Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
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२१८ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : द्वितीय अध्याय
अब आप जानते ही हैं कि बिल्ली, खरगोश को मारकर खाती है. हमारी बिल्ली छटपटाने लगी. फिर बिल्ली ने देखा कि खरगोश भी मेरा प्यारा प्राणी है, मेरे हाथों खाता है. मैं उसके साथ खेलता हूँ. खरगोश ने भी देखा कि बिल्ली मेरी गोद में आकर बैठती है. उसका डर कम हो गया. धीरे-धीरे मेरी हाजरी में दोनों पास आने लगे. साथ बैठकर खाने लगे. दोनों की अच्छी दोस्ती हो गई. इससे इतना तो स्पष्ट है ही कि जानवरों पर भी कुछ न कुछ प्रेम का असर होता ही है. उसी को मैं सत्याग्रह कहूँगा. पशु का स्वभाव, उसके विकास की मर्यादा आदि देख कर अगर कोई प्रेममूति उस पर प्रभाव डालने की कोशिश करेगा तो उसे निराश नहीं होना पड़ेगा. अगर मनुष्य केवल स्वार्थवश, हजारों बरसों की महनत से जंगली पशुओं को पालतू बना सका तो निःस्वार्थ प्रेम के द्वारा पुरुष प्राणियों का स्वभाव अवश्य बदल-सुधार सकेगा. सांपों के साथ दोस्ती करने वाले एक गोरे आदमी का किस्सा मैंने कहीं पढ़ा था. मनुष्य अगर अपना स्वभाव सुधारेगा और विश्वप्रेम की ओर बढ़ेगा तो उसका असर प्राणियों पर कमोबेश होगा ही. 'चित्त शुद्धतरी, शत्रु मित्र होती, व्याघ्र ही न खाती, सर्प तया' तुकाराम की यह अभिलाषा व्यर्थ नहीं थी. किन्तु यह सिद्धि एक दो दिन में या पांच-दस वर्षों में मिलने की नहीं. इसके लिये उत्कट साधना की परम्परा चाहिए. मेरा सवाल यह है कि सिंह और बाघ के खिलाफ सत्याग्रह करने की बात उठी ही किसलिए ? क्या मेरा जवाब मिलने पर कोई जंगल में जाकर सत्याग्रह का प्रयोग करना चाहता है ! या घर की बिल्ली को कहने वाला है कि चूहे खाना छोड़ दो, नहीं तो मैं तुम्हारे खिलाफ सत्याग्रह करूँगा ? नहीं, ऐसी बात नहीं है. जवाब मिलने पर कि सिंह आदि हिंस्र जानवरों के खिलाफ सत्याग्रह नहीं हो सकता, दूसरा प्रश्न पूछा जाता है कि-फिर जिसका स्वभाव ही सिंह, बाघ या सर्प जैसा है, ऐसे मनुष्य के सामने सत्याग्रह क्या करेगा? हम कबूल करते हैं कि चन्द मनुष्यों का स्वभाव हिंस्र पशुओं से भी बदतर होता है तब भी मनुष्य और पशुओं के बीच मूलभूत फर्क है, यह भूलना नहीं चाहिए. मनुष्य सामाजिक प्राणी है. इतना ही नहीं उसने सामाजिक उन्नति भी की है. मनुष्यों में अन्तर्मुख होने की शक्ति है. भाषा के द्वारा मनुष्य काफी गहराई का विचार-विनिमय कर सकता है. और सबसे बड़ी चीज यह है कि मनुष्य के पास धर्म है. पशुओं और मनुष्यों के बीच तुलना करते कवि ने कहा है : 'धर्मो हि तेषामधिको विशेषः.' इस धर्मबुद्धि को जाग्रत करने का काम ही सत्याग्रह करता है. जब बुद्धि और तर्क के जोश में आकर चन्द लोग कहते हैं कि हम धर्म को नहीं मानते तब वे ऐसे धर्मों का इन्कार करते हैं जिनका विस्तार भिन्न-भिन्न जमानों ने शास्त्रग्रंथों के द्वारा किया है. जैसे हिन्दुधर्म, इस्लाम-धर्म, ईसाई-धर्म , यहुदीधर्म आदि, हर एक समाज अपने-अपने रस्म-रिवाजों को अपना धर्म मानता है. ऐसे धर्मों के द्वारा हर एक समाज ने उन्नति प्राप्त की है. चन्द रिवाजों के कारण उन्नति रुक भी गई है. धर्म के नाम से मनुष्य ने कई अनाचार भी चलाये हैं. ऐसी हालत में कोई आदमी अधीर हो कर जल्दबाजी से कहे कि हम धर्म में नहीं मानते तो वह समझने लायक बात है. लेकिन जब हम यह कहते हैं कि पशुओं से अधिक चीज जो मनुष्य के पास है वह है धर्म, तब हम व्यापक, सार्वभौम, विश्वजनीन धर्म की बात करते हैं. उसमें प्रेम, करुणा, अहिंसा, दया, क्षमा, तेजस्विता, बलिदान, आत्मौपम्य सेवा, ज्ञानोपासना, संस्कृतिनिष्ठा, वचन-पालन, सत्वसंशुद्धि, अभय आदि सर्व सामाजिक, नैतिक और आध्यात्मिक गुण आ जाते हैं. खराब से खराब मनुष्य में भी इन गुणों के उदय की संभावना है वह आज पशुओं में उतनी मात्रा में नहीं. इसलिए पशुओं की मिसाल मनुष्य को लागू नहीं हो सकती है. आखिरकार सब मनुष्य एक दूसरे के सजातीय हैं. एक दूसरे पर असर कर ही सकते हैं.
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