Book Title: Jain Charitra Kosh
Author(s): Subhadramuni, Amitmuni
Publisher: University Publication

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Page 675
________________ अपने बच्चे को मेरे साथ भेज दीजिए मैं इसे पर्याप्त धन दूंगा। नाई ने अपना पुत्र उसके साथ भेज दिया। वहां से सहस्रमल्ल धनसार की दुकान पर पहुंचा। महंगे से महंगे वस्त्र खरीदे। नापित के पुत्र को अपना पुत्र बताकर सहस्रमल्ल ने उसे सेठ के हवाले किया और शीघ्र ही लौटकर धन देने की बात कहकर चम्पत हो गया। आखिर भेद खुला तो नाई और धनसार ने सिर पीट लिया और राजा से तदर्थ शिकायत की। दूसरे दिन एक विदेशी अश्व व्यापारी और नगरवधू कामपताका ने सहस्रमल्ल को पकड़ने का बीड़ा उठाया। मां ने इसकी सूचना सहस्रमल्ल को दी। सहस्रमल्ल ने बड़े सार्थवाह का वेश धर कर न केवल अश्व व्यापारी से एक कीमती घोड़ा प्राप्त कर लिया बल्कि वेश्या की रत्नमंजूषा भी हथिया ली। अश्व व्यापारी और गणिका ने अपने लुट जाने का समाचार राजा को दिया। राजा हैरान-परेशान बन गया। उसने नगररक्षक को बुलाकर सख्त आदेश दिया कि जैसे भी हो सहस्रमल्ल को गिरफ्तार करो। नगर-रक्षक ने नगर के चप्पे-चप्पे पर सैनिक तैनात कर दिए। सहस्रमल्ल ने इस चुनौती को भी स्वीकार किया। एक ब्राह्मण का वेश धर कर वह नगर में निकला। एक वीरान देवालय में कुछ जुआरी जुआ खेल रहे थे। ब्राह्मणवेशी सहस्रमल्ल वहां आया और जुआ खेलने लगा। उधर से नगर रक्षक भी वहां पहुंचा। जुआरियों से चोर का कुछ सूत्र मिले ऐसा सोचकर वह उनसे घुलने-मिलने की दृष्टि से उनके साथ जुआ खेलने लगा। आखिर सहस्रमल्ल और नगर-रक्षक के मध्य जुआ खेला गया। सहस्रमल्ल ने नगर-रक्षक का सारा धन जीत लिया। कहावत है कि हारा हुआ जुआरी कभी पीछे नहीं देखता। नगर-रक्षक के पास जब कुछ भी शेष नहीं रहा तो उसने अंगुली में पहनी अपनी नामांकित मुद्रिका भी दांव पर लगा दी। सहस्रमल्ल का लक्ष्य तो वह मुद्रिका जीतना ही था। उस मुद्रिका को लेकर सहस्रमल्ल नगर-रक्षक के घर पहुंचा और उसकी पत्नी को उसके पति की मुद्रिका देते हुए स्वयं को नगर-रक्षक का विश्वस्त मित्र बताया। उसने कहा, विरोधियों ने मेरे मित्र के विरुद्ध राजा के कान भर दिए हैं। शीघ्र ही राजपुरुष आपका समस्त धन-माल लेने के लिए यहां आने वाले हैं। मेरे मित्र ने यह मुद्रिका देकर मुझे इसलिए आपके पास भेजा है कि सारा गुप्त धन आप मुझे दे दें जिससे उसको किसी सुरक्षित स्थान पर छिपाकर राजा से बचाया जा सके। नगर-रक्षक की पत्नी पति की मुद्रिका देखकर विश्वस्त बन गई और सारा धन सहस्रमल्ल के हवाले कर दिया, जिसे लेकर सहस्रमल्ल अपने घर पहुंच गया। शाम को नगर-रक्षक घर पहुंचा तो भेद खुला और वह सिर पकड़कर रोने लगा। नगर-रक्षक के लुट जाने का समाचार राजा ने सुना तो उसकी स्थिति भी दर्शनीय बन गई। रोष में भर कर राजा ने स्वयं चोर को पकड़ने का बीड़ा उठाया। ___ इस से सहस्रमल्ल को अपनी चौर्य और ठग कला पर बड़ा गर्व हुआ कि स्वयं राजा ने उसे पकड़ने का बीड़ा उठाया है। सहस्रमल्ल राजा को ठग कर स्वयं को अपराजेय सिद्ध करने को उतावला बन गया। उसने अंगमर्दक (मालिश करने वाला) का वेश धरा और राजमहल के द्वार पर पहुंचा। उसने द्वारपाल से अपने मालिश करने के कौशल की प्रशंसा की और साथ ही उसे प्रलोभन दिया कि यदि वह राजा की मालिश के लिए उसे नियुक्त कर सका तो उसे मिलने वाले पारितोषिक से आधा धन वह उसे देगा। द्वारपाल को प्रलोभन आ गया। उसने राजा को जाकर सूचित किया कि कोई अद्भुत अंगमर्दक आया है और आपकी सेवा की अनुमति प्राप्त करना चाहता है। राजा ने अनुमति दे दी। सहस्रमल्ल ने इस कुशलता से राजा की मालिश की कि राजा को निद्रा लग गई। राजा के निद्राधीन बनते ही सहस्रमल्ल ने राजा के आभूषण और मुकुट समेटे और एक मुद्रिका द्वारपाल को देकर चंपत हो गया। राजा की निद्रा टूटी तो उसे अपने लुट जाने का परिज्ञान हुआ। राजा भौंचक्का रह गया। उसने सहस्रमल्ल ... 634 - .... जैन चरित्र कोश ...

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