________________
* मूलसूत्रों का परिचय
___ छेदसूत्रों के परिचय के पश्चात अब क्रम प्राप्त मूल सूत्रों का परिचय प्रस्तुत करते हैं। ,
उपांगों की भाँति मूल सूत्रों का उल्लेख भी प्राचीन आगमों में नहीं है । कुछ ग्रंथों के लिए मूल शब्द का प्रयोग क्यों किया गया? इसका क्या कारण है ? प्राचीन ग्रंथों में तो स्पष्टीकरण नहीं किया गया है, लेकिन संशोधक विद्वानों ने 'मूलसूत्र' शब्द के बारे में विभिन्न विचार व्यक्त किए हैं । जर्मन विद्वान जाल शार्पण्टियर के कथनानुसार भगवान महावीर से कहे गए होने से ये मूल सूत्र कहलाए। परंतु यह कथन उचित मालूम नहीं होता, क्योंकि मूल सूत्रों में गिना जाने वाला दशवैकालिक सूत्र शय्यंभवसूरि विरचित माना जाता है। डॉ. शूबिंग के कथनानुसार साधु जीवन के मूलभूत नियमों का उपदेश मूल सूत्र कहने का कारण है । फ्रांसिसी विद्वान प्रो. गॅरिनो के मतानुसार इन सूत्रों पर अनेक टीका-टिप्पणियाँ लिखी गई हैं, इसीलिए इन्हें मूलसूत्र कहा गया है । जैन तत्व प्रकाशं (पृष्ठ २१८) में कहा गया है कि ये ग्रंथ सम्यकत्व की जड़ को दृढ़ बनाने वाले और सम्यक्त्व की वृद्धि करने वाले होने से मूल सूत्र कहलाते हैं। मूलसूत्र शब्द के प्रयोग के लिए यह दृष्टिकोण यथार्थ सत्य के निकट है, क्योंकि श्रमण जीवन की पूर्व भूमिका निर्मित करने में विशेष उपयोगी होने से कुछ ग्रंथ मूल सूत्र कहलाते हैं।
मूल सूत्रों की संख्या के बारे में मत भिन्नता है। कुछ लोग उत्तराध्ययन, आवश्यक और दशवैकालिक इन तीन सूत्रों को मूलसूत्र मानते हैं । वे पिडनियुक्ति और ओघनियुक्ति को मूलसूत्रों में नहीं गिनते। उनके मतानुसार पिंडनियुक्ति दशवैकालिक नियुक्ति के आधार से और ओघनियुक्ति आवश्यक नियुक्ति के आधार से लिखी गई है। प्रो. विण्टरनित्ज आदि विद्वानों ने उत्तराध्ययन आदि उक्त तीन मूलसूत्रों के साथ पिंडनियुक्ति को मिलाकर मूलसूत्रों की संख्या चार मानी है । कुछ लोग पिण्डनियुक्ति के साथ ओघनियुक्ति को भी मूलसूत्र मानते हैं। कुछ ने पक्खियसुत्त की गणना भी मूल सूत्रों में की है। इसी प्रकार इनके क्रम के बारे में भी मतभिन्नता है । इनके क्रम के चार प्रकार देखने को मिलते हैं
१. उत्तराध्ययन, आवश्यक, दशवैकालिक। २. उत्तराध्ययन, आवश्यक, दशवैकालिक, पिंडनियुक्ति । ३. उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, आवश्यक, पिंडनियुक्ति और ओघनियुक्ति । ४. उत्तराध्ययन, आवश्यक, पिंडनियुक्ति, ओघनियुक्ति और दशवैकालिक। .
(१०१)