Book Title: Jain Shastra sammat Drushtikon
Author(s): Nathmalmuni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 38
________________ [ २२ ] "दूसरोंके द्वारा जिलाने, मराने, पीडा दिलाने अथवा दृमग को सहयोग देने, मारने, जिलाने, दुःखी करनेका विचार अथवा बुद्धि होती है, वह केवल मोहसे होनेवाली कल्पना है। अथवा वह मोहसे कल्पित है, तात्त्विक नहीं। कोई किसीका उपकार अथवा अपकार नहीं करता।" [वीजाने हाये जीवावाना भगवानाके पीडावाना के दुखी कन्वाना विचागेके बुद्धि थवी ते जीवन केवल मोह थी यती कल्पनाओज छे अथवा तो मोहथी कल्पेली छे तात्त्विक नथी कोई यानि उपकारके अपकार करतो नथी।] महावीर तत्त्वप्रकाश, प्रकरण ४, पत्र ४३ श्री देवचन्दजी----- "आत्म-गुणका हनन करनेवालाभावसे हिंसक है और आत्मधर्मकी रक्षा करनेवाला भावसे अहिंसक । आत्म-गुणकी रक्षा करना ही धर्म है और आत्म-गुणोंका विध्वंस करना अधर्म।' [आत्म गुणनो हणतो, हिंसक भावे थाय । आत्म धर्मनो रक्षक, भाव अहिंसा कहाय ॥ आत्मगुण-रक्षणा तेह धर्म। स्वगुण-विध्वसना तेह अधर्म ॥] -अध्यात्म गीता श्रीमद् राजचन्द्र-~ "लौकिक दृष्टि और अलौकिक (लोकोत्तर) दृष्टिमें वडा अन्तर है अथवा दोनोंका परस्पर विरुद्ध स्वभाव है। लौकिक

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