Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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Jain Comedy
रिषभदास शंका : जैन साधना : ३०५ वह आत्मशक्तियों का पूर्ण विकास नहीं कर पाता. जैसे जैन साधना में, अहिंसा सत्य, अपरिग्रह व ब्रह्मचर्य को स्थान है। वैसे ही वैदिक विचारपरम्परा की साधना में भी यम नियम को स्थान दिया है और बौद्ध साधना में भी उनका महत्त्वपूर्ण स्थान है.
तप
योगदर्शन में यम नियम के बाद शरीर को साधना के योग्य बनाने के लिये आसन प्राणायाम बताया है तो जैन साधना में तप के द्वारा शरीर को कसने का विधान है. आज तप का अर्थ शरीर कष्ट बन गया है पर उसका उपयोग शरीर और मन को साधना के योग्य बनाने में होना चाहिए. जैनसाधना में तप के दो प्रकार हैं—बाह्य और आभ्यन्तर बाह्य तप के छह भेद हैं—अनशन, अवमोदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन और कायक्लेश.
साधक अपनी सारी शक्ति को आत्मविकास में लगावे, उसका वासना में क्षय न करे, इस दृष्टि से वासनाओं को क्षीण बनाने के प्रयत्नों को तप कहा जा सकता है. यह प्रयत्न मन और शरीर दोनों की ओर से होने चाहिए, तभी सफलता प्राप्त हो सकती है. तप में मनका साथ न मिला तो शरीर से किया हुआ तप देह-दंड या कायक्लेश मात्र ही बन सकता है. शरीर से मन की शक्ति विशेष होने से शारीरिक या बाह्य तपश्चर्या से मानसिक आभ्यंतर तपश्चर्या को अधिक महत्त्व दिया गया है. फिर भी साधक को अभ्यास में बाह्य तप भी उपयोगी होता है, उसकी आवश्यकता होती है. उस पर भी विचार करना आवश्यक है.
अनशन
शरीर व आहार का सम्बन्ध अत्यन्त घनिष्ठ है. आहार के विना शरीर चल नहीं सकता. लेकिन यह आहार कितना और कैसा लेना चाहिये, इस जानकारी के अभाव में मनुष्य अधिकतर जरूरत से ज्यादा ही खाता है. इसलिये उसे उपवास करना भी आवश्यक हो जाता है. उपवास में अन्नपाचन में लगने वाली शक्ति बचाकर आत्मचिंतन में लगाई जा सकती है. इसीलिये उपवास को आत्मा के निकट वास करना माना गया है. भोजन को त्याग कर उसके पचाने के लिये खर्च होने वाली शक्ति का उपयोग आत्मचिंतन में किया जाय तो वह अनशन साधना में लाभदायक होता है. पर यदि प्रतिष्ठा या दंभ का कारण बन जाय तो निश्चित ही वह बाधक बनता है. वह कर्ममल को दूर करने के बदले उसे बढ़ाता है.
भोवर्य
साधक शरीर को जितना आवश्यक हो उतना ही आहार देता है. कम से कम आहार के सहारे अपनी जीवनचर्या चलाता है. उससे अधिक आहार से पैदा होनेवाला प्रमाद नहीं आता और साधना के प्रति जाग्रति बढ़ती है. अप्रमत्तता साधना के विकास में आवश्यक होने से वह भूख से कम खाता है.
वृत्तिपरिसंख्यान
अमोदर्य की साधना के लिये वस्तुओं की सीमा आवश्यक है. मनुष्य स्वादवश जो जरूरत से अधिक खा लेता है उसके लिये खाने की वस्तुओं का संक्षेप करना आवश्यक हो जाता है और साधक इस आदत को बढ़ाने के लिये व्रत का सहारा लेता है. खाने की वस्तुएं असंख्य हैं. पर साधक उन्हें सीमित करता है.
रसपरित्याग
मिताहार के लिये रसपरित्याग भी आवश्यक हो जाता है. इसीलिये तपश्चर्या में रस-त्याग का स्थान महत्त्वपूर्ण है. हमारे विकारों पर नियंत्रण आवे, इंद्रियाँ प्रबल न हों, इसलिये रसपरित्याग साधना में सहायक होता है. इसलिये साधक यह मानकर कि खाने के लिये जीना नहीं है पर जीवन के लिये भोजन है, ऐसा आहार करे जिससे मन स्वस्थ रहे.
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