Book Title: Jain Dharm aur Murti Puja
Author(s): Virdhilal Sethi
Publisher: Gyanchand Jain Kota

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Page 37
________________ की नकल के रूप में है जो कुछ परिवर्तन करके अपनाली गई हैं। उद हरण के लिये हिन्दुओं की 'पंचायतन पूजा' में का कुछ अंश जैनियों के विसर्जन पाठ से मालान करने के लिये उद्धत किया जाता है आवाहनं न जानामि न जानामि तवार्चनम्। पूजां चैव न जानामि क्षमस्व परमेश्वर ॥ अन्यथा शरणं नास्ति त्वमेव शरणं मम । तस्मात्कारुण्य भावेन रक्षस्व परमेश्वर ।। मंत्रहीन क्रियाहीनं भक्तिहीनं सुरेश्वर । यत्यूजितं मयादेव परिपूर्ण तदस्तुभे ॥ यदक्षरपदभ्रष्टं मात्राहीनं च यद्भवेत् । तत्सर्व क्षम्यतां देव क्षमस्व परमेश्वर ।। उपरोक्त वाक्यों के हमारे विसर्जन के उसी से मिलते हुए अंश से मल न करने प. इसमें संदेह नहीं रहना कि उपरोक के ही शब्दों में कुछ परिवर्तन करके हमने उसे अपना बना लिया है । इस विषय में हम ( जैनी ) यह कदापि नहीं कह सकते कि पूर्वोक्त में हिन्दुओं ने हमारी ( जैनियों की ) नकल की है क्योंकि हमारे यहाँ नैवेद्यादि चढ़ाने और इसप्रकार

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