Book Title: Jain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Author(s): Motichand Rupchand Zaveri
Publisher: Motichand Rupchand Zaveri
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अर्थ
सहित
संयम- “जहा खरो चंदण भारवाही, भारस्सभागी नहु चंदणस्स; एवं खु नाणी चरणेण हीणो, नाणस्स श्रेणीनुं भागी नहु सुग्गइ ए" ॥ १॥ गाथा ॥ ४॥ स्तवनम् गाथा-आश्रव त्यागे संवर परिणत, अविरति सरव उठायो; स्व स्वरूपमा स्थिरता
तेहिज, संयम शुद्ध ठरायोरे-भले० ॥५॥
भावार्थ:-संयमनं मल स्वरूप कहीए छीए पंच आश्रवने त्यागे पंच संवर परिणत अविरति १२ "मणकरणा नियमा छजिय वहो" ए बार अविरति अभावे खक-पोतानां स्वरुपमा स्थिरता रमण निश्चलता तेज शुद्ध संयम वीतराग आगममां ठरायोछे ॥५॥ HI गाथा-अनुभव सुरतरु फलने काजे, कीजे आतम अमायो; सन्मुख भावे जेह प्रवबर्तन, तेह निवर्त्तन दायोरे-भले०॥६॥ A भावार्थः-अनुभव रूप जे कल्पवृक्ष तेनुं फल जे मोक्ष तेने माटे आत्मा माया रहित करवो.
अथवा अनुभव सुखी जीवन मुक्तछे. यदुक्तम्-"निर्जितमदमदनानां, वाकायमनोविकार
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