Book Title: Jain Dharm aur Murti Puja
Author(s): Virdhilal Sethi
Publisher: Gyanchand Jain Kota

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Page 61
________________ ५७ अपना उपदेश भिन्न प्रकार में दिया है जो श्री स्वामी के प्रसिद्ध ग्रंथ मृलाचार की निम्नलिखित प्राकृत गाथा मे प्रकट है: बाची तिश्रयग मामादयं संजम उद्यदिति । achar वा पुरण भरावं उसही य वीरोय ।। ७-३२ ।। जिन से लेकर पार्श्वनाथ पर्यंत वाईस नीर्थंकरों सामायिक संयम का और ऋषभदेव तथा महावीर भगवान स्थापना संगम का उपदेश दिया है । वेही याचार्य आगे लिखत हैं:- प्राचक्खिटुं विभजितुं विष्णादु चाचि मुहदर होदि । एंडुन कारन दु महत्वदा पंच पण्णत्ता ॥ ३३ ॥ दुध हिरो नह सुट्ट दुरगुपालया । रिमाय पच्चिमा विद्दु कप्पा कष्पं गा जागति ॥ ३४ ॥ जिसका आशय यह है कि पांच महात्रतों (छेदोपस्थापना) का कथन इस कारण किया गया है कि इनके द्वारा सामायिक का दूसरों को उपदेश देना, स्वयं अनुष्ठान करना और अलहदा नौर मे भावना में लाना सुगम होजाता है। आदि तीर्थ में शिष्य अत्यंत सरल होने से मुश्किल से शुद्ध किये जाते हैं, अंतिम नाथ में अत्यंत व होने में कठिनाई से निवाद करते हैं। साथही उन दोनों समयों के शिष्य योग्य अयोग्य को नहीं जानते इस लिये आदि और अंत के तीर्थ में दोपस्थापना (पंच महावन)

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