Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 3
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 572
________________ विलसित ५६५ विविक्त शय्यासन फल और डठन का संयोग रूप प्रतिबन्धक्के रहनेसे गुरुत्व मौजूद रा. वा./७/२८/१/५५५/२२ सद्यस्य चारित्रमोहस्य चोदयात्र विवहन रहनेपर भी आमको नीचे नही गिराता। जब सयोग टूट जाता है कन्यावरण विवाह इत्याख्यायते। - साता वेदनीय और चारित्रतम गुरुत्व फलको नीचे गिरा देता है। सयोगके अभाव में गुरुत्व मोहके उदयसे कन्याके वरण करनेको विवाह कहते है। पतनका कारण है, यह सिद्धान्त है। अथवा जैसे दाहके प्रतिबन्धक * विवाह सम्बन्धी विधि विधान-२० संस्कार/२। चन्द्रकान्त मणिके विद्यमान रहते अग्निसे दाह क्रिया नहीं उत्पन्न होतो इसलिए मणि तथा दाह के प्रतिबध्य प्रतिबन्धक भाव युक्त है। २. विवाह सन्तानोत्पत्तिके लिए किया जाता है, ( स भ त./८७/४)। विलासके लिए नही ध १/१,१.१३/१७४/१ अस्तु गुगाना परस्परपरिहारलक्षणो विरोध इष्टत्वात, अन्यथा तेषा स्वरूपहानिप्रसङ्गात् । -गुणोमें परस्पर म. पु./३८/१३४ संतानार्थमृतावेव कामसेवा मिथो भजेत् । = केवल परिहारलक्षण विरोध इष्ट ही है, क्योकि, यदि गुणोका एक दूसरेका सन्तान उत्पन्न करनेकी इच्छासे ऋतुकाल में ही परस्पर कामपरिहार करके अस्तित्व नहीं माना जावे तो उनके स्वरूपकी हानिका सेवन करे। प्रसंग आता है। श्लो. वा./२/भाषाकार/१/८/३/५६१/१७ ज्ञानको मान लेनेपर सब ३. मामा फूफी आदिकी सन्तानमें परस्पर विवाहकी पदाथोंका शून्यपना नही बन पाता है और सवका शून्यपना मान प्रसिद्धि लेनेपर स्वसवेदनकी सत्ता नहीं ठहरती है। यह तुल्यबल वाला ह पु./३३/२६ स्वसार प्रददौ तस्मै देवकी गुरुदक्षिणाम् । =कसने गुरुविरोध है। दक्षिणास्वरूप बसुदेवको अपनी 'देवकी' नामकी बहन प्रदान कर दी। [ यह देवकी वसुदेवके चचा देवसेनकी पुत्री थी-]। * अन्य सम्बन्धित विषय म. पु/७/१०६ पितृष्वस्त्रीय एवाय तव भर्ता भविष्यति । = हे पुत्री। १. स्व वचन बाधित विरोध । -दे० बाधित। वह ललिताग तेरो बुआके ही पुत्र उत्पन्न हुआ है और वही तेरा भर्ता होगा। २. वस्तुके विरोधी धर्मों में अविरोध । -दे० अनेकान्ता । म.पु/१०/१४३ चक्रिणोऽभयघोषस्य स्वसयोऽय यतो युवा। ततश्चक्रि३. आगममें पूर्वापर विरोधमें अविरोध। -दे० आगम//६। सुतानेन परिणिन्ये मनोरमा ११४३। -तरुण अवस्थाको धारण करनेवाला वह सुविधि अभयघोष चक्रवर्तीका भानजा था, इसविलासत-अमरकुमार जातिका एक भवनवासी देव । -दे० लिए उसने उन्हे चक्रवर्तीको पुत्री मनोरमाके साथ विवाह किया असुर । था ।१४३। विलास-नेत्र कटाक्ष ।-दे० विभ्रम/२ । म. पु./७२/२२७-२३० का भावार्थ-(सोमदेवके-सोमदत्त सोमिल विलेपन-चन्दन व कंकुम आदि द्रव्य । -दे०निक्षेप/५/8। और सोमभूति ये तीन पुत्र थे। उन तीनों के मामा अग्निभूतिके धनश्री, मित्रश्री, और नागश्री नामकी तीन कन्याएँ थी, जो उसने विल्लाल-मलवार कार्टी रिज्युमें सर थामस सी राइसके अनु- उपरोक्त तीनों पुत्रोके साथ-साथ परणा दी।) सार मैसुरके जैन राजाओं में एक विल्लाल वशके राजा भी थे, जो पहले द्वारसमुद्रतक राज्य करते थे, और पीछे श्रगापटामके * चक्रवर्ती द्वारा म्लेच्छ कन्याओंका ग्रहण १२ मील उत्तर तोनूरके शासक हुए। इनका आधिपत्य पूर्ण -दे० प्रवज्या /१/३ । कर्णाटकमै था। इस वशके संस्थापक चामुण्डराय (ई. ६६३ ४. गन्धर्व आदि विवाहोंका निषेध ७१३) थे। दे ब्रह्मचर्य/२/३/२ परस्त्री त्याग वतकी शुद्धिकी इच्छासे गन्धर्व विवाह विवक्षा आदि नहीं करने चाहिए और न ही किन्ही कन्याओकी निन्दा स भ. त /२/३ प्राश्निकप्रश्नज्ञानेन प्रतिपादकस्य विवक्षा जायते. करनी चाहिए। विवक्षया च वाक्यप्रयोग । प्रश्नकतकि प्रश्न ज्ञानसे ही प्रतिपादन करनेवालेको विवक्षा होती है, और विवक्षासे वाक्य प्रयोग * धर्मपत्नीके अतिरिक्त अन्य स्त्रियोंका निषेध होता है। -दे, स्त्री/१२॥ स्त्र स्तो/२५/६४ बक्त रित्त का विवक्षा । -बक्ताको इच्छाको विवक्षा विवाह क्रिया-दे सस्कार/२। कहते है। [अर्थात नयको विवक्षा कहते है। -दे० नय/7/१/१/२] । विवाह पटल-आ. ब्रह्मदेव (ई. १२१२-१३२३ ) द्वारा रचित एक ग्रन्थ। * विवक्षाका विषय-दे० स्याद्वाद/२,३॥ विविक्त शय्यासनविवर-लवण समुद्रकी तलीमे स्थित बडे-बडे रवड, जिन्हे पाताल स सि /६/१६/४३८/१० शून्यागारादिषु विविक्तेषु जन्तुपीडाविरहितेषु भी कहते हैं। उत्तम, मध्य व जघन्यके भेदसे ये तीन प्रकारके होते संयतस्थ शय्यासनमवाधान्ययब्रह्मचर्य स्वाध्यायध्यानादिप्रसिद्धयर्थ हैं-(विशेष दे० लोक/४/१)। कर्त्तव्यमिति पञ्चम तप । एकान्त जन्तुओकी पीडासे रहित विवतं-न्या. वि.//१/१०/१७८/११ परिणामो विवत्त । - परि शून्य घर आदिमे निर्वाध ब्रह्मचर्य, स्वाध्याय और ध्यान णाम या परिणमनको विवर्त कहते है। -(विशेष दे० परिणाम )। आदिकी प्रसिद्धि के लिए संयतको शय्यासन लगाना चाहिए।विवाद-दे० वाद। (विशेष दे बसतिका/६) (रा. वा/8/१६/१२/६१६/१२)। का. अ./मू/४४७-४४६ जो रायदोसहेद्र आसण सिज्जादिय परिच्चयइ। विवाह अप्पा णिबिसय सया तस्स तबो पचमो परमो ।४४७। पूजादिसु जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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