Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 4
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 385
________________ सम्यग्दृष्टि ३७८ ५. अविरत सम्यग्दृष्टि निर्देश भाव रखने के कारण एक दूसरेसे ईर्ष्या करते हैं, परन्तु सम्पूर्ण नयौंको एक समान देखने वाले (दे. अनेकान्त/२) आपके शास्त्रों में पक्षपात नहीं है। ३. जहाँ जगत् जागता है वहाँ ज्ञानी सोता है मो.पा./मू./३१ जो सुत्तो बबहारे सो जोइ जग्गए सकज्जम्मि। जो जग्गदि ववहारे सो सुत्तो अप्पणो कज्जे 1३१! -जो योगी व्यवहारमें सोता है वह अपने स्वरूपके कार्य में जागता है। और व्यवहारमें जागता है, वह अपने कार्य में सोता है।३१। ( स. श./७८) प. प्र./मू./२/४६ जा णिसि सयलहँ देहिय जोग्गिउ तहिं जग्गेइ । जहिँ पुणु जग्गइ सयलु जगु सा णिसि मणिवि सुवेइ४६ -जो सब संसारी जीवोंकी रात है. उसमें परम तपस्वी जागता है, और जिसमें सब संसारी जीव जाग रहे हैं, उस दशाको योगी रात मानकर योग निद्रामें सोता है। (ज्ञा./१०/३७ ) कषायका घटना चारित्रका अंश है...सर्वत्र असंयमकी समानता न जानना। ३. अपने दोषों के प्रति निन्दन गर्हण करना उसका स्वाभाविक व्रत है का, अ./स./४ विरलो अज्जदि पुण्णं सम्मादिट्ठी वएहि संजुत्तो। उवसमभावे सहिदो जिंदण-गरहाहिसंजुत्तो। - सम्यग्दृष्टि, व्रती, उपशम भावसे युक्त, तथा अपनी निन्दा और गर्दा करनेवाले विरले जन हो पुण्य कर्म का उपार्जन करते हैं। प्र.सं./टी./१३/३३/8 निजपरमात्मद्रव्यमुपादेयम्, इन्द्रियमुखादिपरद्रव्य हि हेयमित्यर्हत्सर्वज्ञप्रणीतनिश्चयव्यवहारनयसाध्यसाधक भावेन मन्यते परं किन्तु भूमिरेखादिसदृशक्रोधादिद्वितीयकषायोदयेन मारण निमित्तं तलवरगृहीततस्करवदात्म निन्दासहितः सन्निन्द्रियमुखमनुभवतीत्यविरतसम्यग्दृष्टेल क्षणम । -निज परमात्म द्रव्य उपादेय है तथा इन्द्रिय सुख आदि परद्रव्य त्याज्य हैं, इसप्रकार सर्वज्ञ प्रणीत निश्चय, व्यवहारको साध्य साधक भावसे मानता है, परन्तु भूमिकी रेखाके समान क्रोध आदि अप्रत्याख्यानकषायके उदयसे, मारनेके लिए कोतवालसे पकड़े हुए चोरकी भाँति आत्मनिन्दादि सहित होकर इन्द्रिय सुख का अनुभव करता है, वह अविरत सम्यग्दृष्टि चौथे गुणस्थानवी है । (सा.ध./१/१३) पं.ध./3/४२७ दृङ्मोहस्योदयाभावात् प्रसिद्धः प्रशमो गुणः। तत्राभिव्याकं बाह्यान्निन्दनं चापि गहणम् ।४७२।-दर्शनमोहनीयके उदयके अभावसे प्रशम गुण उत्पन्न होता है और प्रशमके बाह्यरूप अभिव्यंजक निन्दा तथा गहीं ये दोनों होते हैं ।४७२। का. अ./पं. जयचन्द/३६१ इसके असि, मसि, कृषि, वाणिज्य आदि कार्यों में हिंसा होती है। तो भी मारनेका अभिमत नहीं है, कार्यका अभिप्राय है। वहाँ घात होता है, उसके लिए अपनी निन्दा गर्दा करता है। इसके त्रस हिंसा न करने के पक्ष मात्रसे पाक्षिक कहलाता है। यह अपत्याख्यानावरण कषायके मन्द परिणाम है, इसलिए अवती ही है। ५. अविरत सम्यग्दृष्टि निर्देश १. अविरति सम्यग्दृष्टिका सामान्य लक्षण पं. सं./प्रा./११ णो इं दियेसु विरदो णो जीवे थावरे तसे चावि। जो सहहा जिणुतं सम्माइट्ठी अविरदो सो।११। जो पाँचों इन्द्रियों के विषयोंसे विरत नहीं है और न स तथा स्थावर जीवोंके घातसे ही विरक्त है, किन्तु केवल जिनोक्त तत्त्वका श्रद्धान करता है, वह चतुर्थगुणस्थानवर्ती अविरत सम्यग्दृष्टि है ।१९। (ध. १/१,१,१२/गा. १९९/ १७३); (गो.जी./मू./२६/५), (और भी दे. असंयम) रा. वा./१/१/१५/५८६/२६ औपशामिकेन क्षायोपश मिकेन क्षायिकेण वा सम्यक्त्वेन समन्वितः चारित्रमोहोदयात अत्यन्तमविरतिपरिणामप्रवणोऽसंयतसम्यग्दृष्टिरिति व्यपदिश्यते। -औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक इन तीनों में से किसी भी सम्यनरबसे समन्धित तथा चारित्रमोहके उदयसे जिसके परिणाम अत्यन्त अविरतिरूप रहते हैं, उसको 'असंयत सम्यग्दृष्टि' ऐसा कहा जाता है। घ. १/१,१.१२/१७१/१ समीचीनदृष्टिः श्रद्धा यस्यासौ सम्यग्दृष्टिः, असंयतश्चासौ सम्यग्दृष्टिश्च, असंयतसम्यग्दष्टिः । सो वि सम्माइट्ठी तिविहो, वइयसम्माइट्ठी वेदयसम्माइट्ठी उसमसम्माइट्ठी चेदि। - जिसकी दृष्टि अर्थात श्रद्धा समीचीन होती है, उसे सम्यग्दृष्टि कहते हैं, और संयम रहित [अर्थात इन्द्रिय भोग व जीव हिंसासे विरक्त न होना (दे. असंयम)] सम्यग्दृष्टिको असंयत सम्यग्दृष्टि कहते हैं । वे सम्यग्दृष्टि जीव तीन प्रकारके हैक्षायिक सम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और औपशमिक सम्यग्दृष्टि । २. अवत सम्यग्दृष्टि सर्वथा अग्रती नहीं थे. श्रावक/३/४ [ यद्यपि व्रतरूपसे कुछ भी अंगीकार नहीं करता, पर कुलाचाररूपसे अष्टमूलगुण धारण, स्थूल अणुबत पालन,स्थूल रूपेण रात्रि भोजन व सप्तव्यसन त्याग अवश्य करता है। क्योंकि ये सब क्रियाएँ व्रत न कहलाकर केवल कुल क्रिया कहलाती हैं, इसलिए वह अवती या असंयत कहलाता है। ये क्रियाएँ वती व अवती दोनोंको होती हैं । व्रतीको नियम बत रूपसे और अवतीको कुलाचार रूपसे ।] वे, सम्यग्दर्शन/U/१/4 [निश्चय सम्यक्त्व युक्त होनेपर भी चारित्र मोहोदयबेश उसे आत्मध्यानमें स्थिरता नहीं है तथा व्रत व प्रतिज्ञाएँ भंग भी हो जाती हैं, इसलिए असंयत कहा जाता है।] मो.मा.प्र./६/४६६/२२ कषायनिके असंख्यात लोकप्रमाण स्थान हैं। तिनिविध सर्वत्र पूर्व स्थानतें उत्तरस्थानविर्षे मन्दता पाइए है ।... आदिके बहुत स्थान तौ असंयमरूप कहे, पीछे केतेक वेश संयमरूप कहे ।...तिनिविर्षे प्रथम गुणस्थानतें लगाय चतुर्थ गुणस्थान पर्यन्त जे कषायके स्थान हो हैं, ते सर्व असंयम ही के हो है।...परमार्थत ४ अविरत सम्यग्दृष्टिके भन्य बाह्य चिह्न का. अ./मू./३१३-३२४ जो ण या कुब्व दि गवं पुत्तकलत्ताइसव्वअस्थेसु । उवसमभावे भावदि अप्पाणं मुणदि तिणमेत ३१३। उत्तमगुणगहणरओ उत्तमसाहूण विणयसंजुत्तो। साहम्मिय अणुराई सो सद्दिट्ठी हवे परमो । ३१५। एवं जो णिच्छयदो जाणदि दव्वाणि सम्बपज्जाए । सो सहिट्ठी सुद्धो जो संकदि सो हु कुदिट्ठी ।३२३। जो ण विजाणदि तच्चं सो जिणवयणे करेदि सहहणं । जंजिणवरेहि भणियं तं सबमहं समिच्छामि ।३२४।- वह सम्यग्दृष्टि पुत्र, स्त्री आदि समस्त पदार्थों में गर्व नहीं करता, उपशमभावको भाता है और अपनेको तृणसमान मानता है ।३१३। जो उत्तम गुणों को ग्रहण करने में तत्पर रहता है, उत्तम साधुओंको विनय करता है, तथा साधर्मी जनों से अनुराग करता है, वह उत्कृष्ट सम्यग्दृष्टि है।३१। इस प्रकार जो निश्चयसे सब द्रव्यों को और सम पर्यायोको जानता है, वह सम्यग्दृष्टि है और जो उनके अस्तित्व में शंका करता है, वह मिथ्या'दृष्टि है ।३२३। जो तत्वों को नहीं जानता किन्तु जिनवचन में श्रद्धान करता है । दे. सम्यग्दर्शन/11१/२,३] कि जिनवर भगवान ने जो कुछ कहा है, वह सब मुझे पसन्द है । वह भी श्रद्धावान् है ।३२४॥ दे. सम्यग्दर्शन/I1/१ (देव, गुरु, धर्म, तत्त्व ब पदार्थों आदिकी श्रद्धा करता है, आत्मस्वभावकी रुचि रखता है।) दे, सम्यग्दर्शन/I/२ (निशंकितादि आठ अंगों को व प्रशम संवेग अनुकम्पा आस्तिक्य आदि गुणों को धारण करता है।) दे. सम्यग्दृष्टि/२. [सम्यग्दृष्टिको राग द्वेष व मोहका अभाव है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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