Book Title: Jain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Author(s): Motichand Rupchand Zaveri
Publisher: Motichand Rupchand Zaveri
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श्री
देवलोक
॥१८॥
“अथ श्रीदेवलोक स्तवन"
स्तवनम् दुहा-सरस वचन ये सरस्वति, लागुं सुगुरुके पाय; देवलोक ते बारना, जिनबिंब चैत्य कहेवाय || १॥ सौधर्म देवलोक प्रथम, बीजु इशानिक सार; सनत्कुमार त्रीजुं कह्यु, चोथु माहेंद्र अपार ॥२॥ ब्रह्म देवलोक पांचमे, उट्टे लांतिक जाण; सातमें शुक्र देवलोकछे, सहस्रार आठमें प्रमाण ॥३॥ आनत नवमुं जाणीए, प्राणत दशमें स्वाम; आरण इग्यारमे सहि, अच्युत बारमुं ठाम ॥४॥ इत्यादिक बारे कह्या, देवलोक सुखकार; तेहनी रचना हवे स्तवं, ते सुणजो भवि सार ॥ ५॥ . ढाल-१-पहेली॥ नदीयमुनाके तीर उडे दोय पंखीया-ए देशी॥
॥१८॥ I सौधर्म देवलोक प्रथम कडं, जिनराज ए, वत्रीशलाख विमान प्रभुजीना सार ए; वली बत्रीशलाख प्रासाद सुहंकरु, लाख वत्रीश घंटा ते नादे अतिस्वरु ॥१॥कोड सत्तावन्न बिंब जिनजीना कहुं, साठलाख उपर ते शाश्वता जिन लहुं; ए पहेला देवलोकनी संख्या सवि कही, हवे
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