Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 4
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 383
________________ सम्यग्दाष्ट ३. उपरोक्त महिमा सम्बन्धी समन्वय जीव जो इन्द्रियों के द्वारा अचेतन तथा चेतन द्रव्योंका उपभोग करताप.ध./उ./२३२ वैराग्यं परमोपेक्षाज्ञानं स्वानुभवः स्वयम् । तद्वयं है वह सर्व उसके लिए निर्जराका निमित्त है। शानिनो लक्ष्म जीवन्मुक्तः स एव च ।२३२।-परमोपेक्षारूप वैराग्य ज्ञा./३२/३८ अलौकिकमहो वृत्तं ज्ञानिनः केन वर्यते। अज्ञानी बध्यते और आत्मप्रत्यक्ष रूप स्वसंवेद ज्ञान ही ज्ञानीके लक्षण हैं। जिसके ये यत्र ज्ञानी तत्रैव मुच्यते ।३८। -अहो, देखो ज्ञानी पुरुषों के इस दोनों होते हैं, वह ज्ञानी जीवन्मुक्त है। अलौकिक चारित्रका कौन वर्णन कर सकता है। जहाँ अज्ञानी अन्धको प्राप्त होता है, उसी आचरणसे ज्ञानी कर्मोंसे छूट जाता ३. उपरोक्त महिमा सम्बन्धी समन्वय है।३८। (यो, सा./अ./६/१८) पं.ध./उ./२३० आस्ता न बन्धहेतुः स्याज्ज्ञानिनां कर्मजा क्रिया। . भावाम ज्ञानमयापन सम्बन्धी चित्रं यत्पूर्व मद्धानां निर्जरायै च कर्मणाम् ।२३०। - ज्ञानियोंकी स. सा./पं. जयचन्द/१२८ ज्ञानीके सर्वभाव ज्ञान जातिका उल्लंघन न कर्मसे उत्पन्न होनेवाली क्रिया बन्धका कारण नहीं होती है, यह बात करनेसे ज्ञानमयी हैं। तो दूर रही, परन्तु आश्चर्य तो यह है कि उनकी जो भी क्रिया है वह सब पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जराके लिए ही कारण होती है ।२३०॥ २. सदा निरास्त्रव व अबन्ध होने सम्बन्धी ५. अनुपयुक्त दशामें भी उसे निर्जरा होती है स. सा./मू./१७७-१७८ रागो दोसो मोहो य आसवा णस्थि सम्मदि ठिस्स । तम्हा आसवभावेण बिणा हेदू ण पञ्चया होति ।१७७१ हेदू पं.ध./उ./८७८ आत्मन्येवोपयोग्यस्तु ज्ञानं वा स्यात परात्मनि । सत्सु चदुबियप्पो अठवियप्पस्स कारणं भणिदं । तेसि पि य रागादी सम्यक्त्वभावेषु सन्ति ते निर्जरादयः । =ज्ञान चाहे आत्मामें उपयुक्त तेसिमभावे ण बज्झति ।१७८-राग, द्वेष और मोह ये आस्रव हो अथवा कदाचित् परपदार्थों में उपयुक्त हो परन्तु सम्यक्त्व भावके सम्यग्दृष्टि के नहीं होते, इसलिए आसत्रभावके बिना द्रव्यप्रत्यय कर्महोनेपर वे निर्जरादिक अवश्य होते हैं।८७८॥ मन्धके कारण नहीं होते ।१७७१ मिथ्यात्व अविरति प्रमाद और ६. उसकी कर्म चेतना भी ज्ञान चेतना है कषाय ये चार प्रकारके हेतु, आठ प्रकारके कर्मोके कारण कहे गये है,' और उनके भी कारण रागादि भाव हैं। इसलिए उनके अभाव में पं. ध./उ./२७५ अस्ति तस्यापि सदृष्टेः कस्यचित्कर्म चेतना। अपि ज्ञानीको कर्म नहीं बँधते ॥१७॥ कर्मफले सा स्यादर्थतो ज्ञानचेतना।२७। - यद्यपि जघन्य भूमिकामें इ. उ./४४ अगच्छस्तद्विशेषाणामनभिज्ञश्च जायते। अज्ञाततद्विशेषस्तु किसी-किसी सम्यग्दृष्टिके कर्मचेतना और कर्मफलचेतना भी होती बध्यते न विमुच्यते ।४४।-स्वात्मतत्त्व में निष्ठ योगीकी जब पर है, पर वास्तव में वह ज्ञानचेतना ही है। पदार्थोसे निवृत्ति होती है, तब उनके अच्छे बुरे आदि विकल्पोंका उसे ७. उसके कुध्यान भी कुगतिके कारण नहीं अनुभव नहीं होता। तब वह योगी कमोसे भी नहीं बंधता, किन्तु कर्मोंसे छूटता ही है। द्र, स/टी./४८/२०१/३ चतुर्विधमार्तध्यानम् ।...यद्यपि मिथ्यादृष्टीनां स.सा./आ./१७०-१७१ ज्ञानी हि तावदासब-भावभावनाभिप्रायाभावान्नितिर्यग्गतिकारणं भवति तथापि बद्घायुष्कं विहाय सम्यग्दृष्टीनों न- रानव एव । यत्तु तस्यापि द्रव्यप्रत्ययाः प्रतिसमयमनेकप्रकार पुदगलभवति ।...रौद्रध्यान...तच मिथ्यादृष्टीना मरकगतिकारणमपि । कर्म बध्नन्ति तत्र ज्ञानगुणपरिणाम एव हेतुः ।१७०।...तस्यान्तर्मुहूर्तबधायुष्कं विहाय सम्यग्दृष्टीना तत्कारणं न भवति ।-चार प्रकार विपरिणामित्वात पुनः पुनरन्यतमोऽस्ति परिणामः । स तु यथास्यातका आतध्यान यद्यपि मिथ्यादृष्टि जीवोंको तिर्यंचगतिका कारण होता चारित्रावस्थाया अधस्तादवश्यंभाविरागसद्भावात बन्धहेतुरेव स्यात है तथापि बधायुष्कको छोड़कर अन्य सम्यग्दृष्टियोंको वह तियंच ।१७१। - ज्ञानी तो आस्वभावकी भावनाके अभिप्रायके अभावके गतिका कारण नहीं होता है । ( इसी प्रकार ) रौद्रध्यान भी मिथ्या- कारण निराखब ही है परन्तु जो उसे भी द्रव्यप्रत्यय प्रति दृष्टियोंको नरकगतिका कारण होता है, परन्तु बधायुष्कको छोड़कर समय अनेक प्रकारका पुद्गलकर्म माँधते हैं, वहाँ क्षायोपशमिक अन्य सम्यग्दृष्टियौंको वह नरकका कारण नहीं होता है। ज्ञानका परिणमन ही कारण है ।१७०। क्योंकि वह अन्तर्मुहूर्त८. वह वर्तमानमें ही मुक्त है परिणामी है। इसलिए यथाख्यात चारित्रअवस्थासे पहले उसे अवश्य स. सा./आ./३१८/क. १६८ ज्ञानी करोति न न वेदयते च कर्म, जानाति ही रागभावका सद्भाव होनेसे, वह ज्ञान मन्धका कारण ही है। केवल मयं किल तत्स्वभावम्। जानन्परं करणवेदनयोरभावा स. सा/आ./१७२/क/११६ संन्यसन्निजबुद्धिपूर्वमनिशं राग समनं स्वयं, च्छाधस्वभावनियतः स हि मुक्त एव ।१६८-ज्ञानी कर्मको न तो वारंबारमबुद्धिपूर्वमपि ते जेतुं स्वशक्ति स्पृशन् । उच्छिन्दन्परवृकरता है और न भोगता है, वह कर्म के स्वभावको मात्र जानता ही त्तिमेव सकलो ज्ञानस्य पूर्णाभवन्नात्मा नित्यनिरास्त्रवो भवति हि है। इसप्रकार मात्र जानता हुआ करने और भोगनेके अभावके कारण, ज्ञानी यदा स्यात्तदा ।११६।-आत्मा जब ज्ञानी होता है, तम स्वयं शुद्ध स्वभावमें निश्चल ऐसा वह वास्तबमें मुक्त है। अपने समस्त बुद्धिपूर्वक रागको निरन्तर छोड़ता हुआ अर्थात् न ज्ञा./६/५७ मन्ये मुक्तः स पुण्यात्मा विशुद्ध यस्य दर्शनम् । यतस्तदेव करता हुआ, और जो अबुद्धिपूर्वक राग है उसे भी जीतनेके लिए मुक्त्यङ्गमग्रिमं परिकीर्तितम् ।५७१-- जिसको विशुद्ध सम्यग्दर्शन पारम्बार (ज्ञानानुभव रूप) स्वशक्तिको स्पर्श करता हुआ, और प्राप्त हुआ है वह पुण्यात्मा मुक्त है ऐसा मैं मानता हूँ। क्योंकि, (इस प्रकार ) समस्त प्रवृत्तिको-परपरिणतिको उखाड़ता हुआ, सम्यग्दर्शन ही मोक्षका मुख्य अंग कहा गया है। ज्ञानके पूर्ण भावरूप होता हुआ, वास्तबमें सदा निरालय है। नि. सा./ता. वृ./६९/क.८१ इत्थं बुवा परमसमिति मुक्तिकान्तासखी स. सा./आ.९७३-१७६ ज्ञानिनो यदि द्रव्यप्रत्ययाः पूर्वमद्धाः सन्ति, यो, मुक्त्वा सङ्ग भवभयकर हेमरामात्मकं च । स्थित्वाऽपूर्व सहज- सन्तुः तथापि स तु निरासन एव, कर्मोदयकार्यस्य रागद्वेषमोहरूपविल सच्चिच्चमत्कारमात्रे, भेदाभावे समयति च यः सर्वदा मुक्त स्यात्रवभावस्याभावे द्रव्यप्रत्ययानामबन्धहेतुरवात ।-ज्ञानीके यदि एव।८१४-इस प्रकार मुक्तिकान्ताकी सखी परम समितिको जानकर पूर्वमत द्रव्यप्रत्यय विद्यमान हैं। तो भले रहें; तथापि वह तो जो जीव भवभपके करनेवाले कंचनकामिनीके संगको छोड़कर, अपूर्व निरासब ही है। क्योंकि, कर्मोदयका कार्य जो रागद्वेषमोहरूप सहज विलसते अभेद चैतन्य चमत्कार मात्र स्थित रहकर सम्यक आस्रवभाव है उसके अभावमें द्रव्य प्रत्यय बन्धका कारण नहीं है। 'इति' करते हैं अर्थात् सम्यक् रूपसे परिणमित होते हैं वे सर्वदा स.सा./ता. वृ./१७२/२३६/4 यथारख्यातचारित्राधस्तादम्तमहानन्तरं मुक्त ही हैं। निर्विकल्पसमाधौ स्थातुं न शक्यत इति भणितं पूर्व। एवं सति कथं जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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