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मध्यकालीन हिन्दी जैन काव्य प्रवृत्तियां 139 (सं. १७३१), रायमल्ल की अध्यात्मवत्तीसी (१७वीं शती), विहारीदास की सम्बोधपंचासिका (सं. १७५८), भूधरदास का जैनशतक (सं. १७८१), बुधजन का चर्चाशतक आदि काव्य अध्यात्मरसता के क्षेत्र में उल्लेखनीय हैं।
उपर्युक्त संख्यात्मक साहित्य में से कुछ मनोरम पद्य नीचे उदृधृत हैं। बनारसीदास विरचित ज्ञानवावनी के निम्न पद्य में आत्मज्ञानी की अवस्था और उसके जीवन की गतिविधियों का चित्रण देखते ही बनता है - ऋतु बरसात नदी नाले सर जोर चढ़े,
___ बादै नहिं मरजाद सागर के फेन की। नीर के प्रवाह तृण काठ वृन्द बहे जात,
चित्रावेले आइ चढ़े नाहीं कहू गैल की।। बनारसीदास ऐसे पंचन के परपंच,
रंचक न संक आवै वीर बुद्धि छैल की। कुछ न अनीत न क्यों प्रीति पर गुण केती,
ऐसी रीति विन रीति अध्यातम शैली।। इसी प्रकार भैया भगवतीदास ने अनित्यपच्चीसिका के एक पद्य में स्पष्ट किया है कि दुर्लभ नरभव को पाकर सच्चा आत्मबोध न होने से प्राणी भौतिक सुखों में उलझा रहता है। नर देह हाये कहा, पंडित कहाये कहा,
तीर्थ के न्हाये कहा तटि तो न जैहै रे । लच्छि के कमाये कहा, अच्छ के अधाये कहा,
छत्र के धराये कहा छीनता न ऐहैरे ।।