Book Title: Jain Sahitya me Vikar
Author(s): Bechardas Doshi, Tilakvijay
Publisher: Digambar Jain Yuvaksangh

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Page 82
________________ वर्धमान का कथन किया न हो, भले ही उसके सम्बन्ध में विधिवाक्य अंग सूत्रों में न मिल सकता हो तथापि वह लोंकके प्रवाहवाही विभाग को प्रारंभ मे आत्मा की मूल स्थिति का भान कराने के लिये दर्पण के समान है. अतः उसका मर्यादित सेवन उनके लिये अत्यपयोगी है। परन्तु उसका सेवन करने वाले को यह बात खास ध्यान में रखनी चाहिये कि वह सेवन अफीम के आदी जैसा न होना चाहिये। उस सेवन से कालक्रमेण-धीरे २ सेवको में पवित्र आचार, पवित्र विचार, पवित्र जीवन, विशुद्ध नीति और अखण्ड प्रामाणिकता जैसे मनुष्यता को शोभित करनेवाले सद्गुण तो अवश्य ही प्रगट होने चाहिये। कदाचित् हम अपने अशुद्ध सस्कारो के भीषण दबाव से दबे हुये हों तथापि इस वाद के विवेकपूर्वक आश्रय से मेरी मान्यतानुसार चाहे जैसा अशुद्ध माना जाता हुआ मनुष्य भी यदा कदापि विशुद्ध हुये बिना नहीं रह सकता। महर्षि देवचद्रजी के शब्दो मे कहूँ तो "नामे ही प्रभु, नामे अभ्द्रत रग, ठवणा हो प्रभु, ठवणा दीठे उल्लसे जी। गण आस्वाद हो प्रभु, गुण आस्वाद, अभग, तन्मय हो प्रभु, तन्मयताए जे धसे जी" ।।६।। परन्तु यदि हम वैसा न करे और जैसे एक मशीन क्रिया करती रहती है त्यो प्रत्येक क्रिया करते रहे तब फिर मूर्तिवाद तो क्या साक्षात् भगवान् महावीर भी हमारा कल्याण नही कर सकते। महाशयो! यहां पर मैं क्षन्तव्य हैं। कोई पाठक महाशय मेरे विषय मे गैर समझ न कर लें तदर्थ मझे विषयान्तर होकर भी मुर्तिवाद के सम्बन्ध मे अपना संक्षिप्त अभिप्राय बतलाना पड़ा है। इस विषय मे मै प्रसगवश अपने विशेष विचारो को भी आपके सामने रखने की कामना करके पुन प्रस्तुत विषय पर आता है। ऊपर कथन किये मजब र्याद मूर्तिवाद के साथ सम्बन्ध रखनेवाला कोई पुरातन ऐतिहासिक प्रमाण या अंगसूत्र का विधिवाक्य नही मिल सकता जो उसे अवलम्ब करनेवाले देवद्रव्य का साधक उल्लेख तो मिले ही कहा मे? देवद्रव्य को भगवान महावीर भाषित या उसे अगविहित रूप से बतलाने वाले को सब से प्रथम मूर्तिवाद की श्रीवर्धमान-भाषितता और अगविहितता सिद्ध करनी चाहिये। ऐसा किये बिना देवद्रव्य अनादि का है देवद्रव्य शास्त्र मे लिखा हुआ १ "जम्हा जिणाण पडिमा अप्प परिणाम दसणनिमित्ति आयसमडलाभा महाऽमुहज्झाणदिट्ठीए". (सबोधप्रकरण-श्लो० ४० पृ०२) 73

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