Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 4
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 517
________________ स्वर्ग ३. वैमानिक इन्द्रोंका निर्देश उत्तर-नहीं, क्योंकि, पहिले ही कहा जा चुका है कि इन्द्रादि दश प्रकार की कल्पनाके सद्भाबसे ही करप कहलाते हैं। नव प्रैवेयकादिकमें इन्द्रादिकी कल्पना नहीं है, क्योंकि, वे अहमिन्द्र हैं। स्वर्गलोकका निर्देश | स्वर्गलोक सामान्य निर्देश। कल्प व कल्पातीत विभाग निर्देश। स्वर्गामें स्थित पटलोंके नाम व उनमें स्थित इन्द्रक व श्रेणीबद्ध। | श्रेणीबद्धोंके नाम। स्वमें विमानोंकी संख्या । १. बारह इन्द्रोंकी अपेक्षा। २.चौदह इन्द्रों की अपेक्षा। ६ विमानोंके वर्ण व उनका अवस्थान । दक्षिण व उत्तर कल्पोंमें विमानोंका विभाग। दक्षिण व उत्तर इन्द्रोका निश्चित निवास स्थान । इन्द्रोंके निवासभूत विमानोंका परिचय । कल्पविमानों व इन्द्र भवनोंके विस्तारादि । इन्द्र नगरोंका विस्तार आदि । ब्रह्म स्वर्गका लौकान्तिक लोक। --(दे. लौकान्तिक)। (उपरो, अन्वर्थसंज्ञाय सिद्धिप्रसंग २. वैमानिक देव सामान्य निर्देश १. वैमानिक देवों में मोक्षकी योग्यता सम्बन्धी नियम त. सू/४/२६ विजयादिषु द्विचरमाः।२६-विजयादिकमें अर्थात् विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित नामके अनुत्तर विमानवासी देव द्विचरम देही होते हैं। [ अर्थात् एक मनुष्य व एक देव ऐसे दो भव बीच में लेकर तीसरे भव मोक्ष जायेंगे (दे. चरम)]। स, सि/४/२६/२५७/१ सर्वार्थसिद्धिप्रसंग इति चेत् । न; तेषां परमोत्कृष्टत्वात, अन्वर्थसंज्ञात एकचमरमत्व सिद्धेः। प्रश्न- इस (उपरोक्त सूत्रसे) सर्वार्थसिद्धिका भी ग्रहण प्राप्त होता है ? उत्तरनहीं, क्योंकि, वे परम उत्कृष्ट हैं, उनका सर्वार्थ सिद्धि यह सार्थक नाम है, इसलिए वे एक भवावतारी होते हैं। अर्थात् अगले भवसे मोक्ष जायेंगे। (रा. वा./४/२६/१/२४४/१८)। दे.लौकान्तिक-[सब लौकान्तिक देव एक भवावतारी हैं। ति. प/८/६७५-६७६ कम्पादीदा दुचरमदेहा हवंति केई सुरा। सक्को सहग्गमहिसी सलोयबालो य दक्षिणा इंदा।६७५। सव्वट्ठसिद्धिवासी लोयंतियणामधेयसबसुरा। णियमा दुचरिमदेहा सेसेसु णत्थि णियमो य।६७६६ - कल्पवासी और कल्पातीतों में से कोई देव द्विचरमशरीरी अर्थात् आगामी भवमें मोक्ष प्राप्त करनेवाले हैं। अग्रमहिषी और लोकपालोंसे सहित सौधर्म इन्द्र, सभी दक्षिणेन्द्र, सर्वार्थसिद्धिवासी तथा लौकान्तिक नामक सब देव नियमसे द्विचरम शरीरी हैं। शेष देवों में नियम नहीं है ।६७५-६७६। ३. वैमानिक इन्द्रोंका निर्देश १. वैमानिक देवोंके भेद व लक्षण १. वैमानिकका लक्षण स. सि/४/१६/२४८/४ विमानेषु भवा वैमानिकाः। = जो विमानों में होते हैं वे वैमानिक हैं । (रा. वा./४/१६/१/२२२/२६)। २. कल्पका लक्षण स सि./४/३/२३८/६ इन्द्रादयः प्रकारा दश एतेषु कल्पयन्त इति कल्पाः । भवनवासिषु तत्कल्पनासंभवेऽपि रूढिवशाद्वैमानिकेष्वेव वर्तते कल्पशब्दः। -जिनमें इन्द्र आदि दस प्रकार कल्पे जाते हैं वे कल्प कहलाते हैं। इस प्रकार इन्द्रादिकी कल्पना ही कल्प सज्ञाका कारण है। यद्यपि इन्द्रादिकी कल्पना भवनवासियों में भी सम्भव है, फिर भी रूढ़िसे कल्प शब्दका व्यवहार वैमानिकोंमें ही किया जाता है। (रा. वा./४/३/३२१२/८)। ३. कल्प व कल्पातीत रूप भेद व लक्षण त सू/४/१७ कल्पोपपन्नाः करपातीताश्च ॥१७॥ -वे दो प्रकारके हैं कल्पोपपन्न और करपातीत। (विशेष दे, स्वर्ग/३)। स. सि/४/१७/२४८/९ कल्पेषूपपन्नाः कल्पोपपन्नाः कल्पानतीताः कल्पातीताश्च । - जो कल्पों में उत्पन्न होते हैं वे कल्पोपपन्न कहलाते हैं और जो कल्पोंके परे हैं वे कल्पातीत कहलाते हैं । (रा. वा/४/१०//२२३/२)। ४. कल्पातीत देव सभी अहमिन्द्र हैं रा. वा/४/१७/१/२२३/४ स्यान्मतम् नवग्रैवेयका नवानुदिशाः पञ्चानत्तराः इति च कल्पनासंभवात तेषामपि च कल्पत्वप्रसङ्ग इति; तन्न कि कारणम् । उक्तत्वात । उक्तमेतव-इन्द्रादिदशतयकल्पनासद्भावाद करपा इति। नवग्रैवेयकादिषु इन्द्रादिकल्पना नास्ति तेषामहमिन्द्रत्वात्। -प्रश्न-नवग्रैवेयक, नव अनुदिश और पंच अनुत्तर इस प्रकार संख्याकृत कल्पना होनेसे उनमें कतपत्वका प्रसंग आता है। १. चैमानिक इन्द्रोंके नाम व संख्या आदिका निर्देश स. सि./११/२५०/३ प्रथमौ सौधर्मेशानकापौ, तयोरुपरि सनत्कुमारमाहेन्द्रौ, तयोरुपरि ब्रह्मलोकब्रह्मोत्तरौ, तयोरुपरि लान्तवकापिष्ठी, तयोरुपरि शुक्रमहाशुक्रौ, तयोरुपरि शतारसहस्रारौ, तयोरुपरि आनतप्राणतो, तयोरुपरि आरणाच्युतौ। अध उपरि च प्रत्येक मिन्द्रसंबन्धो वेदितव्यः। मध्ये तु प्रतिद्वयम् । सौधर्म शानसानत्कुमारमाहेन्द्राणां चतुर्णां चत्वार इन्द्राः । ब्रह्मलोकब्रह्मोत्तरयोरेको ब्रह्मा नाम । लान्तवकापिष्ठयोरेको लान्तवारव्यः । शुक्रमहाशुक्रयोरेकः शुक्रसञ्ज्ञः। शतारसहस्रारयोरेको शतारनामा। आनतप्राणतारणाच्युतानां चतुणां चत्वारः। एवं कल्पवासिना द्वादश इन्द्रा भवन्ति । -सर्वप्रथम सौधर्म और ऐशान कल्प युगल है। इनके ऊपर क्रमसेसनत्कुमार-माहेन्द्र, ब्रह्म ब्रह्मोत्तर, लान्तव-कापिष्ठ, शुक्र-महाशुक्र, शतार-सहस्रार, आनत-प्राणत, और आरण अच्युतः ऐसे १६ स्वर्गोके कुल आठ युगल हैं। नीचे और ऊपरके चार-चार कल्पों में प्रत्येकमें एक-एक इन्द्र, मध्यके चार युगलों में दो-दो कल्पोंके अर्थात एक-एक युगलके एक-एक इन्द्र हैं। तात्पर्य यह है, कि सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार और माहेन्द्र इन चार कल्पोके चार इन्द्र हैं। ब्रह्मलोक और ब्रह्मोत्तर इन दो कल्पोंका एक ब्रह्म नामक इन्द्र है। लान्तव और कापिष्ठ इन दो कल्पोंमें एक लान्तव नामक इन्द्र है। शुक्र और महाशुक्रमें एक शुक्र नामक इन्द्र है। शतार और सहस्रार इन दो कल्पों में एक शतार नामक इन्द्र है। तथा आनत, प्राणत, आरण, अच्युत इन चार कल्पोंके चार इन्द्र हैं। इस प्रकार कल्पवासियोंके १२ इन्द्र होते हैं। (रा. वा./४/१६/६-७/२२६/४); (त्रि. सा./४५२४५४ ): (और भी दे. स्वर्ग/५/२) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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