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'अहो इस शरीर के माता-पिता! तुम निश्चय से मेरे आत्मा के माता-पिता नहीं हो। अतः मोह छोड़ो। इसी प्रकार पत्नी से तथा पुत्र-पुत्रियों से एवं अन्य सभी सम्बन्धियों से हाथ जोड़कर कहता है कि तुम-सब मेरे इस शरीर के सम्बन्धी हो, तुम अब इससे मुँह मोड़ो। हमारा-तुम्हारा यहीं तक का साथ था, सो हो गया। तुम सब भी आत्मा को जानकर, पहचान कर इसी में जमो, रमो और शीघ्र परमात्मा बनो। मेरी तुम्हारे प्रति यही सद्भावना है।'
सभी भव्य जीव ऐसे मंगलमय समाधिमरण को धारण कर अपने जीवन में की गई आत्मा की आराधना तथा धर्म की साधना को सफल करते हुए सुगति प्राप्त कर सकते हैं।
सारांश रूप में कहें तो आधि, व्याधि और उपाधि से रहित आत्मा के निर्मल परिणामों का नाम समाधि है। आधि अर्थात् मानसिक चिन्ता, व्याधि अर्थात् शारीरिक रोग और उपाधि अर्थात् पर के कर्तृत्वका बोझ -इन तीनों से रहित आत्मा की वह निर्मल परिणति समाधि है, जिसमें न कोई चिन्ता है, न रोग है और न पर के कर्तृत्व का भार ही है। एकदम निराकुल, परम शान्त, अत्यन्त निर्भय और निशंक भाव से जीवन जीवन जीने की कला ही वस्तुतः समाधि है। यह समाधि संवेग के बिना सम्भव नहीं और संवेग अर्थात् संसार से उदासी सम्यग्दर्शन के बिना सम्भव नहीं। सम्यग्दर्शन के लिए तत्त्वाभ्यास और भेद-विज्ञान अनिवार्य है।
जिसे समाधि द्वारा सुखद जीवन जीना आता है, वही व्यक्ति सल्लेखना द्वारा मृत्यु को महोत्सव बना सकता है, वही शान्तिपूर्वक मरण का वरण कर सकता है।
समाधि और सल्लेखना को और भी सरल शब्दों में परिभाषित करें, तो हम यह कह सकते हैं कि "समाधि समता भाव से सुख-शान्तिपूर्वक जीवन जीने की कला है और सल्लेखना मृत्यु को महोत्सव बनाने का क्रान्तिकारी कदम है, मानव जीवन को सार्थक और सफल करने का एक अनोखा अभियान है।"
सल्लेखना :: 389
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