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भोगता है। कभी देवगति में पहुँचकर दूसरे की सम्पदाएँ देखकर उनसे रागी होता हुआ महादुःखी रहता है और मनुष्यगति तो अनेक विपत्तिमय है ही। जन्म के काल से लेकर सम्पूर्ण जीवनकाल तक अनन्तों समस्याओं से भरा जीवन बीतता है। इस प्रकार चारों गति रूप संसार-समुद्र में सम्पूर्णतया सुखी कोई नहीं हैं।
मनुष्यभव में कोई तो इष्टजनों के वियोग-प्रसंगों से दु:खी है, तो कोई अनिष्ट जनों के मिलन-प्रसंगों से दुःखी है। कोई दीन-दारिद्र्य से बिलखते हैं, तो कोई तन में आये रोगों से दु:खी हैं। किसी को गृह-कलह को जन्म देने वाली पत्नी से पीड़ा है, तो कोई दुश्मन के समान मतलबी भाई-बन्धुओं से परेशान है। किसी का दुःख बाह्य में दिखाई देता है, तो कोई अन्तर हृदय में पीड़ित है। ___ कोई पुत्र प्राप्ति के अभाव में तड़पता है, तो कोई पुत्र प्राप्ति के बाद उसके मरण हो जाने पर रोता रहता है। कोई सन्तान के आज्ञाकारी नहीं होने पर, खोटे लक्षण युक्त होने से दु:खी होता है। कदाचित् पुण्य उदय हो, तो भी सदा सुख-अनुकूलता नहीं रहती, जितना प्राप्त हो उतने से सन्तुष्टि नहीं होती, और अधिक, और अधिक की चाहत में निरन्तर यह जीव दुःखी ही बना रहता है। इस प्रकार इस भव वन में जहाँ दृष्टिपात किया जाए वहीं दुःखदायीपना प्रतिभासित होता है।
यदि इस संसार में ही, पुण्योदय से प्राप्त सामग्रियों में ही सुख होता तो तीर्थंकर महापुरुष आदि महापुण्यशाली जीव क्यों इस जगवास को त्यागकर संयम का पथ अपनाते हुए मोक्षमार्ग आरुढ़ हो सिद्ध बनते? अर्थात् जिस संसार दुःख से तीर्थंकर महापुरुष भी भयभीत हुए, उस संसार में सुख की कल्पना भ्रमरोग ही है।
अब देह का स्वरूप विचारणीय है
पुद्गल परमाणुओं की आहार वर्गणाओं से निर्मित यह मनुष्य गति, पशुगति का औदारिक देह स्वयं अपवित्र रज-वीर्यादि पदार्थों से निर्मित होकर, हड्डी, मांस, नस, खून, चर्वी आदि अपवित्र वस्तुओं से बनी हुई, केशर, चन्दनादि सुगन्धित पवित्र वस्तुओं के संसर्ग में भी अपनी अपवित्रता से उन सुगन्धित पदार्थों को भी मलिन दुर्गन्धयुक्त करने वाली है तथा सुन्दर से सुन्दर बहुमूल्य वस्तुएँ भी इस देह के संसर्ग से मलिन मल-मूत्रमय हो जाती है। स्वयं अस्थिर स्वभाव वाली है। इसे तो समुद्र-भर जल से भी पवित्र किया जाए तो भी शुद्ध-पवित्र नहीं हो सकती है। ___यह रस, रक्त, मांस, मैदा, हड्डी, मज्जा, शुक्र जैसी महामलिन धातुओं से लबालब, चमड़े से लिपटी हुई दिखाई देती है। भीतर से देखने पर यह पता चलता है कि इससे गन्दी तो विश्व में कोई और वस्तु ही नहीं है। आँख, नाक, कान, मुँह, नाभि, मूत्र एवं मलनौ मलद्वारों से निरन्तर घिनौने पदार्थों का बहना चालू रहता है। अनेक शारीरिक व मानसिक व्याधि-उपाधियाँ जहाँ लगी ही रहती हैं। ऐसे शरीर में से कोई कैसे सुख पा सकता है। और तो और इस देह का तो जितना पोषण करो, इसे सुविधाएँ दो, उतनी ही अकड़ती व
ध्यान, भावना एवं मोक्षमार्ग :: 449
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