Book Title: Jain Shastra sammat Drushtikon
Author(s): Nathmalmuni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 28
________________ [१२] अज्ञान, भय, वासना, प्रमादसे प्रभावित या उत्पन्न होती है-एक शब्दमे, जिसमे संवरनिजर्रात्मक धर्म नहीं होता, आत्म-शुद्धि नहीं होती, वह विशुद्ध अहिंसा या दया नहीं है और जिससे अपनी और दूसरेकी आत्म-शुद्धि होती है, वह विशुद्ध अहिंसा या दया है । ७ - जीना अहिंसा नहीं, मरना हिंसा नहीं, मारना हिसा है, नहीं मारना अहिंसा है । स्व-पर- प्राणोंकी रक्षा करना व्यावहारिक दया है । स्व-पर- आत्माकी रक्षा करना, शुद्धि करना पारमार्थिक दया है । ८ - मनसा, वाचा, कर्मणा किसी जीवका वध न करना, न कराना और न करतेको अच्छा समझना -- यही अभयदान है । ६-बल-प्रयोग, प्रलोभन और भय आदि हिंसात्मक प्रवृत्तियोंसे हिंसा नहीं मिटती । हिसा मिटती है हिंसक का हृदय परिवर्तन होनेसे । दण्ड- विधानसे हिंसकको मिटाया जा सकता है. हिंसाको नहीं । १० - प्राण-रक्षा लोक दृष्टिमे प्रिय है किन्तु श्रेयस् नहीं । भगवान् महावीरकी वाणी' है- "मोक्षार्थी किसीका भी प्रिय अप्रिय न करे ।" १ - पियमप्पियं कस्म वि नो करेज्जा । ( मूत्रकृताङ्ग १ - १० 1 ७ )

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