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कुम्हार पहले मिट्टी में पानी डाल कर उसे सानते, उसमें राख, गोबर मिलाते और फिर उस मिट्टी के लौदे को चाक पर रख कर घुमाते थे और इच्छानुसार करय (करवा), वारद, पिहडय, घडय, अद्धघडय, कलसय(कलश), अलिंजर, जंबूल, उट्टिय (ओष्ट्रिक)
आदि बर्तन तैयार करते थे। तीन प्रकार के कलशों (कूट) का उल्लेख है- निष्पाव, तेलकूट और घृतकूट।
कुंभकार शाला के कई विभाग होते थे। पण्यशाला में बर्तनों की बिक्री की जाती थी। भांडशाला में उन्हें इकट्ठा करके रखा जाता था। कर्मशाला मे उन्हें तैयार किया जाता था और पचनशाला में उन्हें पकाया जाता था । ईंधनशाला में बर्तनों को पकाने के लिए घास, गोबर, आदि रखे जाते थे। * सुगंध, इत्र, धूप आदि के व्यापारी
प्राचीन भारत में सुगंधित तेल, इत्र, धूप आदि का बहुतायत से उपयोग किया जाता था । सुगंधित द्रव्य बेचने वालों को गंधी और उनकी दुकानों को गंधशाला कहा जाता था। ये लोग विविध प्रकार के सुगंधित तेल, इत्र, धूप आदि तैयार करते थे। अलसी, कुसुंबा और सरसों को घाणी में पेर कर तेल निकाला जाता था। सुगंधित द्रव्यों में कूट, तगर, इलायची, चूआ (चोय), चंपा, दमन, कुंकुम, चन्दन, तुसंष्क, उसीर (खस), मरुआ, जाई,जूही, मल्लिका, स्नान मल्लिका, केतकी, पाटली, लेमालिय, अंगस, वास और कपूर का उल्लेख है।
चैत्यों, वास भवनों और नगरों में धूप जलाया जाता था। धूपदान को धूप कडुच्छ अथवा धूपघटी कहा जाता था। लाक्षारंस भी एक महत्वपूर्ण उद्योग था। लाख से स्त्रियाँ और बालक अपने हाथ पैर रंगते थे । लाख से चूड़िया, खिलौने आदि अन्य वस्तुएँ भी बनायी जाती थीं। * अन्य कारीगरी
हाथ के कारीगर चटाई (छविय- छर्विका) बुनते, [ज की पादुकाएं बनाने, रस्से बँटते तथा सूप और टोकरियाँ बनाते थे। इसके अलावा ताडपत्रों से पंखे, पलाशपत्र
और बाँस की खप्पचों से छाते (बाँसतान) तथा झाडू (वेणु संपच्छणी) और बाँस की पेटियाँ (वणुफल) बनायी जाती थी । छीकों (सिक्कस) का उपयोग किया जाता था। दर्भ और मूंज से रजोहरण, बोरियाँ (गोणी) बनायी जाती थीं । कम्मंतशालाओं में दर्भ, छाल और वृक्षों आदि के द्वारा अनेक वस्तुएँ तैयार की जाती थीं।
गृहनिर्माण मुख्य कला मानी जाती थी। राज और बढ़ई का काम मख्य धंधे गिने जाते थे। मकानों, प्रसादों, तालाबों, मन्दिरों आदि की नींव.रखने के लिए अनेक
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