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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना का विषय रहा है। उसे उन्होंने समीप से देखा और पाया कि वह भी संसार के हर पदार्थ के समान वह भी नष्ट होने वाला है, समय अथवा अवस्था के अनुसार वह लीन होता चला जाता है। अध्यात्म रसिक भूधर कवि ने शरीर को चरखा का रूप देकर उसकी यथार्थ स्थिति का चित्रण किया है । इस सन्दर्भ में मोह-मग्न व्यक्ति को सम्बोधते हुए वे कहते हैं कि शरीर रूपी चरखा जीर्ण-शीर्ण हो गया। उससे अब कोई काम नहीं लिया जा सकता। वह आगे बढ़ता ही नहीं। उसके पैर रूप दोनों खूटे हिलने लगे, फेफड़ों में से कफ की घर-घर्र आवाज आने लगी जैसे पुराने चरखेसे आती है, उसे मनमाना चलाया नहीं जा सकता। रसना रूप तकली लड़खड़ा गयी, शब्द रूप सूत से सुधा नहीं निकलती, जल्दी-जल्दी शब्द रूप सूत टूट जाता है, आयु रूप माल का भी कोई विश्वास नहीं, वह कब टूट जाय, विविध औषधियां देकर उसे प्रतिदिन स्वस्थ रखने का प्रयत्न किया जाता है, उसकी मरम्मत की जाती है, वैद्यों और मरम्मत करने वालों ने घुटने टेक दिये। जब तक शरीर रूप चरखा नया था तब तक सभी को वह प्रिय था। पर जेसे ही वह पुराना हुआ, उसका रंग-विरंग हुआ, तो अब उसे कोई देखना ही नहीं चाहता। इसलिए हे भाई, मिथ्या तत्त्व रूप मोटे धागे को महीन कर उसे सुलझा लो और सम्यग्ज्ञान को उत्पन्न कर लो। उसका अन्त तो ईंधन में होना निश्चित ही है, बस, प्रातःकाल समझकर पूरे आत्मविश्वास के साथ सम्यग्ज्ञान को प्राप्त करने का प्रयत्न करो।
"चरखा चलता नाही (रे) चरखा हुआ पुराना (वे)।। पग खूटे दो हालन लागे, उर मदरा खखराना। छीदी हुई पांखड़ी पांसू, फिरै नहीं मनमाना।।१।। रसना तकली ने बल खाया, सो अब केसे खूटे। एबद सूत सुधा नहीं निकसै, घड़ी घड़ी पल टूटै।।२।।