Book Title: Jain Sahitya me Vikar
Author(s): Bechardas Doshi, Tilakvijay
Publisher: Digambar Jain Yuvaksangh

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Page 110
________________ होने पर भी उनके ऊपर बड़ी २ चश्मा जैसी बनावटी आँखें लगानी ही चाहिये या मूर्ति को नग्न ही रखनी चाहिये। मूर्तिपूजक मूर्ति के कन्दोरे, चश्मे या नग्नता से किसी तरह का बोध प्राप्त करते हों यह सम्भव नहीं, किन्तु वे मात्र मूर्ति के प्रशान्त मुखमण्डल से या उसकी योगिमुद्रा से इस प्रकार का भाव प्रगट करते हैं कि ऐसी शमावस्था यह आत्मा का मूलगुण है और इस शान्ताकृति को देखकर किस तरह प्राप्त करना, ऐसा प्रयत्न करते हैं। न्याय की दृष्टि से विचार करने पर यह मालम हो सकता है कि उपास्यदेव की जो स्थिति हमे पूज्य हो, प्रिय हो या स्मरणीय हो उसी स्थिति की मूर्ति हो तो वह विशेष संगत है। यदि उपास्य की हमें सन्यस्तस्थिति पूज्य हो तो उसकी सन्यासी जैसी ही मूर्ति आदरणीय हो सकती है। उसके स्थिति के अनुरूप मूर्ति रखने पर भी यदि हम उसके पास या सम्मुख सन्यासी के मठ जैसा वातावरण न रक्खें तो वह उपास्य की पूजा नहीं किन्तु उसकी विडम्बना है। ससार का कोई भी सन्यासी वस्त्र भरण नहीं पहनता, सिर पर काष्ठतक का भी मुकुट नही रखता, वह कानों में कुडल हाथों मे बाजुबन्द और कठिभाग में कदोरा नही पहनता, उसके सामने पुष्पो का ढेर नही लगा होता और उसके मठ में नाटकशाला जितनी रोशनी भी नहीं होता। मात्र उसके आसपास का वातावरण शान्त और निर्मल होता है, तथापि यदि हम अपने सन्यासी को विरूपस्थिति मे रक्खें तो उस रीति को मैं उसकी मस्करी सिवा अन्य कुछ नही समझता। यदि कोई भाई यह कहे कि हमारे लिये तो श्रीवर्धमान की सर्व अवस्थाये उपास्य ही हैं तो इसे मैं विशेष सुन्दर मानता हूँ। परन्तु उस प्रत्येक अवस्था की सर्वथा भिन्न भिन्न मूर्ति होनी चाहिये। श्रीवर्धमान की क्रीडावस्था, श्रीवर्धमान और यशोदा की गृहस्थावस्था, दीक्षितावस्था, उनकी परमयोगिमुद्रावस्था और सिद्धावस्था की मूर्तियें होनी चाहिये। ऐसा किये बिना मात्र एक योगमुद्रा मे ही उनकी सर्व अवस्थाओं की कल्पना नहीं हो सकती। एक ही मुद्रा में सब अवस्थाओ की कल्पना करने वाले के लिये तो किसी आकार वाली मूर्ति की अपेक्षा गोलमटोल पाषाण ही काफी है। तस्त, ऐसा एक भी प्राचीन प्रमाण नही मिलता कि जो श्वेताम्बर और दिगम्बर मर्ति की भिन्नता साबित करता हो। प्रमाण तो इससे विपरीत ही मिलते हैं और वे दोनो सप्रदाय की मर्ति की एकता को सिद्ध करते हैं। यदि प्रथम से ही दोनों संप्रदाय की मर्तिया भिन्न भिन्न होती तो श्वेताम्बरों और दिगम्बरों के लिये एक ही तीर्थ पर आकर एक ही मूर्ति के स्नात्रादि विधिविधान करने के जो उल्लेख मिलते हैं वे किस तरह मिल सकते थे? श्वेताम्बर सघपति पेथडका सघ और दिगम्बर संघपति नीजी (पूर्ण) अग्रवालका संघ ये दोनो ही गिनरनार पर एक साथ ही चढ़े थे और दोनों संघ ' 101

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