Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 4
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 405
________________ सविचार सविचार - दे. विचार । सविपाक विक ससिक्थ - -भ. आं./वि./७००/८८२ / ७ ससित्थगं सित्थसहितं । - जिसमें भात के सिक्थ हों ऐसा पानक या माँड । सहकारी - का. अ. / . / २९८ दवा जो उबयारो हवेह अग्गोष्णं । सो चिय कारणभाव हवदिहु सहकारिभावेण । २१८-सभी द्रव्य पर स्पर में जो उपकार करते है यह सहकारी कारण के रूपमें ही करते हैं। (विशेष दे. कारण / 111/२/५-६ ) । III/ सहचर दे. हेतु । सहज स्वाभाविक दे. नि. सा./ता.वृ./१५) - सहज दुःख दे. दुःख । सहज विपर्ययदे विपर्यय । ३९८ पुत्र था। सहदेव पां. पु. / सर्ग / श्लो - रानी माद्रीसे पाण्डुका (८/१०४ - १०५) भीष्म पितामह तथा द्रोणाचार्य धनुर्विद्या सीखी। (८ / २०८-२१४ ) | ( विशेष दे. पाण्डव ) । अन्तमें दीक्षा धारण की। (२५/१२)। घोर तप किया। ( २५/१७-११) । दुर्योधनके भानजे द्वारा शत्रुञ्जयगिरिपर पोर उपसर्ग होनेते साम्यता पूर्वक देह त्यागकर सर्वार्थ सिद्धि गये । ( २५/५२ - १३६) । पूर्वभव सं० २ में मिश्री ब्राह्मणी थे (२३/८२) तथा पूर्वभव सं० १ में अच्युत स्वर्ग में देव हुए। ( २१ / ११४ ) और वर्तमान भव में सहदेव हुए। ( २४/७७ ) । सहदेवी - प. पु. / सर्ग / श्लोक - सुकौशल मुनिकी माता थी । ( २१/ १५६) पुत्र कालके मुनि हो जानेपर उसके वियोग में मरकर सिंहनी हुई (२२/४६) पूर्वके क्रोधनदा सुकौशलको खा लिया। (२२/ अन्तमें मुलके पिता कीर्तिधरले पूर्वभव जानकर पश्चात्ताप पूर्वक देह त्याग स्वर्ग में गयी । (२२/६७ ) सहनानी -गणित में किसी प्रक्रिया के लिए कल्पित किया गया कोई चिन्ह, अक्षर, अंक आदि - दे. गणित / I/ २-४ । 1 सहभाव - १. अविनाभावका एक भेद दे. अविनाभान १. गुणद्रव्यका स्वभावी विशेष है - दे. गुण / ३ / २० सहभू दे. सहभाव । सहवृत्ति - पं. का./ता.वृ./५०/११/५ समवृत्तिः सहवृत्तिर्गुणगुणिनोः कथं चिदेकत्वेनादितादात्म्यसम्बन्ध इत्यर्थः समवृत्ति अर्थात गुण और गुणोका साथ-साथ रहना अर्थात् उनका कथंचित् एकव अर्थात् तादात्म्य सम्बन्ध । सहसातिचार दे. अतिचार/३ । सहसा निक्षेपाधिकरण अधिक Jain Education International सहस्रनयन - १/५/७६ सगर चक्रवर्तीका साना तथा लोचनाका पुत्र । सहस्रनाम स्तव आशाधर (ई. ११०१-१२४३) द्वारा रचित संस्कृत छन्दबद्ध ग्रन्थ जिसमें १००८ नामों द्वारा भगवान्का स्तवन किया गया है। इसपर आ. श्रुतसागर (ई. १४७३-१५३३ ) ने एक टीका लिखी है। विशेष. अर्हन्त सहस्रपर्वा देवा सहस्ररश्मि - १. पु. / १० / श्लोक - माहिष्मती नगरीका राजा था । ६७॥ रावण की पूजा में बाधा डालने के कारण |११| युद्ध में । ११४ | रावण द्वारा । सांख्य पकड़ा गयो । १३१। अन्तमें पिता शतबाहुकी प्रार्थनापर छोड़ा जाकर दीक्षा धारण कर ली ।१४७, १६८ सहस्रायुध - म. / ११ / श्लोक-वज्रायुधका पुत्र था ।४५० मुनि पिहितास्रवसे दीक्षा लेकर, पिताका भोग समाप्त होनेपर उसके पास जाकर घोर तप किया । संन्यासमरण कर अधोग्रैवेयक में अहमिन्द्र हुआ ।१३८-१४१) सहस्रार - १ बार स्वर्ग-दे, स्वर्ग/२/२०२०५५/०/१४रथनूपुरका राजा था। इसके पुत्र इन्द्रने रावणके दादा 'माली' को मारा था। पीछे रावण द्वारा युद्धमें परास्त किया गया। सहानवस्था दे, विरोध । सह्य-मतयगिरिके समीप में स्थित एक पर्वत मनुष्य / ४ | सांख्य- १. सामान्य परिचय स. म. / परिघ / पृ. ४२१ आत्माके तत्त्वज्ञानको अथवा सम्यग्दर्शन प्रतिपादक शास्त्रको सांख्य कहते हैं। इनको ही प्रधानता देनेके कारण इस मतका नाम सांख्य है । अथवा २५ तत्त्वों का वर्णन करनेके कारण संख्यि कहा जाता है। २. प्रवर्तक साहित्य व समय सम/पर/पृ. ४२३१. इसके गुल प्रणेता महर्षि कपिल थे, जिन्हें क्षत्रिय पुत्र बताया जाता है और उपनिषदों आदिमें जिसे अवतार माना गया है। कृतियाँ - सांख्य प्रवचन सूत्र, तथा तत्व समास । समय - भगवान् वीर व बुद्ध से पूर्व । २. कपिलके साक्षात् शिष्य आतुर हुए समय ई.पू. ५०० १० आरिके शिष्य पंचशिल थे । इन्होंने इस मतका बहुत विस्तार किया। कृतियाँ - तत्त्वसमास पर व्याख्या । समय-गार्वे के अनुसार ई. श. १ । ४. वार्षगण्य भी इसी गुरु परम्परा में हुए । समय ई. २३०-३०० । वार्षगण्य के शिष्य विन्ध्यवासी थे। जिनका असली नाम रुद्रित था । समय-ई. २५०३२० । ५. ईश्वर कृष्ण बड़े प्रसिद्ध टीकाकार हुए हैं। कृतियाँ-षष्टितन्त्र के आधारपर रचित सांख्यकारिका या सांख्य सप्तति । समय - एक मान्यता के अनुसार ई श. २ तथा दूसरी मान्यतासे ई. २४० ३८० । ६. सांख्य कारिकापर माठर और गौडपादने टीकाएँ लिखी हैं । ७, वाचस्पति मिश्र ( ई. ५४० ) ने न्याय वैशेषिक दर्शनोंकी तरह सांख्यकारिकापर सांख्यकौमुदी और व्यास भाष्यपर वैशारदी नामक टीकाएँ लिखी ८ विज्ञानभिक्षु एक प्रतिभाशाली व्यक्ति थे। इन्होंने पूर्वके विस्तृत ईश्वरवादका पुनः उद्धार किया। कृतियाँ - सांख्यसूत्रोंपर सांख्य प्रवचन भाष्य तथा सांख्यसार, पातजलभाष्य वार्तिक, ब्रह्म सूत्रके ऊपर विज्ञानामृत भाष्य आदि ग्रन्थोंकी रचना को । १. इनके अतिरिक्त भी - भार्गव, बाल्मीकि, हारीति, देवल, सनक, नन्द, सनातन, सनत्कुमार, अंगिरा आदि सांख्य विचारक हुए। २. तरच विचार ( षड् दर्शन समुच्चय / ३४ - ४२ / ३२-३७ ) ( भारतीय दर्शन ) 1 १. मूल पदार्थ दो हैं पुरुष व प्रकृति। २. पुरुष चैतन तत्व है। वह एक निष्क्रिय, निर्गुण, निर्दिष्ठ, सूक्ष्म व इन्द्रियातीत है २. प्रकृति जड़ है । वह दो प्रकार है- परा व अपरा परा प्रकृतिको प्रधान मूला या अव्यक्त तथा अपरा प्रकृतिको व्यक्त कहते हैं । अव्यक्त प्रकृति तीन गुणोंकी साम्यावस्था स्वरूप है, तथा वह एक है । व्यक्तप्रकृति अनिरथ, अव्यापक क्रियाशील तथा सगुण है। यह सूक्ष्मसे स्कूल पर्यन्त क्रम २३ मेव रूप है-महत् या बुद्धि, अहंकार, मन, पाँच ज्ञानेन्द्रिय पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच तन्मात्राएँ पाँच ४. सम रज व तम तीन गुण हैं। सत्त्व, प्रकाशस्वरूप 'रज' क्रियाशील, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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