Book Title: Jain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Author(s): Motichand Rupchand Zaveri
Publisher: Motichand Rupchand Zaveri
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Gamandi
संयमश्रेणीनुं
स्तवनम्
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गाथा-पंच पंच बुड्ढि विचेंजी, ठाण एक एक जोय; इम अनंतगुण बुढिनांजी, कंडक माने होय० गुणोदधि० मरु०॥१८॥
भावार्थः-अनंत गुण वृद्धिनां प्रथम स्थानक पछी अनंतर अनंत भाग वृद्धि १ असंख्य भाग वृद्धि २ संख्यात भाग वृद्धि ३ संख्यात गुण वृद्धि ४ असंख्यात गुण वृद्धि ५ ए पांच वृद्धि रूप सर्व संयम स्थानक उपजे त्यार पछी एक अनंत गुण वृद्धनुं बीजं संयम स्थानक आवे ए रीते पांच पांच वृद्धिने वच्चे एक एक अनंत गुण वृद्धनुं स्थानक निपजे ते ज्ञान द्रष्टि ए जुओ इम करतां अनंत गुण वृद्धनां संयमस्थानक केटलां होय ते कहे छे कंडक प्रमाणे होय ते अंगुल ने असंख्या-3 तमा भागमा जेटला आकाश प्रदेशछे ते प्रमाण जाणवा ॥१८॥
गाथा-उपर वली पंच वृद्धिनांजी, फरसे संयम ठाण; प्रवचन अनुसारे कडुंजी, षट् स्थानक परिमाण० गुणोदधि० मेरु०॥ १९॥
भावार्थः-अनंतगुण वृद्ध कंडकनां चरम स्थानकने उपर वली मूल थकी पांच वृद्धिनां सर्व है।
शा. २९
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