Book Title: Jain Dharm aur Murti Puja
Author(s): Virdhilal Sethi
Publisher: Gyanchand Jain Kota

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Page 23
________________ १७ का आत्मा में लीन होना ही उत्कृष्ट ध्यान है। इनसे स्पष्ट हैं कि उत्कृष्ट ध्यान वह है जिसमें न तो अरहंतों के ( आत्मा ) गुणों का चितवन ही अपेक्षित होताहै और न यम नियमादि रूप क्रियाओं का आचरण ही किन्तु केवल आत्मा को आत्मा में ff करने की आवश्यकता होती है । इस ध्यान में किसी भी प्रकार के मूर्त आधार ( अवलम्बन ) की आवश्यकता नहीं होती क्योंकि यहां शब्द द्वारा चितवन का भी अस्तित्व नहीं रहता केवल परमवरूप मय भाव ही पाये जाते हैं। ऐसा ध्यान निर्विकल्प ध्यान ही होसकता है और वह उतना कठिन है कि हम सांसारिक विषय वासनाओं में लगे हुए मनुष्य ना क्या अन् २ मुनि भी बिना बहुत बहुए अभ्यास के नही करसकते । इसलिये इस ध्यान के करने की सामर्थ्य न रखने मनुष्यों के लिये किसी श्रालम्बन की आवश्यकता होती है और वह वन वे शब्द हैं जो आत्मा 不 स्वाभाविक गुणों को प्रकट करनेवाले भावों के धोतक होते हैं । किन्तु उन मनुष्यों के लिये जो सांसारिक विषय वासनाओं / में होने से आत्मा के स्वाभाविक गुणों के शब्दों के भाव को भी यह करने में असमर्थ होते हैं एक और अब लंबनकी आवश्यकता होती है, जिसको मूर्ति या चित्र कहते है । 1

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