज गुन कहं नहिं भाये । सब परपदार्थ अपनाये । रति अरति करी सुखदुखमें। व्हें करि निजधर्म विमुख मैं १६ पर - चाह - दाह नित दाहो । नहिं शांत सुधा अवगाहा ॥ पशु नारक नर सुरगतमें । चिर भ्रमत भयो भ्रममत में ॥ १७॥ कीनें बहु जामन मरना । नहिं पायो सांचो शरना । अब भाग उदय मो आयो । तुम दर्शन निर्मल पायो॥ १८ ॥ मन शांत भयो र मेरो । बाढ़ो उछाह शिवकेरो ॥ परविपयरहित आनन्द । निज रस चाखो निरद्वन्द ||१९|| मुझ काजतनं कारज हो । तुम देव तरन तारन हो । तातें ऐसी अब कीजे । तुम चरन भक्ति मोह दीजे ॥२०॥ ३१ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ जैनपदसंग्रह. दृग-ज्ञान-चरन परिपूर । पाऊं निश्चय भवचूर ॥ . दुखदायक विषय कषाय । इनमें परनति नहिं जाय ॥२१॥ सुरराज समाज न चाहों। आतम समाधि अवगाहों। पर इच्छा मो मनमानी। पूरो सव केवलज्ञानी ॥ २२॥ दोहा। गनपति पार न पावहीं, तुम गुनजलधि विशाल। भागचन्द तुव अक्ति ही, करै हमें वाचाल ॥२३॥ ६०. गीतिका। तुम परम पावन देख जिन,अरि-रज-रहस्य विनाशनं। तुम ज्ञान-दृग-जलवीच त्रिभुवन, कमलवत प्रतिभासन । आनंद निजज अनंत अन्य, अचिंत संतत परनये । बल अतुल कलित स्वभावतें नहि, खलित गुन अमिलित थये ॥१॥सब राग रुष हनि परम श्रवन स्वभाव धन निर्मल दशा। इच्छारहित भवहित खिरत, वच सुनत ही श्रमतम नशा । एकान्त-गहन-सुदहन स्यात्पद, बहन मय निजपर दया । जाके प्रसाद विपाद विन, सुनिजन सपदि शिवपद लहा ॥२॥ भूषन वसन सुमंनादिविन तन, ध्यानमय मुद्रा दिपै । नासाग्र नयन सुपलक हलय न, तेज लखि खगगन छिपै ॥ पुनि वदन निरखत प्रशम जल, वरखतं सुहरखत उर धरा । वुधि स्वपर परखत पुन्यआकर, कलिकलिल दुरखत जरा ॥३॥ इत्यादि बहिरंतर असाधारन, सुविभवनिधान जी । इन्द्रादिवंद पदारविंद, अनिंद Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. = द्वितीयभाग. ३३ तुम भगवान जी | मैं चिर दुखी परचाहतें, तुम धर्म नियत न उर धरो || परदेवसेव करी बहुत, नहिं काज एक तहां सरो || ४ || अब भागचन्दउदय भयो, मैं शरन आयो तुम तने । इक दीजिये वरदान तुम जस, स्वपद दायक बुध भने || परमाहिं इष्ट-अनिष्ट-मति तजि, मगन निज गुनमें रहीं । दृग-ज्ञान-चर संपूर्ण पाऊं, भागचंद न पर चहाँ ॥ ५ ॥ ६१. राग दीपचन्दी | कीजिये कृपा मोह दीजिये स्वपद, मैं तो तेरो ही शरन दीनों हे नाथ जी ॥ टेक ॥ दूर करो यह मोह शत्रुको, फिरत सदा जो मेरे साथ जी ॥ कीजिये० ॥ १ ॥ तुमरे वचन कर्मगढ़-मोचन, संजीवन औषधी क्वाथ जी ॥ || कीजि० ॥ २ ॥ तुमरे चरन कमल बुध ध्यावत, नावत हैं पुनि निजमाथ जी ॥ कीजि० ॥ ३ ॥ भागचंद मैं दास तिहारो, ठाड़ो जोरों जुगल हाथ जी ॥ कीजि० ॥ ४ ॥ ६२. राग दीपचन्दी | निज कारज काहे न सारै रे, भूले प्रानी ॥ टेक ॥ परिग्रह भारथकी कहा नाहीं, आरत होत तिहारै रे ॥ निज० ॥ १ ॥ रोगी नर तेरी चपुको कहा, तिस दिन नाहीं जारै रे ॥ निज का० ॥ २ ॥ क्रूरकृतांत सिंह कहा जगमें, जीवनको न पछारे रे ॥ निज का० ॥ ३ ॥ करनविपय विप ३ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपदसंग्रह. ३४ भोजनवत कहा, अंत विरसता न धारै रे ॥ निज० ॥ ४ ॥ भागचन्द् भवअंधकूपमें, धर्म रतन काहे डारे रे ॥ ॥ निज का० ॥ ५ ॥ ६३. हरी तेरी मति नर कौनें हरी । तजि चिन्तामन कांच ग्रहत शठ ॥ टेक ॥ विषय कपाय रुचत तोकौं नित, जे दुखकरन अरी । हरी तेरी० ॥ १ ॥ सांचे मित्र सुहितकर श्रीगुरु, तिनकी सुधि विसरी । हरी तेरी० ॥ २ ॥ परपरनति में आपो मानत, जो अति विपति भरी । हरी तेरी० ॥ ॥ ३ ॥ भागचन्द जिनराज भजन कहुं, करत न एक घरी । हरी तेरी० ॥ ४ ॥ ६४. सुमर मन समवसरन सुखदाई । अशरन शरन धनदकृंत प्रभुको ॥ टेक ॥ मानस्तंभ सरोवर सुंदर, विमल सलिलजुत खाई । पुष्पवाटिका तुंगकोट पुनि, नाट्यशाल मनभाई ॥ सुमर मन० ॥ १ ॥ उपवन जुगल विशाल वेदिका, धुजपंकति लहकाई । हाटक कोट कल्पतरुवन पुनि, द्वादश सभा वरनि नहिं जाई ॥ सुमर० ॥ २ ॥ तहँ त्रिपीठपर देव स्वयंभू, राजत श्रीजिनराई । जाहि पुरंदरजुत वृन्दारक-वृन्द सु वंदत आई | भागचन्द इमि ध्यावत ते जन, पावत जगठकुराई ॥ सुमर मन० ॥ ३ ॥ ६५. सोई है सांचा महादेव हमारा । जाके नाहीं रागरोष Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयमाग. गद, मोहादिक विस्तारा ॥ टेक ।। जाके अंग न भस्म लिप्त है, नहिं रंडनकृत हारा । भूपण व्याल न भाल चन्द्र नहिं, शीस जटा नहिं धारा ॥ सोई है० ॥१॥ जाके गीत न नृत्य न मृत्यु न, घटतनो न सवारा । नहिं कोपीन न काम कामिनी, नहिं धन धान्य पसारा ॥ सोई है० ॥२॥ सो तो प्रगट समस्त वस्तुको, देखन जाननहारा । भागचन्द ताहीको ध्यावत, पूजत वारंवारा ॥ सोई है० ॥३॥ ६६. समझाओजी आज कोई करनाधरन, आये थे व्याहिन काज वे तो भये, हैं विरागी पशूदया लख लख | टेक ॥ विमल चरन पागी, करन विपय त्यागी, उनने परम ज्ञानानंद चख चख ॥ समझायो० ॥१॥सुभग मुकति नारी, उनहिं लगी प्यारी, हमसों नेह कछु नहीं रख रख । समझायो० ॥ २ ॥ वे त्रिभुवनस्वामी, मदनरहित नामी, उनके अमर पूजे पद नख नख ।। समझायो०॥३॥ भागचन्द मैं तो तलफत अति जैसे, जलसों तुरत न्यारी जक झख झख ॥ समझायो० ॥४॥ ६७. गिरनारीपं ध्यान लगाया, चल सखि नेमिचन्द मुनिराया ॥ टेक ।। मंग भुजंग रंग उन लखि तजि, शत्रु अनंग भगाया। बाल ब्रह्मचारी व्रतधारी, शिवनारी चित लाया ॥ गिरनारी० ॥ १॥ मुद्रा नगन मोहनिद्रा विन, नासादृग मन भाया । आसन धन्य अनन्य वन्य चित, पुष्ट (8) Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ जैनपदसंग्रह. थूल सम थाया || गिरनारी० ॥ २ ॥ जाहि पुरन्दर पूजन आये, सुन्दर पुन्य उपाया । भागचन्द सम प्राननाथ सो, ' और न मोह सुहाया || गिरनारी० ॥ ३ ॥ ६८: राग दीपचन्दी परज । नाथ भये ब्रह्मचारी, सखी घर मैं न रहोंगी ॥ टेक ॥ पाणिग्रहण काज प्रभु आये, सहित समाज अपारी । ततछिन ही वैराग भये हैं, पशुकरुना उर धारी ॥ नाथ० ॥ ॥ १ ॥ एक सहस्र अष्टलच्छनजुत, वा छविकी बलिहारी । ज्ञानानंद मगन निशिवासर, हमरी सुरत विसारी ॥ नाथ० ॥ २ ॥ मैं भी जिनदीक्षा धरि हों अव, जाकर श्रीगिरनारी । भागचन्द इमि भनत सखिनसों, उग्रसेनकी कुमारी ॥ नाथ० ॥ ३ ॥ ६९. राग दीपचन्दी कानेर । . जानके सुज्ञानी, जैनवानीकी सरधा लाइये ॥ टेक ॥ जा विन काल अनंते भ्रमता, सुख न मिलै कहुं प्रानी ॥ ॥ जानके० ॥ १ ॥ स्वपर विवेक अखंड मिलत है, जाही के सरधानी || जानके० ॥ २ ॥ अखिलप्रमानसिद्ध अविरुद्धत, स्यात्पद शुद्ध निशानी || जानके० ॥ ३ ॥ भागचन्द सत्यारथ जानी, परमधरमरजधानी ॥ जानके० ॥ ४ ॥ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपदसंग्रह. . अडंबर, लावत भरभर कर जोरी । उड़त गुलाल निर्जरा निर्भर, दुखदायक भवथिति दोरी || सहज० ॥ २ ॥ परमानंद मृदंगादिक धुनि, विमल विरागभावधोरी । भागचंद हग-ज्ञान- चरनमय, परिनत अनुभव रँग बोरी ॥ सहज० ॥ ३ ॥ ४४ ८७. सत्ता रंगभूमिमें, नटत ब्रह्म नटराय ॥ टेक ॥ रत्नत्रय आभूषणमंडित, शोभा अगम अथाय । सहज सखा निःशंकादिक गुन, अतुल समाज बदाय || सत्ता रंग० ॥ ॥ १ ॥ समता वीन मधुररस वोलै, ध्यान मृदंग बजाय । नदत निर्जरा नाद अनूपम, नूपुर संवर ल्याय | सत्ता रंग० ॥ २ ॥ लय निज-रूप- मगनता ल्यावत, नृत्य सुज्ञान कराय । समरस गीतालापन पुनि जो, दुर्लभ जगमहँ आय । || सत्ता रंग० ॥ ३ ॥ भागचन्द आपहि रीझत तहाँ, परम समाधि लगाय । तहाँ कृतकृत्य सु होत मोक्षनिधि, अतुल इनामहिं पाय || सत्ता० ॥ ४ ॥ इति श्रीभागचन्द्रपदावली समाप्ता । Page #90 --------------------------------------------------------------------------  Page #91 --------------------------------------------------------------------------  Page #92 --------------------------------------------------------------------------  Page #93 --------------------------------------------------------------------------  Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAAAANAAHATOnlai श्रीवीतरागाय नमः। पदसंग्रह-तृतीयभाग। अर्थात् आगरानिवासी कविवर भूधरदासजीकृत पदविनतियोंका संग्रह । निने श्रीजैनग्रन्थरनाकरकायर्यालयके मालिकने बम्बईके निर्णयसागरग्रेसमें बाळकृष्ण रागचंद्र घाणेकरके प्रबंधसे छपाया। QUIOWODWOUDOU श्रीनी निर्माण सं० २४३५ । देखी गन, १९०९ । प्रथमावृत्ति] २ [न्योछावर ५ आने । Page #95 --------------------------------------------------------------------------  Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना । लीजिये, पाठ! आज पदसंग्रहका यह तीसरा भाग भी उपशित है। इसमें कविवर भूवरदासजीके सब मिलाकर ८० पदों तथा गिलतियोंका रोगह है । यह संग्रह हमको अपने एक मित्रके द्वारा प्राप्त हुआ है। उन्होंने इसे भूधरशिलासपरसे उतारकर भेजा है । उनके फायनके अनुसार भूधरदासजीक इनके सिवाय और पद विनतियां नहीं है, परन्तु हमारी समक्ष यह कथन ठीक नहीं है । हैगतो स्वयं तीन चार पद और दो तीन विनतियां उक्त संग्रहके मिनाय मिन्ट गई थी, जिन्हें हमने इसमें शामिल कर दी हैं। हमारी समा भूवरदानजीक बहतले पद ऐसे होंगे, जो इस संग्रहमें नहीं आयोग. आरयदि हमारे पाठक सहायता करें, तो एकत्र हो सकते। जो मनन ऐसे पदाको हमारे पास भेजनेकी कृपा करंगे, उनका ग बान यदा आभार मानेंगे। दूसरी शुम प्रतिक अभावसे हमको इस पुस्तकके संशोधनमें बइत परिश्रम करना पड़ा है। तीमी जैसा चाहिये थैमा संतोषके योग्य मंशोधन नहीं हुआ है। बहुतसे स्थान भ्रमयुक्त रह गये हैं। पाठकोंको यदि किसी पदमा मुल पाट आता हो, तो सूचित कर देवें, जि. मसे विदूरी पार पाने समय उसका संशोधन हो जाये। कविवर भूधरदासजी विक्रमकी अठारहवीं सदीमें हो गये हैं । उन्होंने अपना पार्यपुराण नागका प्रसिद्ध ग्रन्थ संवत् १७८९ में पूर्ण किया था । पार्यपुराण, भूधरजनशतक, और भूधरविलास Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ये तीन ही ग्रन्थ अभीतक आपके बनाये हुए प्रसिद्ध हैं। इन ग्रन्थोंके पढनेसे आपकी सरल सरस और हृदयग्राही कविताका सहज ही अनुभव हो सकता है। पहले दो ग्रन्थ हमारे यहां छप चुके हैं और तीसरे भूधरविलासमेंका एक अंश यह प्रकाशित किया जाता है। पदसंग्रह का चौथा भाग जिसमें कविवर द्यानतरायजीके पदोंका संग्रह है छप रहा है। पांचवें छठे भाग भी तयार करनेका प्रबन्ध हो रहा है । अलमतिविस्तरेण-८-६-०९ ई०। ।. सरस्वतीसेवकनाथूराम प्रेमी। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनाय नमः। पदसंग्रह-तृतीयभाग। अर्थात् कविवर मृधरदासजीकृत भजनोंका संग्रह । a १. राग सोरठ। लगी लो नाभिनंदनसों । जपत जेम चकोर चकई, चन्द भरताकों ॥ लगी लो० ॥ १॥ जाउ तन धन जाउ जोवन, प्रान जाउ न क्यों। एक प्रभुकी भक्ति मेरे, रहो ज्योंकी त्यों ॥२॥ लंगी लो०॥और देव अनेक सेये, कछु न पायो हो । ज्ञान खोयो गांठिको, धन करत कुंवनिज ज्यां ॥३॥ लगी लो०॥ पुत्र मित्र कलत्र ये सब सगे अपनी गौं । नरककूपउद्धरन श्रीजिन, समझ भूधर यो ॥ ४ ॥ लगी लो० ॥ १ सुरा च्यापार. २ गरज. Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपदंसंग्रह नर धार रे। रटि नाम राजुलरमनको, पशुबंध छोड़नहार रे॥ मेरे मन०॥ ४॥ . ७. राग सोरठ। भलो चेत्यो वीर नर तू, भलो चेत्यो वीर ॥टेक ॥ समुझि प्रभुके शरण आयो, मिल्यो ज्ञान वजीर ॥ भलो० ॥ १॥ जगतमें यह जनम हीरा, फिर कहां थो धीर । भली वार विचार छाँड्यो, कुमति कामिनि सीर ॥ भलो०॥ २ ॥धन्य धन्य दयाल श्रीगुरु सुमरि गुणगंभीर । नरक परतें राखि लीनों • बहुत कीनी भीर ॥ भलो० ॥३॥ भक्ति नौका लही भागनि, कितक भवदधिनीर। ढील अव क्यों करत भूधर, पहुँच पैली तीर। भलो०॥४॥ ८. राग सोरठ। . . सुन ज्ञानी प्राणी, श्रीगुरु सीख सयानी ॥टेक ॥ नरभव पाय विषय मति सेवो, ये दुरंगति अगवानी ॥ सुन० ॥ १॥ यह. भव कुल यह तेरी महिमा, फिर समझी जिनवानी। '१ साँझा २ सहाय. ३ कितना. Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयभाग । इस अवसरमें यह चपलाई, कौन समझ उर. आनी ॥ सुन० ॥२॥ चंदन काठ-कनकके भाजन, भरि गंगाका पानी । तिल खलि राँधत मंदमती जो, तुझ क्या रीस विरानी । सुन० ॥३॥ भूधर जो कथनी सो करनी, यह बुधि । है सुखदानी । ज्यों मशालची आप न देखे, सो मति करै कहानी । सुनि० ॥४॥ . ९.राग सोरठ। सुनि ठगनी माया, तैं सब जग ठग खाया। टेक ॥ टुक विश्वास किया जिन तेरा, सो मूरख पिछताया ॥ सुनि० ॥१॥आपा तनक दिखाय वीज ज्यों, मूढमती ललचाया । करि मद अंध धर्म हर लीनौं,अंत नरक पहुँचाया।सुनि०॥२॥ केते कथं किये तैं कुलटा, तो भी मन न अघाया। किसहीसौं नहिं प्रीति निवाही, वह तजि औरलुभाया। सुनि०॥३॥ भूधर छलत फिरै यह सवकों, भौंदू करि जग पाया।जो इस ठगनीकों ठग वैठे, मैं तिसको सिर नाया।सुनि०॥४॥ १ विजलीके समान. Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपदसंग्रह १०.. वे कोई अजब तमासा, देख्या बीच जहान वे, जोर तमासा सुपनेकासा ॥ टेक ॥ एकौंके घर मंगल गावें, पूगी मनकी आसा। एक वियोग भरे बहु रो३, भरि भरि नैंन निरासा ॥ वे कोई० ॥ १॥ तेज तुरंगनिपै चढ़ि चलते, पहिरै मलमल खासा । रंक भये नागे अति डोलें, ना कोइ देय दिलासा ॥ वे कोई० ॥२॥ तरकैं राज तखतपर बैठा, था खुशवक्त खुलासा । ठीक दुपहरी मुद्दत आई, जंगल कीना वासा ॥ वे कोई० ॥३॥ तन धन अथिर निहायत जगमें, पानीमाहिं पतासा। भूधर इनका गरख करैं जे, फिट तिनका जनमासा ॥ वे कोई० ॥४॥ ११. राग ख्याल। जगमें जीवन थोरा, रे अज्ञानी जागि ॥टेक। जनम ताड़ तरुतें पड़े, फल संसारी जीव । मौत महीमैं आय हैं, और नः ठौर सदीव ॥ जगमें :: १. पूरी हुई. २ धीरज. ३ सवेरे. ४ सिंहासन. ५ सर्वथा. ६ धिक्. ७ मनुष्यजन्म, Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयभाग । ॥१॥ गिर-सिर दिवला. जोइया, चहुँदिशि वाजै पौन । बलत अचंभा मानिया, बुझत अचंभा कौन ।। जगमें० ॥२॥ जो छिन जाय सो आयुमें, निशि दिन टूकै काल । वांधि सकै तो है भला, पानी पहिली पाल॥जगमें० ॥३॥ मनुषदेह दुर्लभ्य है, मति चूकै यह दाव । भूधर राजुलकंतकी, शरण सितावी आव ॥ जगमें० ॥४॥ १२. राग ख्याल । गरव नहिं कीजै रे, ऐ नर निपट गँवार । टेक ॥ झूठी काया झूठी माया, छाया ज्यों लखि लीजै रे ॥ गरव० ॥१॥ कै छिन सांझ सुहागरु जोवन, कै दिन जगमें जीजैरे। गरव० ॥२॥ वेगा चेत विलम्ब तजो नर, बंध वदै थिति छीजै रे॥गरव०॥३॥ भूधर पलपल हो है भारी.. ज्यों ज्यों कमरी भीजै रे॥ गरव०॥४॥ १३. राग ख्याल । थांकी कथनी म्हांनैं प्यारी लगै जी, प्यारी १ दीपक. २ चले. ३ निकट आवै. ४. श्रीनेमिनाथकी. ५ जीवेंगे. ६ जल्दी. ७ आयु.. . . . Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० जैनपदसंग्रह लगै म्हांरी भूल भगै जी ॥ टेक ॥ तुमहित हांक विना हो श्रीगुरु, सूतो जियरो काई जगै जी ॥ थांकी० ॥ १ ॥ मोहनिधूलि मेलि म्हारे मौथै, तीन रतन म्हारा मोह ठगै जी । तुम पद ढोकँत सीस झरी रज, अब ठगको कर नाहिं वगै जी ॥ थांकी ० ॥ २ ॥ टूट्यो चिर मिथ्यात महाज्वर, भागां मिल गया वैद मँगै जी । अंतर अरुचि मिटी मम आतम, अब अपने निजद पगै जी ॥ थांकी० ॥ ३ ॥ भव वन भ्रमत बढ़ी तिसना तिस, क्योंहि बुझै नहिं हियरा देंगे जी । भूधर गुरुउपदेशामृतरस, शान्तमई आनंद उमगे जी ॥ थांकी ० ॥ ४ ॥ १४. राग ख्याल । मा विलंब न लाव पैठाव तहाँ री, जहँ जगपति पिय प्यारो ॥ टेक ॥। और न मोहि सुहाय कछू अब, दीसै जगत अँधारो री ॥ मा विलंब ० १ कैसे . २ मेरे. ३ सिरपर. ४ मेरा. ५ प्रणाम करनेसे. ६ भाग्यसे. ७ मार्गमें. ८ हृदय ९ जलता है. १० कर. ११ भेज दे. १२ उसी जगह. Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयभाग। ११ ॥ १॥ मैं श्रीनेमिदिवाकरको कव, देखों वदन उजारो। विन देखें मुरझाय रह्यो है, उर अरविंद हमारो री!॥ मा विलंब० ॥२॥ तन छाया ज्यौं संग रहौंगी, वे छांडहिं तो छोरो । विन अपराध दंड मोहि दीनो, कहा चलै मेरो चारो ॥ मा विलम्ब० ॥३॥ इहि विधि रागउदय राजुलन, सह्यो विरह दुख भारो ।पी ज्ञानभान वल विनश्यो, मोह महातम कारोरी॥ मा विलंब० ॥४॥ पियके पैंड़े पैंडौ कीनों, देखि अथिर जग सारो। भूधरके प्रभु नेमि पियासौं, पाल्यौ नेह करारोरी ॥ मा विलंब० ॥ ५॥ १५. राग ख्याल । देख्यो री! कहीं नेमिकुमार ।। टेक ॥ नैननि प्यारो नाथ हमारो, प्रानजीवन प्राननआ-_ धार।। देख्यो० ॥१॥पीव वियोग विथा बहु पीरी, पीरीभई हलदी उनहार । होउं हरी तबही जब भेटौं, श्यामवरन सुंदर भरतार ॥ देख्यो० ॥२॥ १ सूरज. २ कमल. ३ सूर्य. ४ पीड़ा की. ५ पीली. ६समान. Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपदसंग्रह सुकच्छकुमारी । सोई पंथ गहो पिय पाऊँ, हूजौ संजमधारी ॥ अरज० ॥२॥ तुम विन एक पलक जो प्रीतम, जाय पहर सौ भारी । कैसैं निशदिन भरौं नेमिजी!, तुम तो ममता डारी । याको ज्वाब देहु निरमोही!, तुम जीते मैं हारी।। अरज०॥३॥ देखो रैनवियोगिनि चकई, सो विलखै निशि सारी। आश वाँधि अपनो जिय राखै, प्रात मिलैं पिय प्यारी। मैं निराश निरधारिनि कैसैं, जीवों अती दुखारी ॥ अरज०॥४॥ इह विधि विरह नदीमें व्याकुल, उग्रसेनकी बारी । धनि धनि समुदविजयके नंदन, बूड़त पार उतारी । करहु दयाल दया ऐसी ही, भूधर शरन तुम्हारी ॥ अरज० ॥५॥ .. २९. राग धामल सारंग। . . . . ' हूं तो कहा करूं कित जाउं, सखी अब कासौं पीर कहूंरी!॥टेका। सुमति सती सखिय निके आगैं, पियके दुख परकासै । चिदानन्दवल्लभकी वनिता, विरह वचन मुख. भासै ॥ हूं तो० ॥१॥ कंत विना कितने दिन बीते, कौंलौं Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयंभाग। २१ धीर धरौं री । पर घर हाँडै निज घर छांडे, कैसी विपति भरों री ।। हूं तो० ॥२॥ कहत कहावतमें सब यों ही, वे नायक हम नारी पै सुपर्ने न कभी मुँह बोले, हमसी कौन दुखारी ।। हूं तो० ॥३॥ जइयो नाश कुमति कुलटाको, विरमायो पति प्यारो। हमसौं विरचि रच्यो रंग बाके, असमझ (?) नाहिं हमारो॥हूं तो० ॥॥ सुंदर सुघर कुलीन नारि में, क्या प्रभु मोहि न लोरें । सतह देखि दया न धरै चित, चेरीसों हित जोरें ।। हूं तो० ॥५॥ अपने गुनकी आप वड़ाई, कहत न शोभा लहिये । ऐरी! वीर चतुर चेतनकी, चतुराई लखि कहिये ॥ हूं तो० ॥॥ करिहों आजि अरज जिनजीसों, प्रीतमको समझावें । भरता भीख दई गुन मानौं, जो बालम घर आ ॥ हूं तो० ॥७॥ सुमति वधू यौं दीन दुहागनि, दिन दिन झुरत निरासा । भूधर पीउ प्रसन्न भये विन, चसै न तिय घरवासा ।। हूं तो० ॥८॥ १ भटकै. २ प्रेम करें. Riya Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ - जैनपदसंग्रहः ३०. राग सोरठ। "चित ! चेतनकी यह विरियाँ रे ॥ टेक ॥ उत्तम जनम सुतन तरुनापौसुकृत बेल फल: फरियाँ रे ॥ चितः॥१॥लहि सत संगतिसौं सब समझी, करनी खोटी खरियाँ रे । सुहित सँभालि शिथिलता तजिकै, जाहैं बेलीझरियाँरे।। चित०॥२॥ दल बल चहल महल रूपेका, अर कंचनकी कलियाँ रे । ऐसी विभव बढ़ी कै बढ़ि है, तेरी गरज क्या सरियाँ रे॥ चित०॥३॥ खोय न वीर विषय खल सै,ि ये कोरनकी घरियाँ रे । तोरि न तनक तंगाहित भूधर, मु. कताफलकी लरिया रे ॥ चित० ॥४॥.... ...... ३१. राग पंचम। : . '. आज गिरिराजके शिखर सुंदर सखी, होत है अतुल कौतुक महा मनहरन ।। टेक ॥ नाभिके नंदकौं जगतके चन्दकौं, ले गये इन्द्र मिलि जन्ममंगल करन।आज०॥शा हाथ हाथन धरे सुरन . १ जवानी. २ पुण्य. ३ बदलेमें. ४ करोड़ोंकी. ५ धागा, डोराके लिये, ६ लड़ी. . . .. . -- -. . - - - - Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयभाग : कंचन घरे, छीरसागर भरें नीर निरमल वरन। सहस अर आठ गिन एक ही वार जिन, सीस सुरईशके करन लागे ढरन । आज०॥२॥नचत सुरसुन्दरी रहस रससौं भरी, गीत गावे अरी देहिं ताली करन । देव दुंदभि बजे वीन चंसी सजे, एकसी परत आनंद घनकी भरन । आज०॥३॥इन्द्र हर्पित हिये नेत्र अंजुल किये, तृपति होत न पिये रूपअम्रतझरन । दास मृधर भने सुदिन देखें बनें, कहि थके लोक लख जीभ न सके वरन । आज०॥४॥ ऐसी समझके सिर धूल ॥ ऐसी०॥. टेक ॥ धरम उपजन हेत हिंसा, आचरै अघमूल ।। ऐसी० ॥ १॥ छके मत-मद-पान पीके, रहे सनमें फूल । आम चाखन चहें भोंदू, बोय पेड़ बॅथल ॥ ऐसी० ॥२॥ देव रागी लालची गुरु, सेय सुखहित भूल । धर्म नेगकी परख नाही, भ्रम हिंडोले झुल ॥ ऐसी०॥३॥ लाभकारन - १ घडे-कलश. २ रतकी.. . .. .... Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपदसंग्रह रतन विणजै, परखको नहिं सूल। करत इहि विधि वणिज भूधर, विनस जै है मूल ॥ ऐसी० ॥ ४॥ . अब पूरीकर नींदड़ी, सुन जीया रे! चि. रकाल तू सोया ॥ सुन०॥ टेक ॥ माया मैली रातमें, केता काल विगोया ॥ अव० ॥१॥धर्म न भूल अयान रे! विषयावश बाला । सार सुधारस छोड़के, पीवै जहर पियाला॥ अवा२॥ मानुष भवकी पैठमैं, जग विणजी आया। चतुर कमाई कर चले, मूढौं मूल गुमाया ॥ अव० ॥३॥ तिसना तज़: तप जिन किया, तिन बहः हित जोया । भोगमगन शठ जे रहे, तिन सरवस खोया ॥ अब० ॥ ४॥ काम विथापीड़ित जिया, भोगहि. भले जानैं । . खाज खुजावत अंगमें, रोगी सुख मानें ।। अव० ॥५॥राग उरंगनी जोरतें, जग डसिया भाई! सब जिय गाफिल हो रहे, मोह लहर चढ़ाई ॥ .१ शहूर. २ खोया. ३ सर्पनी. Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयभाग । પ अव० ॥ ६ ॥ गुरु उपगारी गारुडी, दुख देख निवारें । हित उपदेश सुमंत्रसों, पड़ि जहर उतारें ॥ अव० ॥ ७ ॥ गुरु माता गुरु ही पिता, गुरु सज्जन भाई । भूधर या संसार में, गुरु शरनसहाई ॥ अव० ॥ ८ ॥ ३४. राग बंगाला । जगमें श्रद्धानी जीव जीवनमुकत हैंगे ॥ टेक ॥ देव गुरु सांचे मानें, सांचो धर्म हिये आनें, ग्रंथ ते ही सांचे जानें, जे जिनउकत हैंगे ॥ जगमें ॥ १ ॥ जीवनकी दया पालै, झूठ तजि चोरी टालें, परनारी भाले नैंन जिनके लुंकत देंगे || जगमें || २ || जीयमें सन्तोष धारैं हियें समता विचारें, आगे को न बंध पारें, पाछेंसों चुकत हेंगे | जगमैं ||३|| वाहिजं क्रिया अरावें, अन्तर सरूप साधें, भूधर ते मुक्त लाथै, कहूं न रुकत हैंगे || जगमें ॥ ४ ॥ १ जहर उतारनेवाले. २ इस पदकी चारों टेकें निकाल डालने से एक घनाक्षरी ( ३२ वर्ण) कवित्त वन जाता है. ३ उक्त, प्रणीत, कहे हुए ४ देखने में. ५ छिपते हैं, लज्जित होतें हैं. Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपदसंग्रह : • ३५. राग वंगाला । आया रे बुढापो मानी सुधि बुधि विसरानी ॥ टेक ॥ श्रवनकी शक्ति घटी, चाल चालै अटपटी, देह लेटी भूख घटी, लोचन झरत पानी || आया रे० ||१|| दाँतनकी पंक्ति टूटी, हाड़नकी संधि छूटी, कायाकी नगरि लूटी, जात नहिं पहिचानी ॥ आया रे० ॥ २ ॥ वालोंने वैरन फेरा, रोगने शरीर घेरा, पुत्रहू न आवै नेरा, औरोंकी कहा कहानी || आया रे० ॥२॥ भूधर समुझि अबः स्वहित करैगो कव, यह गति है है जब, तब पिछतैहै प्रानी ॥ आया रे० ॥ ४ ॥ ३६. राग सोरठ । २६ ★ अन्तर उज्जल करना रे भाई ! ॥ टेक ॥ कपट कृपान तजै नहिं तबलौं, करनी काज न सरना रे । अन्तर० ॥ १ ॥ जप तप तीरथ जज्ञ - तादिक, आगमअर्थउचरना रे । विषय कषाय कीच नहिं धोयो, यों ही पचि पचि मरना रे ॥ १ इसकी भी टेकें निकाल देनेसे घनाक्षरी बन जाता है. २ कमजोर हुई. ३ रंग. ४ निकट. : Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T तृतीयभाग। अन्तर० ॥२॥ बाहिर भेष क्रिया उर शुचिसों की पार उतरना रे । नाहीं है सव लोक रंजना, ऐसे वेदन वरना रे ॥ अन्तर० ॥३॥ कामादिक मनसौं मन मैला, भजन किये क्या तिरना रे । भूधर नीलवसनपर कैसे, केसररंग उछरना रे ।। अन्तर०॥४॥ ३७. राग सोरठ। वीरा! थारी वान बुरी परी रे, वरज्यो मानत नाहि ॥ टेक ॥ विषय विनोद महा बुरे रे, दुख दाता सरवंग । तू हटसों ऐसें रमै रे, दीवे पड़त पतंग ।। वीरा० ॥१॥ ये सुख हैं दिन दोयके रे, फिर दुखकी सन्तान । केरै कुहाड़ी लेइक रे, मति मारै पैग जानि ॥ वीरा ॥२॥ तनक न संकट सहि सके रे! छिनमैं होय अधीर। नरक विपति बहु दोहली रे, कैसे भरि है वीर ॥ वीरा०॥३॥ भव सुपता हो जायगा रे, करनी रहेगी निदान । भूधर फिर पछतायगारे, अव ही समुझि अजान ।। वीरा ॥२॥ १ कालेकपडेपर २ दीपकमें.३ अपने हाथसे. ४ अपने पैरपर, Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपदसंग्रह ॥ २॥ कुशलवृक्ष दल उलास, इहि विधि बहु गुणनिवास, भूधरकी भरहु आस, दीन दासके सो॥ पारस० ॥३॥ ४८. राग धनासरी। ... शेष सुरेश नरेश. र तोहि पार न कोई पावै जू ॥ टेक ॥ काँपै नपत व्योम विलसतसौं, को तारे गिन लावै जू ॥ शेप०॥ १॥ कौन सुजान मेघ वृंदनकी, संख्या समुझि सुनावै जू॥ शेष० ॥२॥ भूधर सुजस गीत संपूरन, गनपति भी नहिं गावै जू॥ शेष०॥३॥ ४९. राग रामकली। आदि पुरुष मेरी आस भरोजी। औगुन मेरे माफ करोजी॥टेका।दीनदयाल विरद विसरोजी, कै विनती मोरी श्रवण धरोजी॥१॥ काल अनादि वस्यो जगमाही, तुमसे जगपति जानें नाहीं । पाँय न पूजे अन्तरजामी, यह अपराध क्षमा कर स्वामी ॥ आदि० ॥२॥ भक्ति प्रसाद परम पद है है, बंधी बंध दशा मिट जै है। १ किससे? २ आकाश. ३ बिलस्तसे. ४ गणधर.. Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयभागः। तव न करौं तेरीः फिर पूजा, यह अपराध खमों प्रभु दूजा ॥ आदि० ॥३॥ भूधर दोष किया कसावै, अरु आगेको लारे लावै । देखो सेवककी ढिठेवाई, गरुवे साहिवसों बनियाई ।। आदि०॥४॥ : ५०. राग ख्याल काफी कानड़ी। . . . _तुम सुनियोसाधो !, मनुवा मेरा ज्ञानी । सत गुरु भैंटा संसा मैटा, यह नीकै करि जानी॥टेक।। चेतनरूप अनूप हमारा, और उपाधि विरानी॥ तुम सुनियो० ॥ १ ॥ पुदगल भांडा आतम खांडा, यह हिरदै ठहरानी। छीजो भीजौ कृत्रिम काया, मैं निरभय निरंवानी॥तुम सुनियो॥२॥ मैं ही देखों में ही जानौं, मेरी होय निशानी । शवद फरस रस गंध न धारौं, ये बातें विज्ञानी। तुम सुनियो०॥३॥जो हम चीन्हां सो थिर कीन्हां, हुए सुदृढ़ सरधानी । भूधर अब कैसे उतरैगा, खड़ग चढ़ा जो पानी ॥ तुम सु० नियो०॥४॥ १ माफ कराता है. २ ढीठता. ३ बनियापन. ४ संदेह. . Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपदसंग्रह ५१. राग काफी । १. प्रभु गुन गाय रे, यह औसर फेर न पाय रे ॥ ट्रैक ॥ मानुष भव जोग दुहेला, दुर्लभ संतसंगति मेला । सब बात भली बन आई, अरहन्त भजौ रे भाई ॥ प्रभु० ॥ १ ॥ पहलै चित- चीरे सँभारो, कामादिक मैल उतारो। फिर प्रीति फिटकरी दीजे, तब सुमरन रंग रँगीजे ॥ प्रभु०॥ श धन जोर भरा जो कूवा, परवार बढ़ें क्या हुवा | हाथी चढ़ि क्या कर लीया, प्रभु नाम विना धिक जीया ॥ प्रभुः ॥ ३ ॥ यह शिक्षा है व्यवहारी निचैकी साधनहारी । भूधर पैड़ी पग धरिये, तब चढ़नेको चित करिये ॥ प्रभुः ॥ ४ ॥ · ५२. राग : हागीर कल्याण ।, : सुनि सुजान ! पाँचों रिपु वश करि, सुहित करन असमर्थ अवश करि ॥ टेक ॥ जैसें जड़ खखौरको कीड़ा, सुहित सम्हाल सधैं नहिं फँस करि ॥ सुनि० ||१|| पांचनको मुखिया मन चंचलः पहले ताहि पकर रस (?) कस करि । समझ देखि १ वस्त्र. २. पांचोंइन्द्री ३ कफः : ३६ · Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयभाग। नायकके जीतें, जै है भाजि सहज सब लसकरि॥ सुनि० ॥ २ ॥ इंद्रियलीन जनम सब खोयो, चाकी चल्यो जात है स्वस करि । भूधर सीख मान सतगुरुकी, इनसों प्रीति तोरि अब वश करि ।। सुनि० ॥ ३॥ .. . ५३. राग गौरी। देखो भाई ! आतमदेव विराजै ॥ टेक ॥ इसही हूँठ हाथ देवलमें, केवलरूपी राजै॥देखो० ॥१॥ अमल उदास जोतिमय जाकी, मुद्रा मंजुल छाजै । मुनिजनपूज अचल अविनाशी, गुण वरनत बुधि लाजै॥ देखो०॥२॥ परसंजोग समल प्रतिभासत, निज गुण मूल न त्याजै । जैसे फटिक पखानं हेतसों, श्याम अरुन दुति साजै ॥ देखो० ॥ ३॥ 'सोऽहं पद. समतासों ध्यावत, घटहीमें प्रभु पाजे । भूधर निकट निवास जासुको, गुरु विन भरम न भाजै ॥ देखो० ॥४॥ १ लश्कर-सैना. २ साढ़ेतीन हाथके शरीररूपी मंदिरमें. . Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपदसंग्रह ५४. राग ख्याल । : अब नित नेमि नाम भजौ ॥ टेक ॥ सचा साहिब यह निज जानौ, और अदेव तजौ ॥ अव०॥ ॥ १ ॥ चंचल चित्त चरन थिर राखो विषयनतें वरजौ || अब० ॥ २ ॥ आननतें गुन गाय निरन्तर, पानने पांय जैजौ ॥ अव० ॥ ३ ॥ भूधर जो भवसागर तिरना, भक्ति जहाज सजौ ॥ अवना ५५. राग श्रीगौरी । ૨૦ " माया काली नागिनि जिन उसिया सब संसार हो" यह चाल । harir गागर जोजरी, तुम देखो चतुर विचार हो ॥ टेक ॥ जैसें कुल्हिया कांचकी, जाके विनसत नाहीं बार हो । कायां ॥ १ ॥ मांसमयी माटी लई अरु सानी रुधिर लगाय हो ! कीन्हीं करम कुम्हारने, जासों काहूकी नवसाय हो ॥ कांया० ॥ २ ॥ और कथा याकी सुन, यामैं अघ उरघ दश ठेह हो । जीव स लिल तहां थंभ रह्यौं भाई, अद्भुत अचरज येह १. मुखसे. २ हाथ जोड़कर. ३ नमन. करौ. ४ जरजरित, टूटी फूटी. Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९: तृतीयभाग । हो || काया० ॥ ३॥ यासौं ममत निवारक, नित रहिये प्रभु अनुकूल हो । भूधर ऐसे ख्यालका भाई, पलक भरोसा भूल हो । काया० ॥ ४ ॥ ५६. राग ख्याल बरवा । "देखनेको आई टाल मैं तो तेरे देखनेकों आई" यह चाल । हैं तो थाकी आज महिमा जानी ॥ टेक ॥ अब लों नहिं उर आनी ॥ हों तो ० ॥१॥ काहेको भव वनमें भ्रमते, क्यों होते दुखदानी । में तो ० ॥ २ ॥ नामप्रताप तिरे अंजनसे, कीचकसे अभिमानी ॥ हों तो० ॥ ३ ॥ ऐसी साख बहुत सुनियत है, जैनपुराण बखानी ॥ हों तो ० || ४ || भूधरको सेवा वर दीजे, मैं जांचक तुम दानी || झें तो० ॥ ५ ॥ ५७. राग बिहाग | अरे मन चल रे, श्रीहथनापुरकी जाते ॥ टेक || रोमा रामा धन धन करते, जावै जनम विफल रे || अरे० ||१|| करि तीरथ जप तप जिनपूजा लालच वैरी दल रे । अरे० ॥ २ ॥ शांति १ यात्राको २ स्त्री. Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૦ जैनपदसंग्रह कुंथु अर तीनों जिनका चारु कल्याणकथल रे ॥ अरे० ॥ ३ ॥ जा दरसत परसत सुख उपजत, जाहिं सकल अघ गल रे ।। अरे० ॥ ॥ ।। देश दिशन्तरके जन आवै, गावें जिन गुन रल रे || अरे० ||५|| तीरथ गमन सहामी मेला, एक पंथ द्वै फल रे ॥ अरे० ॥ ६ ॥ कायाके संग काल फिर है, तन छायाके छल रे || अरे० ॥ ७ ॥ माया मोह जाल बंधनसौ, भूधर वेगि निकल रे || अरे० ॥ ८ ॥ ५८. राग विहाग । जगत जन जूवा हारि चले ॥ टेक ॥ काम कुटिल सँग बाजी माँड़ी, उन करि कपट छले । जगत० ॥ १ ॥ चार- कषायमयी जहँ चौपरि, पांसे जोग रले । इत सखस उत: कामिनि कौड़ी, इह विधि झटक चले । जगत० ॥ २ ॥ क्रूर खिलार विचार न कीन्हों, है हैं स्वार भले । विना विवेक मनोरथ काके, भूधर सफल फले । जगत० ॥ ३ ॥ · Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयभाग । ०१. राग बिहाग । तहां ले चल री ! जहां जादौपति प्यारो ॥ टेक ॥ नेमि निशाकर विन यह चन्दा, तन मन दहत सकलरी | तहां० || १ || किरन किधौं नाविक-शर-तति कै. ज्यों पावककी झल री। तारे हैं कि अँगारे सजनी, रजनी रोकसदल री | तहां || २ || इह विधि राजुल राजकुमारी, विरह तपी वेलरी | भूधर धन्न शिवसुत वादर, वरसायो सॅमजल री । तहां० ॥ ३ ॥ ६०. राग ख्याल । अरे ! हां चेतो रे भाई ॥ टेक ॥ मानुप देह लही दुलही सुधरी उघरी सतसंगति पाई। अरे हां० ॥ १ ॥ जे करनी वरनी करनी नहिं, ते समझी करनी समझाई | अरे हां० ॥ २ ॥ यों शुभ थान जम्यो उर ज्ञान, विषैविषपान तृपा न बुझाई | अरे हां० ॥ ३ ॥ पारस पाय सुधा A " १ राक्षस. २ शिवदेवीके पुत्र नेमि, समतारूपी जेल, ५ टेक छोड़कर पढ़नेसे गयन्द ( तसा ) सधैया वन जाता है. ४१ 1 २ वादल - मेव. ४. राम इस पदका एक मत 8 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ जैनपदसंग्रह आदि प्रजा प्रतिपाली, सकल जननकी आरति । टाली ॥ आरती० ॥ १॥ वांछापूरन सबके खामी, प्रगट भये प्रभु अंतरजामी ॥ आरती० ॥२॥ कोटभानुजुत आभा तनकी, चाहत चाह मिटै नर्हि तनकी ॥ आरती० ॥३॥ नाटक निरखि परम पद ध्यायो, राग थान . वैराग उपायो॥ आरती० ॥ ४॥ आदि ज.. गतगुरु आदि विधाता, सुरंग मुकति मारगके दाता ॥ आरती० ॥ ५॥ दीनदयाल दया अब कीजे, भूधर सेवकको ढिग लीजे॥ आरती० ॥६॥. . . . . . . . . . : ... ६९. राग सलहामारू। . . . सुनि सुनि हे साथनि! म्हारे मनकी बात। सुरति सखीसों सुमति राणी यों कहै जी । बीयो है साथनि मारी ! दीरघकाल, म्हारो सनेही म्हारे घर ना रहै जी ॥१॥ना व. रज्यो रहै साथनि म्हारी चेतनराव, कारज .. अधम अचेतनके करै जी। दुरमति है साथनि म्हारी जात कुजात, सोई चिदातम पियको Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपदसंग्रह निरग्रंथ त्रिकाल । मार्यो काम खवीसको, खामी परम दयाल ॥ ते गुरु०॥४॥ पंच महाव्रत आदरें, पांचों सुमति समेत । तीन गुपति पालैं सदा, अजर अमर पद हेत ॥ ते गुरु०॥५ धर्म धरै दशलक्षणी, भावें भावना सार । सहैं परीसह बीस दै, चारित-रतन-भँडार ॥ ते गुरु० ॥६॥जेठ तपै रवि ओकरो, सूखै सरवरनीर। शैल-शिखर मुनि तप तपैं, दोझै नगन शरीर। ते गुरु०॥७॥पावस रैन डरावनी, वरसै जलधर-धार । तरुतल निवसैं साहसी. वाजै झंझावार ।। ते गुरु०॥८॥शीत पड़े कपि-मद गलै, दाहै सब वनराय । ताल तरंगनिके तटै, ठाड़ें ध्यान लगाय ॥ ते गुरु० ॥९॥ इहि विधि दुद्धर तप तपैं, तीनों कालमँझार लागे सहज सरूपमें, तनसों ममत निवार ॥ ते गुरु० ॥१०॥ पूरव भोग न चिंत३, आगम वांछा नाहि । चहुँगतिके दुखसों डरें, सुरति लगी शिव १ तेजीसे । २ जलावें । ३ चलती है। ४ बरसाती हवाको शंशा कहते हैं। - Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ (२) पदसंख्या पृष्ठ पदसाख्या का कर आतमदिन १४५ खेलौगी होरी ३११ १६ कर रे कर रे कर रे तू मा० २९ ३१ कहत सुगुरु कर सुहित ५८ ३ गलतानमता कर आये. ५ ५३ कहिवेको मन सूरमा, कर०१०२/ ६८ गहु सन्तोष सदा मन रे १३३ ६. कहै राधौ सीता चलह० ११५१११६ गिरनारिप नेमि विराजत २२९ ६० कहै सीताजी सुनो रामच०११६ } २० गुरु समान दाता नहि. १८ ३५ कर सतसंगति रे भाई १२७११२३ गोतम खामी जी मोहि २५.१ ७४ कहुं दीठा नेमिकुमार १४५ घा ७५ कहें भरतजी सुन हो राम१४७४ २५ घटमें परमातम ध्याइये ४८ ८३ कर मन निज मातम० १५७ १०१ कहारी करौं कित जाऊ १८३/ ७ चल देस प्यारी नेमि० १३ १०४ कव हो मुनिवरको प्रत० १९२१२५ चल पूजा कीजे बनारस में २५४ १२७ करुना कर देवा २६११११८ चाहत है सुख पैन गाह०२३५ १३५ कहा री कहूं कछु कहत २८७ ४० चेतन खेले होरी ७६ १३७ कर मन वीतरागको ध्या० २९३] ६६ चैत रे प्रानी चेत रे तेरी०१२९ १४६ कर्मनिको पेलै ३१५, ७८ चेतन प्राणी चेतिये हो १५२ १५० कलिमें ग्रन्थ बड़े उपगारी ३१९/१०४ चेतन मान हमारी वति.१९१ ६ काहेको सोचत अति भा० ११.१०५ चेतन तुम चेतो भाई १९५ ३९ कारज एक ब्रह्म ही सेती ७५/१०६ चेतन जी तुम जोरत हो १९७ ९५ काया तू चल संग हमा० १७२/१११ चेतन मान ले बात हमा०२१३ ११३ काम सरे सब मेरे ॥ २२०/१४६ चेतन नागर हो तुम ३१६ ९८ किसकी भगति किये हि. १७६/१३८ चौवीसोंको वन्दना हमा० २९५ १५१ कीजे हो भाईयनिसों ३२० १२८ कोही पुरुष कनकतन की०२६५/ २ जानत क्यों नहिं रे २ १५३ क्रोध कषाय न मैं करों ३२१, ९ जगतमें सम्यक उत्तम भा० १५ १०७ कौन काम अब मैने की. २०१, ४६ जय जय नेमिनाथ प० ८८ १४९ कौन काम मैंने कोनो ३०४} ७० जव वानी खिरी गहा० १३८ - Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पृष्ठ पदसंख्या पृष्ठ पदसंख्या १३० जग ठग मित्र न कोय वे २७२/१०३ त्यागो त्यागो मिथ्यातम १८७ ११७ जानो धन्य सो धन्यसो० २३१/१०० त्रिभुवनमें नामी कर क. १७९ १२९ जाको इंद अहमिद भ० २७० १३ तुम प्रभु कहियत दीन द० २३ १४४ जानो पूरा ज्ञानी सोई ३०८ ३८ तुम ज्ञान विभव फूली ७३ ४ जिन नाम सुमर मन० ७.५९ तुमको कैसे सुख है मीत ११३ १२जियको लोभ महादुख० २१/१०९ तुम तार करुनाधार २०० १८ जिनके हिरदै भगवान ३३ / १२८ तुम अधमउधारनहार २६४ १९ जिनके हिरदै प्रभुनाम ३६] १४० तुम चेतन हो ३०२ ६२ जिनके भजनमें मगन० ११९) ५तू जिनवरखामी मेरा ८ ८९ जिनराय मोह भरोसो १६५/ २५ तू तो समझ समझ रै भाई ४७ ११० जिनवानी पानी जान लै २०९/१३९ तू ही मेरा साहिब सच्चा २९८ १११ जिन साहिब मेरे हो २१२/११३ तेरो संजम विन रे नरभव २२१ ११४ जिनरायके पाँय सदा २२२/१३६ तेरे मोह नहीं २९२ ११७ जिन जपि जिन जपि २३२/१४६ तेरी भगति विना धिक है ३१४ १२५ जिनवर मूरति तेरी, शो० २५७/११३ ते चेतन करना न करी रे २१९ १३२ जिनपद चाह नाहीं कोय २७८ १४० तें कहुं देखे नेमिकुमार ३०३ २७ जीवा शं. कहिये तने ५१ २८ जीव ते मूढपना कित० ५३, ३५ दरसन तेरा मन भावै ६७ ९६ जीव से मेरी सार न० १७३ १ १२३ दास तिहारो हूं मोहि० २५० ६६ जेन नाम भज भाई रे १२८ ९१ जैन धरम धर जीयरा १६७ १२२ दियें दान महा सुख पा० २४६ ५५ जो ते आतम हित नहि १०६/१०३ दुरगतिगमन निवारिये १८९ २३ देख्या मैंने नैमिजी प्यारा ४४ ८५ ९७ हटा सपना यह संसार १७५ ४४ देखो भाई श्रीजिनराज ४५ देखो भाई आतम वि० ८६ १०१ तजि जो गये पिय मोह १८१/ ४८ देखो भेक फूल ले नि० ९१ १२६ तारि लै मोहि शीतल० २५८ ५४ देखे सुखी सम्यक्रवान १०४ १२६ तारनको जिनवानी २५९ १०८ देखे जिनराज माज २०३ । Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) पदसंख्या पृष्ट पदसंख्या ११९ देखो नाभिनन्दन जग० २३६ / ६७ पायो जी मुख मातम १३१ १२४ देखे धन्य घरी २५२ / १२५ पावापुर भवि बन्दा २५६ ध। |१२२ प्यारे नमतों प्रेम किया २४८ २१ धनि ते साधु रहत वनमा० ४० ३३ प्राणी लाल धरन अगाऊ ६२ ३. धनि धनि ते मुनि गिरि० ५७, ८० प्राणी लाल छोड़ो मन १५४ २७ धिक धिक जीवन समकि० ५० ९० प्रानी यह संसार असार १६५ १०५ प्राणी सोहं सोहं ध्याय हो १९४ २४ नहिं ऐसो जनम वारंवार ४६१०६ प्राणी तुन तो आप मु. १६८ १४५ नगरमें होरी हो रही हो ३१०/१४८ प्राणी मातमरूप अनूप ३१७ १११ निज जतन करो गुन० २१४/११९ पिय वैराग्य लियो है २३७ ११५ निरविकलप जोति प्रका० २२७/११९ पिय वैराग लियो है २३८ ३४ नेमि नवल देखें चल री १३ १४५ पिया विन को खेलों. ३१२ १०६ नेमिजी तो केवलज्ञानी १९६ १२१ नेमि मोहि आरत तेरी २४४ ३८ फली वसन्त नह आदी० ७२ १४१ नेमीश्वर खेलन चले ३०५/ १५ यन्दी नेमि उदासी १७ परमगुरु वरसत ज्ञान. ३० ३. यसि संसार में ९९ परमेसुरकी कैसी रीत १७७ ४९ वन्दे तू वन्दगी कर याद ९३ ११४ परमारथपंथ सदा पक. २२३, ४९ वन्दे तू बन्दगी ना भूल ९४ २९ प्रभु अव हमको होहु स. ५५१०७ वीतत ये दिन नीके हमको२०० ३२ प्रभु में किहि विधि शु. ६०/७१ चे कोई निपट अनारी. १३९ ५१ प्रभु तेरी महिमा किहि ९८ ५२ प्रभु तेरी महिमा कही न ९९! ११ भम्यो जी भन्यो संसार० २० ५२ प्रभु तुम सुमरनहीमें तारे१००, ३३ भजनी आदिचरन मन० ६१ १२७ प्रभु तुम चरन शरन० २६२/ ३४ भवि पूजो मनवच श्रीजि. ६४ १२९ प्रभु तुम नैननगोचर २६८ ६१ भवि कीजेहो भातम सँभार११७ १३६ प्रभुजी मोहि फिकर भ० २९१, ७९ भजि मन प्रभु श्रोनेमिको १५३ १४४ प्रभु जी प्रभू सुपास ३०९ ८४ भजो आतम देव रे जि० १५९ फ। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ट पदसंख्या पृष्ट पदसंख्या ८८ भज रे भज रे मन आदि०१६३ १९ माई आज आनंद है या ३५ १३३ भज जम्बूखामी अन्तर० २८१) ५६ मानुप जनम सफल भयो १०८ १३३ भजरे मन वाप्रभुपारस०२८२/ ७७ मानुपभव पानी दियो १५० १३४ भजो जी भजो जिनचरन० २८३/१०३ मानों मानों जी चेतन १८८ १४६ भली भई यह होरी आई ३१३/ ७३ मिथ्या यह संसार है १४३ ९ भाई अव में ऐसा जाना १६/ १२० मूरतिपर वारी रे नेमि० २४१ १९ भाई आज आनन्द कछु. ३४) १७ मेरी वेर कहा ढील करी ३२ ४२ भाई शानी सोई कहिये ८१, ३७ मोहि तारो हो देवाधिदेव ७० ४३ भाई कीन धरम हम पाले ८२ ५७ मेरे मन कय है है वैराग ११० ४८ माई आपन पाप कमाये ९२ १३१ मेरी मेरी करत जनम २७४ ५० भाई ज्ञानका राह दुहे. ९६ १३ मैं नेमिजीका पन्दा २४ ५१ भाई ज्ञानका राह मुहेला रे ९७, १४ में निज आतम कब ध्या० २५ ८१ भाई ज्ञान विना दुख पाया१५५/ ६४ मैं एक शुद्धज्ञाता १२४ ८२ भाई कहा देख गरवाना १५६/१०२ मैं नूं भाव जी प्रभु चेत० १८५ ८३ भाई जानो पुद्गल न्यारा १५८ | १०३ में वन्दा स्वामी तेरा १८६ ८५ भाई ब्रह्माज्ञान नहिं जाना १६० १४० में न जान्यो री जीव ३०१ ९३ भाई ब्रह्मा विराजे कैसा ? १७० ४ मोहि कर ऐसा दिन आय ६ ९४ भाई कीन कहं घर मेरा १७१/१२२ मोहि तारि लै पारस० २४५ ११५ भाई धनि मुनि ध्यान ल० २२६/ १२३ मोहि तारो जिन साहि. २४९ १५४ भाई काया तेरी दुखकी० ३२२/ १५४ मंगल आरती कीजे भोर ३२३ ६. भैया सो आतम जानो रे १२० ४० भोर भयो भज श्रीजि० ७७१३१ यारी कीजे साधो नाल २७५ १३२ भोर उठ तेरो मुख देखों २७७/११. ये दिन आछे लहे जी २१० १० मन मेरे रागभाव निवार १८, ७४ राम भरतसों कह सुभाइ १४६ ३५ मगन रहु रे शुद्धातममें ६५/ ३६ री मेरे घट ज्ञानधनागम ६८ ११७ महावीर जावजीव २३३) ५७ री चल यदिये चल वैदि० १०९ १९ माई आज आनंद कछु कहे०३४१ १२० रीमा नेमि गये किंह टा. २३९ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपदसंग्रह। ॥ चल० ॥ ४ ॥ केवलज्ञान आदि गुण प्रगटे, नेकु न मान कियारी ॥ चल० ॥५॥ प्रभुकी महिमा प्रभु न कहि सकैं, हम तुम कौन विचारी ॥चल०॥६॥ द्यानत नेमिनाथ विन आली, कह मोकों को तारी ॥ चल०॥७॥ १४ । राग-सोरठ कड़खा। . रुल्यो चिरकाल, जगजाल चहुँगति विप, आज जि-' नराज-तुम शरन आयो ॥ टेक ॥ सह्यो दुख घोर, नहिं छोर आवै कहत, तुमसौं कछु छिप्यो नहिं तुम बतायो ॥ रुल्यो० ॥१॥ तु ही संसारतारक नहीं. दूसरो, ऐसो मुह भेद न किन्ही सुनायो । रुल्यो. • ॥२॥ सकल सुर असुर नरनाथ वंदत चरन, नामिनन्दन निपुन मुनिन ध्यायो ॥ रुल्यो० ॥३॥ तु ही अरहन्त भगवन्त गुणवन्त प्रभु, खुले मुझ माग अव दरश पायो ॥ रुल्यो० ॥४॥ सिद्ध हौं शुद्ध हौं बुद्ध अविरुद्ध हौं, ईश जगदीश बहु गुणनि गायो ॥ रुल्यो० ॥५॥ सर्व चिन्ता गई वुद्धि निर्मल भई, जब हि चित जुगलचरननि लगायो ॥ रुल्यो० ॥६॥ भयो .निहचिन्त धानत चरन शने गहि, तार अब नाथ तेरो कहायो | रुल्यो० ॥७॥ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थभाग । १५ । राग-मल्हार। जगतमें सम्यक उत्तम भाई ॥ टेक ॥ सम्यकसहित प्रधान नरकमें, धिक शट सुरगति पाई ॥ जगत. ॥१॥ श्रावकत्रत मुनित्रत जे पालें, ममता बुधि अधिकाई । तिनत अधिक असंजमचारी, जिन आतम लव लाई ॥ जगतः ॥२॥ पंच-परावर्तन 6 कीने, बहुत बार दुखदाई । लख चौरासि स्वांग धरि नाच्यो, ज्ञानकला नहिं आई ॥ जगत० ॥३॥ सम्यक विन तिहुँ जग दुखदाई, जहँ भावं तहँ जाई । धानत सस्यक आतम अनुभव, सदगुरु सीख बताई।जगत०॥॥ १६ । राग-गौड़ी। भाई ! अब मैं ऐसा जाना ॥ टेक । पुदगल दरव अन भिन्न है, मेरा चेतन बाना ॥ भाई० ॥१॥ कलप अनन्त सहत दुख बीते, दुखको मुख कर माना। मुख दुख दोऊ कर्म अवस्था, मैं कर्मनतै आना भाई. ॥२॥ जहाँ भोर था तहाँ भई निशि, निशिकी ठौर चिहाना । सूल मिटी निजपद पहिचाना, परमानन्दनिधाना ॥ भाई० ॥३॥ गूंगे का गुड़ खाँय कहें किमि, यद्यपि स्वाद पिछाना । धानत जिन देख्या ते जाने, मंडक हंस पखाना ॥ भाई० ॥४॥ १ कल्पकाल । २ अन्य, निराला । ३ कहावत । मंडक और ईसकी लोकोक्ति। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपदसंग्रह | १७ | राग - ख्याल । आतम जान रे जान रे जान ॥ टेक ॥ जीवनकी इच्छा करें, कबहुँ न मांगे काल । ( प्राणी ! ) सोई जान्यो जीव है, सुख चाहें दुख टाल || आतम० ॥ १ ॥ नैन चैनमें कौन है, कौन सुनत है बात । ( प्राणी ) देखत क्यों नहिं आपमें, जाकी चेतन जात ॥ जातम० ॥ २ ॥ बाहिर ढूंढ़ें दूर हैं, अंतर निपट नजीक । ( प्राणी ! ) ढूंढनवाला कौन है, सोई जानो ठीक ॥ आतम० ॥ ३ ॥ तीन भवनमें देखिया, आतम सम नहिं कोय । ( प्राणी ! ) द्यानत जे अनुभव करें, तिनक शिवसुख होय ॥ आतम० ॥ ४ ॥ १८ । राग - सोरठा । १० मन ! मेरे राग भाव निवार ॥ टेक ॥ राग चिक्कनतैं लगत है कर्मधूलि अपार ॥ मन० ॥ १ ॥ राग आस्रव मूल है, वैराग्य संवर धार । जिन न जान्यो भेद यह, वह गयो नरभव हार ॥ मन० ॥ २ ॥ दान पूजा शील जप तप, भाव विविध प्रकार | राग विन शिव सुख करत हैं, रागर्ते संसार ॥ मन० ॥ ३ ॥ वीतराग कहा कियो, यह बात प्रगट निहार । सोइ ... कर सुखहेत द्यानतं, शुद्ध अनुभव सार ॥ मन० ॥ ४ ॥ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थभाग । १९ । राग - रामकली । हम न किसीके कोई न हमारा, झूठा है जगका ब्योहारा ॥ टेक ॥ तनसंबंधी सब परवारा, सो तन हमने जाना न्यारा ॥ हम० ॥ १ ॥ पुन्य उदय सुखका बढ़वा - रा, पाप उदय दुख होत अपारा । पाप पुन्य दोऊ संसारा, मैं सव देखन जाननहारा || हम० ॥ २ ॥ मैं तिहुँ जग तिहुँ काल अकेला, पर संजोग भया बहु मेला । थिति पूरी करि खिर खिर जांहीं, मेरे हर्ष शोक कछु नाहीं ॥ हम न० ॥ ३ ॥ राग भावतें सजन मानैं, दोप भावतें दुर्जन जानैं । राग दोष दोऊ मम नाहीं, द्यानत मैं चेतनपदमाहीं ॥ हम न० ॥ ४ ॥ २० | राग - पंचम | l ११ भम्यो जी भम्यो, संसार महावन, सुख तो कबहुँ न पायो जी ॥ टेक ॥ पुदगल जीव एक करि जान्यो, भेद-ज्ञान न सुहायो जी ॥ भम्यो० ॥ १ ॥ मनवचकाय जीव संहारे, झूठो वचन बनायो जी। चोरी करके हरप बढ़ायो, विषयभोग गरवायी जी ॥ भम्यो० ॥२॥ नरकमाहिं छेदन भेदन बहु, साधारण वसि आयो जी । गरम जनम नरभव दुख देखे, देव मरत विललायो जी | भम्यो० ॥ ३ ॥ द्यानत अव जिनवचन सुनै मैं, १ घाते । २ साधारण वनस्पति । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ जैनपदसंग्रह | भवमल पाप वहायो जी। आदिनाथ अरहन्त आदिगुरु, चरनकमल चित लायो जी ॥ भस्यो० ॥ ४ ॥ २१ । राग - रामकली । जियको लोभ महा दुखदाई, जाकी शोभा ( ? ) बरनी 'न जाई ॥ टेक ॥ लोभ करै मूरख संसारी, छांड़े पfusa शिव अधिकारी ॥ जियको० ॥ १ ॥ तजि घरवास फिरै वनमाहीं, कनक कामिनी छांड़े नाहीं । लोक रिझावनको व्रत लीना, व्रत न होय ठगई सा कीना ॥ जियको ० ॥ २ ॥ लोभवशात जीव हत डारे, झूठ बोल चोरी चित धारै । नारि गहै परिगृह विसतारै, पांच पाप कर नरक सिधारै ॥ जियको ॥ ३ ॥ जोगी जती गृही वनवासी, वैरागी दरवेशं सन्यासी । अजस खान जसकी नहिं रेखा, द्यानत जिनकै लोभ विशेखो || जियको ० ॥ ४ ॥ २२ । रे मन ! भज भज दीनदयाल || टेक ॥ जाके नाम लेत इक छिनमैं, करें कोट अघजाल ॥ रे मन० ॥१॥ || परमेश्वर स्वामी, देखें होत निहाल । सुमरन करत परम सुख पावत, सेवत भाजै काल ॥ रे मन० ॥ २ ॥ इंद फंनिंद चक्कँघर गावैं, जाको नाम रसाल । परम १ फकीर । २ विशेषता | ३ चक्रवर्ती | Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थभाग। जाको नाम ज्ञान परगास, नाशै मिथ्याजाल ॥ रे मन० ॥३॥ जाके नाम समान नहीं कछु, ऊरध मध्य पताल । सोई नाम जपो नित धानत, छांडि विपय विकराल ॥रे मन० ॥४॥ २३ । तुम प्रभु कहियत दीनदयाल ॥ टेक ॥ आपन जाय मुकतमैं बैठे, हम जु रुलत जगजाल ॥ तुम० ॥१॥ तुमरो नाम जपें हम नीके, मन वच तीनों काल। . तुम तो हमको कछू देत नाहि, हमरो कौन हवाल ॥ तुम० ॥२॥ बुरे भले हम भगत तिहारे, जानत हो हम चाल । और कछु नहिं यह चाहत हैं, राग दोपकों टाल ॥ तुम० ॥३॥ हमसौं चूक परी सो कसो, तुम तो कृपाविशाल । धानत एक बार प्रभु जगतै, हमको लेहु निकाल ॥ तुम० ॥ ४ ॥ २४ । राग-ख्याल । - मैं नेमिजीका वंदा, मैं साहवजीका वंदा ।। टेक ॥ नैन चकोर दरसको तरसैं, खामी पूरनचंदा ॥ मैं नमिजी०॥१॥छहाँ दरवमें सार बतायो, आतम आनंदकन्दा । ताको अनुभव नित प्रति कीजे, नासै सब दुख दंदा ॥ मैं नेमिजी ॥२॥ देत धरम उपदेश १ वख्शो साफ करो। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपदसंग्रह। भविक प्रति, इच्छा नाहिं करंदा । राग दोप मद मोह नहीं नहि,क्रोध लोभ छल छंदा ॥ मैं नेमिजी० ॥३॥ जाको जस कहि सके न क्योंही, इंद फनिंद नरिन्दा। सुमरन भजन सार है द्यानत, और वात सव धंदा ।। मैं नेमिजी० ॥४॥ २५। मैं निज आतम कब ध्याऊंगा ॥ टेक ॥ रागादिक परिनाम त्यागकै, समतासौं लौ लाऊंगा । मैं निज. ॥१॥ मन वच काय जोग थिर करके, ज्ञान समाधि लगाऊंगा। कव हाँ खिपंकश्रेणि चढ़ि ध्याऊं, चारित मोह नशाऊंगा । मैं निज० ॥२॥ चारों करम घातिया खैय करि, परमातम पद पाऊंगा । ज्ञान दरश सुख वल भंडारा, चार अघाति वहाऊंगा ॥ मैं निज. ॥३॥ परम निरंजन सिद्ध शुद्धपद, परमानंद कहा-. ऊंगा । धानत यह सम्पति जब पाऊं, बहुरि न जगमें आऊंगा ॥ मैं निज०॥४॥ २६ । अरहंत सुमर मन बावरे! ॥ टेक ॥ ख्याति लाभ पूजा तजि भाई, अन्तर प्रभु लौ लाव रे॥ अरहंतः॥१॥ नरभव पाय अकारथ खोवै, विपय भोग जु वढ़ाव रे। १ मैं । २ क्षपकश्रेणी । ३ नाशकर । ४ यश, कीर्ति । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थभाग । प्राण गये पछितैहै मनवा, छिन छिन छीजै आवे रे ।। अरहंत० ॥२॥ जुवैती तन धन सुत मित परिजन, गज तुरंग रथ चाव रे । यह संसार सुपनकी माया, आंख मीचि दिखराव रे ॥ अरहंत० ॥३॥ ध्यान ध्याव रे अब है दावरे, नाहीं मंगल गाव रे । धानत वहुत कहां लौँ कहिये, फेर न कछू उपाव रे ॥ अरहंत०॥४॥ २७॥ चन्दौ नेमि उदासी, मद मारिवेकौं ॥ टेक ॥ रजमतसी जिन नारी छाँरी, जाय भये वनवासी ॥ वन्दौं० ॥१॥ हय गय रथ पायक सब छोड़े, तोरी ममता फाँसी । पंच महाव्रत दुद्धर धारे, राखी प्रकृति पचासी ॥ वन्दौं०॥२॥जाकै दरसन ज्ञान विराजत, लहि वीरज सुखरासी । जाकौं वंदत त्रिभुवन-नायक, लोकालोकप्रकासी ॥ वन्दौं० ॥३॥सिद्ध शुद्ध परमातम राजै, अविचल थान निवासी । धानत मन अलि प्रभु पद-पंकज, रमत रमत अघ जाँसी ॥ वन्दौं॥४॥ २८ । आतम अनुभव कीजै हो ॥ टेक ॥ जनम जरा अरु मरन नाशक, अनत काल लौ जीजै हो ॥ आतम० . १ आयु । २ स्त्री। ३ मित्र। ४ नौकरचाकर। ५ भ्रमर । ६ नाश होगा। - Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ जैनपदसंग्रह | 1 ॥ १ ॥ देव धरम गुरुकी सरधा करि, कुगुरु आदि तज दीजै हो । छहौं दरव नव तत्त्व परखकै, चेतन सार गहीजै हो ॥ आतम० ॥ २ ॥ दरव करम नो करम भिन्न करि, सूक्ष्मदृष्टि धरीजै हो । भाव करमतैं भिन्न जानिके, बुधि विलास न करीजै हो ॥ आतम० ॥ ३ ॥ आप आप जानै सो अनुभव, द्यानत शिवका दीजै हो । और उपाय वन्यो नहिं वनि है, करै सो दक्ष कहीजै हो ॥ आतम ० ॥ ४ ॥ 5 २९ । कर रे ! कर रे ! कर रे !, तू आतम हित कर रे ॥ टेक ॥ काल अनन्त गयो जग भमतें, भव भवके दुख हर रे || कर रे० ॥ १ ॥ लाख कोटि भव तपस्या करतें, जितो कर्म तेरो जर रे । स्वास उस्वासमाहिं सो नासै, जब अनुभव चित धर रे ॥ कर रे० ॥ २ ॥ का ट है न माहीं । राग दोष परिहर रे । काज होय समभाव विना नहिं, भावौ पचि पचि मर रे ॥ कर रे ॥ ३ ॥ लाख सीखकी सीख एक यह, आतम निज, पर पर रे । कोट ग्रंथको सार यही है, द्यानत लख भव तर रे ॥ कर रे ॥ ४ ॥ १ त्याग । २ चाहे | Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ जैनपदसंग्रह | छल लोभ न जानें, राग दोष नाहीं उनपाहीं । अमल अखंडित चिगुणमंडित, ब्रह्मज्ञानमं लीन रहाहीं ॥ धनि० ॥ ३ ॥ तेई साधु हैं केवलपद, आर्ट-काट दह शिवपुर जाहीं । द्यानत भवि तिनके गुण गावें, पावैं शिवसुख दुःख नाहीं ॥ धनि० ॥ ४ ॥ ४१ । अब हम आतमको पहिचान्यौ ॥ टेक ॥ जबहीसेती मोह सुट वल, खिनक एकमें भान्यौ ॥ अव० ॥ १ ॥ राग - विरोध - विभाव भजे झर, ममता भाव पलान्यौ | दरसन ज्ञान चरनमें चेतन, भेदरहित परवान्यौ ॥ अव० ॥ २ ॥ जिहि देखें हम अवर न देख्यो, देख्यो सो सरधान्यौ । ताकौ कहो कहें कैसें करि, जा जाने जिन जान्यौ || अव० ॥ ३ ॥ पूरव भाव सुपनवत देखे, अपनो अनुभव तान्यौ । द्यानत ता अनुभव खादत ही, जनम सफल करि मान्यौ ॥ अव० ॥ ४ ॥ ४२ । हमको प्रभु श्रीपास सहाय ॥ टेक ॥ जाके दरसन देखत जब ही, पातैक जाय पलाय ॥ हमको० ॥ १ ॥ जाको इंद फनिंद चक्रधर, चंदै सीस नवाय । सोई १ आत्मीक । २ अष्टकर्मरूपी ईंधन । ३ जिस समयसे । ४ झड़कर, निर्जरा होकर । ५ पाप । Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थभाग २३ स्वामी अन्तरजामी, भव्यनिको सुखदाय ॥ हमको ० ॥२॥ जाके चार घातिया वीते, दोप जु गये विलाय । सहित अनन्त चतुष्टय साहब, महिमा कही न जाय ॥ हमको ० || ३ || तकि या बड़ो मिल्यो है हमको, गहि रहिये मन लाय । द्यानत औसर बीत जायगो, फेर न कछू उपाय || हमको ० ॥ ४ ॥ ४३ | ज्ञानी ज्ञानी ज्ञानी, नेमिजी ! तुम ही हो नानी ॥टेक॥ तुम्हीं देव गुरु तुम्हीं हमारे, सकल दरव जानी || ज्ञानी० ॥ १ ॥ तुम समान कोउ देव न देख्या, तीन भवन छानी । आप तरे भविजीवनि तारे, ममता नहिं आनी || ज्ञानी० ॥ २ ॥ और देव सब रागी द्वेपी, कामी के मानी। तुम हो वीतराग अकपायी, तजि राजुल रानी || ज्ञानी० ॥ ३ ॥ यह संसार दुःख ज्वाला तजि, भये मुकतथानी । द्यानतदास निकास जगततें, हम गरीब प्रानी ॥ ज्ञानी० ॥ ४ ॥ ४४ | देख्या मैंने नेमिजी प्यारा ॥ टेक ॥ मूरति ऊपर करों निछावर, तन धन जीवन जोवन सारा || देख्या ० ॥ १ ॥ जाके नखकी शोभा आगें, कोटि काम छवि डारों बारा । कोटि संख्य रवि चन्द छिपत हैं, वपुकी Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ जैनपदसंग्रह | छुति है अपरंपारा || देख्या ० ||२|| जिनके वचन सुनें जिन भविजन, तजि गृह मुनिवरको व्रत धारा । जाको जस इन्द्रादिक गावैं, पावैं सुख नासैं दुख भारा || देख्या० ||३|| जाके केवलज्ञान विराजत, लोकालोक प्रकाशन हारा । चरन गहेकी लाज निवाहो, प्रभुजी धानत भगत तुम्हारा ॥ देख्या ॥ ४ ॥ ४५ । आतमरूप अनूपम है, घटमाहिं विराजै हो ॥ टेक ॥ जाके सुमरन जापसों, भव भव दुख भाजै हो ॥ आतम० ॥ १ ॥ केवल दरसन ज्ञानमैं, थिरतापद छाजै हो । उपमाको तिहुँ लोकमें, कोऊ वस्तु न राजै हो ॥ आतमः ॥ २ ॥ सहै परीपह भार जो, जु महात्रत साजै हो । ज्ञान विना शिव ना लहै, बहुकर्म उपांजै हो || आम० || ३ || तिहुँ लोक तिहुँ कालमें, नहिं और इलाजै हो । द्यानत ताकों जानिये, निज खारथकाजै हो ॥ आतम● ॥ ४ ॥ ४६ । : नहिं ऐसो जनम वारंवार ॥ टेक ॥ कठिन कठिन लह्यो मनुष भव विषय भजि संति हार || नहिं० ॥१॥ पाय चिन्तामन रतन शठ, छिपत उदधिमँझार । अंध 3 १ उपार्जित करै, कमावै । २ नहीं । ३ फैकता है । Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थभाग | २५ हाथ बटेर आई, तजत ताहि गँवार || नहिं० ॥ २ ॥ कबहुँ नरक तिरजंच कबहुँ, कबहुँ सुरगविहार । जगतमहिं चिरकाल भमियो, दुलभ नर अवतार ॥ नहिं० ॥ ३ ॥ पाय अम्रत पाँय धोवै, कहत सुगुरु पुकार । तजो चिपय कपाय द्यानत, ज्यों लहो भवपार ॥ नहिंο || 2 11 ४७ । तू तो समझ समझ रे ! भाई ॥ टेक ॥ निशिदिन विषय भोग लपटाना, धरम वचन न सुहाई ॥ तू तो० ॥ १ ॥ कर मनका ले आसन मास्यो, बाहिज लोक रिझाई | कहा भयो क ध्यान धरेतें, जो मन थिर न रहाई ॥ तू तो ० ॥ २ ॥ मास मास उपवास किये तैं, काया बहुत सुखाई । को मान छल लोभ न जीला, कारज कौन सराई ॥ तू तो० ॥ ३ ॥ मन चच काय जोग थिर करकें, त्यागो विपयकपाई । द्यानत मुरग मोख सुखदाई, सदगुरु सीख बताई ॥ तू. दो० ० ॥ ४ ॥ ४८ । घटमें परमातम ध्याये हो, परम धरम धनहेत । ममता बुद्धि निवारिये हो, टारिये भरम निकेत । घटमें० ॥ १ ॥ प्रथमहिं अशुचि निहारिये हो, सात धातुमय १ मालाके गुरिया | Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ जैनपदसंग्रह । देह । काल अनन्त सहे दुख जानें, ताको तजो अब नेह ॥ घटमें० ॥२॥ ज्ञानावरनादिक जमरूपी, निजतें भिन्न निहार । रागादिक परनति लख न्यारी, न्यारो सुबुध विचार ॥ घटमें० ॥ ३ ॥ तहाँ शुद्ध आतम निरविकलप, खै करि तिसको ध्यान । अलप कालमें घोति नसत हैं, उपजत केवलनान ॥ घटमें०॥४॥ चार अघाति नाशि शिव पहुँचे, विलसत सुख जु अनन्त । सम्यकदरसनकी यह महिमा, धानत लह भव अन्त ॥ घटमें० ॥५॥ समझत क्यों नहिं वानी, अज्ञानी जन ॥ टेक ॥ स्यादवाद-अंकित सुखदायक, भापी केवलज्ञानी ॥समझत० ॥१॥जास लखें निरमल पद पाच. कुमति कुगतिकी हानी। उदय भया जिहिमें परगासी. तिहि जानी सरधानी ॥ समझत० ॥२॥ जामें देव धरम गुरु वरने, तीनों मुकतिनिसानी । निश्चय देव धरम गुरु आतम, जानत विरला प्रानी ॥ समझत० : ॥३॥ या जगमाहि तुझे तारनको, कारन नाव वखानी । धानत सो गहिये निहचैसों, हूजे ज्यों शिवथानी ॥ समझत०॥४॥ १ घातिया कर्म । Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थभाग। २७ ५०। धिक ! धिक! जीवन समकित विना ॥ टेक ॥ दान शील तप प्रत श्रुतपूजा, आतम हेत न एक गिना ॥धिक० ॥१॥ ज्या विनु कंन्त कामिनी शोभा, अंबुज विनु सरवर ज्यों सुना। जैसे विना एकड़े विन्दी, सों समकित विन सरच गुना ॥ धिक० ॥२॥ जैसे भूप विना सब सेना, नीव विना मंदिर चुनना । जैसे चन्द विहूनी रजनी, इन्हें आदि जानो निपुना ॥धिक० ॥३॥ देव जिनेन्द्र, साधु गुरु, करुना, धर्मराग व्योहार भना । निहचे देव धरम गुरु आतम, घानत गहि मन वचन तना ॥ धिक०॥४॥ ५१ । गुजरातीभापा-गीत। जीवा ! 0 कहिये तेनैं भाई ॥ टेक ॥ पोतानूं रूप अनृप तीन, शामा विपयी थाई ॥ जीवा० ॥१॥ इन्द्रीना विपय विपथकी मौटा, ज्ञाननू अम्रत गाई। अमृत छोड़ीने विपय विप पीधा, साता तो नथी पोई ॥ जीवा० ॥२॥ नरक निगोदना दुख सह आयो, बळी तिहन मग धाई। एहवी वात सैंडी न छै तमनैं, १ पति, भतार । २ कमल । ३ एक (१) का अंक । ४ रहित । ५ रात्रि । ६ क्या । ७ तुझे । ८ अपना । ९ तज करके । १०किसलिये । ११ हुआ । १२ नहीं प्राप्त हुई । १३ पुनः । १४ उसी। १५ ऐसी । १६ अच्छी। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपदसंग्रह | ३६ देखि त्रिपति नहिँ सुरपति, नैन हजार बनावै ॥ दरसन ० ॥ १ ॥ समोसरनमें निरखै सचिपति, जीभ सहस गुन गावै । कोड़ कामको रूप छिपत है, तेरो दरस मुंहावे ॥ दरसन० ॥ २ ॥ आँख लगे अंतर है तो भी, आनँद उर न समावै । ना जानों कितनों सुख हरिको, जो नहिं पलक लगावै ॥ दरसन० ॥ ३ ॥ पाप नासकी कौन बात है, धानत सम्यक पावै । आसन ध्यान अनूपम खामी, देखें ही वन आवै ॥ दरसन० ॥ ४ ॥ ६८ । री ! मेरे घट ज्ञान घनागम छायो || री० ॥ टेक ॥ शुद्ध भाव बादल मिल आये, सूरज मोह छिपायो ॥ री० ॥ १ ॥ अनहदं घोर घोर गरजत है, भ्रम आताप मिटायो । समता चपला चमकनि लागी, अनुभौ-सुख झर लायो ॥ ० ॥ २ ॥ सत्ता भूमि चीज समकितको, शिवपद खेत उपायो । उद्धत (१) भाव सरोवर दीसै, मोर सुमन हरपायो ॥ ० ॥ ३ ॥ भव- प्रदेश बहु दिन पी, चेतन पिय घर आयो । द्यानत सुमति कहै सखि - यनसों, यह पावस मोहि भायो ॥ ० ॥ ४ ॥ ६९ । हो खामी ! जगत जलधितै तारो ॥ हों० ॥ टेक ॥ १ इन्द्र । २ इन्द्रको । Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थभाग़ । ३७ मोह मच्छ अरु काम कच्छतैं, लोभ लहरतें उबारो ॥ हो० ॥ १ ॥ खेद खारजल दुख दावानल, भरम भँवर भय टारो || हो० ॥ २ ॥ द्यानत बार वार यौं भाषै, तू ही तारनहारो ॥ हो० ॥ ३ ॥ ७० | राग - वसन्त । मोहि तारो हो देवाधिदेव, मैं मनवचतनकरि करौं सेव ॥ टेक ॥ तुम दीनदयाल अनाथनाथ, हमहूको राखो आप साथ || मोह० ॥ १ ॥ यह मारवाड़ संसार देश, तुम चरनकलपतरु हर कलेश || मोह० ॥ २ ॥ तुम नाम रसायन जीय पीय, द्यानत अजरामर भव त्रितीय | मोह० ॥ ३ ॥ ७१ । राग-केदारो । रेजिय! क्रोध का करे || टेक || देखकै अविचेकि प्रानी, क्यों विवेक न धेरै ॥ रे जिय० ॥ १ ॥ जिसे जैसी उदय आवे, सो क्रिया आचरे । सहेज तू अपनो विगारे, जाय दुर्गति परै ॥ रे जिय० ॥ २ ॥ होय संगति-गुन सवनिकों, सरब जग उच्चरै । तुम भले कर भले सबको, बुरे लेखि मति जरे ॥ रे जिय० ॥ ३ ॥ वैद्य परविप हर सकत नाहि, आप भखि को मरे । बहु कपाय निगोद: वासा, छिमा द्यानत तरे ॥ रे जिय० ॥४॥ १ इस पदमें दो परी छन्द हैं । २ स्वभाव | Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮ जैनपदसंग्रह | " .,७२१: फूली बसन्त जहँ आदीसुर शिवपुर गये ॥ टेक ॥ भारतभूप बहत्तर जिनगृह, कनकमयी सव निरंमये ॥ फूली ० ॥ १ ॥ तीन चौवीस रतनमय प्रतिमा, अंग रंग जे जे भये । सिद्ध समान सीस सम सबके, अदभुत शोभा परिनये ॥ फूली० ॥ २ ॥ वालि आदि. आइंठ कोड़ मुनि, सबनि मुकति सुख अनुभये । तीन अठाई फागनि (१) खग मिल, गावैं गीत नये नये ॥ फूली ० ॥३॥ वसुं जोजन वसु पैड़ी (2) गंगा, फिरी बहुतसुरआलये । द्यानत सो कैलास नमौं हौं, गुन कापै जी वरनये ॥ फूली ० ॥ ४॥ : : . ★ h ७३ । · तुम ज्ञानविभव फूली वसन्त, यह मन मधुकर सुखसों रमन्त ॥ टेक ॥ दिन बड़े भये वैराग भावं, मिथ्यामत रजनीको घटाव ॥ तुम० ॥ १ ॥ बहु फूली फैली सुरुचि वेलि, ज्ञाताजन समता संग केलि ॥ तुम ० ॥ २ ॥ द्यानत वानी पिके मधुररूप, सुरंनरपशुआनँदघनसुरूप ॥ तुम० ॥ ३ ॥ . १ जहांः (कैलाशगिरिपर) । २ बनवाये । ३ साड़े तीन कोटि । आठ । ५ किसेस । ६ जावें । ७ भ्रमर । ८ रानि । ९. कोयल | Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थभाग. | .७४ । ज्ञानी जीव दया नित पालै ॥ टेक ॥ आरभतें-परघात होत है, क्रोध घात निज टालें ॥ ज्ञानी० ॥ १ ॥ हिंसा त्यागि दयाल कहावै, जलै कपाय वदनमें । बाहिर त्यागी अन्तर दागी, पहुँचै नरकसदेनमें ॥ ज्ञानी० ॥ २ ॥ करै दया कर आलस भावी, ताको कहिये पापी । शांत सुभाव प्रमाद न जाकै, सो परमारथव्यापी ॥ ज्ञानी० ॥ ३ ॥ शिथिलाचार निरुद्यमे रहना, सहना वहु दुख भ्राता । द्यानत बोलन डोलन जीमन, करें जतनसों ज्ञाता || ज्ञानी० ॥ ४ ॥ .७५ । . कारज एक ब्रह्महीसेती ॥ टेक ॥ अंग संग नहि वहिरभूत सव, धन दारों सामग्री तेती ॥ कारज० ॥ १ ॥ सोल सुरग नव दैविकमें दुख, सुखित साँतमें ततकी ती । जा शिवकारन मुनिगन ध्यावै, सो तेरे घट आनंदखेती || कारज० ॥ २ ॥ दान शील जप तप व्रत पूजा, अफल ज्ञान चिन किरिया केती । पंच दरव तोतें नित न्यारे, न्यारी रागदोप विधि जेती | कारज ० ॥ ३ ॥ तू अविनाशी जगपरकासी, द्यानत भासी · ३९ १ नरकरूपी घरमें । २ उद्योगहीन । ३ भोजन, भक्षण । ४ स्त्री । ५ सातवें नरकमें । ६ तत्वका जाननेवाला । Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० जैनपदसंग्रह। सुकलावती । तजौ लाल! मनके विकलप सब, अनुभवमगन सुविधा एती ॥ कारज० ॥ ४॥ .. • " चेतन खेलै होरी ॥ टेक ॥ सत्ता भूमि छिमा वसन्तमें, समता प्रानप्रिया सँग गोरी ॥ चेतन० ॥१॥ मनको भाट प्रेमको पानी, तामें करुना केसर घोरी। ज्ञान ध्यान. पिचकारी भरिभरि, आपमें छोरै होरा होरी ॥ चेतन० ॥२॥ गुरुके वचन मृदंग वजत हैं, नय दोनों डफ ताल टकोरी । संजम अतर विमल व्रत चोवा, भाव गुलाल भरै भर झोरी ॥ चेतन०॥३॥ धरम मिठाई तप बहु मेवा, समरस आनंद अमल कटोरी।द्यानत सुमति कहै सखियनसों, चिरजीवो यह जुगजुग जोरी ॥ चेतन० ॥४॥ ... ... .. .. . ७७ ... भोर भयो भज श्रीजिनराज, सफल होंहि तेरे सव काज ॥ टेक ॥ धन सम्पत मनवांछित: भोग, सव विधि आन. व. संजोग. ॥ भोर० ॥१॥ कल्पवृच्छ ताके. घर रहै, कामधेनु नित सेवा वहै। पारस चिन्तामनि समुदाय, हितसों आय मिलें सुखदाय ॥ भोर ॥२॥ दुर्लभते सुलभ्य दै जाय, रोग सोग दुख दूर पलायं । सेवा देव करें मन लाय, विंधन उलट मंगल १ इस पदकी सर्व तुकें १५ मात्रांकी चौपाई होती हैं। .. . .. Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थभागः । ४१ ठहराय ॥ भोर० ॥ ३ ॥ डाँयन भूत पिशाच न छलै, राजचोरको जोर न चलै । जस आदर सौभाग्यं प्रकास, द्यानत सुरग मुकतिपदवास ॥ भोर० ॥ ४ ॥ ७८ । आयो सहज वसन्त खेलें सब होरी होरा ॥ टेक ॥ उत बुधि दया हिमा वहु ठाढ़ीं, इत जिय रतन सजै गुन जोरा || आयो० ॥ १ ॥ ज्ञान ध्यान डफ ताल बजत हैं, अनहद शब्द होत घनघोरा । धरम सुराग गुलाल उड़त है, समता रंग दुहुंने घोरा ॥ आयोο ॥ २ ॥ परसेन उत्तर भरि पिचकारी, छोरत दोनों करि करि जोरा । इततें कहें नारि तुम कौकी, उर्ततैं कहें कौनको छोरों ॥ आयो० ॥ ३ ॥ आठ काठ अनुभव पावकमें, जल वुझ शांत भई सव ओरा । द्यानत शिव आनन्दचन्द छवि, देखें सज्जन नैन चकोरा ॥ आयो० ॥ ४ ॥ + ७९ । अजितनाथसों मन लायो रे ॥ टेक ॥ करसों ताल वचन मुख भाषी, अर्थ में चित्त लगावो रे ॥ अजित• ॥ १ ॥ ज्ञान दरस सुख बल गुनधारी, अनन्त चतुष्टय ध्यायो रे । अवगाहना अबाध अमूरत, अगुरु अलघु १ प्रश्न | २ इधरसे । ३ किसकी ? । ४ उधरसे । ५ लड़का । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. जैनपदसंग्रह | बतलायो रे । ॥ अजित० ॥ २ ॥ करुनासागर गुनरतनांगर, जोतिउजागर भावो रे । त्रिभुवननायक भवभयघायक, आनंददायक गावो रे || अजित० ॥ ३ ॥ परमनिरंजन पातकभंजन, भविरंजन ठहरावो रे । घानत जैसा साहिब सेवो, तैसी पदवी पाचो रे ॥ अजित० ॥ ४ ॥ ie J ६८० । राग - आसावरी । · 15 1 अब हम अमर भये न मरेंगे ॥ टेक ॥ तन-कारन मिथ्यात दियो तज, क्यों करि देह धरेंगे ॥ अव० ॥ १ ॥ उपजै मरे कालतै प्रानी, तातैं काल हरेंगे । राग दोष जग बंध करत हैं, इनको नाश करेंगे ॥ अव० ॥ २ ॥ देह विनाशी मैं अविनाशी, भेदज्ञान पकरेंगे । नासी जासी हम थिरवासी, चोखे हो निखरेंगे || अब० ॥ ३ ॥ मरे अनन्त वार विन समझें, अब सब दुख विसरेंगे । द्यान निपट निकट दो अक्षर, विन सुमरें सुमरेंगे ॥ अव० ॥ ४ ॥ :. ८. ८१ । राग आसावरी ।.. ... भाई ! ज्ञानी. सोई कहिये ॥ टेक ॥ करम उदय सुख दुख भोगेतें, राग विरोध न लहिये || भाई ० ॥ १ ॥ कोऊ ज्ञान क्रियातें कोऊ, शिवमारग बतलावे । १. रत्नोंकी खानि । २ शुद्धचिदानंद | ३. "आत्मा" । Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थभाग 1.. ४३ नय निहचै विवहार - साधिकै, दोऊ चित्त, रिझावे !! " भाई ० C ॥ २ ॥ कोई कहै जीव छिनभंगुर, कोई, नित्य वखाने । परजय दरवित नय परमानै, दोऊ समता आनै । भाई० ॥ ३ ॥ कोई कहै उदय है सोई, कोई उद्यम बोलै । द्यानत स्यादवाद सुतुलामें, दोनों वस्तै तोलै ॥ भाई ० ॥ ४ ॥ · ८२ | राग - आसावरी । भाई ! कौन धरम: हम पालै ॥ टेक ॥ एक कहैं जिहि कुलमें आये, ठाकुरको कुल गा लें || भाई० ॥ १ ॥ शिवमत बौध सु वेद नयायक, मीमांसक अरु जैना । आप सराहैं आगम गाहैं, काक़ी सरधा ऐना ॥ भाई ० ॥ २ ॥ परमेसुरपै हो आया हो, ताकी बात सुनी जै । पूछें बहुत न बोलें कोई, बड़ी फिकर क्या कीजै ॥ भाई ० || ३ || जिन सर्व मतके मत संचय करि, मारंग एक बताया । द्यानत सो गुरु पूरा पाया, भाग हमारा आया || भाई ० ॥ ४ ॥ · " ८३ । राग़- गौरी । हमारी कारज कैसें होय ॥ टेक ॥ कारण पंच मुकति मारगके, तिनमेंके हैं दोय || हमारो० ॥ १ ॥ हीन संघनन लघु आयूपा, अल्प मनीषा जोय । कचे १. उत्तम तराजू । २ वस्तुएँ । ३ किसकी । ४ बुद्धि । Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० जैनपदसंग्रह। ९५। आतमरूप सुहावना, कोई जानै रे भाई। जाके जानत पाइये, त्रिभुवनठकुराई ॥टेक ॥ मन इन्द्री न्यारे करौ, मन और विचारौ । विपय विकार सवै मिटैं, सहजै सुख धारौ ॥ आतम० ॥१॥ बाहिरतें मन रोककैं, जब अन्तर आया। चित्त कमल सुलख्यो तहाँ, चिनमूरति पाया ॥ आतम० ॥२ ॥ पूरक कुंभक रेचतें, पहिले मन साधा । ज्ञान पवन मन एकता, भई सिद्ध समाधा ॥ आतम०॥३॥ जिनि इहि विध मन वश किया, तिन आतम देखा । घानत मौनी व्है रहे, पाई सुखरेखा ॥ आतम०॥४॥ ९६ । राग-सोरठ।। भाई! ज्ञानका राह दुहेला रे ॥भाई॥टेक ॥मैं ही भगत बड़ा तपधारी, ममता गृह झकझेला रे॥ भाई. ॥१॥ मैं कविता सव कवि सिरऊपर, वानी पुदगलमेला रे। मैं सब दानी मांगे सिर धों. मिथ्याभाव सकेला रे॥ भाई०॥२॥ मृतक देह वस फिर तन आऊं, मार जिवाऊं छेलारे। आप जलाऊ फेर दिखाऊं, क्रोध लोभतें खेला रे॥ भाई॥३॥वचन सिद्ध भाषै सोई है,प्रभुता वेलन वेला रे ।धानत चंचल चित पारा थिर, करै सुगुरुका चेला रे॥ भाई.॥४॥ १ कठिन-दुर्धर । Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थभाग। ९७ भाई ! ज्ञानका राह सुहेला रे ॥ भाई० ॥ टेक ॥ दरव न चहिये देह न दहिये, जोग भोग न नवेला रे॥ भाई० ॥१॥ लड़ना नाहीं मरना नाही, करना वेला तेला रे।पढ़ना नाहीं गढ़ना नाही, नाच न गावन मेला रे ॥ भाई० ॥२॥ न्हानां नाहीं खांना नाही, नाहि कमाना धेला रे। चलना नाहीं जलना नाहीं, गलना नाहीं देला रे ॥माई०॥३॥जो चित चाहै सो नित दाहै, चाह दूर करि खेला रे । धानत यामें कौन कठिनता, वे परवाह अकेला रे ॥ भाई० ॥४॥ प्रभु नेरी महिमा किहि मुख गावें ॥ टेक ॥ गरम छमारा अगाउ कनक नग (?) सुरपति नगर वनाचें ॥ प्रमु०॥१॥ क्षीर उदधि जल मेरु सिंहासन, मल मल इन्द्र नहुलावें । दीक्षा समय पालकी बैठो, इन्द्र कहार कहावें ।। प्रभु० ॥२॥ समोसरन रिध ज्ञान महातम, किहिनिधि सरव बतावें। आपन जातकी बात कहा शिव, बात सुनें भवि जावें ॥ प्रभु० ॥३॥ पंच कल्यानक थानक स्वामी, जे तुम मन वच ध्या। घानत तिनकी कौन कथा है, हम देखें सुख पाएँ । प्रभु०॥४॥ १ सहज । २ स्नान करना । ३ अभिषेक करावें। ... Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपदसंग्रह | ९९ प्रभु तेरी महिमा कहिय न जाय ॥ टेक ॥ श्रुति करि सुखी दुखी निंदातें, तेंरैं समता भाय ॥ प्रभु० ॥ १ ॥ जो तुम ध्यावै थिर मन लावै, सो किंचित् सुख पाय । जो नहिं ध्यावै ताहि करत हो, तीन भवनको राय ॥ प्रभु० ॥ २ ॥ अंजन चोर महाअपराधी, दियो स्वर्ग पहुँचाय । कथानाथ श्रेणिक समदृष्टी, कियो नरक दुखदाय || प्रभु० ॥ ३ ॥ सेव असेव कहा चलै जियकी, जो तुम करो सु न्याय । द्यानत सेवक गुन गहि लीजै, दोप सबै छिटकाय ॥ प्रभु० ॥ ४ ॥ १०० । राग-विलावल | ५२ प्रभु तुम सुमरनहीमें तारे ॥ टेक ॥ सूअर सिंह नौले बानरने, कहौ कौन व्रत धारे ॥ प्रभु० ॥ १ ॥ सांप जाप करि सुरपद पायो, स्वान श्याल भय जारे । hi वोकै गज अमर कहाये, दुरगति भाव विदारे ॥ प्रभु० ॥ २ ॥ सील चोर मातंगें जु गनिका, बहुतनिके दुख टारे । चक्री भरत कहा तप कीनौ, लोकालोक निहारे ॥ प्रभु० ॥ ३ ॥ उत्तम मध्यम भेद न कीन्हों, आये शरन उवारे । द्यानत राग दोष विन स्वामी, पाये भाग हमारे ॥ प्रभु० ॥ ४ ॥ १ न्योला । २ मेंडक । ३ वकरा | ४ चांडाल ।' Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थभाग । १०१ । राग-भैरों। ऐसो सुमरन कर मेरे भाई, पवन भै मन कितहूँ न जाई ॥ टेक ॥ परमेसुरसों साँच रही जै, लोकरंजना भय तज दीजै ॥ ऐसो० ॥१॥ जम अरु नेमै दोउ विधि धारो,आसन प्राणायाम सँभारो। प्रत्याहार धारना कीजै, ध्यान-समाधि-महारस पीजै ॥ ऐसो० ॥२॥ सो तप तपो बहुरि नहिं तपना, सो जप जपो वहुरि नहिं जपना । सो व्रत धरो वहुरि नहिं धरना, ऐसे मरो बहुरि नहिं मरना ॥ ऐसो० ॥३॥ पंच परावर्तन लखि लीजै, पांचों इन्द्रीको न पैतीजै। धानत पांचों लच्छि लहीजै, पंच परम गुरु शरन गहीजै।ऐसो०॥॥ १०२ । राग-विलावल । कहिवेको मन सूरमा, करचेकों काचा ॥ टेक ॥ विषय छुड़ावै औरपै, आपन अति मांचा ॥ कहिवे. मिश्री मिश्रीके कह, मुँह होय न मीठा । नीम कहैं मुख कटु हुआ, कहुँ सुना न दीठा ॥ कहिवे ॥२॥ कहनेवाले वहुत हैं, करनेकों कोई । कथनी लोकरिझावनी, करनी हित होई ॥ कहिवे ॥३॥ कोडि जनम कथनी कथै, करनी विनु दुखिया । कथनी चिनु करनी करै, धानत सो सुखिया ॥ कहिवे० ॥४॥ १ यम । २ नियम । ३ विश्वास कीजिये । ४ शूरबीर । ५ मग्न हुआ। ६ देखा। - Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपदसंग्रह। १०३। राग-विलावल। - श्रीजिननाम अधार, सार भजि ॥ टेक ॥ अगम अतट संसार उदधितै, कौन उतारै पार ॥ श्रीजिन ॥१॥ कोटि जनम पातक कटें, प्रभु नाम लेत इक वार । ऋद्धि सिद्धि चरननिसों लागै, आनंद होत अपार ॥ श्रीजिन० ॥२॥ पशु ते धन्य धन्य ते पंखी, सफल करें अवतार । नाम विना धिक् मानवको भत्र, जल वल है है छार ॥ श्रीजिन०॥३॥ नाम समान आन नहिं जग सब, कहत पुकार पुकार। धानत नाम तिहूँपन जपि लै, सुरगमुकतिदातार ॥ श्रीजिन० ॥४॥ देखे सुखी सम्यकवान ॥ टेक ॥ सुख दुखको दुखरूप विचारें, धारे अनुभवज्ञान ॥ देखे० ॥१॥ नरक सात के दुख भोगैं, इन्द्र लखें तिन-मान । भीख मांगकै उदर भरै, न करें चक्रीको ध्यान ॥ देखे० ॥२॥ तीर्थकर पदकों नहिं चावें, जदपि उदय अप्रमान। कुष्ट आदि बहु व्याधि दहत न, चहत मकरध्वजथान ॥ देखे० ॥३॥ आधि व्याधि निरवाध अनाकुल, चेतनजोति पुमान । धानत मगन सदा तिहिमाही, नाहीं खेद निदान ॥ देखे० ॥४॥ १ मनुष्यभव । २ तिनकेके वरावर । ३ कामदेव। . Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थभाग । १०५ । सब जगको प्यारा, चेतनरूप निहारा ॥ टेक ॥ दरव भाव नो करम न मेरे, पुदगल दरव पसारा ॥ सव० ॥ १ ॥ चार कपाय चार गति संज्ञा, बंध चार पर - कारा | पंच वरन रस पंच देह अरु, पंच भेद संसारा ॥ सव० ॥ २ ॥ छहों दर छह काल छया छेमत छलेच्या, भेदतें पारा । परिगृह मारगंना गुन- थानक, जीवथानसों न्यारा ॥ सब० ॥ ३ ॥ दरसनज्ञानचरनगुनमण्डित, ज्ञायक चिह्न हमारा । सोऽहं सोऽहं और सु और, arra निचै धारा ॥ सत्र० ॥ ४ ॥ ५५ १०६ । राग - विहागरा । जो तैं आतमहित नहिं कीना ॥ टेक ॥ रोमा रामा धन धन कीना, नरभव फल नहिं लीना । जो तैं ० “ ॥ १ ॥ जप तप कर लोक रिझाये, प्रभुताके रस भीनों | अंतर्गत परिनाम न सोधे, एको गरज सरी ना ॥ जो तैं० ॥ २ ॥ बैठि सभा में वह उपदेशे, आप भये परवीना | ममता डोरी तोरी नाहीं, उत्तमतैं भये हीना ॥ जो तैं० ॥ ३ ॥ द्यानत मन वच काय लायके, जिन अनुभव चित दीना । अनुभव धारा ध्यान विचारा, मंदर कलश नवीना ॥ जो तैं० ॥ ४ ॥ १ पद्मत । २ मार्गणा । ३ श्री । ४ मगन होकर। ५ एक भी । ६ सिद्ध न हुई । Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपदसंग्रह। १०७ । राग-विलावल। ऋषभदेव जनम्यौ धन घरी ॥टेक ॥ इन्द्र न. गंधर्व वजाबैं. किन्नर वह रस भरी ॥ ऋपभ० ॥१॥ पट आभूषन पुहुपमालसों, सहसवाहु सुरतरु व्है हरी। दश अवतार स्वांग विधि पूरन, नाच्यो शक भगति उर धरी। ऋषभ० ॥२॥ हाथ हजार सवनिपै अपछर, उछरत नसमें चहुँदिशि फरी। करी करन अपछरी उछारत, ते सब न₹ गँगनमें खरी ॥ ऋपभ० ॥३॥ प्रगट गुपत भूपर अंवरमें, नाचें सवै अमर अमॅरी । धानत घर चैत्यालय कीनौं, नाभिरायजी हो लहरी ॥ ऋषम०॥४॥ १०८ । मानुष जनम सफल भयो आज ॥ टेक ॥ सीस सफल भयो ईर्स नमत ही, श्रवन सफल जिनवचन समाज ॥ मानुष०॥१॥ भाले सफल जु दयाल ति- . लकतें, नैन सफल देखे जिनराज । जीभ सफल जिनवानि गानतें, हाथ सफल करि पूजन आज ॥ मानुष० ॥२॥ पार्य सफल जिन भौन गौनत, काय सफल नाचें वल गाज । वित्तं सफल जो प्रभुकौं लागै, चित्त १ फूलोंकी माला । २ कल्पवृक्ष । ३ इन्द्र । ४ आकाशमें । ५ आकाशमें । ६ देव । ७ देवाङ्गना। ८ ईश्वर, अरहन्तदेव । ९ ललाट । १० पांव । ११ जानेसे । १२ द्रव्य । Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७ चतुर्थभाग। सफल प्रभु ध्यान इलाज ॥ मानुप० ॥३॥ चिन्तामनि चिंतित-वर-दाई, कलपवृच्छ कलपनतें काज । देत अचिंत अकल्प महासुख, धानत भक्ति गरीवनिवाज ॥ मानुप० ॥४॥ १०९ । राग-ख्याल । री चल दिये चल दिये, री, महावीर जिनराय । पाप निकन्दिये महावीर जिनराय, बारी बारी महिमा कहिय न जाय ॥ टेक ॥ विपुलाचल परवतपर आया, समवसरन बहु भाय ॥री चलि०॥१॥ गौतमरिखसे गनधर जाके, सेवत सुरनर पाय ॥री चल० ॥२॥ विल्ली मूसे गाय सिंहसों, प्रीति करै मन लाय ॥री चल० ॥३॥ भूपतिसहित चेलना रानी, अंग अंग हुलसाय ॥री चल० ॥४॥ द्यानत प्रभुको दरसन सुरग मुकति सुखदाय ॥री चल०॥५॥ ११० । राग-सारंग । मेरे मन कब है है वैराग ॥ टेक ॥ राज समाज अकाज विचारों, छारौं विपय कारे नाग ॥ मेरे ॥१॥ मंदिर वास उदास होय, जाय वसौं वन वाग ॥ मेरे ॥२॥ कव यह आसा कांसा फूटै, लोभ भाव जाय भाग ॥ मेरे० ॥३॥ आप समान सबै जिय जा१ऋपिसरीखे। Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपदसंग्रह | ५८ नौं, राग दोपकों त्याग || मेरे० ॥ ४ ॥ द्यानत यह विधि जव वनि आवै, सोई घड़ी बड़भाग || मेरे ० ॥५॥ १११ | राग - ख्याल । लागा आतमरामसों नेहरा ॥ टेक ॥ ज्ञानसहित मरना भला रे, छूट जाय संसार । धिक! परौ यह जीवना रे, मरना वारंवार || लागा० ॥ १ ॥ साहिब साहिव मुंहतैं कहते, जानें नाहीं कोई । जो साहित्रकी जाति पिछानें, साहिव कहिये सोई || लागा० ॥ २ ॥ जो जो देखौ नैनोंसेती, सो सो विनसे जाई । देखनहारा मैं अविनाशी, परमानन्द सुभाई || लागा० ॥३॥ जाकी चाह करैं सब प्रानी, सो पायो घटमाहीं । द्यात चिन्तामनिके आये, चाह रही कछु नाहीं ॥ लागा० ॥ ४ ॥ ११२ । राम-गौरी | सबको एक ही धरम सहाय ॥ टेक ॥ सुर नर नारक तिरयक् गतिमें, पाप महा दुखदाय || सबको० ॥ १ ॥ गज हरि दह अहि रण गर्दै चॉरिधि, भूपति भीर पलाय । विघन उलटि आनन्द प्रगट है, दुलभ सुलभ ठहराय || सबको० ॥ २ ॥ शुभतें दूर वसत ढिग आवै, अघतें करतें जाय । दुखिया धर्म करत दुख नासै, सुखिया सुख अधिकाय || सबको० ॥ ३ ॥ ताड़न १ सिंह । २ सर्प । ३ बीमारी । ४ समुद्र | Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थभाग | ५९ तापन छेदन कसना, कनकपरीच्छा भाय । द्यानत देव धरम गुरु आगम, परखि गहो मनलाय ॥ सबको ० ॥४॥ ११३ | राग- गौरी | तुमको कैसे सुख है मीत ! ॥ टेक ॥ जिन विपयनि सँग बहु दुख पायो, तिनहीसों अति प्रीति ॥ तुमको ० ॥ १ ॥ उद्यमवान वागे चलनेको, तीरथसों भयभीत । धरम कथा कथनेको मूरख, चतुर मृप-रसरीत ॥ तुमको ० ॥ २ ॥ नाटं विलोकनमें बहु समझौ, रंच न दरेंस प्रतीत । परमागम सुन ऊंघन लागौ, जागौ विकथा गीत || तुमको० ॥ ३ ॥ खान पान सुनके मन हरपै, संजम सुन है ईत । द्यानत तापर चाहत होगे, शिवपद सुखित निचीत ॥ तुमको० ॥ ४ ॥ ११४ । वीर ! री पीर कासों कहिये ॥ टेक ॥ धौर्य अनृपम अचल मुकति गति, छांड़ि चहूँगति दुख क्यों सहिये || वीर० ॥ १ ॥ चेतन अमल शरीर मलिन जड़, तासों प्रीति कहाँ क्यों चहिये । अनुभव अम्रत विपय विषम फल, त्यागि सुधारसँ विप क्यों गहिये ॥ वीर० ॥ २ ॥ तिहुँ जगठाकर रतनत्रयनिधि, चाकर १ बगीचेकी शेर करनेको तयार । २ झूठ । ४ जिनदर्शन | ५ निश्चिन्त । ६ नित्य, स्थिर । ३ नाटक । ७ अमृत । Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपदसंग्रह। १२३ ___ आतमज्ञान लखें सुख होइ ॥ टेक ॥ पंचेन्द्री मुख मानत भोंदू, याम सुखको लेश न कोइ ॥ आतम० ॥१॥ जैसे खाज खुजावत मीठी, पीछत दुखत दे रोइ । रुधिरपान करि जोंक मुखी है, मूतत वहुदुख पावै सोइ ॥ आतम०॥२॥ फरस दन्ति-नस मीन-गंध अलि, रूप शलभ मृग नाद हि लोइ । एक एक इन्द्र नितें प्राणी, दुखिया भये गये तन खोइ ॥ आतम० ॥३॥ जैसे कूकर हाड़ चचोरै, त्यों विषयी नर भोगे भोई॥ द्यानत देखो राज त्यागि नृप, वन वसि सहें परीपह जोइ ॥ आतम० ॥४॥ १२४ मैं एक शुद्ध ज्ञाता, निरमलसुभाषराता ॥ टेक ॥ ईगज्ञान चरन धारी, थिर चेतना हमारी ॥ मै० ॥१॥ तिहुँ काल परसों न्यारा, निरद्वंद निरविकारा ॥ मैं. ॥२॥ आनन्दकन्द चन्दा, धानत जगत सदंदा ॥ ॥३॥ अव चिदानन्द प्यारा, हम आपमें निहारा ॥ मैं ॥४॥ सुन! जैनी लोगो, ज्ञानको पंथ कठिन है॥टेक ॥ . १ पिया हुआ खून बैंचकर वाहिर निकालते समय । २ हाथी । ३ भौंरा । ४ पतंग । ५ भोग । ६ दर्शन । Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थभाग। सब जग चाहत है विषयनिको, ज्ञानविर्षे अनवन है ॥ सुनो० ॥१॥ राज काज जग घोर तपत है, जूझ मर जहा रन है । सो तो राज हेय करि जानें, जो कोड़ी गाँट न है ।। सुनो० ॥२॥ कुवचन वात तनकसी ताको, सह न सके जग जन है। सिरपर आन चलावै आरे, दोप न करना मन है । सुनो० ॥३॥ ऊपरकी सब थोथी वात, भावकी बातें कम है। धानत शुद्ध भाव है जाके, सो त्रिभुवनमें धन है । सुनो०॥४॥ १२६ । राग-मलार । सुनो जैनी लोगो! ज्ञानको पंथ सुगम है । टेक । टुक आतमके अनुभव करतें, दूर होत सब तम है । सुनो० ॥१॥ तनक ध्यान करि कठिन करम गिरि, चचंल मन उपशम है। मुनो० ॥२॥ द्यानत नमुक राग दोप तज, पास न आवै जम है । सुनो० ॥३॥ १२७ । राग-धनासरी। कर सतसंगति रे भाई ! ॥ टेक ॥ पान परत नरपतकर सो तो, पाननिसों कर असनाई ॥ कर ॥१॥ चंदन पास नीम चन्दन है, काठ चढ़यो लोह तर जाई । पारस परस कुधातु कनक है, बूंद उदधि-पदवी पाई॥ कर०॥ २॥ करई तूंवरि संगतिके फल, मधुर मधुर सुर १ त्यागने योग्य । २ पत्ता पानोंकी (ताम्बूलकी) मित्रतासे राजाक हाथमें पहुंच जाते हैं। ३ लोहा । Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपदसंग्रह । । करि गाई। विष गुन करत संग औषधके, ज्यों वचखाय मिटै वाई ॥ कर० ॥३॥ दोष घटै प्रगटै गुन मनसा, निरमल द्वै तजि चपलाई । द्यानत धन्य धन्य जिनके घट, सतसंगति सरधा आई ॥ कर० ॥४॥: . - १२८ । राग-धनासरी। . __ जैन नाम भज भाई रे ! ॥ टेक ॥जा दिन तेरा कोई नाहीं, ता दिन नाम सहाई रे॥ जैन० ॥१॥ अगनि नीर खै शत्रु वीर द्वै, महिमा होत सवाई । दारिद जावै धन बहु आवै, जामन नाम दुहाई रे॥जैन०॥ ॥२॥ सोई साध सन्त सोई धन, जिन प्रभुसों लौ लाई.। सोई जती सती सो ताकी, उत्तम जात कहाई रे॥ जैन० ॥३॥ जीव अनेक तरे सुमरनसों, गिनती गनिय न जाई । सोई नाम जपो नित धानत, तजि विकथा दुखदाई रे। जैन० ॥ ४ ॥ . १२९ । राग-गौरी। चेत रे! प्रानी! चेत रे !, तेरी आव है थोरी॥टेक॥ सागरथिति धरि खिर गये, बँधे कालकी डोरी ॥ चेत. ॥१॥ पाप अनेक उपायक, माया वहु जोरी । अन्त समय सँग ना चलै, चलै पापकी बोरी। चेत०॥२॥ मात पिता सुत कामिनी, तू कहत है मोरी। देहकी देह तेरी नहीं जासों, प्रीति है तोरी ॥ चेत० ॥३॥ १ वायुरोग । २ भाई । ३ पोटरी । Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ चतुर्थभाग। सिख सुन ले तू कान दे, हो धरमके धोरी । कहै द्यानत यह सार है, सव बातें कोरी ॥ चेत०॥४॥ १३० । राग-गौरी। रे भाई ! संभाल जगजालमें काल दरहाल रे॥रे भाई० ॥ टेक ॥ कोड़ जोधाको जीतै छिनमें, एकलो एक हि मूर। कोड़ सूर अस धूर कर डारे, जमकी भौंह कसर ॥ रे भाई० ॥१॥ लोहमें कोट सौ कोट वनाओ, सिंह रखो चहुँओर । इंद फनिंद नरिंद चौकि दें, नहिं छोड़ें मृतु जोर ॥ रे भाई० ॥२॥ शैल जलै जस आग बलै सो, क्यों छोड़े तिन सोय॥ देव सवै इक काल भखै है, नरमें क्या चल होय ॥रे भाई ॥३॥ देहधारी भये भूपर जे जे, ते खाये सब मौत । चानत धर्मको धार चलो शिव, मौतको करके फौत ॥ रे भाई ॥४॥ १३१। पायो जी सुख आतम लखके। पायो० ॥ टेक॥ ब्रह्मा विष्णु महेश्वरको प्रभु, सो हम देख्यो आप हरखकै ॥ पायो० ॥१॥ देखनि जाननि समझनिवाला, जान्यो आपमें आप परखकै॥पायो॥२॥धानत सवरस विरस लग है, अनुभौ ज्ञानसुधारस चखकै ॥ पायो॥३॥ १३२ । राग-गौरी। सरसों छिमा छिमा कर जीव ! ॥ टेक ॥ मन वच तनसां वैर भाव तज, भज समता जु सदीय ॥ सवसों० Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ . जैनपदसंग्रह। ॥१॥तपतरु उपशम जल चिर सींच्यो, तापस शिवफल हेत । क्रोध अगनि छनमाहिं जरावै, पावै नरकनिकेत ॥ सबसौं० ॥२॥ सब गुनसहित गहत रिस मनमें, गुन औगुन कै जात । जैसे प्रानदान भोजन है, सविष भये तन घात ॥ सवसौं०॥३॥ आप समान जान घट घटमें, धर्ममूल यह वीर । द्यानत भवदुखदाह बुझाच, ज्ञानसरोवरनीर ॥ सवसौं०॥४॥ १३३ । राग-आसावरी । गहु सन्तोष सदा मन रे ! जा सम और नहीं धन रे ॥ गहु० ॥ टेक ॥ आसा कांसा भरा न कवहूं, भर देखा बहुजन रे। धन संख्यात अनन्ती तिसना, यह वानक किमि वन रे ॥ गहु० ॥१॥जे धन ध्यावें ते नहिं पावें, छांडै लगत चरन रे । यह ठगहारी साधुनि डारी, छरद अहारी निधन रे ॥गहु०॥२॥ तरुकी छाया नरकी मायां, घटै बदै छन छन रे। धानत अविनाशी धन लागें, जाण त्यागें ते धन रे ॥ गहु० ॥३॥ . १३४ । राग-आसावरी । रे भाई ! मोह महा दुखदाता ॥ टेक ॥ वसत विरानी अपनी मानें, विनसत होत असाता. ॥ रे भाई० . ॥१॥जास मास जिस दिन छिन विरियाँ, जाको Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थभाग । ६९ होसी घाता । ताको राखन सकैन कोई, सुर नर नाग विख्याता ॥ रे भाई ० ॥ २ ॥ सब जग मरत जात नित प्रति नहि, राग विना विललाता। बालक मरैं करें दुख धाय न, रुदन करै बहु माता | रे भाई ० || ३ || मूंसे हनैं बिलाव दुखी नहिं, मुरग हनैं रिस खाता ( ? ) । द्यानत मोह-मूल ममताको, नास करै सो ज्ञाता | रे भाई ० ॥४॥ १३५ | राग - आसावरी । सोग न कीजे वावरे ! मरें पीतंम लोग ॥ सोग० ॥ टेक ॥ जगत जीव जलबुदबुदा, नदि नाव सँजोग ॥ सोग० ॥ १ ॥ आदि अन्तको संग नहिं, यह मिलन वियोग | कई बार सवसों भयो, सनबंध मनोग ॥ सोग० ॥ २ ॥ कोट वरप लौं रोइये, न मिलै वह जोग । देखें जानें सब सुनैं, यह तन जमभोग || सोग० ॥ ३॥ हरिहर ब्रह्मा खये, तू किनमें टोग (?) । द्यानत भज भगवन्त जो, विनसे यह रोग ॥ सोग० ॥ ४ ॥ १३६ । राग - रामकली । रे जिया ! सील सदा दिढ़ राखि हिये ॥ टेक ॥ जाप जपत तप तपत विविध विधि, सील विना धिक्कार जिये ॥ रे जि० ॥ १ ॥ सील सहित दिन एक जीवनो, सेव करें सुर अरघ दिये । कोटि पूर्व थिति सील विहीना, नारकी र्दै दुख वज्र लिये ॥ रे जि० ॥ २ ॥ ले व्रत भंग १ होगा । २ चूहेके । ३ क्रोध । ४ प्रियजन | Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपदसंग्रह। करत जे प्रानी, अभिमानी मदपान पिये । आपद पा विघन बढ़ा, उर नहिं कछुः लेखांन किये ॥ रे जि. ॥३॥ सील समान न को हित जगमें, अहित न मैथुन सम गिनिये । धानत रतन जतनसों गहिये, भवदुख दारिद-गन दहिये ॥रे जि०॥४॥ १३७ / राग-आसावरी । . श्रीजिनधर्म सदा जयवन्त ॥ श्री० ॥ टेक ॥ तीन लोक तिहुँ कालनिमाहीं, जाको नाहीं आदि न अन्त ॥ श्री.॥१॥ सुगुन छियालिस दोप निवार, तारन तरन देव अरहंत । गुरु निरग्रंथ धरम करुनोमय. उपजें त्रेसठ पुरुष महंत ॥ श्री० ॥२॥ रतनत्रय दशलच्छन सोलह, कारन साध सरावक सन्त । छहौं दरव नव तत्त्व सरधकै, सुरग मुकतिके सुख विलसन्त ॥ श्री० ॥३॥ नरक निगोद भम्यो बहु प्रानी, जान्यो नाहिं धरमविरतंत । द्यानत भेदज्ञान सरधातें, पायो दरव अनादि अनन्त ॥ श्री०॥४॥ १३८। जब वानी खिरी महावीरकी तब, आनंद भयो अपार ॥ जय० ॥ टेक ॥ सव प्रानी मन . ऊपजी हो, धिक धिक यह संसार ॥ जव० ॥१॥ बहुतनि सम- . कित आदखो हो, श्रावक भये अनेक । घर तजक - १ हिसाब । २ कोई दूसरा । ३ दयामयी। ४ श्रावक । Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थभाग । बन गये हो, हिरदै धखो विवेक ॥ जव० ॥२॥ केई भावें भावना हो, केई गहैं तप घोर । केई जमैं प्रभु नामको ज्यों, भाजें कर्म कठोर ॥ जव० ॥३॥ बहुतक तप करि शिव गये हो, वहुत गये सुरलोक । धानत सो पानी सदा ही, जयवन्ती जग होय ॥ जव०॥४॥ १३९ । राग-ख्याल । . . वे कोई निपट अनारी, देख्या आतमराम ॥ वे. ॥ टेक ॥ जिनसों मिलना फेरि विछुरना, तिनसों कैसी यारी । जिन कामोंमें दुख पाये है, तिनसों प्रीति करारी ॥ ३०॥१॥ वाहिर चतुर मूढ़ता घरमें, लाज सवै परिहारी । ठगसों नेह वैर साधुनिसों, ये बातें विसतारी ॥ ३० ॥२॥ सिंह डाढ़ भीतर सुख माने, अक्कल सर्व विसारी । जा तरु आग लगी चारौं दिश, वैठि रह्यो तिहँ डारी । वे० ॥३॥हाड़ मांस लोहकी थैली, तामें चेतनधारी। धानत तीनलोकको ठाकुर, क्यों हो रह्यो भिखारी ॥३०॥४॥ १४० । राग-विलावल । आतम काज सँवारिये, तजि विपय किलोलें ॥ आतम० ॥टेक ।। तुम तो चतुर सुजान हो, क्यों करत अलोलें ॥ आतम० ॥१॥ सुख दुख आपद सम्पदा, ये १ साधु ( सज्जन) पुरुपोंसे.२ डाली, शाखा. Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ जैनपदसंग्रह। न आवै गोधन धाम ॥ अव० ॥१॥ जिहँ जान्या विन दुख बहु सह्यो, सो गुरुसंगति सहजै लह्यो। अव० ॥२॥ किये अज्ञानमाहि जे कर्म, सब नाशे प्रगट्यो निज धर्म ॥ अव०॥३॥ जास न रूप गंध रस फास, देख्यो करि अनुभौ अभ्यास ॥ अब० ॥ ४ ॥ जो परमातम सो ममरूप, जो मम सो परमातम भूप ॥ अव० ॥५॥ सर्व जीव हैं मोहि समानं, मेरे वैर नहीं तिन-मान ॥ अव० ॥ ६ ॥ जाको ढूंढ़े तीनौं लोक, सो मम घटमें है गुण थोक ॥ अव०॥७॥ जो करना था सो कर लिया, धानत निज गह पर तज दिया ॥ अव०॥८॥ १५२ । राग-धमाल। चेतन प्राणी चेतिये हो. अहो भनि प्रानी चेनिये हो, छिन छिन छीजत आव ॥ टेक ॥ घड़ी घड़ी घड़ियाल रटत है, कर निज हित अब दाव ॥ चेतन०॥ टेक ॥ १॥ जो छिन विषय भोगमें खोवत, सो छिन भजि जिन नाम । वाते नरकादिक दुख पैहै, यातें सुख अभिराम ॥ चेतन० ॥२॥ विषय भुजंगमके डसे हो, रुले बहुत संसार । जिन्हें विषय व्यापै नहीं हो, तिनको जीवन सार ॥ चेतन० ॥३॥ चार गतिनिमें दुर्लभ नर भव, नर विन मुकति न होय । सो ते पायो भाग उदय हो, विषयनि-सँग मति. खोय ॥ चेतन Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थभाग। ७९ ॥४॥ तन धन लाज कुटुंवके कारन, मूढ करत है। पाप । इन ठगियोंसे ठगायकै हो, पावै बहु दुख आप ॥चेतन०॥५॥ जिनको तू अपने कहै हो, सो तो तेरे नाहिं । के तो तू इनकौं तजै हो, के ये तुझे तज जाहि ॥ चेतन० ॥६॥ पलक एककी सुध नही हो, सिरपर गाजै काल । तू निचिन्त क्यों वावरे हो, छांडि दे सब भ्रमजाल । चेतन० ॥७॥ भजि भगवन्त महन्तको हो, जीवन-प्राणअधार । जो सुख चाहै आपको हो, द्यानत कह पुकार ॥ चेतन० ॥८॥ १५३ । राग-विलावल । __ भजि मन प्रभु श्रीनेमिको, तजी राजुल नारी ॥ टेक ॥ जाके दरसन देखतें, भाजै दुख भारी॥ भजि. ॥१॥ ज्ञान भयो जिनदेवको, इन्द्र अवधि विचारी। धनपतिने समोसरनकी, कीनी विधि सारी ॥ भजि०॥ ॥२॥तीन कोट चहुं थंभश्री, देखें दुखहारी। द्वादश कोठे वीचमें, वेदी विस्तारी ॥ भजि० ॥३॥ तामैं सोहैं नेमिजी, छयालिस गुणधारी । जाकी पूजा इन्द्रने, करी अष्टप्रकारी॥ भजि०॥४॥ सकल देव नर जिहिं भजें, वानी उचारी। जाको जस जम्पत मिले, सम्पत अविकारी ॥ भजि०॥५॥जाकी वानी सुनि भये, केवल दुतिकारी। गनधर मुनि श्रावक सुधी, ममताधि डारी १ गानेसे। . Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपदसंग्रह | ८० ॥ भजि० ॥ ६ ॥ राग दोष मंद मोह भय, जिन तिला टारी । लोक अलोक त्रिकालकी, परजाय निहारी ॥ भजि० ॥ ७ ॥ ताको मन वच कायसों, वन्दना हमारी । द्यानत ऐसे खामिकी, जइये बलिहारी ॥ भजि० ॥ ८ ॥ १५४ । प्राणी लाल ! छांड़ो मन चपलाई || प्राणी० ॥ टेक ॥ देखो तन्दुलमच्छ जु मनतै, लहै नरक दुखदाई ॥ ॥ प्राणी० ॥ १ ॥ धारै मौन दया जिनपूजा, काया वहुत तपाई । मनको शल्य गयो नहिं जब लों, करनी सकल गंवाई ॥ प्राणी० ॥ २ ॥ बाहूवल मुनि ज्ञान न उपज्यो, मनकी खुटक न जाई । सुनतें मान तज्यो मनको तब, केवलजोति जगाई ॥ प्राणी० ॥ ३ ॥ प्रसनचंद रिषि नरक जु जाते, मन फेरत शिव पाई । तनतें वचन वचनतै मनको, पाप को अधिकाई ॥ प्राणी० ॥ ४ ॥ देहिं दान गहि शील फिरें बन, परनिन्दा न सुहाई । वेद पढ़ें निरग्रंथ रहें जिय, ध्यान विना न बड़ाई ॥ प्राणी० ॥ ५ ॥ त्याग फरस रस गंध वरण सुर मन इनसों लौ लाई । घर ही कोस पचास भ्रमत ज्यों तेलीको वृष भाई ॥ प्राणी० || ६ || मन कारण है सब कारजको, विकलप बंध बढ़ाई । निरविकलप मन मोक्ष करत है, सूधी बात बताई ॥ प्राणी० ॥ ७ ॥ द्यानत १ महामच्छके कर्णमें रहनेवाला मच्छ । २ शल्य खटक । ३ वैल Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थभाग। जे निज मन वश करि हैं, तिनकों शिवसुख थाई । वार वार कहुं चेत संवेरो, फिर पाछै पछताई ॥ प्राणी०॥८॥ १५५ । राग-काफी। भाई ! ज्ञान विना दुख पाया रे ॥ भाई० ॥ टेक ॥ भव दश आट उखास खासमें, साधारन लपटाया रे॥ भाई० ॥१॥ काल अनन्त यहां तोहि वीते, जव भई मंद कपाया रे । तव तू तिस निगोद सिंधूतै, थावर होय निसारा रे ॥ भाई० ॥ २॥ क्रम क्रम निकस भयो निकलत्रय, सो दुख जात न गाया रे। भूख प्यास परवश सहि पशुगति, वार अनेक विकाया रे ॥ भाई. ॥३॥ नरकमाहिं छेदन भेदन बहु, पुतरी अगन जलाया रे। सीत तपत दुरगंध रोग दुख, जानें श्रीजिनराया रे ॥ भाई०॥४॥ भ्रमत भ्रमत संसार महावन, कवर देव कहाया रे । लखि परविभौ सह्यौ दुख भारी, मरन समय विललाया रे ॥ भाई ॥५॥ पाप नरक पशु पुन्य सुरग पसि, काल अनन्त गमाया रे। पाप पुन्य जव भये वरावर, तव कहु नरभव पाया रे॥ ॥ भाई० ॥ ६ ॥ नीच भयो फिर गरम खयो फिर, जनमत काल सताया रे । तरुणपनै तू धरम न चेतै, . तन-धन-सुत लौ लाया रे ॥ भाई ॥ ७॥ दरवलिंग १ जल्दी । २ निकला। ६ भाग ४ . Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपदसंग्रह । धरि धरि बहु मरि तू, फिरि फिरि जग भमि आया रे। घानत सरधाजुत गहि मुनिव्रत, अमर होय तजि काया रे ॥ भाई०॥८॥ १५६ । राग-काफी। भाई ! कहा देख गरवाना रे ॥ भाई० ॥ टेक ॥ गहि अनन्त भव तैं दुख पायो, सो नहिं जात वखाना रे . ॥ भाई० ॥१॥ माता रुधिर पिताके वीरज, तातै तू उपजाना रे । गरभ वास नवमास सहे दुख, तल सिर पांच उचाना रे ॥ भाई०॥२॥ मात अहार चिगल मुख निगल्यो, सोतू असन गहाना रे। जंती तार सुनार निकालै, सो दुख जनम् सहाना रे ॥ भाई० ॥३॥ आठ पहर तन मलि मलि धोयो, पोप्यो रैन विहाना रे। सो शरीर तेरे संग चल्यो नहि, खिनमें खाक समाना रे ॥ भाई० ॥ ४ ॥ जनमत नारी, वाढत भोजन, समरथ दरव नसाना रे । सो सुत तू अपनो कर जाने, अन्त जलाचे प्राना रे ॥ भाई०॥५॥ देखत चित्त मिलाप हरै धन, मैथुन प्राण पलाना रे। सो नारी. तेरी खै कैलें, भूवें प्रेत प्रमाना रे ॥ भाई०॥६॥पांच चोर तेरे अन्दर पैठे, ते ठाना मित्राना रे । खाय पीय धन ज्ञान लूटके, दोष तेरे सिर ठाना रे॥भाई०॥७॥ व धरम गुरु रतन अमोलक, कर अन्तरं सरधाना रे। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थभाग | ८३ धानत ब्रह्मज्ञान अनुभव करि, जो चाहे कल्याना रे । ॥ भाई ० ॥ ८ ॥ १५७ | राग काफी कर मन ! निज- आतम-चिंतौन ॥ कर० ॥ टेक ॥ जिहि विनु जीव भम्यो जग-जौन ॥ कर० ॥ १ ॥ आतममगन परम जे साधि, ते ही त्यागत करम उपाधि ॥ कर० ॥ २ ॥ गहि व्रत शील करत तन शोख, ज्ञान विना नहिं पावत मोख ॥ कर० ॥ ३ ॥ जिहितैं पद अरहन्त नरेश, राम काम हरि इंद फणेश ॥ कर० ॥ ४ ॥ मनवांछित फल जिहितें होय, जिहिकी पटतर अवर न कोय ॥ कर० ॥५॥ तिहुँ लोक तिहुँकालमँझार, वरन्यो आतमअनुभव सार ॥ कर० ॥ ६ ॥ देव धरम गुरु अनुभव ज्ञान, मुकति नीव पहिली सोपांन ॥ कर० ॥ ७ ॥ सो जानें छिन व्है शिवराय, द्यानत सो गहि मन वच काय ॥ कर० ॥ ८ ॥ १५८ | राग - काफी । भाई ! जानो पुदगल न्यारा रे || भाई ० ॥ टेक ॥ क्षीर नीर जड़ चेतन जानो, धातु पखान विचारा रे || भाई ० || १ | जीव करमको एक जाननो, भाख्यो श्री गणधारा रे । इस संसार दुःखसागर में, तोहि भ्र मावनहारा रे || भाई ० ॥ २ ॥ ग्यारह अंग पढ़े सन १ पैड़ी | २ गणधर | Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपदसंग्रह। पूरव, भेद-ज्ञान न चितारा रे। कहा भयो सुर्वटाकी नाई, रामरूप न निहारा रे ॥ भाई० ॥३॥ भवि उपदेश मुकत पहुँचाये, आप रहे संसारा रे । ज्यों मांह पर पार उतारै, आप वारका वारा रे ॥ भाई० ॥४॥ जिनके वचन ज्ञान परगासैं, हिरदै मोह अपारा रे। ज्यों मशालची और दिखावै, आप जात अँधियारा रे ॥ भाई० ॥ ५॥ वात सुनें पातक मन नासै, अपना मैल न झारा रे। वांदी परपद मलि मलि धोवै, अपनी सुधि न सँभारा रे ॥ भाई० ॥६॥ ताको कहा . इलाज कीजिये, बूड़ा अम्बुधि धारा रे । जाप जप्यो वहु ताप तप्यो पर, कारज एक न सारा रे ॥ भाई. ॥ ७ ॥ तेरे घटअन्तर चिनमूरति, चेतनपदउजियारा रे। ताहि लखै तासौं वनि आवै, धानत लहि भव पारा रे ॥ भाई० ॥८॥ १५९ । राग-सोरठ। भजो आतमदेव, रेजिय ! भजो आतमदेव ॥रे जिय० ॥ टेक ॥ लहो शिवपद एव ॥ रे जिय० ॥ ॥१॥ असंख्यात प्रदेश जाके, ज्ञान दरस अनन्त । सुख अनन्त अनन्त वीरज, शुद्ध सिद्ध महन्त ॥रे जिय० ॥२॥ अमल अचलातुल अनाकुल, अमन अवच अदेह । अजर अमर अखय अभय प्रभु, रहित१ तोतेके समान । २ मल्लाह । ३ दासी । Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थभाग ! ८५ विकलप नेह || रे जिय० ॥ ३॥ क्रोध मद वल लोभ न्यारो, बंध मोख विहीन । राग दोष विमोह नाहीं, चेतना गुणलीन ॥ रे जिय० ॥ ४ ॥ फरस रस खुर गंध सपरस, नाहिं जामें होय । लिंग मारगना नहीं, गुणधान नाहीं कोय ॥ रे जिय० ॥ ५ ॥ ज्ञान दर्शन चरनरूपी, भेद सो व्योहार | करम करना क्रिया निहचै, सो अभेद विचार || रे जिय०|| ६ || आप जाने आप करके, आपमाहीं आप । यही व्योरा मिट गया तव, कहा पुन्यरु पाप ॥ रे जिय० ॥ ७ ॥ है कहै है नहीं नाहीं, स्यादवाद प्रमान । शुद्ध अनुभव समय द्यानत, करौ अम्रतपान ॥ रे जिय० ॥८॥ १६० । राग - आसावरी । A भाई ब्रह्मज्ञान नहिं जाना रे || भाई ० ॥ टेक ॥ सव संसार दुःख सागरमें, जामन मरन कराना रे || भाई ο ॥ १ ॥ तीन लोकके सब पुदगल तैं, निगल निगल उगलाना रे | छेर्दि डारके फिर तू चाखै, उपजै तोहि न ग्लाना रे ॥ भाई ० ॥ २ ॥ आठ प्रदेश विना तिहुँ जगमें, रहा न कोई ठिकाना रे । उपजा मरा जहां तू नाहीं, सो जाने भगवाना रे || भाई ० ॥ ३ ॥ भव भवके नख केस. नाका, कीजे जो इक ठाना रे । होंय अधिक ते गिरि सुमेरुतै, भाखा वेद पुराना रे ॥ भाई ० ॥ ४ ॥ जननी -पय जनम जनमको, जो तैं कीना पाना रे । सो तो १ के वमन । २ स्तनका दूध । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपदसंग्रह | ८६ अधिक सकल - सागरतैं, अजहूं नाहिं अघाना रे ॥ भाई ० ॥ ५ ॥ तोहि मरण जे माता रोई, आसुँ जल सगलाना रे । अधिक होय सब सागरसेती, अजहूँ त्रास न आना रे || भाई ० ॥ ६ ॥ गरभ जनम दुख वाल विरध दुख, वार अनन्त सहाना रे | दरवलिंग धरि जे तन त्यागे, तिनको नाहिं प्रमाना रे || भाई० ॥ ७ ॥ विन समभाव सहे दुख एते, अजहूँ चेत अयाना रे | ज्ञानसुधारस पी लहि द्यानत, अजर अमरपद थाना रे ॥ भाई० ॥ ८ ॥ १६१ । राग- धमाल । साधो ! छोड़ो विषय विकारी । जातैं तोहि महा दुखकारी ॥ साधो ० ॥ टेक ॥ जो जैनधर्मको ध्यावै, सो आतमीक सुख पावै ॥ साधो० ॥ १ ॥ गज फरस - विषै दुख पाया, रस मीन गंध अलि गाया । लखि दीप शर्लभ हित कीना, मृग नाद सुनत जिय दीना ॥ सा - धो० ॥ २ ॥ ये एक एक दुखदाई, तू पंच रमत है भाई । यह कौंनें, सीख बताई, तुमरे मन कैसें आई ॥ साधो० ॥ ३ ॥ इनमाहिं लोभ अधिकाई, यह लोभ गतिको भाई । सो कुगतिमाहिं दुख भारी, तू त्याग विषय मतिधारी ॥ साधो० ॥ ४ ॥ ये सेवत सुख से लागेँ, फिर अन्त प्राणको त्यागें । तातैं ये विषफल १ भ्रमर । २ पतंग | Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थभाग । ८७, कहिये, तिनको कैसे कर गहिये ॥ साधो० ॥ ५ ॥ तबaौं विपया रस भावे, जवलौं अनुभव नहिं आवै । जिन अमृत पान ना कीना, तिन और रसन चित दीना ॥ साधो० ॥ ६ ॥ अब बहुत कहाँ लौं कहिए, कारज कहि चुप है रहिये | ये लाख बातकी एक, मत गहो वियकी टेक || साधो० ॥ ७ ॥ जो तजै विपयकी आसा, यात पावै शिववासा । यह सतगुरु सीख बताई, काह विरले जिय आई ॥ साधो० ॥ ८ ॥ 1 १६२ | राग - आसावरी । हमको कैसे शिवसुख होई || हमको ० ॥ टेक ॥ जे जे मुकत जानके कारण, तिनमेंको नहि कोई ॥ हमको० ॥ १ ॥ मुनिवरको हम दान न दीना, नहिं पूज्यो जिनराई | पंच परम पद वन्दे नाहीं, तपविधि बन नहिं आई || हमको ० ॥ २ ॥ आरत रुद्र कुध्यान न त्यागे, धरम शुकल नहिं ध्याई । आसन मार करी आसा दिढ़, ऐसे काम कमाई ॥ हमको ० ॥ ३ ॥ विषय कषाय विनाश न हुआ, मनको पंगु न कीना । मन वच काय जोग थिर कर, आत्मतत्त्व न चीना ॥ हमको ० ॥ ४ ॥ मुनि श्रावकको धरम न धारयो, समता मन नहिं आनी । शुभ करनी करि फल अभिलाप्यो, ममतावुध अधिकानी ॥ हमको ० ॥ ५ ॥ रामा रामा धन धन कारन, पाप अनेक उपायो । तब हू तिसना भई न पूरन, Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो ९२ . जैनपदसंग्रह । ॥ जैन० ॥७॥ घारौं घातै जीवको, रख लेहु उवार । द्यानत धर्म न भूलिये, संसार असार । जैन० ॥८॥ - १६८ । राग-आसावरी जोगिया। ज्ञानी ऐसो ज्ञान विचारै ।। ज्ञानी० ॥ टेक ॥राज सम्पदा भोग भोगवे, बंदीखाना धारै ॥ ज्ञानी० ॥१॥ धन जोवन परिवार आपत, ओछी ओर निहार । दान शील तप भाव आपतै, ऊंचेमाहिं चितारै ॥ ज्ञानी० ॥ ॥२॥ दुख आये धीरज धर मनमें, सुख वैराग सँभार। आतम दोष देखि नित झूरै, गुन लखि गरव विडारै ॥ ज्ञानी० ॥३॥ आप बड़ाई परकी निन्द नाहिं उचारै । आप दोष परगुन मुख भाप, मनतें शल्य निवारै ।। ज्ञानी० ॥४॥ परमारथ विधि तीन जोगसौं, हिरदै हरष विथारै । और काम न करै जु करै तो, जोग एक दो हारै ।। ज्ञानी० ॥५॥ गई वस्तुको सोचै नाही, आर्गमचिन्ता जारै । वर्तमान वतै विवेकसौं, ममता बुद्धि विसारै ।। ज्ञानी० ॥ ६ ॥ वालपने विद्या अभ्यासै, जोवन तप विस्तारै । वृद्धपने सन्यास लेयकै, आतम काज सँभारे ॥ ज्ञानी० ॥ ७॥ छहों दरव नव तत्त्वमाहितै, चेतन सार निकारै । धानत मगन सदा तिसमाहीं, आप तरै पर तारै ॥ ज्ञानी० ॥८॥ १ आगामी-भविष्यकी चिन्ता । Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ जैनपदसंग्रह | चेतन० ॥ टेक ॥ ऐसो नरभव पायकैं, काहे विषया लबलाई ॥ चेतन० ॥ १ ॥ नाहीं तुमरी लाईकी, जोवन धन देखत जाई । कीजे शुभ तप त्यागकै, धानत हूजे अकपाई ॥ चेतन० ॥ २ ॥ १९६ । मिजी तो केवलज्ञानी, ताहीको ध्याऊं ॥ नेमिजी० ॥ टेक ॥ अमल अखंडित चेतनमंडित, परमपदारथ पाऊं ॥ नेमिजी० ॥ १ ॥ अचल अवाधित निज गुण छाजत, वचन में कैसे बताऊं । द्यानत ध्याइये शिवपुर जाइये, बहुरि न जगमें आऊं ॥ नेमि ० ॥ २ ॥ १९७ । चेतनजी ! तुम जोरत हो धन, सो धन चलत नहीं तुम लार ॥ चेतन० ॥ टेक ॥ जाको आप जान पोपत हो, सो तन जलकै है है छार ॥ चेतन० ॥ १ ॥ विषय भोग सुख मानत हो, ताको फल है दुःख अपार । यह संसार वृक्ष सेमेरको, मान को हौं कहत पुकार ॥ चेतन० ॥ २ ॥ १९८ । प्राणी ! तुम तो आप सुजान हो, अव जी सुजान हो ॥ प्राणी० ॥ टेक ॥ अशुचि अचेत विनश्वर रूपी, १- योग्यता । २ सेमर वृक्षके फूल देखनेमें सुन्दर होते हैं, परन्तु उनमें जो फल लगते हैं, वे निस्सार होते हैं । . Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थभाग। १०७ पुद्गल तुमतें आन हो । चेतन पावन अखय अरूपी, आतमको पहिचान हो॥प्राणी०॥१॥ नाव धरेकी लाज निवाहो, इतनी विनतीमान हो। भव भव दुखको जल दे धानंत, मित्र! लहो शिवथान हो ॥ प्राणी० ॥२॥ १९९। आपमें आप लगाजी सु हाँ तो ॥ आप०॥ टेक ॥ सुपनेका सुख दुख किसके, सुख दुख किसके, मैं तो अनुभवमाहि जगा जी-सु हौं तो ॥ आप० ॥ १ ॥ पुदगल तो ममरूप नहीं, ममरूप नहीं, जैसेका तैसा सगा जी-सु हाँ तो ॥ आप० ॥२॥ द्यानत मैं चेतन वे जड़, वे जड़ हैं, जड़सेती पगा जी, सु हौं तो ॥ आप० ॥३॥ २००। वीतत ये दिन नीके, हमको ॥ वीततः ॥ टेक ॥ भिन्न दरव तत्वनितें धारे, चेतन गुण हैं जीके ॥ वीतत० ॥ १ ॥ आप सुभाव आपमें जान्यो, सोइ धर्म है ठीके | वीतत० ॥२॥ द्यानत निज अनुभव रस चाख्यो, पररस लागत फीके ॥ वीतत० ॥३॥ २०१। कौन काम अव मैंने कीनों, लीनों सुर अवतार हो.॥ कौन०॥टेक॥ गृह तजि गहे महाव्रत शिवहित, विफल फल्यो आचार हो। कौन ॥१॥ संयम शील ध्यान तप Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ जैनपदसंग्रह। खय भयो, अव्रत विषय दुखकार हो । द्यानत कव यह थिति पूरी है, लहों मुकतपद सार हो ॥ कौन० ॥२॥ २०२। रे! मन गाय लै, मन गाय लै, श्रीजिनराय ॥रे मन० ॥ टेक ॥ भवदुख चूरै आनंद पूरै, मंगलके समुदाय ॥ रे मन० ॥ १ ॥ सवके स्वामी अन्तरजामी, सेवत सुरपति पाय । कर ले पूजा और न दूजा, धानत मन-वच-काय ॥ रे मन० ॥२॥ २०३। राग-प्रभाती। देखे जिनराज आज, राजऋद्धि पाई ॥ देखे० ॥ टेक ॥ पहुपवृष्टि महा इष्ट, देवदुंदुभी सुमिष्ट, शोक करै भृष्ट सो, अशोकतरु वड़ाई ॥ देखे० ॥१॥ सिंहासन झलमलात, तीन छत्र चित सुहात, चमर फरहरात मनो, भगति अति बढ़ाई ॥ देखे० ॥२॥ द्यानत भामण्डलमें, दीसैं परजाय सात, बानी तिहुँकाल झरै,. सुरशिवसुखदाई ॥ देखे ॥३॥ . २०४।। साधजीने वानी तनिक सुनाई ॥साधजी०॥ टेक॥ गौतम आदि महा मिथ्याती, सरधा निहचै आई॥ साधजी० ॥१॥ नृप विभूति छयवान विचारी, वारह भावन भाई ॥ साधजी० ॥२॥ द्यानत हीन शकति हू देखौ, श्रावक पदवी.पाई॥ साधजी०॥३॥ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थभाग। २०५। वे प्राणी ! सुज्ञानी, जान जान जिनवानी ॥०॥ ॥ टेक ॥ चन्द सूर हु दूर करें नहि, अन्तरतमकी हानी ॥०॥१॥ पच्छ सकल नय भच्छ करत है, स्वादवादमें सानी ॥ ३० ॥२॥धानत तीनभवन-मन्दिरमें, दीवट एक वखानी ॥ ३० ॥३॥ २०६। लाग रह्यो मन चेतनसों जी ॥ लाग० ॥ टेक ॥ सेवक सेवसेव सेवक , मिल, सेवा कौन करै पनसों जी ॥ लाग० ॥१॥ बात सुधा पी वम्यो विषय विप, क्यों कर लागि सके सलसी जी ॥ लाग०॥२॥ द्यानत आप-आप निरविकलप, कारज कवन भवन निवसों जी ॥ लाग० ॥३॥ २०७। ___ हम आये हैं जिनभूप!, तेरे दरसनको ॥ हम० ॥ टेक ।। निकसे घर आरतिकूप, तुम पद परसनको ॥ हम० ॥ १॥ वैननिसों सुगुन निरूप, चाहँ दरसनकों ॥ हम०॥२॥धानत ध्यावे मन रूप, आनंद परसन को ॥ हम० ॥३॥ २०८॥ तुम तार करुनाधार खामी! आदिदेव निरंजनो। ॥ तुम० ॥ टेक ॥ सार जग आधार नामी; भविक जन Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० जैनपदसंग्रह । मनरंजनो ॥ तुम० ॥ १॥ निराकार जमी अकामी, अमलं देह अमंजनो ॥ तुम० ॥२॥ करौ धानत मुकतिगामी, सकल भव-भय-मंजनो ॥ तुम० ॥३॥ २०९। . जिनवानी पानी ! जान लै रे॥जिनवानी०॥टेक॥ छहों दरच परजाय गुन सरव, मन नीके सरधान लै रे ॥ जिनवानी० ॥१॥ देव धरम गुरु निहचै धर उर, पूजा दान प्रमान लै रे ॥ जिनवानी० ॥२॥ द्यानत जान्यो जैन वखान्यो, ॐ अक्षर मन आन लै रे ॥ जि: नवानी० ॥३॥ोद्ध __ . . २१० । राग-लत। .ये दिन आले लहे जी लहे जी॥ये॥टेक ॥ देव धरम गुरूकी सरधा करि, मोह मिथ्यात दहेजी दहेजी ॥ ये० ॥ १॥ प्रभु पूजे सुने आगमको, सतसंगतिमाहिं रहे जी रहे जी ॥ ये० ॥२॥ धानत अनुभव ज्ञानकला कछु, संजम भाव गहे जी गहे जी ॥ ये०॥३॥ . . . ,२११। । . इक अरज सुनो साहिव मेरी ॥ इक० ॥ टेक॥ चेतन एक बहुत जड़ घेखो, दई.आपदा वहुतेरी ॥ ॥ इक० ॥ १॥ हम तुम एक दोय इन कीने, विन कारन बेरी, गेरी ॥ इक०॥२॥ धानत तुम तिहुँ ज. १ यमी यावज्जीवत्यागी। .. : .:. :.: Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थभाग। १११ गके राजा, करो जु कडू खातिर मेरी ॥ इक० ॥ ३ ॥ २१२। जिन साहिब मेरे हो, निवाहिये दासको ॥ जिनक ॥ टेक ॥ मोह महातम घेर भखो है, कीजिये ज्ञान प्रकासको ॥ जिन० ॥१॥ लोभरोगके वैद प्रभूजी, औषध द्यो गर्द नासको ।। जिन०॥२॥द्यानत क्रोधकी आग बुझायो, बरस छिमा जलरासको ॥ जिन०॥ २१३१ चेतन ! मान लै बात हमारी ॥ चेतन० ॥ टेक ॥ गुदगल जीव जीव पुदगल नहिं, दोनोंकी विधि न्यारी ॥ चेतन० ॥१॥ चहुँगतिरूप विभाव दशा है, मोखमाहिं अविकारी । द्यानत दरवित सिद्ध विराजै, सोहं जपि मुखकारी ।। चेतन०॥२॥ २१४। निज जतन करो गुन-रतननिको, पंचेन्द्रीविपय सभी तसकर । निज०॥ टेक ।। सत्य कोट खाई करुनामय, बाग विराग छिमा भुवि भर ॥ निज० ॥ १ ॥ जीव भूप तन नगर वसे है, तहँ कुतवाल धरमको कर ।। । निज० ॥२॥ द्यानत जव भंडार न जावै, तव सुख पाचे साहु अमर ॥ निज०॥३॥ . १ धीमारी। - - Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ जैनपदसंग्रह। २१५। ___ आतम जाना, मैं जाना ज्ञानसरूप ।। आतम० ॥ टेक ॥ पुद्गल धर्म अधर्म गगन जैम, सब जड़ मैं चिद्रूप॥ आतम० ॥१॥ दरव भाव नोकर्म नियारे, न्यारो आप अनूप ।। आतम० ॥२॥ द्यानत पर-परनति कर विनसै, तव सुख विलसै भूप ॥ आतम० ॥३॥ २१६। __ सांचे चन्द्रप्रभू सुखदाय ॥ सांचे० ॥ टेक ॥ भूमि सेत अम्रतवरषाकरि, चंद नामतें शोभा पाय ॥ सांचे.. ॥१॥ नर वरदाई कौन बड़ाई, पशुगन तुरत किये सुरराय ॥ सांचे० ॥२ ॥ द्यानत चन्द असंखनिके प्रभु, सारेथ नाम जपों मन लाय ॥ सांचे० ॥३॥ - २१७। ए मान ये मन कीजिये भज प्रभु तज सब वात हो। ए मन० ॥टेक॥ मुख दरसत सुख वरसत प्रानी, विधन विमुख है. जात हो ॥ ए मन० ॥१॥ सार निहार यही शुभ गतिमें, छह मत मानै ख्यात हो। ॥ ए मन० ॥२॥ द्यानत जानत खामि नाम धन, जस गावैं उठि प्रात हो॥ ए मन० ॥३॥ . . . . . २१८।. सोहांदीव ( सोभा देवें?) साधु तेरी बातड़ियां। १ कालद्रव्य । २ यथा नाम तथा गुण । विधान॥देव जय भजन - Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० जैनपदसंग्रह। पिय०॥टेक ॥व्याहन आये पशु छुटकाये, तजि रथ जन पुर गाऊं ॥ पिय० ॥१॥ मैं सिंगारी वे अविकारी, क्यों नभ मुठिय समाऊं ॥ पिय० ॥२॥ धानत जोगनि है विरमाऊं, कृपा करें निज. ठाऊं ॥ पिय० ॥३॥ . . .२३९ । री मा.! नेमि गये किंह ठाऊं ॥री मा० ॥ टेक ॥ दिल मेरा कित हू लगता नहि, ढूंढौ सव पुर गाऊं ॥ रीमा० ॥१॥ भूपण वसन कुसुम न सुहावं, कहा करूं कित.जाऊ॥रीमा०॥२॥ द्यानत कर मैं दर. सन पाऊं, लागि रहौं प्रभु पाऊं ॥रीमा० ॥३॥ . .. २४०। एरी सखी ! नेमिजीको मोहि मिलावो ॥ एरी. ॥टेक ॥ व्याहन आये फिर कित धाये, दूँड़ि खवर किन लावो । एरी० ॥१॥ चोवा चन्दन अतर अरगजा, काहेको देह लगायो॥ एरी० ॥२॥ द्यानत प्रान वसैं पियके ढिग, प्रानके नाथ दिखावो॥एरी०॥३॥ . . . . . . २४१। : मूरतिपर वारीरे नेमि जिनिंद ॥ मूरति० ॥ टेक ॥ छपन कोटि यादवकुलमंडन, खंडन कामनरिंद ॥ मूरति०॥१॥ जाको जस सुरनर सब गावे, ध्या १ ग्राम | २ आकाश | ३ मुट्ठीमें । ४ एक प्रतिमें 'नीमा' और एकमें 'नामा' पाठहै। ... . . . . . .. .. . ... . Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थभाग । १२१ ध्यान मुनिंद ॥ मूरति० ॥ २ ॥ द्यानत राजुल-प्राननप्यारे, ज्ञान-सुधाकर-इंद ।। मूरति० ॥ ३॥ २४२। अव मोहि तारि लै नेमिकुमार ॥ अव० ॥ टेक ॥ खग मृग जीवन वंध छुड़ाये, मैं दुखिया निरधार ।। अब० ॥१॥ मात तात तुम नाथ साथ दी, और कौन रसवार । धानत दीनदयाल दया करि, जगते लेहु निकार ॥ अब० ॥२॥ २४३। अब मोहि तारि लै नेमिकुमार ॥ अव० ॥ टेक ।। चहुगत चौरासी लख जौनी, दुखको वार न पार ।। अब० ॥ १॥ करम रोग तुम वैद अकारनं, औषध वैन-उचार । धानत तुम पद-यंत्र धारधर, भव-ग्रीषमतप-हार ॥ अव० ॥२॥ २४४ । राग-परज। नेमि ! मोहि आरति तेरी हो ॥ नेमि० ॥ टेक ।। पशू छुड़ाये हम दुख पाये, रीत अनेरी हो । नेमि० ॥१॥ जो जानत है जोग धरेंगे, मैं क्यों घेरी हो। द्यानतं हम हू संग लीजिये, विनती मेरी हो ॥ नेमि० ॥२॥ १ अनोखी । २ थे। : Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . १२२ जनपदसंग्रह। . .. २४५। . . . : .... . . . . . ___ मोहि तारि लै पारस स्वामी ॥.मोहि ॥ टेक ॥ पारस परस कुधातु कनक है, भयो नाम तैं नामी ॥ मोहि ॥ १ ॥ पदमावति धरनिदै रिधि तुमतें, जरत नाग जुग पामी। तुम संकटहर प्रगट सवनिमें, कर द्यानत शिवगामी ॥ मोहि० ॥२॥ . . . . . २४६। दिय दान महा सुख पावै ॥ दिये० ॥ टेक ॥ कूप नीर सम घर धन जानौं, करें व अकरें सड़ जावै ॥ . दिौं० ॥१॥ मिथ्याती पशु दानभावफल, भोगभूमि सुरवास बसावै । धानत गास अरध चौथाई, मनवांछित विधि कब पनि आवै ॥ दिय० ॥२॥ . V२४७ ए मेरे मीत ! निचीत कहा सोवै ॥ ए. ॥ टेक ॥ फूटी काय सराय पायकै, धरम रतन जिनं खोवै ।। ॥ ए० ॥१॥ निकसि निगोद मुकत जैवेको, राहविर्षे कहा जोवै ॥ ए० ॥२॥ द्यानतं गुरु जागुरू गुंकारें, खबरदार किन होवै. ॥ ए. ॥३॥ :... . २४८। " .: ... प्यारे नेमसों प्रेम किया रे ॥ प्यारे० ॥ टेक ॥ उनहीके अर, चरचें, परचें सुख होत. हिया रें। १ लोहा । २ पास-कौर । ३ जागरूक-जगनेवाले।... Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थभाग । १२३ प्यारे० ॥ १ ॥ उनहीके गुनको सुमरौं, उनही लखि जीय जिया रे || प्यारे० ॥ २ ॥ द्यानत जिन प्रभु नाम रयो तिन, कोटिक दान दिया रे || प्यारे० ॥ ३ ॥ २४९ । मोहि तारो जिन साहिब जी ॥ मोहि० ॥ टेक ॥ दास कहाऊं क्यों दुख पाऊं, मेरी ओर निहारोः ॥ मोहि० ॥ १ ॥ पटकाया प्रतिपालक खामी, सेवकको न विसारो || मोहि० ॥ २ ॥ द्यानत तारन तरन चिरद तुम, और न तारनहारो ॥ मोहि० ॥ ३ ॥ २५० । दास तिहारो हूं, मोहि तारो श्रीजिनराय । दास तिहारो भक्त तिहारो, तारो श्रीजिनराय ॥ दासं ॥ टेक ॥ चहुँगति दुखकी आगतै अब, लीजे भक्त बचाय ॥ दास० ॥ १ ॥ विषय कपाय ठगंनि ठग्यो; दोनोंतें देहु छुड़ाय || दास० ॥ २ ॥ द्यानत ममता : नाहरीतैं, तुम बिन कौन उपाय ॥ दास० ॥ ३ ॥ २५१ । गोतम स्वामीजी मोहि बानी तनक सुनाई ॥ गोतम० ॥ टेक ॥ जैसी बानी तुमने जानी, तैसी मोहि बताई ॥ गोतम० ॥ १ ॥ जा वानीतें श्रेणिक समझ्यो, क्षायक समकित पाई ॥ गोतमं० ॥ २ ॥ द्यान्रत भ्रूप अनेक तरे हैं, बानी सफल सुहाई । गोतम ० ॥ ३ ॥ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपदसंग्रह | २५२ । : देखे धन्य घरी, आज पावापुर महावीर || देखे • ॥ टेक ॥ गोतमखामि चंदना मेंडक, श्रेणिकसुखकर धीर ॥ देखे० ॥ १ ॥ चार ओर भवि कमल विराजें, भक्ति फूल सुख नीर । द्यानत तीरथनायक ध्यावै, मिट जावै भव भीर || देखे ० ॥ २ ॥ १२४ २५३ । 3 आतम महबूब यार, आतम महबूब || आतम● ॥ टेक ॥ देखा हमने निहार, और कुछ न खूब ॥ आतम० ॥ १ ॥ पंचिन्द्रीमाहिं रहे, पाचोंतें भिन्न । वादलमें भानु तेज, नहीं खेद खिन्नं ॥ आतम० ॥ २ ॥ तनमें है तजै नाहि, चेतनता सोय । लाल कीच बीच पस्यो, कीचसा न होय || आतमः ॥ ३ ॥ जामें हैं गुन अनन्त, गुनमें है आप । दीवेमें जोत जोतमें है दीवा व्याप ॥ आतम० ॥ ४ ॥ करमोंके पास वसै, करमोंसे दूर | कमल वारिमाहिं उसे, बारिमाहिं जूर (?) ॥ आतम० ॥ ५ ॥ सुखी दुखी होत नाहिं, सुख दुखकेमाहिं । दरपनमें धूप छाहिं, घाम शीत नाहिं ॥ आतम० ॥ ६ ॥ जगके व्योहाररूप, जगसों निरलेप | अंबर में गोद धस्यो, व्योमको न चेप | आतंम० ॥७॥ भाजनमें नीर भस्यो, थिरमें मुख पेख । द्यानत मनके विकार, टार आप देख ॥ आतम• ॥ ८ ॥ . Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थभाग। १२५ - २५४। • चल पूजा कीजे, वनारसमें आय ॥ चल० ॥ टेक ॥ पूजा कीजे सब सुख लीजे, आनंद मंगल गाय ॥ चल. ॥१॥ पारसनाथ सुपारस राज, देखत दुख मिट जाय ॥ चल० ॥२॥ गंगाने परदक्षिण दीनी, ता पुरकी हित लाय | चल० ॥३॥ द्यानत औसर आज़ हि आछो, वंदे प्रभुके पाय ॥ चल०॥४॥ २५५। - सेट सुदरसन तारनहार । सेठ० ॥ टेक ॥ तीन वार दिढ़ शील अखंडित, पालैं महिमा भई अपार ॥ सेठ० ॥१॥ सूलीत सिंघासन हूवा, सुर मिलि कीनौं जैजैकार ॥सेठ० ॥२॥ सह उपसर्ग लबो केवलपद, द्यानत पायो मुकतिदुवार ।। सेठ०॥३॥ .. २५६। पावापुर भवि वंदो जाय ।। पावापुर० ॥ टेक ॥ परम पूज्य महावीर गये शिव, गोतम ऋषि केवलगुन याय ॥ पावापुर० ॥१॥ सो दिन अव लगि जग सव मान, दीवाली सम मंगल काय || पावापुर० ॥ २॥ कातिक मावस निस तिस जागे, द्यानत अदभुत पुन्य उपाय || पावापुर० ॥३॥ २५७। .. जिनवरमूरत तेरी, शोभा कहिय न जाय ॥ जि Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ जैनपदसंग्रह। न० ॥ टेक ॥ रोम रोम लखि हरप होत है, आनंद उर न समाय ॥ जिन० ॥१॥ शांतरूप शिवराह बतावै, आसन ध्यान उपाय ।। जिनः ॥२॥ ईद फ:निंद नारद विभौ •सव, दीसत है दुखदाय ॥ जिन ॥३॥ द्यानत पूजै ध्यावै गाचे, मन वच काय लगाय ॥ जिन०॥४॥ . / . V२५८। तारि लै मोहि शीतल खामी ॥ तारि० ॥ टेक ॥ शीतल वचन चंद चन्दन , भव-आताप-मिटावन नामी ॥ तारि० ॥१॥ त्रिभुवननायक सव सुखदायक, लोकालोकके अंतरजामी ॥ तारि० ॥२॥ द्यानत तुम जस कौन कहि सके, वंदत पाँय भये शिवगामी ॥ तारि० ॥३॥ ४२५९ । तारनकों जिनवानी ॥ तारन० ॥ टेक ॥ मिथ्या चूरै सम्यक पूरै, जनम-जरामृत हानी ॥ तारन० ॥१॥ जड़ता नाशै ज्ञान प्रकाशै, शिव-मारग-अगवानी। यानंत तीनों-लोक · व्यथाहर, परम-रसायन मानी । तारन० ॥२॥ . / २६०। होरी आई आज रंग भरी है। रंग भरी रस भरी रसौं (2)भरी है ॥ होरी० ॥ टेक ॥ चेतन पिय आये Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपदसंग्रह । २८३। भजो जी भजो जिनचरनकमलको, छोड़ि विषय आमोद जी ॥ भजो० ॥टेक ॥ भाग उदय नरदेही पाई, अव मत जाहि निगोदै जी ॥ भजो० ॥१॥ विषय भोग पाहनके वाहन, भव-जलमाहिं डवो दै जी । धानत और फिकर तज भज प्रभु, जो चाहै सो सो दै जी ॥ भजो० ॥२॥ /२८४। • लगन मोरी पारससों लागी ॥ लगन० ॥ टेक ॥ कमठ-मान-भंजन मनरंजन, नाग किये वड़भागी ॥ लगन० ॥१॥ संकट चूरत मंगल मूरत, परम धरम अनुरागी । धानत नाम. सुधारस स्वादत, प्रेम भगति मति पागी ॥ लगन० ॥२॥ १२८५। वे साधौं जन गाई, कर करुनासुखदाई ॥०॥टेक॥ निरधन रोगी प्रान देत नहि, लहि तिहुँ जगठकुराई ॥ ३० ॥१॥ कोड़ रास कन मेरु हेम दे, इक जीवध अधिकाई ॥ वे० ॥ २ ॥ धाननु तीन लोक दुख पावक, मेघझरी वतलाई ॥ वे० ॥३॥ २८६ । । . __ आरसी देखत मन आर सी लागी ॥ आरसी० ॥ १ सुवर्ण । २ सुईसी चुभ गई। Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थभाग | १३५ टेक ॥ सेत वाल यह दूत कालको, जोवन मृग जरा चाघिनि खागी ॥ आरती० ॥ १ ॥ चक्री भरत भावना भाई, चौदह रतन नवों निधि त्यागी । द्यानत दीच्छा लेत महूरत, केवलज्ञान कला घट जागी ॥ आरती० ॥ २ ॥ २८७ । कहा री कहूं कछु कहत न आवै, बाह्नवल चल धीरज री ॥ कहा० ॥ टेक ॥ जल मलं दिष्ट जुद्धमें जीत्यो, भरत चक्रको वीरज री ॥ कहा० ॥ १ ॥ जोग लियो तन फेननि घर कियो, शोभा ज्यों अलि-नीरेंज री ॥ कहा० ॥ २ ॥ द्यानत बहुत दान तब दै हौं, पै हीँ चरननकी रज री ॥ कहा० ॥ ३ ॥ २८८ । हो श्रीजिनराज नीतिराजा ! कीजै न्याव हमारो ॥ हो० ॥ टेक ॥ चेतन एक सु मैं जड़ बहु ये, दोनों ओर निहारो ॥ हो० ॥ १ ॥ हम तुममाहिं भेद इन कीनों, दीनों दुख अति भारो ॥ हो० ॥ २ ॥ द्यानत सन्त जान सुख दीजै, दुष्टै देश निकारो ॥ हो० ॥ ३ ॥ -२८९ । अव समझ कही ॥ अव० ॥ टेक ॥ कौन कौन आपद विषयनितैं, नरक निगोद सही || अब० ॥ १ ॥ १ महयुद्ध | २ दृष्टियुद्ध । ३ सर्पने । ४ कमल । Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपदसंग्रह। एक एक इन्द्री दुखदानी, पांचौं दुखत नही ॥ अव० ॥२॥ द्यानत संजम कारजकारी, धरौ तरौ सव ही। अव० ॥३॥ २९०। सोई कर्मकी रेखपै मेख मारै ॥ सोई० ॥ टेक ॥ आपमें आपको आप धारै ॥ सोई० ॥१॥ नयो बंधन करे, बध्यो पूरव झरै, करज काढ़े न देना विचारै ॥ सोई० ॥ २ ॥ उदय विन दिये गल जात संवर सहित, ज्ञान संजुगत जव तप सँभारै ॥ सोई० ॥३॥ ध्यान तरवारसों मार अरि मोहको, मुकति तिय बदन धानत निहारै ।। 'सोई० ॥४॥ प्रभुजी मोहि फिकर अपार ॥ प्रभु० ॥ टेक ॥ दान प्रत नहिं होत हमपै, होहिंगे क्यों पार ॥ प्रभु ॥१॥ एक गुन थुत कहि सकत नहि, तुम अनन्त भंडार । भगति तेरी वनत नाहीं, मुकतकी दातार ।। प्रभु० ॥ २ ॥ एक भवके दोष केई, थूल कहूँ पुकार । तुम अनन्त जनम निहारे, दोष अपरंपार ॥ प्रभु० ॥३॥ नाव दीनदयाल तेरो, तरनतारनहार । वंदना द्यानत : करत है, ज्यों वनै त्यों तार ॥ प्रभु०॥४॥ __ . , . २९२।। तेरै मोह नहीं ॥ तेरै० ॥ टेक ॥ चक्री पूत सु Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थभाग | १३७ गुनघर वेटो, कामदेव सुत ही ॥ तेरें० ॥ १ ॥ नव भव नेह जानकै कीनों, दानी श्रेयस ही । मात निचै शिवगामी, पहले सुत सब ही || तेरै० ॥ २ ॥ विद्याधरके नृप कर कीनौं, साले गनधर ही । बेटीको गर्ननी पद दीनों, आरजिका सत्र ही ॥ तेरै० ॥ ३ ॥ पोता आप वरावर कीनों, महावीर तुम ही । द्यानत आपन जान करत हो, हम हू सेवक ही ॥ तेरै ० ॥ ४ ॥ २९३ । कर मन ! वीतरागको ध्यान || कर० ॥ टेक ॥ जिन जिनराज जिनिंद जगतपति, जगतारन जगजान ॥ कर० ॥ १ ॥ परमातम परमेस परमगुरु, परमानंद प्रधान | अलख आदि अनन्त अनूपम, अजर अमर अमलान || कर ॥ २ ॥ निरंकार अविकार निरंजन, नित निरमल निरमान । जती व्रती मुन ऋपी सुखी प्रभु, नाथ धनी गुन ज्ञान ॥ कर० ॥ ३ ॥ सित्र सरवज्ञ सिरोमनि साहब, सांई सन्त सुजान । द्यानत यह गुन नाममालिका, पहिर हिये सुखदान || कर० ॥ ४ ॥ २९४। 1 शुद्ध स्वरूपको वंदना हमारी ॥ शुद्ध० ॥ टेक ॥ एक रूप वसु रूप विराजे, सुगुन अनन्त रूप अवि१ आकाओं में मुख्य । Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ जैनपदसंग्रह। कारी ॥ शुद्ध० ॥ १ ॥ अमल अचल अविकलप अजलपी, परमानंद चेतना धारी ॥ शुद्ध० ॥२॥ द्यानतं द्वैतभाव तज हूजै, भाव अद्वैत सदा सुखकारी॥ शुद्ध० ॥३॥ २९५। चौवीसौंको वंदना हमारी ॥ चौवीसौं० ॥ टेक ॥ भवदखनाशक सुखपरकाशक, विधनविनाशक मंगलकारी ॥ चौवीसौं० ॥१॥ तीनलोक तिहुँकालनिमाहीं, इन सम और नहीं उपगारी ॥ चौवीसौं० ॥ ॥२॥ पंच कल्यानक महिमा लखकै, अदभुत हरप लहैं नरनारी ॥ चौवीसौं० ॥ ३॥ धानत इनकी कौन चलावै, विंव देख भये सम्यकधारी ॥ चौवीसौं० ॥४॥ - सेऊं स्वामी अभिनन्दनको ॥ सेऊ० ॥ टेक ॥ लेकै दीप धूप जल फल चरु, फूल अछत चंदनको ॥ सेऊ. ॥१॥ नाचौं गाय वजाय हरपसों, प्रीत करों चंदनको ।। सेऊ० ॥२॥ द्यानत भगतिमाहि दिन वीतें, जीतें भव फंदनको ।। सेऊं ॥३॥ २९७। एक समय भरतेश्वर स्वामी, तीन वात सुनी तुरत फुरतः ॥ एक०॥ टेक ॥ चक्र रतन प्रभुज्ञान जनम सुत, १ मौनावलम्बी। २:ऋषभदेवको केवलज्ञानका प्रगट होना । - - Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थभाग | १३९ पहले कीजै कौन कुंरत ॥ एक० ॥ १ ॥ धर्मप्रसाद सबै शुभ सम्पति, जिन पूजें सब दुरत दैरत । चक्र उछाह कियो सुत मंगल, द्यानत पायो ज्ञान तुरत ॥ एक० ॥ २ ॥ '२९८ । तू ही मेरा साहिव सच्चा सांई ॥ तू ही० ॥ टेक ॥ काल अनन्त रुल्यो जगमाहीं, आपद बहुविधि पाई ॥ तू ही० ॥ १ ॥ तुम राजा हम परजा तेरे, कीजिये न्याय न कांई ॥ तू ही ० ॥ २ ॥ द्यानत तेरा करमनि घेरा, लेहु छुड़ाय गुसाई ॥ तू ही ० ॥ ३ ॥ • २९९ । सच्चा सांई, तूही है मेरा प्रतिपाल || सच्चा० ॥ टेक ॥ तात मात सुत शरन न कोई, नेह लगा है तेरे नाल (१) ॥ - सच्चा० ॥ १ ॥ तनदुख मनदुख जनदुख माहीं, सेवक निपट विहाल || सच्चा० ॥ २ ॥ द्यानत तुम वहु तारनहारे, हमहुको लेहु निकाल || सच्चा० ॥ ३ ॥ ३०० । इस जीवको, यों समझाऊं री ! | इस० ॥ टेक ॥ अरस अफरस अगंध अरूपी, चेतन चिन्ह बताऊं री || इस० ॥ १ ॥ तत तत तत तत, थेई घेई घेई येई तन ननं री री गाऊं री ॥ इस० ॥ २ ॥ द्यानत, १ कृत्य-काम । २ पाप । ३ दूर भागें । Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० जैनपदसंग्रह। सुमत कहै सखियनसों, सोहं सीख सिखाऊं री ॥ इस० ॥३॥ मैं न जान्यो री ! जीव ऐसी करैगो ॥ मैं०॥टेक।। मोसौं विरति कुमतिसों रति कै, भवदुख भूरि भरैगो । मैं ॥१॥ खारथ भूलि भूलि परमारथ, विपयारथमें परैगो ॥ मैं० ॥२॥ द्यानत जव समतासों राचे, तब सब काज सरैगो ॥ मैं० ॥३॥ ३०२। तुम चेतन हो ॥ तुम० ॥ टेक ॥ जिन विषयनि सँग दुख पाचै सो, क्यों तज देत न हो ॥ तुम० ॥१॥ नरक निगोद कषाय भमाचे, क्यों न सचेतन हो । तुम० ॥२॥ द्यानत आपमें आपको जानो, परसों हेत न हो । तुम० ॥३॥.. तें कहुँ देखे नेमिकुमार ॥ तै० ॥ टेक ॥ पशुगन बंध छुड़ावनिहारे, मेरे प्रानअधार ॥ तै० ॥१॥ बालब्रह्मचारी गुनधारी, कियो मुकतिसों प्यार ॥ तें ॥२॥ धानत कव मैं दरसन पाऊं, धन्य दिवस धनि बार ॥ तै०॥३॥ - - - १ सिद्ध होगा। २ ममत्व । Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थभाग। ३०४। कौन काम मैंने कीनों अब, लीनों नरक निवास हो ॥ कौन० ॥ टेक ॥ बहुतनि तप करि सुर शिव साध्यो, मैं साध्यो दुखरास हो ॥ कौन० ॥१॥ नरभव लहि वहु जीव सताये, साधे विपय विलास हो। पीतम रिपु रिपु पीतम जाने, मिथ्यामत-विसवास हो॥ कौन० ॥२॥ धनके साथी जीव बहुत थे, अव दुख एक न पास हो । यहां महादुख भोग शूटिये, राग दोपको नास हो ॥ कौन० ॥३॥ देव धरम गुरु नक तत्त्वनिकी, सरधा दिढ़ अभ्यास हो । धानत हौं सुखमय अविनाशी, चेतनजोति प्रकाश हो ॥ कौन० ॥४॥ ३०५। नेमीश्वर खेलन चले, रंग हो हो होरी, सुगुन सखा संग भूप रंग, रंग हो हो होरी ॥ नेमीश्वर ॥ टेक ॥ महा विराग वसन्तमें, रंग हो हो होरी। समझ सुवास अनृप रंग, रंग हो हो होरी ॥ नेमीश्वर० ॥१॥ बसन महाव्रत धारकै, रंग हो हो होरी । छिरके छिमा वनाय रंग, रंग हो हो होरी। पिचकारी कर प्रीतिकी रंग रंग हो हो होरी । रीझ रंग अधिकाय रंग, रंग हो हो होरी ॥ नेमीश्वर० ॥२॥ ज्ञान गुलाल सुहावनी रंग, रंग हो हो होरी । अनुभव अतर सुख्याल - १ प्यारे मित्र । - - Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ जैनपदसंग्रह। रंग, रंग हो हो होरी । प्रेम पखावज वजत रंग, रंग हो हो होरी । तत्त्व स्वपर दो ताल रंग, रंग हो हो होरी ॥ नेमीश्वर० ॥३॥ संजम सिरनी अति भली रंग, रंग हो हो होरी । मेवा मगन सुभाव रंग, रंग हो हो होरी । सम रस सीतल फल लहै रंग, रंग हो हो . री । पान परम पद चाव रंग, रंग हो हो होरी ॥ नेमीश्वर० ॥ ४ ॥ आतम ध्यान अगन भई रंग, रंग हो हो होरी । करम काठ समुदाय रंग, रंग हो होहोरी । धर्म धुलहड़ी खेलकै रंग, रंग हो हो होरी । सदा सहज सुखदायं रंग, रंग हो हो होरी ॥ नेमीश्वर० ॥ ५ ॥ रजमति मनमें कहति है रंग, रंग हो हो होरी । हम तजि भजि शिव नारि रंग, रंग हो हो हो होरी। धानत हम कब होहिंगे रंग, रंग हो हो होरी । शिववनिताभरतार रंग, रंग हो हो होरी ॥ नेमीश्वर० ॥६॥. ३०६ । सोई ज्ञान सुधारस पीवै ॥ सोई० ॥ टेक ॥ जीवन दशा मृतक करि जाने, मृतक दशामें जीवै ॥ सोई० ॥१॥ सैनदशा जाग्रत करि जाने, जागत नाहीं सोवै। मीतौंको दुशमन करि जाने, रिपुको प्रीतम जोवै ॥ सोई० ॥२॥ भोजनमाहिं वरंत करि बूझै, व्रतमें १ सोनेकी दशाको । २ मित्रोंको । Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थभाग। १४३ होत अहारी । कपड़े पहिरै नगन कहावै, नागा अंवरधारी ॥ सोई० ॥ ३ ॥ वस्तीको ऊजर कर देखै, ऊजर वस्ती सारी । धानत उलट चालम सुलटा, चेतनजोति निहारी ॥ सोई० ॥४॥ ३०७ आतम अनुभव कीजिये, यह संसार असार हो । आतम० ॥ टेक ॥ जैसो मोती ओसको, जात न लागै वार हो ॥ आतम० ॥१॥ जैसे सब पनिजीवि, पैसा उतपत सार हो। तसैं सब ग्रंथनिवि, अनुभव हित निरधार हो ॥ आतम० ॥२॥ पंच महाव्रत जे गर्दै, सह परीपह भार हो । आतमज्ञान लखें नहीं, वृहुँ कालीधार हो । आतम० ॥ ३ ॥ बहुत अंग पूरव पढ्यो, अभयसेन(?) गँवार हो । भेदविज्ञान भयो नहीं, रुल्यो सरख संसार हो ॥ आतम० ॥४॥ बहु जिनवानी नहिं पढ़यो, शिवभृती अनगार हो । घोप्यो तुप अरु मापको, पायो मुकतिदुवार हो ॥ आतम० ॥५॥ जे सीझे जे सीझ हैं, जे सी इहि वार हो। ते अनुभव परसादत, यों भाप्यो गनधार हो ॥ आतम० ॥ ॥६॥ पारस चिन्तामनि सर्वे, सुरतरुआदि अपार १ यत्रधारी। २ व्यापारोंमें । ३ उत्पत्ति, प्राप्ति । ४ मुनि । ५ उड़द की दालसे जैसे उसका छिलका भिन्न है, इसी तरह आत्माले शरीर भिन्न है, ऐसा कहते २ । Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ . जैनपदसंग्रह। हो । ये विषयासुखको करैं; अनुभवसुख सिरदार हो ॥ आतम० ॥ ७ ॥ इंद फनिंद नरिंदके, भाव सराग विथार हो। धानत ज्ञान विरागते, तद्भव मुकतिमँझार हो ॥ आतम० ॥८॥ ३०८1 जानौं पूरा ज्ञाता सोई ॥ जानों० ॥ टेक ॥रागी नाहीं रोषी नाहीं, मोही नाहीं होई ॥ जानौं० ॥१॥ क्रोधी नाहीं मानी नाहीं, लोभी धी ना ताकी । ज्ञानी ध्यानी दानी जानी, वानी मीठी जाकी ॥ जानौं। ॥२॥ सांई सेती सच्चा दीसै, लोगोंहूका प्यारा । काहू जीका दोषी नाहीं, नीका पैंडा धारा ॥ जानौं ॥३॥ काया सेती माया सेती, जो न्यारा है भाई । धानत ताको देखै जान, ताहीसों लौ लाई ॥ जानौं० ॥ ४ ॥ .३०९। : प्रभुजी प्रभू सुपास ! जगवासतें दास निकास ॥ प्रमु०॥ टेक ॥ इंदके खाम फनिंदके खाम, नरिंदके चन्दके खाम । तुमको छांड़के किसपै जायें, कौनका ढूंदें धाम ॥ प्रभु० ॥ १ ॥ भूप सोई दुख दूर करै है, साह सोई दै दान । वैद सोई सव रोग मिटावै, तुमी सवै गुनवान ॥ प्रभु० ॥२॥ चोर अंजनसे तार लिये हैं, जार कीचकसे राव । हम तो सेवक सेव करै हैं, नाम १ बुद्धि । Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपदसंग्रह। साता होत कछुक सुख मान, होत असाता रोवै । ये. दोनों हैं कर्म अवस्था, आप नहीं किन जोवै ॥ औरन सीख देत बहु नीकी, आप न आप सिखावै । सांचसाच कछु झूठ रंच नहि, याहीत. दुख पावै ॥ चेतन०. ॥६॥ पाप करत बहु कष्ट होत है, धरम करत मुख. भाई.! वाल गुपाल सबै इम भा, सो कहनावत. आई। दुहिमें जो तोकौं हित लागै, सो कर मनवचकाई। तुमको बहुत सीख क्या दीजे, तुम त्रिभुवनके राई ॥ चेतन० ॥७॥ त्रस पंचेन्द्रीसेती मानुप, औसर फिर नहिं पै है । तन धन आदि सकल सामग्री देखत देखत जै है ॥ समझ समझ अब ही तू प्राणी ! दुरगतिमें: पछतैहै । भज- अरहन्तचरण जुग द्यानत, वहुरि न जगमें ऐ है ॥ चेतन० ॥ ८॥ . . . . ३१७ । राग-सोरठ। .. प्राणी! आतमरूप अनूप है, · परतें भिन्न त्रिकाल ॥ प्राणी ॥ टेक ॥ यह सब कर्म उपाधि है, राग दोप भ्रम जाल ॥ प्राणी० ॥१॥ कहा भयो काई लगी, आतम दरपनमाहिं ।: ऊपरली ऊपर रहै, अंतर पैठी नाहि ॥ प्राणी ॥२॥ भूलि जेवरी अहि मुन्यो, झूठ लख्यो नररूप । त्यों ही पर निज मानिया, वह जड़ तू चिद्रूप प्राणी ॥ ३. ॥ जीव-कनक तन-मैलके, भिन्न भिन्न परदेश । माह माह संध है, मिलें नहीं लव Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थभाग। १४९० लेश ॥ प्राणी० ॥४॥ घन करमनि आच्छादियो, ज्ञानभानपरकाश । है ज्योंका यों शाखता, रंचक; होय न नाश ॥ प्राणी० ॥ ५॥ लाली झलकै फटिकमें फटिक न लाली होय । परसंगति परभाव है, शुद्धखरूप न कोय ॥ प्राणी० ॥६॥ त्रस थावर नर नारकी, देव आदि बहु भेद । निहचै एक खरूप हैं, ज्यों पट सहज सुपेद ॥ प्राणी० ॥ ७ ॥ गुण ज्ञानादि अनन्त हैं, परजय सकति अनन्त । द्यानत अनुभव कीजिये, याको यह सिद्धन्त ॥ प्राणी ॥८॥ ३१८ । राग-बिलावल | · · ". सबमें हम हममें सव ज्ञान, लखि वैठे दृढ़ आसन तान ॥ सर्वमें० ॥ टेक ॥ भूमिमाहिं हम हममें भूमि, क्यों करि खोर्दै धामाधूम ॥ सबमें ॥ १ ॥ नीर-: माहिं हम हममें नीर, क्यों करि पीवें एक शरीर ॥ सवम० ॥२॥ आगमाहिं हम हममें आगि; क्यों करि जालै हिंसा लागि ॥ सवमें० ॥ ३॥ पौन माहि हम हममें पौन, पंखा लेय विराधै कौन ॥ सवमें ॥४॥ रूखमाहिं हम हममें रूख, क्योंकरि तोड़ें लागें भूख ॥ सबमें० ॥५॥ लट चैंटी माखी हमः एक, कौन सतावै धारि विवेकः ॥ सवमें० ॥६॥ खग मृग मीन सवै हम जात, सबमें चेतन एक विख्यात । सबमें० ॥ ७॥ सुर नर नारक हैं हम रूप, Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० जैनपदसंग्रह। सक्में दीसै है चिद्रूप ॥ सबमें० ॥ ८॥ वालक वृद्ध तरुन तनमाहि, पंढ नारि नर धोखा नाहि ॥ सवमें. ॥९॥ सोवन वैठन वचन विहार, जतनं लिये आहार निहार ॥ सबमें ॥ १०॥ आयो लैंहिं न न्यौते जाहिं, परघर फासू भोजन खाहिं। सबमें०॥ ११ ॥ पर संगतिसों दुखित अनाद, अव एकाकी अम्रत खाद ॥ सवमें० ॥ १२ ॥ जीव न दीसे है जड़ अंग, राग दोष कीजै किहि संग ॥ सवमें० ॥ १३ ॥ निरमल तीरथ आतमदेव, द्यानत ताको निशिदिन सेव ॥ सबमें ॥१४॥ ३१९ । राग-आसावरी जोगिया। , कलिमें ग्रंथ बड़े उपगारी ॥ कलि. ॥ टेक ॥ देव शास्त्र गुरु सम्यक सरधा, तीनों जिनतें धारी॥कलि. ॥१॥तीन वरस वसु मास पंद्र दिन, चौथा काल रहा था। परम पूज्य महावीरखामि तव, शिवपुरराज लहा था ॥ कलि० ॥२॥ केवलि तीन पांच श्रुतिकेवलि, पी गुरुनि विचारी । अंगपूर्व अव हैं न रहेंगे, वात लिखी थिरथारी ॥ कलि० ॥३॥ भविहित कारन धर्मविधारन, आचारजों बनाये । वह तिन तिनकी टीका कीनी, अदभुत अरथ समाये ॥ कलि० ॥४॥ केवल श्रुतकेवलि यहां नाहीं, मनि . १ नपुंसक । २ यत्नपूर्वक । ३ प्राशुक । Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५१ चतुर्थभाग। गुन प्रगट न सूझै । दोऊ केवलि आज यही है, इनहीको मुनि बूझै ॥ कलि० ॥ ५॥ बुद्धि प्रगट कर आप वांचिये, पूजा वंदन कीजै । दरव खरच लिखवाय सुधाय सु, पण्डित जन बहु दीजै ॥ कलि० ॥६॥ पढ़तें सुनतें चरचा करतें, द्वै संदेह जु कोई । आगम माफिक ठीक कर के, देख्यो केवल सोई ॥ कलि. ॥७॥ तुच्छबुद्धि कछु अरथ जानिकै, मनसों विंग उठाये । औधज्ञानि श्रुतज्ञानी मानो, सीमंधर मिलि आये ॥ कलि० ॥ ८॥ यह तो आचारज है सांचो, ये आचारज झूठे । तिनके ग्रंथ पढ़ें नित वर्दै, सरधा ग्रंथ अपूठे ॥ कलि० ॥९॥ सांच झूठ तुम क्यों करि जान्यो, झूट जानि क्यों पूजो। खोट निकाल शुद्ध करि राखो, और वनावो दूजो ॥ कलि० ॥ १० ॥ कौन सहामी वात चलावै, पूछे आनमती तौ । ग्रंथ लिख्यो तुम क्यों नहिं मानौ, ज्वान कहा कहि जीतौ ॥ कलि० ॥ ११ ॥ जैनी जैनग्रंथके निंदक, हुण्डासर्पिनि जोरा । धानत आप जान चुप रहिये, जगमें जीवन थोरा ॥ कलि० ॥ १२ ॥ ३२०। कीजे हो भाईयनिसों प्यार ॥ कीजे० ॥ टेक ॥ नारी सुत बहुतरे मिल हैं, मिलें नहीं मा जाये यार ॥ कीजे० ॥ १॥ प्रथम लराई कीजे नाहीं, जो लड़िये Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनपदसंग्रह | १.१२. तो नीति विचार । आप सलाह किधौं पंचनिमें, दुई. चढ़िये ना हाकिम द्वार ॥ कीजे ० ॥ २ ॥ सोना रूपा बासन कपड़ा, घर हाटनकी कौन शुमार | भाई नाम वरन दो ऊपर, तन मन धन सब दीजे वार ॥ कीजे ० ॥ ३ ॥ भाई बड़ा पिता परमेश्वर, सेवा कीजे तजि हंकार | छोटा पुत्र ताहि सव दीजे, वंश वेल विरधै . अधिकार ॥ कीजे० ॥ ४ ॥ घर दुख बाहिरसों नहिं टूटै, बाहिर दुख घरसों निरवार । गोत घाव नहिं चक्र करत है, अरि सब जीतनको भयकार ॥ कीजे ० ॥ ५ ॥ कोई कहै नैं भाईको, राज काज नहिं दोप लगाऱ । यह कलिकाल नरकको मारग, तुरकनिमें हममें न निहार ॥ कीजे ० ॥ ६ ॥ होहि हिसावी तो गम खइये, नाहक झगड़े कौन गँवार । हाकिम लूटें पंच विगूचैं, मिलें नहीं वे आँखें चार ॥ कीजै० ॥ ७ ॥ पैसे कारन लड़ें निखट्टू, जानें नाहिं कमाई सार । उद्यममें लछमीका बासा, ज्यों पंखे में पवन चितार ॥ कीजे ० . ॥ ८ ॥ भला न भाई भाव न जामें, भला पड़ौसी जो हितकार । चतुर होय परन्याव चुकावै, शठ निजः न्याय पराये द्वारं ॥ कीजे० ॥ ९ ॥ जस जीवन अपजस मरना है, धन जोवन विजली उनहार । द्यानत .. १ तुकोंमें अर्थात् मुगलोंमें । राजके लिये वे भाईयों को मार डालते थे । • → Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थभाग । १५३ चतुर छमी सन्तोषी, धरमी ते विरले संसार ॥ कीजे० ॥ १० ॥ ३२१ क्रोध कंपाय न मैं करौं, इह परभव' दुखदाय हो ॥ टेक | गरमी व्यापै देहमें, गुनसमूह जलि जाय हो ॥ क्रोध० ॥१॥ गारी दै माखो नहीं, मारि कियो नहिं दोर्य हो । दो करि समता ना हरी, या सम मीत न कोय हो । क्रोध० ॥२॥ नासै अपने पुन्यको, काटै मेरो पाप हो । ता प्रीतमसों रूसिकै, कौन सहै सन्ताप हो ॥ क्रोध० ॥३॥ हम खोटे खोटे कहैं, सांचेसों न विगार हो । गुन लखि निंदा जो करै, क्याः लावरसों रार हो । क्रोध० ॥ ४ ॥ जो दुरजन दुख दै नहीं, छिमा न है परकास हो । गुन परगट करि सुख करें, क्रोध न कीजे तास हो । क्रोध० ॥५॥ क्रोध कियेसों कोपिये, हमें उसे क्या फेर हो । सज्जन दुरजन एकसे, मन थिर कीजे मेरै हो । क्रोध०॥६॥ बहुत कालसों साधिया, जप तप संजम ध्यान हो । तासु परीक्षा लैनको, आयो समझो ज्ञान हो ॥ क्रोध०॥७॥ आप कमायो भोगिये, पर दुख दीनों झूठ हो । धानत परमानन्द मय, तू जगसों क्यों रूठ हो। क्रोध० ॥८॥ १ दो टुकड़े तो न किये । २ झूठेसे। ३ लड़ाई। ४ सुमेरुके समान। Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ जैनपदसंग्रह। ३२२ । राग-सोरठमें ख्याल । . ___ भाई काया तेरी दुखकी ढेरी, विखरत सोच कहा है। तेरे पास सासतौ तेरो, ज्ञानशरीर महा है । भाई० ॥१॥ज्यों जल अति शीतल है काचौ, भाजन दाह दहा है (१) । यो ज्ञानी सुखशान्त कालका, दुख समभाव सहा है ॥ भाई० ॥२॥ वोदे उतरे नये पहिरतें, कौंने खेद गहा है । जप तप फल परलोक लहैं जे, मरकै वीर कहा है ॥ भाई० ॥३॥ द्यानत अन्तसमाधि चहैं मुनि, भागों दाव लहा है। वहु तज मरण जनम दुख पावक, सुमरन धार वहा है ।। भाई०॥४॥ ३२३ । मंगल आरती राग- भैरों। मंगल आरती कीजे भोर, विधनहरन सुखकरन किरोर ॥ मंगल ॥ टेक ॥ अरहत सिद्ध सूरि उवझाय, साधु नाम जपिये सुखदाय ॥ मंगल ॥१॥ नेमिनाथ स्वामी गिरनार, वासुपूज्य चम्पापुर धार । पावापुर महावीर मुनीश, गिरि कैलास नमो आदीश ॥ मंगल. ॥२॥ सिखर समेद जिनेश्वर वीस, वंदों सिद्धभमि निशिदीस । प्रतिमा खर्ग मत्यै पाताल, पूजों कृत्य अकृत्य त्रिकाल ॥ मंगल ॥३॥ पंच कल्याणक काल १ द्यानतजीकी दश आरती हमने अलग छपाई हैं, इसरि इस पदसंग्रहमें शामिल नहीं की हैं । प्रकाशक । Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थभाग । १५५ नमामि, परम उदारिक तन गुणधाम । केवलज्ञान आतमाराम, यह पटविधि मंगल अभिराम ॥ मंगल ।। ॥४॥ मंगल तीर्थकर चौवीस, मंगल सीमंधर जिन वीस । मंगल श्रीजिनवचन रसाल, मंगल रतनत्रय गुनमाल ।। मंगल ॥ ५ ॥ मंगल दशलक्षण जिनधर्म, मंगल सोलहकारन पर्म मंगल बारहमावन सार, मंगल संघ चारि परकार ॥ मंगल ॥६॥ मंगल पूजा श्रीजिनराज, मंगल शास्त्र पढ़े हितकाज । मंगल सतसंगति समुदाय, मंगल सामायिक मन लाय ॥ मंगल०॥७॥ मंगल दान शील तप भाव, मंगल मुक्ति वधूको चाव । धानत मंगल आठौं जाम, मंगल महा मुक्ति जिनखाम ॥ मंगल० ॥८॥ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस संग्रहमें पंजाबी भाषाके कई एक पद ऐसे छाप दिये गये हैं, जो मूर्ख लेखकोंकी कृपासे रूपान्तरिक हो गये हैं और पंजाबी भाषा नहीं जाननेसे हमारे द्वारा उनका संशोधन ठीक ठीक नहीं हो सका है। आशा है कि, इस विषयमें पाठक हमको क्षमा प्रदान करेंगे। ___ इस संग्रहकी प्रेसकापी हमारे एक इन्दौरनिवासी मित्रने इ. न्दौरके जैनमन्दिरकी. एक हस्तलिखित प्रतिपरसे करके भेजी है और उसका संशोधन हमने अपने पासकी एक दूसरी प्रतिपरसे किया है। बस इन दो प्रतियोंके सिवाय बुधजनविलासकी और कोई प्रति हमें नहीं मिल सकी। ___ कविवर बुधजनजीका यथार्थ नाम पं० विरधीचन्दजी था। आप खंडेलवाल थे और जयपुरके रहनेवाले थे । आपके बनाये हुए चार ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं और वे चारों ही छन्दोबद्ध हैं। १ तत्त्वार्थबोध, २ बुधजनसतसई, ३ पंचास्तिकाय, और .४ बुधजनविलास ।ये. चारों ग्रन्थ क्रमसे विक्रम संवत, १८७१-८१-९१ और ९२ में बनाये गये हैं। बस आपके विषयमें हमको इससे अधिक परिचय नहीं मिल सका। बम्बई-चन्दावाड़ी। श्रावणकृष्णा८श्रीवीर नि० २४३६ । नाथूराम प्रेमी। Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ टेक ॥ ज्यौं तिरषातुर असत पीवत, चातक अंवुद धार | वानी सुनि० ॥१॥ मिथ्या तिमिर गयो ततखिन ही, संशयभरम निवार । तत्त्वारथ अपने उर दरस्यौ, जानि लियो निज सार ॥ वानी सुनि० ॥२॥ इंद नरिंद फनिंद पैदीधर, दीसत रंक लगार । ऐसा आनंद वुधजनके उर, उपज्यौ अपरंपार ॥ वानी सुनि० ॥३॥ (१२) राग-अलहिया। चन्दजिनेसुर नाथ हमारा, महासेनसुत लगत पियारा ॥ चन्द० ॥ टेक ॥ सुरपति नरपति फनिपति सेवत, मानि महा उत्तम उपगारा । मुनिजन ध्यान धरत उरमाहीं, चिदानंद पदवीका धारा ॥ चन्द०॥ १॥ चरन शरन वुधजनजे आये, तिन पाया अपना पद सारा। मंगलकारी भवदुखहारी, स्वामी अद्भुतउपमावारा ॥ चन्द० ॥२॥ (१३) राग-अलहिया विलावल-ताल धीमा तेताला। करम देत दुख जोर, हो साइँयां ।। करम० ॥ टेक ॥ कैइ परावृत पूरन की., संग न छांडत मोर, हो साइयां ॥ करम० ॥१॥ इनके वशर्ते मोहि वचावो, महिमा सुनी अति तोर, हो साइयां ।। करम० ॥२॥ वुधजनकी विनती तुमहीसौं, तुमसा प्रभु नहिं और, हो साइयां ॥ करम० ॥३॥ . . १ मेघ । २ पदवीधर । Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राग-बिलावल धीमो तेतालो। नरभव पाय फेरि दुख भरना, ऐसा काज न करना हो । नरभव०॥ टेक ॥ नाहक ममत ठानि पुद्गलसौं, करमजाल क्यों परना हो ॥ नरभव० ॥१॥ यह तो जड़ तू ज्ञान अरूपी, तिल तुप ज्यों गुरु वरना हो । राग दोप तजि भजि समताकों, कर्म साथके हरना हो । नरभव० ॥२॥ यो भव पाय विषय-सुख सेना, गज. चढ़ि ईंधन ढोना हो । बुधजन समुझि सेय जिनवर पद, ज्यौं भवसागर तरना हो । नरभव० ॥३॥ राग-बिलावल इकतालो। सारद ! तुम परसादतें, आनंद उर आया ॥ सारद० ॥ टेक ॥ ज्यों तिरसातुर जीवकों, अम्रतजल पाया ॥ सारद० ॥१॥ नय परमान निखेपते, तत्त्वार्थ बताया। भाजी भूलि मिथ्यातकी, निज निधि दरसाया ॥ ॥ सारद० ॥२॥ विधिना मोहि अनादितें, चहुँगति भरमाया । ता हरिवेकी विधि सबै, मुझमाहिं बताया ॥ सारद० ॥३॥ गुन अनन्त मति अलपत, मोपै जात न गाया । प्रचुर कृपा लखि रावरी, वुधजन हरपाया ॥ सारद०॥४॥ (१६) गुरु दयाल तेरा दुख लखिकै, सुन लै जो फुरमावै है ॥ गुरु० ॥ तोमै तेरा जतन वतावै, लोभ कछु नहिं Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sसारी। चावै है। गुरु०॥१॥ पर सुभावको मोखा चाहै, अपना उसा बनावै है । सो तो कवहूं हुवा न होसी, नाहक रोग लगावै है । गुरु० ॥२॥ खोटी खरी जस करी कुमाई, तैसी तेरै आवै है। चिन्ता आगि उठाय हियामैं, नाहक जान जलावै है ।। गुरु० ॥३॥ पर अपनावै सो दुख पावै, वुधजन ऐसे गाव है। परको त्यागि आप थिर तिष्टै, सो अविचल सुख पावै है ॥ गुरु०॥४॥ (१७) राग-आसावरी। अरज ह्मारी मानो जी, याही मारी मानो, भवदधि हो तारना मारा जी ॥ अरज० ॥ टेक । पतितउधारक पतित पुकार, अपनो विरद पिछानो ॥ अरज० ॥१॥ मोह मगर मछ दुख दावानल, जनसमरन जल जानो । गति गति भ्रमन भँवरमैं डूवत, हाथ पकरि ऊंचो आनो ॥ अरज० ॥२॥ जगमैं आन देव बहु हेरे, मेरा दुख नहिं भानो । वुधजनकी करुना ल्यो साहिब, दीजे अविचल थानो ॥ अरज० ॥३॥ (१८) - राग-आसावरी जोगिया ताल धीमो तेतालो। तूकाई चालै लाग्यो रे लोभीड़ा, आयो छै वुढ़ापो॥तू० ॥ टेक ॥ धंधामाहीं अंधा है कै, क्यों खोवै छै आपो रे ॥ तू० ॥ १॥ हिमत घटी थारी सुमत मिटी छै, भाजि गयो तरुणापो। जम ले जासी सब रह जासी, सँग जासी १ सरीखा। Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुर्न पापो रे ।। तू. २ ॥ जग स्वारथको कोई न तेरो, यह निहर्च उर थापो। बुधजन ममत मिटावौ मनतें, करि मुख श्रीजिनजापो रे ॥ तू० ॥३॥ राग-आसावरी जोगिया ताल धीमो तेतालो। थे ही मोन तारो जी, प्रभुजी कोई न हमारो ॥ थे ही० ॥ टेक ॥ई एकाकि अनादि कालते, दुख पावत हूं भारो जी॥थे ही०॥१॥ घिन मतलवके तुम ही स्वामी, मतलबको संसारो । जग जन मिलि मोहि जगमै राखें, तू ही कादनहारो॥थे ही० ॥ २ ॥ वुधजनके अपराध मिटायो, शरन गह्यो छ थारो । भवदधिमाहीं डूबत मोकी, कर गहि आप निकारो ॥थे ही० ॥३॥ राग-आसावरी मांझं, ताल धीमो एकतालो। प्रभूजीअरज ह्मारी उर धरोप्रभू जी० ॥टेका। प्रभू जी नरक निगोद्यांम रुल्यो, पायौ दुःख अपार॥ प्रभूजी०॥१॥ प्रभू जी, हूं पशुगतिमें ऊपज्यौ, पीठ सह्यौ अतिभार ॥ प्रभू जी० ॥२॥ प्रभू जी, विपय मगनमैं सुर भयो, जात न जान्या काल ॥ प्रभू जी० ॥ ३ ॥ प्रभू जी, नरभव कुल श्रावक लह्यो, आयो तुम दरवार ॥ प्रभू जी० ॥ ४ ॥ प्रभू जी, भव भरमन वुधजनतनों, भेटौ करि उपगार ॥ प्रभू जी० ॥ ५ ॥ १ पुण्य-शुभ कर्म । Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) (२१) राग-आसावरी। जगतमैं होनहार सोहोवै,सुर तृप नाहिं मिटावै॥ जगत० ॥ टेक ॥ आदिनाथसेकौं भोजनमैं, अन्तराय उपजावै। पारसप्रभुकौं ध्यानलीन लखि, कमठ मेघ वरसावै॥जगत० ॥१॥ लखमणसे सँग भ्राता जाकै, सीता राम गमावै। प्रतिनारायण रावणसेकी, हनुमत लंक जरावै ॥ जगत० ॥२॥ जैसो कमावै तैसो ही पावै, यों वुधजन समझाव। आप आपकौं आप कमावौ, क्यों परद्रव्य कमावै ॥ जगत० ॥३॥ (२२) ___ राग-आसावरी जलदतेतालो। आU कहा करसी भैया, आजासी जब काल रे॥आगें० ॥ टेक ॥ ह्यां तौ तैनै पोल मचाई, व्हां तौ होय समाल रे ॥ आगैं० ॥१॥ झूठ कपट करि जीव सताये, हस्या पराया माल रे । सम्पतिसेती धाप्या नाही, तकी विरानीवाल रे ॥ आ-० ॥२॥ सदा भोगमैं मगन रह्या तू, लख्या नहीं निज हाल रे । सुमरन दान किया नहिं भाई, हो जासी पैमाल रे ॥ आगैं० ॥३॥ जोवनमैं जुवती सँग भूल्या, भूल्या जव था बाल रे । अव हू धारो वुधजन समता, सदा रहहु खुशहाल रे ॥ आगे०॥४॥ (२३) ताद . राग-आसावरी जोगिया जलद तेतालो। चेतन, खेल सुमतिसँग होरी । चेतन०॥ टेक ॥ तोरि • १ संतुष्ट नहीं हुआ। २ दूसरेकी । ३ स्त्री। ४ पायमाल-नष्ट । Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) आनकी प्रीति सयाने, भली वनी या जोरी ॥ चेतन ॥१॥ डगर डगर डोले है यों ही, आव आपनी पोरी' निज रस फगुवा क्यों नहिं वांटो, नातर ख्वारी तोरी ॥ चेतन० ॥ २ ॥ छोर कपाय त्यागि या गहि लै, समकित केसर घोरी । मिथ्या पाथर डारि धारि लै, निज गुलालकी झोरी ।। चेतन० ॥३॥ खोटे भेप धरै डोलत है, दुख पाचै वुधि भोरी । वुधजन अपना भेप सुधारो, ज्यौं विलसो शिवगोरी ॥ चेतन०॥४॥ (२४) राग-आसावरी जोगिया जल्द तेतालो। हे आतमा! देखी दुति तोरी रे॥ हे आतमा०॥टेक॥ निजको ज्ञात लोकको ज्ञाता, शक्ति नहीं थोरी रे ॥ हे आतमा० ॥१॥ जैसी जोति सिद्ध जिनवरमैं, तैसी ही मोरी रे॥ हे आतमा० ॥२॥ जड़ नहिं हुवो फिर जड़के वसि, के जड़की जोरी रे ॥ हे आतमा० ॥३॥ जगके काजि करन जग टहलै, वुधजन मति भोरी रे ॥ हे आतमा०॥४॥ वावा! मैं न काहू का, कोई नहीं मेरा रे॥वावा० ॥टेका। सुर नर नारक तिरयक गतिम, मोकौं करमन घेरा रे ॥ बावा० ॥१॥ मात पिता सुत तिय कुल परिजन, मोह गहल उरझेरा रे। तन धन वसन भवन जड़ न्यारे, हूं चि१ पार-घर । २ धूल । Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) टेक ॥ विधना मोकौं चहुगति फेरत, बड़े भाग तुम दरशन पाया | तारो० ॥१॥ मिथ्यामत जल मोह मकरजुत, भरम भौंरमैं गोता खाया । तुम मुख वचन अलंचन पाया, अब वुधजन उरमैं हरपाया ॥ तारो० ॥२॥ (४६) भवदधि-तारक नवका, जगमाहीं जिनवान ॥ भव०॥ टेक ॥ नय प्रमान पतवारी जाके, खेवट आतमध्यान ।। भव०॥ १॥ मन वच तन सुध जे भवि धारत, ते पहुँचंत शिवथान । परत अथाह मिथ्यात भँवर ते, जे नहिं गहत अजान ॥ भव०॥२॥ विन अक्षर जिनमुखतें निकसी, परी वरनजुत कान । हितदायक वुधजनकों गनधर, गूंथे ग्रंथ महान ॥ भव०॥३॥ · राग-धनासरी धीमो तितालो। प्रभु, थांसूं अरज हमारी हो ॥ प्रभु० ॥ टेक ॥ मेरे हितू न कोऊ जगतमैं, तुम ही हो हितकारी हो ॥ प्रभु० ॥१॥ संग लग्यौ मोहि नेकू न छोड़े, देत मोह दुख भारी। भववनमाहिं . नचावत मोकौं, तुम जानत हौ सारी ॥ प्रभु० ॥२॥ थांकी महिमा अगम अगोचर, कहि न सकै बुधि म्हारी। हाथ जोरकै पाय परत हूं, आवागमन निवारी हो ॥ प्रभु०॥३॥ (४८) तथा: याद प्यारी हो, म्हांनै थांकी याद प्यारी । हो म्हांनै० ॥ टेक ।। मात तात अपने स्वारथके, तुम हितु परउप Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१ ) गारी ॥ हो म्हां ॥ १ ॥ नगन छवी सुन्दरता जापै, कोटि काम दुति वारी । जन्म जन्म अवलोकौं निशिदिन, बुधजन जा वलिहारी ॥ हो म्हांनें० ॥ २ ॥ ( ४९ ) राग - गौड़ी ताल आदि तितालो । अरे हाँ रे तैं तो सुधरी बहुत बिगारी ॥ अरे० ॥ टेक ॥ ये गति मुक्ति महलकी पौरी, पाय रहत क्यौं पिछारी ॥ अरे० ॥ १ ॥ परकौं जानि मानि अपनो पद, तजि ममता दुखकारी । श्रावक कुल भवदधि तट आयो, वूड़त क्यौं रे अनारी ॥ अरे० ॥ २ ॥ अबहूं चेत गयो कछु नाहीं, राखि आपनी वारी । शक्तिसमान त्याग तप करिये, तव बुधजन सिरदारी ॥ अरे० ॥ ३ ॥ (५०) राग - काफी कनड़ी | मैं देखा आतमरामा ॥ मैं० ॥ टेक ॥ रूप फरस रस गंध न्यारा, दरस-ज्ञान-गुनधामा । नित्य निरंजन जाकै नाहीं, क्रोध लोभ मद कामा ॥ मैं० ॥ १ ॥ भूख प्यास सुख दुख नहिं जाकै, नाहीं वन पुर गामा । नहिं साहिब नहिं चार भाई, नहीं तात नहिं मामा ॥ मैं० ॥ २ ॥ भूलि अनादिथकी जग भटकत, लै पुगलका जामा । वुधजन gaजन संगति जिनगुरुकीतें, मैं पाया मुझ ठामा ॥ मैं० ॥३॥ (५१) राग - काफी कनड़ी-ताल-पसतो । . अब अध करत लजाय रे भाई || अव० ॥ टेक ॥ श्रावक घर उत्तम कुल आयो, भैंटे श्रीजिनराय ॥ अव० Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ( २२) ॥१॥धन वनिता आभूषन परिगह; त्याग करौं दुखदाय । जो अपना तू तजि न सकै पर, सेयां नरक न जाय ॥ अव० ॥२॥ विषयकाज क्यों जनम गुमावे, नरभव कव मिलि जाय । हस्ती चढ़ि जो ईधन ढोवै, बुधजन कौन वसाय ॥ अव० ॥३॥ (५२) राग-काफी कनड़ी। तोकौं सुख नहिं होगा लोभीड़ा! क्यों भूल्या रे परभावनमैं ॥ तोकौं० ॥ टेक ॥ किसी भाँति कहुँका धन आवै, डोलत है इन दावनमैं ॥ तोकौं० ॥१॥ व्याह करूं सुत जस जग गावै, लग्यौ रहै या भावनमैं ॥तोकौं० ॥२॥ दरव परिनमत अपनी गौंते, तू क्यों रहित उपायनमैं । तोकौं० ॥३॥ सुख तो है सन्तोप करनमैं, नाहीं चाह वढावनमैं ॥ तोकौं०॥४॥ कै सुख है वुधजनकी संगति, कै सुख शिवपद पावनमैं ॥ तोकौं ॥५॥ राग-कनड़ी। निरखे नाभिकुमारजी, मेरे नैन सफल भये ॥ निर० ॥ टेक ।। नये नये वर मंगल आये, पाई निज रिधि सार ॥ निरखे० ॥१॥ रूप निहारन कारन हरिने, कीनी आंख हजार । वैरागी मुनिवर हू लखिकै, ल्यावत हरष अपार ॥ निरखे० ॥२॥ भरम गयो तत्त्वारथ पायो, आवत ही दरवार । वुधजन चरन शरन गहि जाँचत, नहिं जाऊं परद्वार ॥ निरखे०॥३॥ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३) __ राग-कनड़ी। भला होगा तरो यौँ ही, जिनगुन पल न भुलाय हो । भला० ॥ टेक ॥ दुख मैटन सुखदैन सदा ही, नमिकै मन 'वच काय हो । भला० ॥१॥ शक्री चक्री इन्द्र फनिन्द्र सु, वरनन करत थकाय हो। केवलज्ञानी त्रिभुवनस्वामी, ताको निशिदिन ध्याय हो ॥ भला०॥२॥ आवागमनसुरहित निरंजन, परमातम जिनराय हो । वुधजन विधितें पूजि चरन जिन, भव भवमै सुखदाय हो ।भला०॥३॥ राग-कनड़ी। .. उत्तम नरभव पायकै, मति भूलै रे रामा ॥ मति भू०॥ टेक ॥ कीट पशूका तन जव पाया, तव तू रह्या निकामा। अव नरदेही पाय सयाने, क्यों न भजै प्रभुनामा ॥ मति भू०॥१॥ सुरपति याकी चाह करत उर, कव पाऊं नरजामा । ऐसा रतन पायकै भाई, क्यों खोक्त विन कामा ॥ मति भू० ॥२॥ धन जोवन तन सुन्दर पाया, मगन भया लखि भामा । काल अचानक झटक खायगा, परे रहेंगे ठामा ॥ मति० ॥ ३ ॥ अपने स्वामीके पदपंकज, करो हिये विसरामा। मैंटि कपट भ्रम अपना वुधजन, ज्यों पावो शिवधामा ॥ मति भू०॥४॥. (५६) धनि चन्दप्रभदेव, ऐसी सुबुधि उपाई॥ धनिकाटेक।। जगमैं कठिन विराग दशा है, सो दरपन लखि तुरत Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४ ) उपाई ॥ धनि० ॥ १ ॥ लौकान्तिक आये ततखिन ही, चढ़ि सिविका बनओर चलाई । भये नगन सब परिग्रह तजिकै, नग चम्पातर लौंच लगाई ॥ घनि० ॥२॥ महासेन धनि धनि लच्छमना, जिनकैं तुमसे सुत भये साईं । बुधजन वन्दत पाप निकन्दत, ऐसी सुबुधि करो मुझमाई ॥ धनि० ॥ ३ ॥ (५७) चुप रे मूढ अजान, हमसौं क्या वतलावै ॥ चुप० ॥ टेक ॥ ऐसा कारज कीया तैंनें, जासौं तेरी हान ॥ चु० ॥ १ ॥ राम विना हैं मानुष जेते, भ्रात तात सम मान । कर्कश वचन वकै मति भाई, फूटत मेरे कान ॥ चुपं० ॥ २ ॥ पूरब दुकृत किया था मैंने, उदय भया ते आन । नाथविछोहा हूवा यातें, पै मिलसी या थान ॥ चुप० ॥ ३ ॥ मेरे उरमैं धीरज ऐसा, पति आवै या ठान । तव ही निग्रह है है तेरा, होनहार उर मान ॥ चुप० ॥ ४ ॥ कहां अजोध्या कहँ या लंका, कहाँ सीता कहँ आन । वुधजन देखो विधिका कारज, आगममाहिं बखान ॥ चुप० ॥ ५ ॥ (५८) राग - कनड़ी एकतालो । त्रिभुवननाथ हमारौ, हो जी ये तो जगत उजियारौ ॥ त्रिभुवन० ॥ टेक ॥ परमौदारिक देहके माहीं, परमातम हितकारी ॥ त्रिभुवन० ॥ १ ॥ सहजैं ही जगमाहिं रह्यौ छै, , दुष्ट मिथ्यात अंधारौ । ताकौं हरन करन समकित . Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५) रवि, केवलज्ञान निहारौ ॥ त्रिभुवन० ॥२॥ त्रिविधं शुद्ध भवि इनकी पूजौ, नाना भक्ति उचारौ। कर्म काटि बुधजन शिव लै हौ, तजि संसार दुखारौ ॥ त्रिभु० ॥३॥ राग-दीपचंदी। - मेरी अरज कहानी, सुनि केवलज्ञानी ॥मेरी०॥ टेक॥ चेतनके सँग जड़ पुद्गल मिलि, सारी बुधि वौरानी ॥ मेरी० ॥१॥भव वनमाहीं फेरत मोकौं, लख चौरासी थानी । कोलौं वरनों तुम सब जानो, जनम भरन दुखखानी ।। मेरी० ॥२॥ भाग भलेतें मिले वुधजनको, तुम जिनवर सुखदानी । मोह फांसिको काटि प्रभूजी, कीजे केवलज्ञानी ॥ मेरी० ॥३॥ तेरी बुद्धिकहानी, सुनि सूद अज्ञानी ।। तेरी०॥ टेक॥ . तनक विपय सुख लालच लाग्यौ, नंतकाल दुखखानी ।। तेरी० ॥१॥ जड़ चेतन मिलि बंध भये इक, ज्यौं पयमाही पानी । जुदा जुदा सरूप नहिं मान, मिथ्या एकता मानी ॥ तेरी० ॥२॥हूं तो वुधजन दृष्टा ज्ञाता, तन जड़ सरधा आनी । ते ही अविचल सुखी रहेंगे, होय मुक्तिवर पानी । तेरी०॥३॥ ! राग-ईमन। तू मेरा कह्या मान रे निपट अयाना ।। तू० ॥ टेक ॥ भव वन वाट मात सुत दारा, बंधु पथिकजन जान रे । Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६) इनतें प्रीति न ला विछुएँगे, पावगो दुख-खान रे॥तू० ॥॥ इकसे तन आतम मति आनँ, यो जड़ है तू ज्ञान रे। मोहउदय वश भरम परत है, गुरु सिखवत सरधान रे ।। तू० ॥२॥ वादल रंग सम्पदा जगकी, छिनमैं जात विलान रे। तमाशवीन वनि यातें बुधजन, सवतें ममता हान रे ॥तू० ॥३॥ (६२) राग-ईमन तेतालो। - हो विधिनाकी मोपै कही तौ न जाय ॥हो० ॥टेक।। सुलट उलट उलटी सुलटा दे, अदरस पुनि दरसाय ॥ हो० . ॥१॥उर्वशि नृत्य करत ही सनमुख,अमर परत हैं पाँय (2)। ताही छिनमैं फूल वनायो, धूप पर कुम्हलाय (2)॥हो॥२॥ । नागा पाँय फिरत घर घर जव, सो, कर दीनौं राय । ताहीको नरकनमैं कूकर, तोरि तोरि तन खाय ॥ हो० ॥३॥ करम उदय भूलै मति आपा, पुरुपारथको ल्याय । बुधजन ध्यान धरै जब मुहुरत, तब सव ही नसि जाय ॥ हो॥४॥ (६३) जिनवानीके सुनेसौं मिथ्यात मिटै। मिथ्यात मिटै समकित प्रगटै ॥ जिनवानी० ॥ टेक ॥ जैसे प्रात होत रवि ऊगत, रैन तिमिर सव तुरत फटै ॥ जिनवानी० ॥ १ ॥ अनादिकालकी भूलि मिटावै,अपनी निधिघटमैं उघटै। त्याग विभाव सुभाव सुधारै, अनुभव करतां करम कटै ॥ जिनवानी० ॥२॥ और काम तजि सेवो याकौं, या विन नाहिं अज्ञान घटै ॥ वुधजन याभव परभवमाही, याकी हुंडी तुरत पटै| जिनवानी० ॥३॥ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७) · सम्यग्ज्ञान विना, तेरो जनम अकारथ जाय ॥ सम्यग्ज्ञान०॥ टेक ॥ अपने सुखमैं मगन रहत नहिं, परकी लेत वलाय । सीख सुगुरुकी एक न माने, भव भवमैं दुख पाय ॥ सम्यग्ज्ञान० ॥१॥ ज्यौं कपि आप काठलीलाकरि, प्रान तजै विललाय। ज्यौं निज मुखकरि जालमकरिया, आप मरे उलझाय ॥ सम्यग्ज्ञान० ॥२॥ कठिन कमायो सब धन ज्वारी, छिनमैं देत गमाय । जैसैं रतन पायके भोंदू, विलखे आप गमाय ॥ सम्यग्ज्ञान० ॥३॥ देव शास्त्र गुरुको निहङकरि, मिथ्यामत मति ध्याय । सुरपति वांछा राखतयाकी, ऐसी नर परजाय ॥ सम्यग्ज्ञान राग-झंझोटी। शिवथानी निशानी जिनवानि हो ॥ शिव०॥टेक॥ भववनभ्रमन निवारन-कारन, आपा-पर-पहचानि हो ॥ शिव०॥१॥ कुमति पिशाच मिटावन लायक, स्याद मंत्र मुख आनि हो । शिव० ॥२॥ बुधजन मनवचतनकरि निशिदिन, सेवो सुखकी खानि हो । शिव० ॥३॥ देखो नया, आज उछाव भया । देखो० ॥टेक ॥ चंदपुरी, महासेन घर, चंदकुमार जया ॥ देखो० ॥१॥ मातलखमनासुतको गजपै,..लै हरि गिरपै गया। देखो ॥२॥ आठ सहस कलसा सिर ढारे, वाजे वजत नया ॥ देखो० ॥३॥ सोपि दियो पुनि मात गोदमैं, तांडव Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३४ ) (.८४) राग-सोरठ। भोगांरी लोभीड़ा, नरभव खोयौ रे अजान ॥ भोगांरा० ॥ टेक ॥ धर्मकाजको कारन थौ यो, सो भूल्यौ तू बान । हिंसा अँनृत परतिय चोरी, सेवत निजकरि जान ॥ भोगांरा० ॥१॥ इंद्रीसुखमैं मगन हुवा तू, परकों आतम मान । बंध नवीन पड़े छै यातें, होवत मौटी हान ॥ भोगांरा० ॥२॥ गयौ न कछु जो चेतौ वुधजन, पावौ अविचल थान । तन है जड़ तू दृष्टा ज्ञाता, कर लै यों सरधान ॥ भोगांरा० ॥३॥ (८५) म्हारी कौन सुन,थे तो सुनि ल्यो श्रीजिनराज॥ म्हारी० ॥ टेक ॥और सरव मतलवके गाहक, म्हारौ सरत न काज। मोसे दीन अनाथ रंकको, तुमतें वनत इलाज ।। म्हारी० ॥१॥निज पर नेकु दिखावत नाही, मिथ्या तिमिर समाज । चंदप्रभू परकाश करौ उर, पाऊं.धाम निजाज . ॥ म्हारी० ॥२॥ थकित भयौ हूं गति गति फिरतां, दर्शन पायौ आज । वारंवार वीनवै वुधजन, सरन गहेकी लाज ॥ म्हारी० ॥३॥. राग-सोरठ। छिन न विसारां चितसौं, अजी हो प्रभुजी थान ॥ छिन० ॥ टेक ॥ वीतरागछवि निरखत नयना, हरष भयौ सो उर ही जानै ॥ छिन० ॥१॥ तुम मत खारक १ भोगोंका लोभी। , . .. Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' (३५) • दाख चाखिकै, आन निमोरी क्यों मुख आनै । अव तौ सरनँ राखि रावरी, कर्म दुष्ट दुख दे छै म्हांनै ॥ छिन० ॥२॥ वम्यौ मिथ्यामत अम्रत चाख्यौ, तुम भाल्यौ धास्यौ मुझ कानै । निशि दिन थांकौ दर्श मिलौ मुझ, बुधजन ऐसी अरज वखानै । छिन० ॥३॥ (८७) वन्यौ म्हारै या घरीमैं रंग ॥ बन्यौ० ॥ टेक ॥ तत्त्वारथकी चरचा पाई, साधरमीको संग ॥ वन्यौ० ॥१॥ श्रीजिनचरन वसे उरमाहीं, हरप भयो सब अंग । ऐसी विधि भव भवमै मिलिज्यौ,,धर्मप्रसाद अभंगावन्यौ० ॥२॥ (८८) राग-सोरठ। कीपर करौ जी गुमान, थे तो कै दिनका मिजमान ॥ कींपर० ॥ टेक ॥ आये कहांतें कहां जावोगे, ये उर राखौ ज्ञान ॥ कींपर० ॥१॥ नारायण बलभद्र चक्रवति, नाना रिद्धिनिधान । अपनी अपनी वारी भुगतिर, पहुँचे परभव थान ॥ कींपर० ॥२॥ झूठ वोलि मायाचारीतें, मति पीड़ो परमान । तन धन दे अपने वश वुधजन, 'करि उपगार जहान ॥ कींपर० ॥३॥ . ____ राग-सोरठ, एकतालो। चंदाप्रभु. देव देख्या दुख भाग्यौ ॥ चंदा० ॥ टेक ।। धन्य देहाड़ो मन्दिर आयौ,भाग अपूरव जाग्यौ ।। चंदा० . नीमकी फली-निम्बोरी । २ किमपर । ३ दिन । Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३६) ॥१॥ रह्यौ भरम तब गति गति डोल्यौ, जनम-मरन-दौं दाग्यो । तुमको देखि अपनपो देख्यो, सुख समतारस पाग्यौ । चंदा० ॥२॥ अव निरभय पद वेग हि पोस्यों, हरष हिये यौँ लाग्यौ । चरनन सेवा करै निरंतर, वुधजन गुन अनुराग्यौ ॥ चंदा० ॥३॥ राग-सोरठ। ज्ञानी थारी रीतिरौ अचंभौ मोनें आवै छै॥ ज्ञानी० ॥ टेक ॥ भूलि सकति निज परवश है क्यों, जनम जनम दुख पावै छै । ज्ञानी० ॥१॥ क्रोध लोभ मद माया करि करि, आपो आप फँसावै छै । फल भोगनकी वेर होय तव, भोगत क्यों पिछतावै छै ॥ज्ञानी० ॥२॥ पापकाज करि धनकौं चाहै, धर्म विपैमैं वतावै छै। बुधजन नीति अनीति बनाई, सांचौ सौ बतरावै छै॥ ज्ञानी० ॥३॥ . (९१) अव घर आये चेतनराय, सजनी खेलोंगी मैं होरी ॥ अव० ॥टेक॥ आरस सोच कानि कुल हरिकै,धरि धीरज वरजोरी ॥ सजनी० ॥१॥ बुरी कुमतिकी वात न बूझे, चितवत है मोओरी । वा गुरुजनकी वलि वलि जाऊं,दूरि करी मति भोरी ॥ सजनी०॥२॥ निज सुभाव जल हौजः भराऊं, घोरूं निजरंग रोरी । निज ल्यौं ल्याय शुद्ध पिचकारी, छिरकन निज मति दोरी ।। सजनी० ॥३॥ गाय रिझाय आप वश करिकै, जावन द्यौं नहि पोरी। बुधजन रचि मचि रहूं निरंतर,शक्ति अपूरव मोरी। सजनी ॥४॥ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७). राग-लोरठ। कर लै हो जीव, सुकृतका सौदा कर ले, परमारथः कारज कर लै हो । करि० ॥ टेक ॥ उत्तम कुलकों पायकैं, जिनमत रतन लहाय । भोग भोगवे कारनैं, क्यों शठ देत गमाय ॥ सौदा० ॥१॥ व्यापारी बनि आइयौ, नरभव हाट वजार । फल दायक व्यापार करि, नातर विपति तयार ॥ सौदा० ॥२॥ भव अनन्त धरतौ फियौ, चौरासी वनमाहिं । अव नरदेही पायकै, अघ खोवै क्यों नाहिं ।। सौदा०॥३॥ जिनमुनि आगम परखकै, पूजौ करि सरधान । कुगुरु कुदेवके मानतें, फिस्यौ चतुर्गति थान || सौदा० ॥४॥ मोह नींदमां सोवतां, हूवौ काल अटूट । बुधजन क्यों जागौ नहीं, कर्म करत है लूट । सौदा० ॥५॥ राग-सोरठ। वेगि सुधि लीज्यौ मारी, श्रीजिनराज ॥ बेगि० ॥ टेक ॥ डरपावत नित आयु रहत है, संग लग्या जमराज ॥ वेगि० ॥१॥ जाके सुरनर नारक तिरजग, सव भोजनके साज ऐसौकाल हस्खो तुम साहब, यातँ मेरी लाज।वेगि० ॥२॥ परघर डोलत उदर भरनकों, होत प्रात” सांज । झवत आश अथाह जलधिमैं, द्यो समभाव जिहाज ॥ ब्रेगि० ॥ ३ ॥ धना दिनाको दुखी दयानिधि, औसर पायौ आज । वुधजन सेवक ठाडो विनवै, कीज्यो मेरो काज । वेगि०॥४॥ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३८) (९४) राग-लोरठ। गुरुने पिलाया जी; ज्ञान पियाला ॥ गुरु०॥ टेक ॥ भइ बेखबरी परभावांकी, निजरसमें मतवाला || गुरु०॥ १॥ यों तो छाक जात नहिं छिनई, मिटि गये आन जैजाला । अदभुत आनँद मगन ध्यानमें, वुधजन हाल सझाला ॥ गुरु०॥२॥ (९५) राग-सोरठ। मति भोगन राचौ जी, भव भवमें दुख देत धना ॥ मति०॥ टेक ॥ इनके कारन गति गतिमाही, नाहक नाचौ जी । झूठे सुखके काज धरममै, पाड़ो खांचो जी ॥ मतिः॥१॥ पूरव कर्म उदय सुख आयां, राची माची जी। पाप उदय पीड़ा भोगनमैं, क्यों मन काचौ जी ॥ मति०॥२॥ सुख अनन्तके धारक तुम ही, पर क्यों जांचौ जी । वुधजन गुरुका वचन हियामें, जानौं सांचौ जी ॥ मति० ॥३॥ थांका गुन गास्यां जी जिनजी राज, थांका दरसनतें अघ नास्या ॥ थांका० ॥ टेक.॥थां सारीखा तीनलोकमैं, और न दूजा भास्या जी ॥ जिनजी० ॥१॥ अनुभव रसतें सींचि सींचिकै, भव आताप बुझास्यां जी । वुधजनको विकलप सब भाग्यौ, अनुक्रमतें शिव पास्यां जी ॥. जिनजी० ॥२॥ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३९) (९७) राग-सोरठ। हमकों कछु भय ना रे, जान लियो संसार ॥ हमकौं० टंक ।। जो निगोद में सो ही मुझमें, सो ही मोखमँझार । निश्चय भेद कछ भी नाही, भेद गिनै संसार | हमकौं० ॥१॥ परवश है आपा विसारिकै, राग दोपकौं धार । जीवत भरत अनादि कालते, यों ही है उरझार ॥ हमकों ॥२॥ जाकरि जैसे जाहि समयमै, जो होतव जा द्वार । सो वनि है टरि है कछु नाही, करि लीनों निरधार।हमकों ॥३॥ अगनि जरावे पानी वो, विछुरत मिलत अपार। सो पुगल रूपी में बुधजन, सबकी जाननहार ॥ हमकों० ॥४॥ (९८) ___ राग-सोरठ। आज तो वधाई हो नाभिद्वार ॥ आज० ॥ टेक ॥ मरुदेवी माताके उरमैं, जनमें ऋपभकुमार || आज०॥१॥ सची इन्द्र सुर सब मिलि आये, नाचत हैं सुखकार । हरपि हरपि पुरके नरनारी, गावत मंगलचार ॥ आज. ॥२॥ एसौ चालक हवो ताकै, गुनको नाहीं पार । तन मन वचत बंदत बुधजन, है भव-तारनहार ।। आज०॥२॥ (९९) सुणिल्यो जीव सुजान,सीख सुगुरु हितकी कही। सुणि ॥टेको रुल्यो अनन्ती वार, गतिगतिसाता ना लही॥सुणि. ॥१॥ कोइक पुन्य सँजोग, श्रावक कुल नरगति लही। Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४० ) मिले देव निरदोष, वाणी भी जिनकी कहीं ॥ सुणि० ॥२॥ चरचाको परसंग, अरु सरध्यामैं वैठिवो । ऐसा औंसर फेरि, कोटि जनम नहिं भैंटिवो ॥ सुणि० ॥ ३ ॥ झूठी आशा छोड़ि, तत्त्वारथ रुचि धारिल्यो । यामैं कछु न विगार आपो आप सुधारिल्यो | सुणि० ॥ ४ ॥ तनको आतम मानि, भोग विषय कारज करौ । यौ ही करत अकाज, भव भव क्यौं कूवे परौ ॥ सुणि० ॥ ५ ॥ कोटि ग्रंथकौ सार, जो भाई बुधजन करौ । राग दोष परिहार, याही भवसौं उद्धरौ ॥ सुणि० ॥ ६ ॥ ( १०० ) राग - सोरठ। अव थे क्यों दुख पावौ रे जियरा, जिनमत समकित धारौ ॥ अव० ॥ टेक ॥ निलज नारि सुत व्यसनी मूरख, किंकर करत विगारौ । साहिब सूम अदेखक भैया, कैसे करत गुजारौ ॥ अव० ॥ १ ॥ वाय पित्त कफ खांसी तन हग, दीसत नाहिं उजारौ । करजदार अरुबेरुजगारी, कोऊ नाहिं सहारौ ॥ अव० ॥ २ ॥ इत्यादिक दुख सहज जानियौ, सुनियौ अव विस्तारौ । लख चौरासी अनत भवनलौं, जनम मरन दुख भारौ ॥ अव० ॥ ३ ॥ दोषरहित जिनवरपद पूजौ, गुरु निरग्रंथ विचारौ । बुधजन धर्म दया उर धारौ, व्है है जै जैकारौ ॥ अव० ॥ ४ ॥ ( १०१ ) राग - सोरठ । म्हारौ मन लीनौ छै थे मोहि, आनंदघन जी ॥ म्हारो ० Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ टेक ॥ ठौर ठौर सारे जग भटक्यौ, ऐसो मिल्यो नहिं कोय । चंचल चित मुझि अचल भयौ है, निरखत चरनन तोय ॥ म्हारो० ॥१॥ हरप भयौ सोउर ही जानें, वरनौं जात न सोय । अनतकालके कर्म नसँगे, सरधा आई जोय ॥ म्हारी० ॥२॥निरखत ही मिथ्यात मिट्यौ सव, ज्यों रवितै दिन होय । वुधजन उरमैं राजौ नित प्रति, चरनकमल तुम दोय ।। म्हारो० ॥३॥ (१०२) राग-सोरठ। आनंद हरप अपार, तुम भैटत उरमैं भया ॥ आनंद. ॥ टेक ॥ नास्या तिमिर मिथ्यात, समकित सूरज ऊगिया। आनंद० ॥१॥ मिटि गयौ भव आताप, समता रससौं सींचिया । जान्या जगत असार, निज नरभवपद लखि लिया ॥ आनंद० ॥२॥ परमौदारिक काय, शुद्धातम पद तुम धरे । दोप अठारैनाहिं, अनत चतुष्टय गुन भरे।। ॥ आनँद० ॥३॥ उपजी तीर्थविभूति, कर्म घातिया सब हरे। तत्त्वारथ उपदेश, देव धर्म सनमुख करे ॥आनँद० ॥४॥ शोभा कहिय न जाय, सिंहासन गिर मेरसौं । कलपवृक्षके फूल, वरपत हैं चहुंओरसौं॥ आनँद ॥५॥ चाजत दुंदभि जोर, सुनि हरपत भवि घोरसौं । भामडल भव देखि, छूटत हैं भवि सोरसौं ॥ आनँद० ॥ ६ ॥ तीन छत्र निशि चंद, तीन लोक सेवा करें। चौंसठ चमर सफेद, गंधोदकसे सिर ढरै ॥ आनँद० ॥ ७ ॥ वृक्ष Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२) अशोक अनूप, शोक सरव जनको हरै । उपमा कहिय न जाय, वुधजन पद वंदन करै ॥ आनँद० ॥८॥ (१०३) राग-विहाग। .. सीख तोहि भाषत हूं या, दुख मैंटन सुख होय ॥ सीख० ॥ टेक ॥ त्यागि अन्याय कपाय विपयकों, भोगि न्याय ही सोय ॥ सीख० ॥ १ ॥ मंडै धरमराज नहि दंडे, सुजस कहै सव लोय । यह भी सुख परभौ सुख हो है, जन्म जन्म मल धोय ॥ सीख० ॥२॥ कुगुरु कुदेव कुधर्म न पूजौ, प्रान हरौ किन कोय । जिनमत जिनगुरु जिनवर सेवौ, तत्त्वारथ रुचि जोय ॥ सीख० ॥ ३ ॥ हिंसा अँनृत परतिय चोरी, क्रोध लोभ मद खोय । दया दान पूजा संजम कर, वुधजन शिव है तोय॥सीख० ॥४॥ (१०४) तेरौ गुन गावत हूं मैं, निजहित मोहि जताय दे ॥ तेरौ० ॥ टेक ॥ शिवपुरकी मोकौं सुधि नाही, भूलि अनादि मिटाय दे ॥ तेरौ० ॥१॥ भ्रमत फिरत हूं भव वनमाही, शिवपुर वाट बताय दे। मोह नींदवश घूमत हूं नित, ज्ञान वधाय जगाय दे॥तेरौ० ॥२॥ कर्म शत्रु भव भव दुख दे हैं, इनतें मोहि छुटाय दे । वुधजन तुम चरना सिर नावै, एती वात वनाय दे ॥ तेरौ० ॥३॥ (१०५) . . राग-विहाग। ...मनुवा वावला हो गया ॥ मनुवा०॥ टेक ॥ परवश Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४३ ) वस्तु जगतकी सारी, निज वश चाहै लया ॥ मनुवा० ॥ १ ॥ जीरन चीर मिल्या हैं उदय वश, यौ मांगत क्यों नया ॥ मनुवा० ॥ २ ॥ जो कण बोया प्रथम भूमिमैं, सो कब और भया ॥ मनुवा० ॥ ३ ॥ करत अकाज आनको निज गिन, सुधपद त्याग दया || मनुवा० ॥ ४ ॥ आप आप वोरत विषयी हैं, बुधजन ढीठ भया ॥ मनुवा० ॥ ५ ॥ ( १०६) भज जिन चतुर्विंशति नाम ॥ भजि० ॥ टेक ॥ जे भजे ते उतरि भवदधि, लयाँ शिव सुखधाम ॥ भज० ॥ १ ॥ ऋषभ अजित संभव स्वामी, अभिनंदन अभिराम । सुमति पदम सुपास चंदा, पुष्पदंत प्रनाम ॥ भज० ॥ २ ॥ शीत श्रेयान् वासुपूजा, विमल नन्त सुठाम | धर्म सांति' जु कुंथु अरहा, मल्लि राखै माम ॥ भज० ॥ ३ ॥ सुनिसुवृत नमि नेमिनाथा, पार्स सन्मति स्वाम | राखि निश्चयजपा बुधजन, पुरै सबकी काम ॥ भज० ॥ ४ ॥ (१०७) राग - मालकोस । अब तू जान रे चेतन जान, तेरी होवत हैं नित हान || अव० ॥ टेक ॥ रथ वाजि करी असवारी, नाना विधि भोग तयारी | सुंदर तिय सेज सँवारी, तन रोग भयौ या ख्वारी || अब० ॥ १ ॥ ऊंचे गढ़ महल बनाये, बहु तोप सुभट रखवाये । जहाँ रुपया मुहर धराये, सव Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४४) छोडि चले जम आये ॥ अव०॥२॥ भूखाकै खाने लागै, धाया पट भूषण पागै । सत भये सहस. लखि मांगे, या तिसना नाही भागै ॥ अव० ॥३॥ ये अथिर सौज परिवारो, थिर चेतन क्यों न सम्हारौ । वुधजन ममता सव. टारो, सव आपा आप सुधारौ ॥ अव०॥४॥ (१०८) राग कालिंगड़ो परज धीमो तेतालो। । म्हे तो थांका चरणां लागां, आन भावकी परणति त्यागां ।। म्हे० ॥ टेक ॥ और देव सेया दुख पाया, थे पाया छौ अव बड़भागां ॥ म्हे० ॥१॥ एक अरज म्हांकी सुण जगपति, मोह नींदसौं अवकै जागां । निज सुभाव थिरता बुधि दीजे, और कछू म्हे नाहीं मांगां ।। म्हे. ॥२॥ (१०९) राग-कालिंगड़ो। आज मनरी बनी छै जिनराज ॥ आज० ॥ टेक ॥ थांको ही सुमरन थांको ही पूजन, थांको ही तत्त्वविचार ॥ आज० ॥१॥ थांके विछुरै अति दुख पायौ, मोपै कह्यौ न जाय । अव सनमुख तुम नयनों निरखे, धन्य मनुष परजाय ॥ आज० ॥२॥ आज हि पातक नास्यौ मेरी, ऊतरस्यौं भव पार । यह प्रतीत वुधजन उर आई, लेस्यौं शिवसुख सार ॥ आज० ॥३॥ (११०) . . होजी म्हे निशिदिन ध्यावां, ले ले बलहारियां ॥ हो जी० Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४५) ॥ टेक ॥ लोकालोक निहारक स्वामी, दीठे नैन हमारियां ॥ हो जी० ॥१॥ पट चालीसौं गुनके धारक, दोष अठा-- रह टालियां । वुधजन शरनँ आयौ थांके, थे शरणागत पालियां ।। हो जी० ॥२॥ (१११) राग-परज। - म्हे तो उभा राज थां. अरज करांछां, मानौं महाराज ॥ म्हे० ॥ टेक ॥ केवलज्ञानी त्रिभुवननामी, अंतरजामी सिरताज ॥ म्हे० ॥१॥ मोह शत्रु खोटौ संग लाग्यौ, वहुत करै छै अकाज । यात वेगि वचावौ म्हाने, थां. म्हाकी लाज ।। म्हे०॥२॥ चोर चडाल अनेक उवारे, गीध श्याल मृगराज । तौ वुधजन किंकरके हितमैं, ढील कहा जिनराज || म्हे ० ॥३॥ (११२) राग-कालिंगड़ो। कुमतीको कारज कूड़ौ, हो जी ॥ कुमती० ॥ टेक॥ थांकी नारि सयानी सुमती, मतो कहै छै रूडौ जी ॥ कुमती० ॥१॥ अनन्तानुबंधीकी जाई, क्रोध लोभ मद भाई। माया वहिन पिता मिथ्यामत, या कुल कुमती पाई जी । कुमती० ॥२॥ घरको ज्ञान धन वादि लुटावै, राग दोष उपजावै । तव निर्वल लखि पकरि करम रिपु, गति गति नाच नचावै ।। कुमती० ॥३॥ या परिकरसौं ममत निवारी, वुधजन सीख सम्हारौ । धरमसुता सुमती. सँग राचौ, मुक्ति महलमैं पधारौ।। कुमती० ॥४॥ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४८ ) ॥ सूतौ जियरौ जागौ || लखै० ॥ १ ॥ निज संपति निजही - मैं पाई, तव निज अनुभव लागौ । बुधजन हरपत आनँद वरषत, अंमृत झरमैं पागौ | लखै० ॥ २ ॥ ( ११९ ) थे म्हारे मन भायाजी चंद जिनंदा, बहुत दिनामैं पाया छौ जी ॥ थे० ॥ टेक ॥ सव आताप गया ततखिन ही, उपज्या हरष अमंदा ॥ थे० ॥ १ ॥ जे मिलिया तिन ही दुख भरिया, भई हमारी निंदा । तुम निरखत ही भरम गुमाया, पाया सुखका कंदा || थे० ॥ २ ॥ गुन अनन्त मुखतैं किम गाऊं, हारे फनिंद मुनिंदा | भक्ति तिहारी अति हितकारी, जाँचत बुधजन वंदा ॥ थे० ॥ ३ ॥ ( १२० ) मैं ऐसा देहरा वनाऊं, ताकै तीन रतन मुक्ता लगाऊं ॥ मैं० ॥ टेक ॥ निज प्रदेसकी भीत रचाऊं, समता कली धुलाऊं । चिदानंदकी मूरति थापूं, लखि लखि आनँद पाऊं ॥ मैं० ॥ १ ॥ कर्म किजोड़ा तुरत वुहारूं, चादर दया विछाऊं । क्षमा द्रव्यसौं पूजा करिकै, अजपा गान गवाऊं ॥ मैं० ॥ ॥ २ ॥ अनहद वाजे बजे अनौखे, और कद्दू नहिं चाऊं । वुधजन यामैं वसौ निरंतर, याही वर मैं पाऊँ ॥ मैं० ॥ ३ ॥ ( १२१ ) राग - गजल रेखता कालिंगड़ो । नरदेहीको घरी तौ कछू धर्म भी करो । विषयोंके संग राचि क्यों, नाहक नरक परो || नर० ॥ टेक ॥ चौरासि Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४९) लाख जॉनि तैन, केई वार धरी । तू निजसुभाव पागिक, पर त्याग ना करी। नर० ॥१॥तू आन देव पूजता है, होय लोभमें । तू जान पूछ क्यों परै, हैवान कूपमें । नर० ॥ २॥ है धनि नसीव तेरा जन्म, जैनकुल भया । अब तो मिथ्यात छोड़ दे, कृतकृत्य हो गया । नर० ॥३॥ पूरवजनममें जो करम, तूने कमाया है । ताके उदैको पायक, सुख दुःख आया है ।। नर० ॥ ४ ॥ भला बुरा मानं मती, तू फेरि फँसंगा। बुधजनकी सीख मान, तेरा काज सधैगा ॥ नर० ॥५॥ (१२३) ऋपभ तुमसे स्वाल मेरा, तुही है नाथ जगकेरा ॥ऋ. पभः ॥ टेक ॥ सुना इंसाफ है तेरा, विगरमतलव हितू मेरा ।। ऋपभ० ॥१॥ हुई अर होयगी अव है, लखौ तुम ज्ञानमें सब है । इसीसे आपसे कहना, औरसे गरज क्या लहना ॥ ऋपभ० ॥२॥ न मानी सीख सतगुरकी, न जानी चाट निज घरकी। हुआ मद मोहमें माता, घने विषयनके रंग राता ।। ऋषभ० ॥३॥ गिना परद्रव्यको मेरा, तवं वसु कर्मने घेरा। हरा गुन ज्ञान धन मेरा, , करा विधि जीवको चेरा ।। ऋपभ० ॥ ४ ॥ नचावै स्वांग रचि मोकों, कहूं क्या खवर सब तोकों । सहज भइ वात अति चाँकी, अधमको आपकी झाँकी ।। ऋपभ० ॥ ५ ॥ . कहूं क्या तुम सिंफत सांई, बनत नहिं इन्द्रसों गाई । १ सवाल-याचनाका प्रश्न । २ प्रशंसा । Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०) तिरे भविजीव भव-सरतें, तुम्हारा नाव उर धरतें ॥ ऋषभ० ॥६॥ मेरा मतलव अवर नाही, मेरा तो भाव मुझमाहीं । वाहि पर दीजिये थिरता, अरज वुधजन यही करता ॥ ऋषभ० ॥७॥ (१२३) दुनियांका ये हवाल क्यों पहिचानता नहीं। दिन आफताव ऊगा, सो रैनको नहीं ॥ दुनि० ॥ टेक ।। तनसेति. तेरी एकता, क्यों भानता नहीं । होता है जाना स्यात स्यात, जानता नहीं ॥ दुनि० ॥१॥ नित भूख प्यास शीत घाम, देह व्यापते । तू क्यों तमाशवीन दुखी, मान आपते ॥ दुनि०॥२॥ दिलचंदगी दिलगीरी व्है निज, पुन्य पापते । (फिर) करमजाल फँसता क्यों, करि विलाप तें ।। दुनि० ॥३॥ मतलवके गरजी ये सब, कुटुंव घरभरा । मतवाय चढ़ी तेरे, किन सीर ना करा ॥ दुनि० ॥ ४ ॥ इनकी खुशामदीसे, तू केई वार मरा । इतना सयान लीजे, इन वीच क्यों परा ॥ दुनि० ॥ ५ ॥ आई हैं वुलवुल शॉमको, सव ओर ओरतें । करि रैनका वसेरा, विछुरेंगी भोरतें ॥ दुनि० ॥ ६ ॥ इनपै न नेकु रीझो, खीजो न जोरतें । भोगोगे विपति भौ भौ, मिथ्यात दौरतें ॥ दुनि० ॥७॥ वाजीगरोंका ख्याल जैसा, लोकसम्पदा । इसके दिमाकसेती, दोजकमें झंपदा ॥ दुनि० ।। १ सूर्य । २ तमाशा देखनेवाला। ३ खुशी । ४ रंज । ५ संध्याको । ६ घमंडसे। Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५१) ८॥ जल्दी परेज कीजे, परके मिलापका । दिलमस्त रहो वुधजन, लखि हाल आपका ॥ दुनि० ॥९॥ . (१२४ ) . इस वक्त जो भविकजन, नहिं सावधान होगा। इस गाफिलीसे तेरा, खाना खराव होगा। इस०॥ टेक ॥मिथ्यातका अँधेरा, गम नाहिं मेरा तेरा । दिन दोयका वसेरा, चलना सिताव होगाइस० ॥१॥ जेवर जहानमाई, दामिनि ज्यों दे दिखाई। इसपै गरूरताई, जिससे जवाल होगा । इस० ॥२॥ ज्वानीमें हुवा जॉलिम, सब देखते हि औलम । रमता विरानी बालम, यात वेहाल होगा । इस० ॥ ३॥ झूठे मंजेकेमाई, सव जिंदगी गमाई। अजहूँ सँतोप नाहीं, मरना जरूर होगा। इस० ॥ ४ ॥ जीवोंप मिहर दीजे, जोरूं-परेज कीजे । जरंका न लोभ लीजे, वुधजन संवाव होगा। इस० ॥५॥ (१२५) कोई भोगको न चाहो, यह भोग वेद वला है।कोई० ॥ टेक ॥ मिलना सहज नहीं है, रहनेकी गम नहीं है, सेनें-सेती सुनी है, रावनसा खाक मिला है ॥ कोई० ॥१॥ वानीत हिरन हरिया, रसनातें मीन मरिया, करनी करी पकरिया, पावक पतंग जला है ॥ कोई० ॥१॥ अलि नासिकाके काजै, वसिया है कौल-मांजै, जव होय १ परहेज-त्याग । २ जल्दी। ३ खराबी । ४ जुल्मकरनेवाला-अन्यायी। ५ मनुष्य । ६ स्त्री। ७ मजेमें। ८ स्त्री-त्याग । ९धनका । १. पुण्य । ११ बुरी वला है । १२ सेवन करनेसे । १३ हथिनी । १४ हाथी। १५ पकड़ा गया। १६ कमलमें। Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५२) गई सांजै, ततखिन पिरान दला है ॥ कोई० ॥२॥ विषयोंसे रागताई, ले जात नर्कमाई, कोई नहीं सहाई, काटें तहां गला है ॥ कोई० ॥३॥ वुधजनकी सीख लीजे, आतुरता त्याग दीजे, जलदी संतोप कीजे, इसमें तेरा भला है ॥ कोई० ॥४॥ _ (१२६) . चन्दजिन विलोकवेतै, फंद गलि गया। धंद सब जगतके विफल, आज लखि लिया ॥ चंद० ॥ टेक ॥ शुद्ध चिदानंद-खंध, पुद्गलके माहिं । पहिचान्या हममें हम, संशय भ्रम नाहिं । चंद० ॥ टेक ॥ सो न ईस सो नदास, सो नहीं है रंक । ऊंच नीच गोत नाहिं, नित्य है निशंक ।। चंद० ॥१॥ गंध वर्ने फरस स्वाद, वीस गुन नहीं। एक आतमा अखंड, ज्ञान है सही ।। चंद० ॥२॥ परकौं जानि ठानि परकी, बानि पर भया, परकी साथ दुनियांमैं, खेदकों लया॥चंद० ॥२॥ काम क्रोध कपट मान, लोभकों करा । . नारकी नर देव पशू होयके फिरा ॥ चंद० ॥४॥ ऐसे वखतके बीच ईस, दरस तुम दिया । मिहरवान होय दास आपका किया॥चंद०॥५॥जौलौं कर्म काटि मोख धास ना गया ।तौलौं बुधजनकौं शर्न राख करि मया॥ चंद०॥६॥ (१२७) . मद मोहकी शराब पी खराब हो रहा । बकता है वेहिसाव नां कितावका कहा ॥ मद्० । टेक ॥ देता नहीं - १प्राण । Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५३ ) जवाब तुझे क्या गरूर है । ये वक्त चला जाता, इसकी जरूर है | मद० ॥ १ ॥ जैर जिंदगी जवानी, जाहिर जहानमें | सब सपनेकी दौलत, रहती न ध्यानमें ॥ मर० ॥ २ ॥ झूठे मजेकेमाहीं, सब सम्पदा दई । तेरे ओकूप ( १ ) सेती, तू आपदा लई ॥ मद० || ३ || साहिब है - सभीका ये, इसक क्या लिया । करता है स्वाल सबपै, वेशर्म हो गया | मद० ॥ ४ ॥ निज हालका कमाल है, सम्हाल तो करो । सब साहिवी हैं इसमें, वुधजन निगह धरो ॥ मद० ॥ ५ ॥ ( १२८ ) राग - मल्हार । हो राज म्हें तो वारी जी, थानें देखि ऋषभ जिन जी, अरज करूं चित लाय ॥ हो० ॥ टेक ॥ परिग्रहरहित सहित रिधि नाना, समोसरन समुदाय । दुष्ट कर्म किम जीतियाँ जी, धर्म क्षमा उर ध्याय ॥ हो० ॥ १ ॥ निंदनीके दुख भोग, बंदक सब सुख पाय । या अदभुत वैरागता जी, मोतैं वरनी न जाय || हो० ॥ २॥ आन देवकी मानतें, पाईं बहु परजाय । अव बुधजन शरनौ गद्यौ जी, आवागमन मिटाय || हो० ॥ ३ ॥ ( १२९ ) राग - मल्हार । देखे मुनिराज आज जीवनमूल वे ॥ देखे ० टेक ॥ सीस लगावत सुरपति जिनकी, चरन कमलकी धूल वे ॥ दे० ॥१॥ १ घमंड | २ धन । Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४) सूखी सरिता नीर वहत है, वैर तज्यों मृग सूर वे। चालत मंद सुगंध पवन वन, फूल रहे सव फूल वे ॥ देखे० ॥२॥ तनकी तनक खबर नहिं तिनकों, जर जावो जैसे तूल वे। रंक रावतें रंच न ममता, मानत कनकको धूल वे।।देखे. ॥३॥भेद करत हैं चेतन जड़को, मैंटत हैं भवि-भूल वे। उपगारक लखि बुधजनं उरमैं, धारत हुकम कवूल वे ॥ देखे०॥४॥ राग-मल्हार । जगतपति तुम ही श्रीजिनराई॥जगत० ॥ टेक ॥ और सकल परिग्रहके धारक, तुम त्यागी हो सांई ॥ जगत० ॥१॥ गर्भमास पदरै लौं धनपति, रनवृष्टि वरसाई। जनम समय गिरिराज शिखरपर, न्हौंन कस्यौ सुरराई । जगत० ॥२॥ सदन त्यागि वनमैं कच लाँचत, इंद्रन पूजा रचाई। सुकलध्यानतें केवल उपज्यो, लोकालोक दिखाई ॥ जगत ॥३॥ सर्व कर्म हरि प्रगटी शुद्धता, नित्य निरंजनताई । मनवचतन वुधजन बंदत है, द्यो समता सुखदाई ॥ जगत० ॥४॥ (१३१) अहो ! अव विलम न कीजे हो। भवि कारज कर लीजे हो ॥ अहो० ॥ टेक ॥ चौरासी लख जौनिवीचमैं, नरभव कव लीजे॥ अहो० ॥१॥ श्रवन अंजुली धारि जिनेश्वर,-वचनामृत पीजे । निज स्वभावमैं राचि पराई, परनति तजि दीजे ॥ अहो० ॥२॥ तनक विषयहित Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५५) काल अनन्ता, भव भव क्यों छीजे । बुधजन जिनपद सेय सयानें, अजर अमर जीजे ॥ ३॥ (१३२) राग-गौड़ मल्हार । ' सुरनरमुनिजनमोहनको मोहि, दर्शन देखन दै री ॥ भव भरमनतें दुखी फिरत हूं, अव जिन चरनन रहने दै। सुर० ॥१॥ सूर स्थाल कपि सिंह न्यौलकी, विपति हरी इन सरनों दै । वलिहारी वुधजन या दिनकी, बड़े भाग पद परसन दै ॥ सुर० ॥२॥ (१३३) राग-रेखता। अरज जिनराज यह मेरी, इसा औसर वतावोगे.॥ अरज० ॥ टेक ॥ हरो इन दुष्ट करमनको, मुकतिका पद दिलावोगे । अरज०॥१॥ करूं जब भेप मुनिवरका, अवर विकलप विसारूंगा। रहूंगा आप आपेमें, परिग्रहको विडारूंगा ।।अरज० ॥२॥ फिऱ्या संसार सारेमें, दुखी में सब लख्या दुखिया । सुनत जिनवानि गुरुमुखिया, लख्या चेतन परम सुखिया ॥ अरज० ॥ ३ ॥ पराया आपना जाना, बनाया कोज मन माना । गहाया कुगति तैखाना, लहाया विपति विललाना ॥ अरज० ॥४॥ जगतमें जनम अर मरना, डरा मैं आ लिया शरना । मिहर बुधजनपै या करना, हरो परतें ममत धरना ॥ अरज० ॥५॥ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६२ ) मोखि मिला दे जीव ॥ निरखि० ॥ ३ ॥ बुधजन सहजैं सुरगति देहै, वहुरि अनंत सुख द्यावें जीव ॥ निरखि० ॥ ४ ॥ ! ( १४८ ) तुम बिन जगमैं कौन हमारा ॥ तुम० ॥ टेक ॥ जौलौं स्वारथ तौलों मेरे, विन स्वारथ नहिं देत सहारा । और न कोई है या जग मैं, तुम ही हौ सवके उपगारा ॥ तुम० ॥ २ ॥ इंद नरिंद फनिंद मिलि सेवत, लखि भवसागरतारनहारा ॥ तुम० ॥ ३ ॥ भेद विज्ञान होत निज परका, संशय भरम करत निरवारा ॥ तुम० ॥ ४ ॥ अनेक जन्मके पातक नासे, बुधजनके उर हरप अपारा ॥ तुम० ॥ ५ ॥ ( १४९ ) ०. निस दिन लख्या कर रे ; तन मन वचन थिर रे । ये ज्ञानमइ जिनराजकौं, ज्यौं है सुफल मन रे ॥ निसि० ॥ टेक ॥ ये भवि तेरा धन रे, तोकौं मिले जिन रे । कर पूज चरननकी सदा, सँचि पुन्यका धन रे ॥ निसि ॥ १ ॥ सुनिकै वचन जिन रे; सरधान धरि उर रे । करि जन्म तेरेका भला, या भली है छिन रे ॥ निसि० ॥ २ ॥ बुधजन कहै सुन रे, सब पापकौं हन रे । अव मिल्या औसर है भला, करि जाप जिन जिन रे ॥ निसि० ॥ ३ ॥ ( १५० ) · मनुवो लागि रह्यौ जी, मुनिपूजा विन रह्यौ न जाय Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६३) । मनुवो० ॥ टेक ॥ कोटि वात पिय क्यों कहौ, हूं मानूं नहिं एक।बोधमती गुरु नान, याही म्हारै टेक॥मनुवो० ॥१॥ जन्म मृत्यु सुख दुख विपति, वैरी मीत समान । राग दोष परिग्रहरहित, वे गुरु मेरे जान ॥ मनुवो० ॥२॥ सुर शिवदायक जैन गुरु, जिनके दया प्रधान । हिंसक भोगी पातकी, कुगतिदाइ गुरु आन ॥ मनुवो० ॥३॥ खोटी कीनी पीव तुम, मुनिके गल अहि डारि । थे तो नरका जायस्यो, वे नहिं का डारि ॥ मनुवो० ॥४॥ श्रेणिक सँगते चलणा, खायक समकित धार। आप सातमाँ नरक हरि, पहुँचे प्रथममँझार ॥ मनुवो० ॥५॥ तीर्थकर पद धारसी, आवत कालमँझार । वुधजन पद वंदन कर, मेरी विपता टार ।। मनुवो० ॥ ६ ॥ राग-सोरठ। राग दोप हंकार त्यागकरि शुद्ध भया जी थे तौ॥राग० ॥टेक ।। तारन तरन सुविरद रावरो, मेरी ओर निहार ॥राग० ॥१॥ द्रव गुन परजय तीनकालका, लखि लीना विस्तार । धुनि सुनि मुनिवर गनधर कीन, आगम भविहितकार ॥राग० ॥२॥जा मति करिकै जा विधि करिके, उतर गये ही पार । सोही वुधजनकौं बुधि दीजे, कीजे, यो उपगार ॥राग०॥३॥ . अदभुत हरप भयौ यो मनमैं, जिन साहिव दीठे नैननमें ।। अदभुत० ।। टेक ।। गुन अनन्त मति निपट अलप Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६४ ) है, क्योंकरि सो वरन वैननमें ॥ अदभुत० ॥ १ ॥ भरम नस्यौ भास्यौ तत्त्वारथ, ज्यौं निकस्यौ रवि वादर - घन मैं ॥ अदभुत० ॥ २ ॥ ऋद्धि अनादी भूली पाई, वुधजन राजे अति चैनन | अदभुत० ॥ ३ ॥ ( १५३ ) राग - जंगलो | ओर तो निहारौ दुखिया अति घणौ हो सांइयां ॥ ओर० ॥ टेक ॥ गति च्यारन धारिवो सांइयां, जनम मरनको कष्ट अपार; म्हारा साइयां ॥ ओर० ॥ १ ॥ तारण विरद तिहारौ सांइयां, मोहि उतारोगे पार । बुधजन दास तिहारौ सांइयां, कीजे यौ उपगार; म्हारा सांइयां ॥ ओर ॥ २ ॥ ( १५४ ) तूही तूही याद आवै जगतमैं || तूही ० ॥ टेक ॥ तेरे पद पंकज सेवत हैं, इंद नरिंद फनिंद भगतमैं | तूही ० ॥ १ ॥ मेरा मन निशिदिन ही राच्या, तेरे गुन रस गान 'पगतमैं | तूही ० ॥ २ ॥ भव अनन्तका पातक नास्या, तुम जिनवर छवि दरस लगतमैं || तूही ० ॥ ३ ॥ मात तात परिकर सुत दारा, ये दुखदाई देख भगत मैं ॥ तूही ० ॥ ४ ॥ बुधजनके उर आनंद आया, अब तौ हूं नहिं जाऊं कुगतिमैं | तूही ० ॥ ५ ॥ ( १५५) राग - दीपचंदी | म्हारा मनकै लग गई मोहकी गांठ, मैं तौ जिनआगमसौ खोलौं || म्हारा ॥ टेक ॥ अनादि कालकी घुलि Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६५ ) रही गाठी, ज्ञान छुरीसों छोली || म्हारा० ॥ १ ॥ अष्ट करम ज्ञानावरनादिक, मो आतम ढिग जौलौं । राग दोष विकरुप नहिं त्यागौं, तोलौं भव वन डोलीं ॥ म्हारा० ॥२॥ भेद विज्ञानकी दृष्टि भई तव, परपद नाहिं टटोलों । विषय कपाय वचन हिंसाका, मुखतें कबहुँ न बोलौं | म्हारा● ॥ ३ ॥ धन्य जथारथवचन जिनेसुर, महिमा चरनौं कॉल | बुधजन जिनगुनकुसुम ग्रंथिंक, विधिकर कंउमैं पोलों || म्हारा० ॥ ४ ॥ ( १५६) राग-संमाच झंौदी । पूजन जिन चाली री मिल साथनि ॥ पूजन० ॥ टेक ॥ आज देहाड़ी है भलाँ, आया जिन आंगनि ॥ पूजन० ॥ १ ॥ आठौं व्य चहोड़िकें, कीये गुन भापनि । अपना कलम खोय हैं, करि हैं प्रतिपालनि ॥ पूजन० ॥ २ ॥ चित चंचलता मेटिक, लागी प्रभु पाँयनि । सब.. fafe मनवांछा मिले, फिरि होहि न चायनि ॥ पूजन० ॥ ३ ॥ ( १५७ ) रंगा-रेखता । तिहारी याद होते ही, मुझे अम्रत वरसता हैं । जिगर तपता मेरा भ्रमसों, तिस समता सरसता है । तिहारी ० ॥ १ ॥ दुनीके देव दाने सब, कदम तेरे परसता हैं । तिहारे दरस देखनको, हजारों चंद तरसता है ॥ तिहारी० १ दिन । ९ हृदय Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥२॥ तुम्हींने खूब भविजनको, बताया भिसंत-रसता है। उसी रसते चले सायर, तुम्हारे वीच वसता है।तिहारी० ॥३॥ विमुख तुमसों भये जितने, तिते दोजकमें धसता है । मुरीद तेरा सदा वुधजन, आपने हाल मसता है ॥ तिहारी० ॥४॥ (१५८) राग-मल्हार । | माई आज महामुनि डोलैं । मतिवंता गुनवंत काहुसौं, बात कछू नहिं खोलैं ।माई०॥ टेक ॥ तू नहिं आई ये घर आये, चरन कमल जल धोलें ॥ माई० ॥१॥ विधि पगाहे असन कराये, निधि वैधि गई अतोले ॥ माई० ॥ २ ॥ नगर जिमाया कोइ न रहाया, यो अचरज कहौं कोलै ॥ माई० ॥ ३ ॥ धन्य मुनीसुर धनि ये दानी, वुधजन इम मुख बोलै ॥ माई० ॥४॥ (१५९) राग-सोरठ। ___ हो चेतन जी ज्ञान करौलो जी॥ हो० ॥ टेक ॥थे अविनाशी नित्य निरंजन, नेकन डर न धरौला ॥ हो० ॥ १॥ देखन जान स्वभाव अनादी, ताहिन ना विसरौला। राग दोष अज्ञान धारतां, गति गति विपति भरौला हो। ॥२॥ पूर्व कर्मका बंध हरौला, जो आपमैं धीर करौला। १ वहिश्तका रास्ता-खर्गका मार्ग। २ नरकमें। ३ शिष्य । ४ वढ़ गई। ५ करोगे। Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६७) वुधजन आप जिहाज बैठिकैं, भवदधि-चारि तिरौला ॥ हो०॥३॥ (१६०) - हूं तो निशिदिन सेऊ थांका पाय, म्हारौ दुख भानौ ॥ हूं० ॥ टेक ॥ चौरासीमें डोलती जी, नीठि पहुँच्यौ छौं आय ।। म्हारौ० ॥१॥ आन देवकों सेवतां जी, जनम अकारथ जाय ॥ म्हारो० ॥ २ ॥ मन वच तन वंदन करूं जी, दीजै कर्म मिटाय ॥ म्हारौ० ॥३॥ बुधजनकी या वीनती जी, सुनिज्यौ श्रीजिनराय ॥ म्हारो० ॥ ४॥ (१६१) राग-अडाणी। तुम चरननकी शरन, आय सुख पायौ ॥ तुम० ॥ टेक || अवलों चिर भव वनमैं डोल्यो, जन्म जन्म दुख पायौ ॥ तुम० ॥१॥ ऐसो सुख सुरपतिकै नाही, सौ मुख जात न गायौ । अव सव सम्पति मो उर आई, आज परमपद लायौ ॥ तुम० ॥ २ ॥ मन वच तनतें दृढ़ करि राखौं, कबहुँ न ज्या विसरायो । वारंवार वीनवै वुधजन, कीजै मनको भायौ ॥ तुम० ॥३॥ . (१६२) राग-टोंगी। आज सुखदाई वधाई, जनमैं चन्दजिनाई, आज ॥ टेक ।। महासेन घर चंदपुरीमैं, जाये लछमना माई ॥ आज०॥१॥ चतुरनिकाय देव देवी मिलि, नाचत गावत आई। अब भविजनके पातक टरि हैं, पथ चलि है Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (68) 'शिवदाई / / आज० // 2 // बड़े भाग बुधजनके आये, सहजै सव निधि पाई। सव पुरके घर घरमैं मंगल, वाजे वजत सवाई // आज० // 3 // (163) ___राग-अलहिया बिलावल / . कृपा तिहारी विन-जिन सइयाँ, कैसे उधरैगो विपयसुख लइयां // कृपा० // टेक // जो कछु भोजन हरत समयछिन, तन यह विलखि वनै मुरझैया // कृपा० ॥१॥पह-. लैं याकी वान सुधारौ, दिखलावौ तत्त्वार्थ गुसइयां / तब ये जानै उर सरधानै, तजै कुबुद्धि सुबुद्धि गहइयां // कृपा० // 2 // वहुत पातकी भवदधि तारे, पतितउधारक सांचे सइयां / वुधजन दास पस्यौ भवदधिमैं, वेगि तारिये गहकर वहियां / / कृपा० // 3 // (164) राग-अडाणूं। . चेतन मो-मातौ भव वनमैं, गति गति भरमत डोले // चेतन० // टेक // अनत ज्ञान दरसन सुख वीरज, ढापि दिये रंग होलै // चेतन० // 1 // अलप भोगमैं मगन होय है, हित अनहित नहिं तोलै / मनमैं और करत तन ओरै, और हि मुखतें बोले // चेतन० // 2 // गुरु उपदेश धार ले भाई, तजि विकलप झकझोलै / है वैरागी निज लौं लागी, सो वुधजन शिवको लै // चेतन० // 3 // . राग-सोरठ। . : उमाहौ म्हानै लागि गयौ छै, मुक्ति मिलनरो // उमा