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हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना भक्त कवि ने अपने आराध्य का गुण कीर्तन करके अपनी भक्ति प्रकट की है। वह आराध्य में असीम गुणों को देखता है पर उन्हें अभिव्यक्त करने में असमर्थ होने के कारण कह उठता है -
प्रभु मैं किहि विधि थुति करौं तेरी । गणधर कहत पार नहिं पावै, कहा बुद्धि है मेरी ।। शक्र जनम भरि सहस जीभ धरि तुम जस होत न पूरा । एक जीभ केसे गुण गावै उछू कहै किमि सूरा ।। चमर छत्र सिंहासन बरनौं, ये गुण तुमते न्यारे । तुम गुण कहन वचन बल नाहीं नैन गिनै किमि तारे ।।"
भगवद् गुण कीर्तन से भक्त को भोग पद, राज पद, ज्ञान पद, चक्री और इन्द्र पद ही नहीं मिलते बल्कि शाश्वत पद भी मिल जाता है। इसलिए विनयप्रभ उपाध्याय ने कहा है - एह माहप्प तुम सयल जगि गज्जए।" उन्हें परमाराध्य भगवद् गुण कीर्तन ‘पुन्य भंडार भरेसुए, मानव भव सफल करे सुए"का कारण प्रतीत होता है। इस गुण कीर्तन से मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है - ‘वांछित फल बहु दान दातार, सारद सामिण वीनषु और भवबंधन क्षीण होता है - 'भव बंधन खीणो समरसलीणो, ब्रह्म जिनदास पाय वंदणो।" भट्टारक ज्ञानभूषण की दृष्टि में ये गुण भगवान में उसी प्रकार भरे हैं जैसे शरदकालीन सरोवर में निर्मल जल भरा रहता है -
आहे नयन कमल दल सम किल कोमल बोलइ वाणी । शरदर सरोवर निर्मल सकल अकल गुण खानि ।।"
भगवान् महावीर कलिकाल के समस्त पापों को नष्ट करने वाले हैं। उनका स्वरूप निर्विकार, निश्चल, निकल और ज्ञानगम्य है जिसने उसे जान लिया उसे संसार में और कुछ करने की आवश्यकता नहीं रह जाती।