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राग
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५. राग टालने का उपाय व महत्ता
शून्याशय-कथं समुपलप्स्यसे सुरसमस्य पक्व फलम् (१८६।- समस्त आगमका अभ्यास और चिरकाल तक घोर तपश्चरण कर के भी यदि उन दोनोका फल तू यहाँ सम्पत्ति आदिका लाभ और प्रतिष्ठा आदि चाहता है, तो समझना चाहिए कि तू विवेकहीन होकर उस उत्कृष्ट तपरूप वृक्षके फूलको ही नष्ट करता है। फिर ऐसी अवस्थामें तू उसके सुन्दर व सुस्वादु पके हुए रसोले फलको कैसे प्राप्त कर सकेगा। नही कर सकेगा। और भी दे० ज्योतिष मन्त्र-तन्त्र आदि कार्य लौकिक है (दे० लौकिक) मोक्षमार्गमे इनका अत्यन्त निषेध दे० मन्त्र/१/३-४ ।
१. लोकेषणा रहित ही तप आदिक साथक है चा, सा./१३४/१ यत्किचिदृष्टफल मन्त्रसाधनाद्यनुद्दिश्य क्रियमाणमुपवसनमनशनमित्युच्यते ।-किसी प्रत्यक्ष फलकी अपेक्षा न रखकर और मन्त्र साधनादि उपदेशोके बिना जो उपवास किया जाता है, उसे अनशन कहते है। चा सा./१५०/१ मन्त्रौषधोपकरणयश सत्कारलाभाद्यनपेक्षितचित्तेन परमार्थ निस्पृहमतिनैहलौकिकफल निरुत्सुकेन कर्मक्षयकाक्षिणा ज्ञानलाभाचार • सिद्धयर्थं विनयभावन कर्तव्यम् । -जिनके हृदयमे मन्त्र, औषधि, उपकरण, यश, सत्कार और लाभादिकी अपेक्षा नहीं है, जिनकी बुद्धि वास्तवमै निस्पृह है, जो केवल कर्मोंका नाश करनेको इच्छा करते है, जिनके इस लोकके फल की इच्छा बिलकुल नही है उन्हे ज्ञानका लाभ होनेके लिए · विनय करनेकी भावना
करनी चाहिए। स सा./ता. वृ /२७४/३५३/१२ अभव्यजोबो यद्यपि ख्यातिपूजालाभार्थमेकादशाङ्गश्रुताध्ययन कुर्यात् तथापि तस्य शास्त्रपाठ' शुद्धात्मपरिज्ञानरूपं गुणं न करोति ।-अभव्य जीव यद्यपि ख्याति लाभ व पूजाके अर्थ ग्यारह अग श्रुतका अध्ययन करे, तथापि उसका ज्ञान शुद्धात्म परिज्ञान रूप गुणको नही करता है। दे. तप/२/६ (तप दृष्टफलसे निरपेक्ष होता है)। ५. राग टालने का उपाय व महत्ता
1. रागका अमाव सम्भव है ध/१/४,१,४४/११७-११८/१ ण कसाया जीवगुणा, • •पमादासजमा
वि ण जीवगुणा, ..ण अण्णाणपि, ण मिच्छत्त पि,... तदो णाणदसण-संजम-सम्मत्त खति-मद्दवज्जव-संतोस-विरागादिसहावो जोबो त्ति सिद्ध कषाय जीवके गुण नही है (विशेष दे० कषाय २/३) प्रमाद व असंयम भी जीवके गुण नही है, 'अज्ञान भी जीवके गुण नहीं है, "मिथ्यात्व भी जीवके गुण नहीं है, इस कारण ज्ञान, दर्शन, सयम, सम्यक्त्व, क्षमा, मृदुता आजव, सन्तोष और विरागादि स्वभाव जीव है, यह सिद्ध हुआ। (और इसीलिए इनका अभाव भी किया जा सकता है । और भो दे० मोक्ष/६/४ )
२. राग टालने का निश्चय उपाय प्र सा / मू/20 जो जाणदि अरहंत दन्चत्तगुणत्तपज्जयत्तेहि । सो
जाणदि अप्पाण मोहो खलु जादि तस्स लय ।। (उभयोरपि निश्चयेनाविशेषात् )= जो अरहतको द्रव्यपने गणपने और पर्यायपने जानता है, वह ( अपने ) आत्माको जानता है, और उसका मोह अवश्य लयको प्राप्त होता है ।०। क्योकि दोनोमे निश्चयसे अन्तर नहीं है ।। पं का. मू /१०४ मुणिऊण एतदटूठ तदणुगमणुज्जदो णिहदमोहो । पसमियरागद्दोसो हव दि हदपरापरो जीवो।१०४।- जीव इस अर्थ को (इस शास्त्रके अर्थभूत शुद्ध आत्माको) जानकर, उसके अनुसरणका उद्यम करता हुआ हत मोह होकर (जिसे दर्शनमोहका क्षय हुआ
हो ऐसा होकर ) राग-द्नेषको प्रशमित-निवृत करके, उत्सर और पूर्व बन्धका जिसे नाश हुआ है ऐसा होता है। इ, उ /मू /१७ यथा यथा समायाति स वित्तौ तत्त्वमुत्तमम् । तथा तथा न रोचन्ते विषया सुलभा अपि ।३७। स्वपर पदार्थोके भेद ज्ञानसे जैसा जैसा आरमाका स्वरूप विकसित होता जाता है वैसेवैसे ही सहज प्राप्त रमणीय पचेन्द्रिय विषय भी अरुचिकर प्रतीत होते जाते है।३७१ स. श./मू./४० यत्र काये मुने. प्रेम तत प्रच्याव्य देहिनम् । बुद्ध्या तदुत्तमे काये योजयेत्त्रेम नश्यति ।४०।- जिस शरीरमें मुनिको अन्तरात्माका प्रेम है, उससे भेद विज्ञानके आधार पर आत्माको पृथक करके उस उत्तम चिदानन्दमय कायमे लगावे। ऐसा करनेसे प्रेम नष्ट
हो जाता है।४। प्र. सा./त. प्र/८६,१० तत खलूपायान्तरमिदमपेक्षते। अतो हि मोहक्षपणे परमं शब्द ब्रह्मोपासनं भावज्ञानावष्टम्भदृढीकृतपरिणामेन सम्यगधीयमानमुपायान्तरम् ।८६। निश्चितस्वपरविवेक्स्यात्मनो न खलु विकारकारिणो मोहाड्कुरस्य प्रादुर्भुति. स्यात् ।१०।१. उपरोक्त उपाय ( दे० ऊपर प्र. सा./म् ) वास्तव में इस उपायान्तरकी अपेक्षा रखता है। मोहका क्षय करनेमे, परम शब्दब्रह्मकी उपासनाका भाव ज्ञानके अवलम्बन द्वारा दृढ किये गये परिणामसे सम्यक् प्रकार अभ्यास करना सो उपायान्तर है ।६। २ जिसने स्वपरका विवेक निश्चित किया है ऐसे आत्माके विकारकारी मोहांकुरका प्रादुर्भाव नही होता। ज्ञा./२३/१२ महाप्रशमसंग्रामे शिवश्रीसगमोत्सुकै । योगिभिनिशस्त्रेण
रागमल्लो निपातितः।१२। ज्ञा /३२/५२ मुनेदि मनो मोहादागाद्यैरभिभूयते। तन्नियोज्यात्मनस्तत्वे तान्येव क्षिप्यते क्षणात् ॥५२॥ - मुक्तिरूपी लक्ष्मीके सगकी वाछा करनेवाले योगीश्वरोने महाप्रशमरूपी संग्राम में ज्ञानरूपी शस्त्रसे रागरूपी माल को निपातन किया। क्योकि इसके हते बिना मोक्ष लक्ष्मीकी प्राप्ति नही है ।१२। मुनिका मन यदि मोहके उदय रागादिकसे पीडित हो तो मुनि उस मनको आत्मस्वरूपमें लगाकर,
उन रागादिकोको क्षणमात्रमे क्षेपण करता है ।१२। प्र. सा/ता वृ./२/२१५/१३ की उत्थानिका परमात्मद्रव्यं योऽसौ
जानाति स परद्रव्ये मोहं न करोति । -जो उस परमात्म द्रव्यको
जानता है वह परद्रव्यमें मोह नही करता है। प्र. सा/ता. वृ /२४४/३३८/१२ योऽसौ निजस्वरूपं भावयति तस्य चित्त बहि पदार्थेषु न गच्छति ततश्च चिच्चमत्कारमात्राच्च्युतो न भवति। तदच्यवनेन च रागाद्यभावाद्विविधकर्माणि विनाशयतीति । = जो निजस्वरूपको भाता है, उसका चित्त बाह्य पदार्थोंमें नही जाता है, फिर वह चित् चमत्कार मात्र आत्मासे च्युत नहीं होता। अपने स्वरूपमे अच्युत रहनेसे रागादिके अभावके
कारण विविध प्रकार के कौंका विनाश करता है। प ध/उ./३०१ इत्येवं ज्ञाततत्त्वोऽसौ सम्यग्दृष्टिनिजात्मदृक् । वैषयिके
मुखे ज्ञाने रागद्वेषौ परित्यजेत् ।३७१-इस प्रकार तत्त्वोको जाननेबाला स्वात्मदर्शी यह सम्यग्दृष्टि जीव इन्द्रियजन्य सुख और ज्ञानमें राग तथा द्वेषका परित्याग करे।
३. राग टालनेका व्यवहार उपाय भ आ /मू /२६४ जावंति केइ संगा उदीरया होति रागदोसाण । ते बज्जतो जिणदि हु राग दोस च णिस्संगो ।२६४। राग और द्वेषको उत्पन्न करनेवाला जो कोई परिग्रह है, उनका त्याग करनेवाला मुनि नि स ग होकर राग द्वेषोको जीतता ही है ।२६४। आ अनु/२३७ रागद्वेषौ प्रवृत्ति स्यानिवृत्तिस्तनिषेधनम् । तौ च बाह्यार्थसबद्धौ तस्मात्तात् सुपरित्यजेत् । = राग और द्वेषका नाम
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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