Book Title: Jain Dharm aur Murti Puja
Author(s): Virdhilal Sethi
Publisher: Gyanchand Jain Kota

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Page 63
________________ ५६ की सत्यता पर विश्वास रखने वाले हम जैनी भी आज ऐसे मूर्ख बने हुये हैं कि हम यह तक विचार करने की कोशिश नहीं करते कि धर्म जो भावरूप से अनादि और कभी नाश न न होने वाला है, पर्याय रूप से परिवर्तन शील ही हैं अर्थात यद्यपि नि धर्म सर्वदा वही रहता है तो भी निश्चय धर्म के मूल भाव के उद्देश्य की पूर्ति के लिये बनाई हुई व्रत नियमादि रूपक्रियामें समय के अनुसार परिवर्तित होती ही रहती हैं। अतः पर्याय परिवर्तन में धर्म का नाश न समझ लेना चाहिये क्योंकि निश्चय धर्म की व्यवहारधर्मरूप पर्याय का सर्वदा एकसा रहना नितांत असंभव है। इस बात का अवश्य ध्यान रखना चाहिये कि जिस उद्देश्य की पूर्ति उस क्रिया ने अपने समय में की हो उसी की पूर्ति उसकी नवीन पर्याय भी करने में पूर्ण समर्थ हो । किन्तु आज हमारी यह अवस्था होगई है कि इसी परिवर्तन का अनादर करके पूजा और प्रतिष्टाओं के नाम पर प्रति वर्ष हजारों लाखों रुपया व्यर्थ बरबाद कर रहे हैं ! 1 के कई आचार्य नामधारी भट्टारकों ने, करके जन धर्म के रूप को विकृत कर दिया है जैसा परिवर्तन किसी भी काम का नहीं होता । इसीप्रकार एक बार किया हुआ आवश्यक परि.. वर्तन भी उस परिस्थिति के बदल जाने पर बिलकुल निरुपयोगी होकर उलटा हानिकारक बन जाता है जैसा कि मूर्तिपूजा का प्रचलित ढंग |

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