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कोश-परम्परा एवं साहित्य
डॉ. कमलेश जैन
जैन सन्तों तथा अन्य ग्रन्थकारों ने भारतीय विद्या की विविध विधाओं को अत्यधिक समृद्ध किया है। कोश या शब्दकोश निर्माण के क्षेत्र में भी उनका योगदान कम महत्त्व का नहीं है। भारतीय वाङ्मय में शब्दकोशों की एक सुदीर्घ एवं विशाल परम्परा मिलती है और लगभग एक हजार से भी अधिक शब्दकोशों की अब तक रचना हो चुकी है । ये शब्दकोश भारत की विभिन्न भाषाओं में मिलते हैं।
कोश एक सन्दर्भ-ग्रन्थ के समान होता है, जिसमें शब्दरूपों का परिचय, उच्चारण, व्याकरणनिर्देश, व्युत्पत्ति, व्याख्या, पर्याय, लिंग, अर्थ, वाक्य - विन्यास तथा शब्दों का वर्णादि क्रम से संयोजन किया जाता है। कोश की आवश्यकता इसलिए भी पड़ती है। कि उसमें अर्थ का अनुशासन किया जाता है, इसलिए किसी शब्द - विशेष के निश्चित अर्थबोध के लिए कोश का पठन-पाठन जरूरी होता है। कुछ टीकाकारों के अनुसार, व्याकरण प्रामाणिक होते हुए भी कोश विशेष बलवान् होता है । उनके मत से जिस शब्द की सिद्धि किसी व्याकरण के वचन से नहीं होती हो, उसके साधुत्व का बोध मात्र कोश से किया जा सकता है।
582 :: जैनधर्म परिचय
कोश व्यावहारिक साहित्य का एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण अंग माना गया है। भारतवर्ष में कोशों का अस्तित्व भी ढाई हजार वर्ष से अधिक पुराना है और यह भी सत्य है कि उसके पहले भी भारतीय परम्परा प्राचीन काल में मौखिक चलती थी । अतः यह कहना बहुत कठिन है कि कोश की यह परम्परा कब से प्रारम्भ हुई; परन्तु भाषिक शब्दों का अविच्छिन्न अंग होने से कोश को उतना ही प्राचीन मानना चाहिए जितनी कि भाषा ।
जैन साहित्य के इतिहास से यह स्पष्ट होता है कि जैन परम्परा में युग- विशेष के अनुरूप साहित्य सृजन की प्रवृत्ति विशेष रूप से देखी जाती है। इसलिए इस कथन में कुछ सचाई भी है कि 'प्राकृत जैनों की भाषा है' परन्तु जैन ग्रन्थकारों ने भारतवर्ष की प्राय: सभी प्रमुख भाषाओं में साहित्य रचना की और इसीलिए विभिन्न भाषाओं में उनके द्वारा लिखे गये शब्दकोश आदि आज भी उपलब्ध होते हैं ।
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