Book Title: Jain Sahitya me Vikar
Author(s): Bechardas Doshi, Tilakvijay
Publisher: Digambar Jain Yuvaksangh

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Page 17
________________ इससे यह बात भली भांति विदित हो सकती है कि महावीर की दूसरी शताब्दी से ही श्रुतकी छिन्न भिन्नता याने साहित्य की भाषा और भावों में न्यूनाधिक परिवर्तन प्रारंभ हुआ। हमारे दुर्भाग्य वश वह परिवर्तन प्रारंभ उतने से ही न अटका परन्तु उत्तरोत्तर विशेष वृद्धिको प्राप्त होता गया। उस . स्थितियो मे से गुजरता हुआ आज हमारे समक्ष उपस्थित हुआ है इस बात की स्पष्टी करण निम्न उल्ख से अच्छी तरह हो जायगा। परम श्रमण श्री महावीर का आचरण ही ऐसा है कि जो एक महोपदेशक की गरज पूरी कर सके, उनका एव उनके श्रमण शिष्यों का आचार इतना निवृति परायण था कि जिससे उनमे के किसी भी आत्मनिष्ट व्यक्ति को गुरू की ओर से प्राप्त हुये आत्मज्ञान के संक्षिप्त किन्तु गम्भीर उपदेशात्मक वाक्य समूह को लिपिवद्ध करने की जरा भी आवश्यकता न थी। इससे वे उस उपदेशात्मक वाक्य समूह को अपनी आत्म जागृति के लिये यथास्थित स्वरूप में कण्ठस्थ रखते थे। वे उपदेश बहुत ही संक्षिप्त वाक्यो में समाविष्ठ होने के कारण सूत्रो के नाम से प्रसिद्ध हुये थे। इसी कारण वर्तमान समय में उपलब्ध उन सूत्रो का विशाल विस्तार भी सूत्रो के नाम से ही प्रसिद्ध हो रहा है। अर्थात् जो सूत्र शब्द उन गणधर महाशयो के समय अपनी (सूचनात् सूत्रम् वाली) यथार्थ व्युत्पत्ति को चरितार्थ करता था, वही सूत्र शब्द इस समय अपनी उस व्यत्पत्ति को एक तरफ रखकर जैन सम्प्रदाय की रूढ़ीके वश हो प्रमाण में लाखों श्लोको की सख्या वाले ग्रन्थो को भी अपने भाव मे समाविष्ट करने लगा कहना न पडेगा कि जब तक गणधरो के शिष्य स्थविर महाशयो ने उन संक्षिप्त सत्रो को कण्ठस्थ रक्खा था तब तक उनकी अर्ध मागधी जरा भी परिवर्तित न होने पाई हो, परन्तु जब वे सूत्र शिष्यपरम्परा मे प्रचलित हुये हो और वह शिष्य परम्परा भिन्न भिन्न देशो मे विहार करती होगी बहत सभव है कि उस समय जरूर उन सूत्रो की मूल भाषा अर्ध मागधी भिन्न भिन्न देशो के ससर्ग से स्मृति प्रशके कारण और उच्चार भेद से परिवर्तन को प्राप्त हुई हो। विशेष आगे न जाकर परम श्रमण महावीर की दूसरी शताब्दी की ही बात पर दृष्टिपात करने मे मालूम हो जाता है कि- "२ जिस वक्त आर्य स्थूलभद्र विद्यमान थे उस वक्त मगध देश में एक ही साथ अनुक्रम से बारह वर्षीय महा भीषण दुष्काल पडा, उस समय साधुओ का सध अपने निवाह के लिये समुद्र किनारे के प्रदेशो मे रहने गया थ। वहा पर साधु लोग अपने निर्वाह की पीडा के कारण कण्ठस्थ रहे हुये श्रुतका पुनरावर्तन न कर सकते थे और इससे वह श्रुतज्ञान विस्मृत होने लगा। इस तरह अन्नके दुष्काल का असर पवित्र श्रुत पर भी पड़े बिना न रहा। इसमे उन श्रुत की भी दशा एक दुर्भिक्ष पीडित के समान हो गई। भीषण दुर्भिक्ष के बाद पाटलिपुत्र-पटना में श्रीसघ एकत्रित हुआ और उस समय जो जिसके याद था वह सब श्रुत एकत्रित कराया गया। सब मिलाकर मुश्किल से ग्यारह अग जुडे, परन्तु दृष्टिवाद नामक १२ वा अंग तो प्राय सर्वथा नष्ट हो चुका था क्योंकि उस समय आर्य भद्रबाह अकेले ही उस दृष्टिबाद के माता थे। (देखो-परिशिष्ट पर्व अष्ठमसर्ग श्लो० १९३ तथा नवम सर्ग श्लो०५५-५८)

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