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२. अनुयोग द्वार सूत्र - अणु अर्थात् संक्षिप्त सूत्र को महान अर्थ जोड़ना अनुयोग है । अथवा अध्ययन के अर्थ व्याख्यान विधि को अनुयोग कहते हैं । अनुयोग भाष्य, विभाषा, वार्तिक आदि एकार्थक शब्द है । अनुयोग द्वार सूत्र में आवश्यक सूत्र का व्याख्यान है तथा प्रसंगों पात्त निक्षेप' पद्धति को आधार बनाकर जैन परंपरा व आगमों के कुछ एक दूसरे मूलभूत विषयों का भी विवेचन किया गया है । प्रस्तुत सूत्र में जिन विषयों का व्याख्यान किया गया है, उनके नाम इस प्रकार हैं- .
आवश्यक, श्रुतस्कंध और अध्ययन के विविध निक्षेप, अनुयोग के उपक्रम, निक्षेप, अनुगम और नय ये चार, द्वार, उनका विवरण, आनुपूर्वी का अधिकार, समवतार का अधिकार आदि अनुगम का अधिकार नाम के दस भेद, औदयिक आदि भाव, पाँच प्रकार के शरीर, गर्भज मनुष्यों की संख्या, सप्त नय, संख्यात, असंख्यात व अनन्त के भेद प्रभेद, श्रमण का स्वरूप और उनके लिए विविध उपमाएँ निर्युक्ति अनुगम के तीन भेद सामायिक विषयक प्रश्नोत्तर आदि । इन विषयों के वर्णन में जैन न्यायं शास्त्र के बीज छिपे हुए हैं । उनका आधार लेकर उत्तरवर्ती काल में आचार्यों ने जैन न्याय को महान वटवृक्ष का रूप दे दिया और उन विद्वानों का समाधान किया, जो तार्किक दृष्टि से प्रत्येक वस्तु की कसौटी करके निर्णय पर पहुँचाते हैं ।
सूत्र का ग्रंथमान लगभग दो हजार श्लोक प्रमाण है । गद्य शैली में लिखित इस सूत्र में यत्र तत्र कुछ गाथाएँ भी हैं ।
इस प्रकार सर्वमान्य अंगबाह्य आगमों का परिचय देने के अनन्तर अवशिष्ट रहे उन ग्रंथों का परिचय देते हैं, जो आगम रूप में मान्य एवं साहित्य के अंग हैं ।
श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परंपरा में पूर्वोक्तं अंगबाह्य आगमों के अतिरिक्त निम्नलिखित ग्रंथों को भी आगम के रूप में मान्य किया गया है
१. महानिशीथ, २. जीतकल्प, ३. पिण्डनिर्युक्ति तथा ओघनिर्युक्ति, ४. चतुःशरण, ५. आतुरप्रत्याख्यान, ६. महाप्रत्याख्यान, ७. भक्त परिज्ञा; ८. तंदुल वैचारिक, ९. संस्तारंक, १०. गच्छाचार, ११. गणिविद्या, १२. देवेन्द्रस्तव और १३. मरण समाधि ।
इनमें से प्रथम दो को छेद सूत्र वर्ग में तीसरे को मूलसूत्र वर्ग में और शेष चौथे से लेकर तेरहवें तक को प्रकीर्णक' वर्ग में मान्य किया गया है । इनका परिचय इस प्रकार है
१. निक्षेप, विभिन्न दृष्टियों से किसी वस्तु का विश्लेषण करना ।
२. वर्तमान में प्रकीर्णकों की संख्या मुख्यतया दस मानी जाती है। इन दस नामों में भी एकरूपता नहीं है । कोई मरण समाधि और गच्छाचार के स्थान पर चंद्रवेद्यक और वीरस्तव को गिनते हैं तो कोई देवेंद्रस्तव और वीरस्तव को मिला देते हैं तथा संस्तारक को नहीं गिनते, किन्तु इनके स्थान पर गच्छाचार और मरण समाधि का उल्लेख करते हैं ।
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