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लाभ हुआ। पुण्य संयोग से नगर नरेश कनकसेन ने अपनी पुत्री तिलकमंजरी का विवाह वीरभान से कर दिया। वीरभान ने तिलकमंजरी के विशेष प्रेमाग्रह पर अपना पूरा जीवन वृत्त सुना दिया।
केसर सेठ लौटने लगा तो वीरभान भी उसके साथ उज्जयिनी जाने को तैयार हुआ। तिलकमंजरी भी साथ ही चली। केसर सेठ की दृष्टि तिलकमंजरी पर मैली हो गई और उसने अवसर साधकर वीरभान को सागर में धक्का दे दिया। तिलकमंजरी ने अपनी बुद्धिमत्ता से अपने शील की रक्षा की।
उज्जयिनी पहुंचकर तिलकमंजरी ने अपने ज्येष्ठ महाराज उदयभान के समक्ष आप-बीती सुनाई। राजा ने केसर सेठ को कारागृह में डाल दिया और अनुजवधू की समुचित व्यवस्था की। वह भ्रातृ-विरह में शोकमग्न बन गया। एक नैमित्तिक से यह संवाद सुनकर उसे संतोष हुआ कि उसका अनुज सकुशल है और कुछ समय पश्चात् उनका सम्मिलन होगा।
उधर भाग्य-हत्भाग्य के थपेड़ों पर झूलते वीरभान को प्रातः काल एक अन्य व्यापारिक जहाज पर शरण मिली। जहाज पर सवार होकर वीरभान रत्नावती नगरी पहुंचा। वहां पर राजकुमारी विजया से उसका विवाह हुआ। राजा के कोई पुत्र नहीं था, इसलिए जामाता को ही राजपद देकर रत्नावती-नरेश प्रव्रजित हो गया। इस नगरी में रहते हुए भी वीरभान को छह मास तक कामसेना नामक गणिका की कालकोठरी में रहना पड़ा। पर काजर की कोठरी में रहकर भी वह कजरारा नहीं हुआ। ___रत्नावती नगरी पर शासन करते हुए वीरभान को भाई उदयभान की स्मृति सताने लगी। विश्वस्त मंत्री को राज्यभार प्रदान कर वीरभान उज्जयिनी आया। भ्रातृमिलन के साथ-साथ उसे अपनी पत्नी तिलकमंजरी भी प्राप्त हो गई । कुछ दिन दोनों भाई साथ रहे। तदुपरान्त पितृदर्शन के लिए कनकपुर पहुंचे। पिता-पुत्रों का मिलन हुआ। ____दुखों की रात्रि बीत चुकी थी। सुखों का सुप्रभात खिल आया था। पुत्रों को राज्यभार देकर वीरधवल प्रव्रजित हो गया।
वीरभान-उदयभान ने मिलकर तीन-तीन राज्यों का संचालन किया। धर्म-नीति पूर्वक राज्य संचालन करते-करते जब उनके पुत्र सुयोग्य हो गए तो उन्हें राजपद देकर दोनों भाई भी प्रव्रजित हो गए। आयुष्य पूर्ण कर देवगति को गए। भविष्य में मानव जन्म धारण कर निर्वाण प्राप्त करेंगे। -वीरभान उदयभान रास वीरमती
वीरमती टोंक-टोंडा रियासत के महाराज विक्रमसिंह की पुत्री थी। उसकी माता का नाम इन्दुमती था। वीरमती का विवाह मात्र ग्यारह वर्ष की अवस्था में धारानगरी के राजकुमार जगदेव सिंह के साथ हो गया था। वीरमती और जगदेव दोनों क्षत्रिय कुलोत्पन्न थे पर उनके जीवन पर जैन धर्म की अमिट छाप थी। जैन श्रमणों के प्रति उनके हृदयों में अगाध आस्था और श्रद्धा भक्ति थी। दोनों ने ही समय-समय पर मुनियों से अनेक व्रत-नियम ग्रहण किए थे। सामायिक की आराधना करना उनका नित्य नियम था।
जगदेव के पिता का नाम था महाराज अनूपसिंह और माता का नाम था सुलंकिनी। महाराज ने एक अन्य कुमारिका से विवाह किया जिसका नाम बघेलिनी था। वह रूपवान स्त्री थी। अपने रूप के बल पर उसने राजा के हृदय पर अपना शासन स्थापित कर लिया। उसके एक पुत्र हुआ जिसका नाम रणधवल रखा गया। पारम्परिक रीति के अनुसार जगदेव युवराज पद का अधिकारी था। परन्तु बघेलिनी अपने पुत्र को युवराज बनाना चाहती थी। उसने महाराज अनूपसिंह को वचनों मे बांधकर अपने पुत्र के लिए युवराज पद .... जैन चरित्र कोश ...
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