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साथ हो रहा था।± इन आयागपटों पर जैन प्रतीकों के साथ ही मानव रूप में जिन मूर्ति भी उत्कीर्ण है। दूसरी - पहली शती ई.पू. के एक आयागपट (राज्य संग्रहालय, लखनऊ, क्रमांक जे. 253) पर मध्य में सात सर्पफणों के छत्र से युक्त पार्श्वनाथ की ध्यानस्थ मूर्ति उत्कीर्ण है। ध्यानमुद्रा में तीर्थंकर की यह प्राचीनतम ज्ञात मूर्ति है।
मथुरा से ल. 150 ई.पू. से 11वीं शती ई. के मध्य की प्रभूत जैन मूर्तियाँ मिली हैं। ये मूर्तियाँ आरम्भ से मध्य युग (11वीं शती ई.) तक की जैन प्रतिमाओं की विकास श्रृंखला को प्रदर्शित करती हैं । शुंग-कुषाण काल में मथुरा में सर्वप्रथम जिनों के वक्षःस्थल पर श्रीवत्स चिह्न का उत्कीर्णन और जिनों का ध्यान - मुद्रा में निरूपण प्रारम्भ हुआ। ज्ञातव्य है कि जिन - मूर्तियाँ सर्वदा कायोत्सर्ग और ध्यान-मुद्राओं में ही निरूपित हुईं। मथुरा में कुषाण-काल में ऋषभनाथ, सम्भवनाथ, मुनिसुव्रत, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ एवं महावीर की स्वतन्त्र मूर्तियाँ, ऋषभनाथ और महावीर के जीवन-दृश्य, आयागपट, जिन चौमुखी तथा सरस्वती एवं नैगमेषी की मूर्तियाँ उत्कीर्ण हुई । राज्य संग्रहालय, लखनऊ (क्रमांक जे. 616) में सुरक्षित एक पट्ट पर महावीर के गर्भापहरण का दृश्य है । 14 राज्य संग्रहालय, लखनऊ (क्रमांक जे. 354) के ही एक अन्य पट्ट पर इन्द्र सभा की नर्तकी नीलांजना को ऋषभनाथ की सभा में नृत्य करते हुए दिखाया गया है । ज्ञातव्य है कि नीलांजना के नृत्य के कारण ही ऋषभनाथ को वैराग्यभाव उत्पन्न हुआ था। 15
गुप्तकाल में जैन पुरास्थलों का विस्तार हुआ और मथुरा एवं चौसा के अतिरिक्त राजगीर, विदिशा, नचना, दुर्जनपुर, वाराणसी, कहौम, उदयगिरि एवं अकोटा से भी जैन मूर्तियाँ मिली हैं। इस काल में केवल जिनों की स्वतन्त्र एवं जिन चौमुखी मूर्तियाँ ही बनीं। इनमें ऋषभनाथ, अजितनाथ, चन्द्रप्रभ, पुष्पदन्त, " नेमिनाथ, पार्श्वनाथ (चित्र सं. 4) एवं महावीर (चित्र सं. 5) का निरूपण हुआ है । श्वेताम्बर जिन मूर्तियों (अकोटा) के स्पष्ट प्रमाण भी गुप्तकाल से ही मिलते हैं। जिन मूर्तियों में यक्ष-यक्षी का रूपायन भी गुप्तकाल में प्रारम्भ हुआ, जिसके उदाहरण राजगीर (पाँचवीं शती ई.) अकोटा एवं वाराणसी (छठी शती ई.) से मिले हैं।
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10वीं से 12वीं शती ई. के मध्य जैन प्रतिमा - लक्षण - विषयक ग्रन्थ एवं शिल्पसामग्री विपुलता और विविधता में उपलब्ध है । सर्वाधिक जैन मन्दिर और फलतः उन पर प्रभूत संख्या में मूर्तियाँ भी इसी काल में बनीं। गुजरात और राजस्थान में श्वेताम्बर एवं अन्य क्षेत्रों में दिगम्बर सम्प्रदाय के मन्दिरों एवं मूर्तियों की प्रधानता रही है। गुजरात और राजस्थान के श्वेताम्बर जैन मन्दिरों में 24 देवकुलिकाओं को संयुक्त कर उनमें 24 जिनों की मूर्तियाँ स्थापित करने की परम्परा लोकप्रिय हुई । श्वेताम्बर स्थलों की तुलना में दिगम्बर स्थलों पर जिनों की अधिक मूर्तियाँ उत्कीर्ण हुईं, जिनमें स्वतन्त्र तथा द्वितीर्थी, त्रितीर्थी एवं चौमुखी (चित्र सं. 6) मूर्तियाँ हैं ।
690 :: जैनधर्म परिचय
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