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विद्वान आया है, वह भारतवर्ष के अनेक दिग्गज विद्वानों को वाद में परास्त कर चुका है, यहां आकर उसने श्रमण संघ को वाद के लिए चुनौती दी है, अतः श्रमण संघ के मान की रक्षा के लिए आचार्य श्री पाटलिपुत्र पधारें। उक्त संदेश पाकर आचार्य श्री ने बन्धुदत्त मुनि को पाटलिपुत्र भेजा। राजदरबार में विदुर और बन्धुदत्त के मध्य शास्त्रार्थ हुआ। बन्धुदत्त मुनि ने अनेकान्त दर्शन के निरूपण से विदुर को कुछ ही समय में निरुत्तर कर दिया। इससे बन्धुदत्त मुनि का विशेष सम्मान मुनि संघ और श्रावक संघ में हुआ। बन्धुदत्त " मुनि आचार्य रुद्रसूरि के पास पहुंचे। परन्तु आचार्य ने मुनि के लिए दो शब्द भी गुणानुवाद में नहीं कहे। इससे मुनि बन्धुदत्त का उत्साह शिथिल पड़ गया। वे प्रमादी बन गए। ___ उधर प्रभाकर मुनि चातुर्मासिक तप पूर्ण करके आचार्य श्री के चरणों में आए। पर आचार्य श्री ने उनकी प्रशंसा में भी कृपणता का ही परिचय दिया। स्पष्ट है कि आचार्य गुणियों के गुणानुवाद से सदैव परहेज करते रहे। इससे मुनि संघ में प्रमाद की प्रवृत्ति बढ़ने लगी।
गुणों के प्रति अनादर भाव रखने वाले आचार्य रुद्रसूरि मरकर किल्विषी जाति के देव बने। वहां का आयुष्य पूर्ण करके एक दरिद्र ब्राह्मण के घर पुत्र रूप में जन्मे। ब्राह्मण-पुत्र गूंगा था। उसके पास जबान तो • थी पर वह शब्द-व्यवहार में समर्थ न था, इससे ब्राह्मण-पुत्र मन ही मन बहुत दुख अनुभव करता था।
___ एक बार एक आचार्य का सान्निध्य ब्राह्मण-पुत्र को प्राप्त हुआ। आचार्य श्री ने ब्राह्मण-पुत्र को उसका । पूर्वभव सुनाया और स्पष्ट किया कि गुणों के प्रति उसके अनादर भाव के कारण ही उसे पहले किल्विषी जाति में जन्म लेना पड़ा और वर्तमान में गूंगा होना पड़ा है। आचार्य श्री के श्रीमुख से अपना अतीत सुनकर ब्राह्मण-पुत्र प्रतिबोधित बन गया और चारित्र ग्रहण कर उत्तम गति का अधिकारी बना।
-कथा रत्नकोष, भाग 1 रूपकला ___ अनूपगढ़ नगर के राजा सुमतिचन्द्र की इकलौती सन्तान, एक बुद्धिमति और पतिव्रता सन्नारी। राजा सुमतिचन्द्र एक हठी राजा था। अपनी हठ के कारण ही उसने अपनी इकलौती पुत्री का विवाह एक वज्रमूर्ख
और दरिद्रनारायण युवक से कर दिया। रूपकला अपने पिता के इस कार्य से किंचित् मात्र भी खिन्न नहीं हुई। शंकर नामक उक्त दरिद्र युवक को ही अपना प्राणेश्वर मानकर वह उसके साथ चली गई। शंकर एक लकडहारा था और जंगल से लकड़ियां लाकर श्रेष्ठी माणकचन्द को बेचकर उदर पोषण करता था आय में वधि लाने के लिए एक दिन रूपकला भी शंकर के साथ जंगल में लकडियां लेने गई। यह देखकर वह चकित हो गई कि शंकर प्रतिदिन गोशीर्ष चन्दन की लकड़ियां श्रेष्ठी को बेचता है। उसने अपने बुद्धिबल से सेठ माणकचन्द को यह समझा दिया कि वह वर्षों से भोले-भाले शंकर को ठगता रहा है। उसे शंकर को अतीत में दी गई लकड़ियों का पूर्ण मूल्य देना होगा अन्यथा उसे राजदण्ड का पात्र बनना पड़ेगा। रूपकला के वाग्चातुर्य और साहस के समक्ष सेठ नत हो गया। उसने इक्कीस लाख स्वर्णमुद्राएं शंकर को दी। रूपकला ने नगर के मध्य में एक विशाल भवन खरीदा और जंगल से गोशीर्ष चन्दन के अनेक वृक्ष कटवाकर-पर्याप्त मात्रा में चन्दन प्राप्त किया। उसने शंकर के लिए शिक्षक की व्यवस्था की और कुछ ही वर्षों में उसे सुशिक्षित बना दिया। शंकर पूरे देश में चन्दन व्यापारी और शंकर सेठ के नाम से ख्यात हो गया। ____ रूपकला ने एक पुत्र को जन्म दिया। यथासमय पुत्र का नामकरण हुआ और एक प्रीतिभोज का आयोजन शंकर सेठ ने किया। राजा सुमतिचन्द्र को भी उक्त भोज में आमंत्रित किया गया। भोज में वे सभी पदार्थ तैयार कराए गए जो राजा को विशेष रूप से पसन्द थे। भोज से राजा अत्यधिक प्रसन्न हुआ। भोजनोपरान्त ...496 .
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