Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
View full book text
________________
गोपीलाल अमर : दर्शन और विज्ञान के आलोक में पुद्गल द्रव्य : ३८१ पुद्गल के पर्याय—किसी भी द्रव्य का स्वरूप ही यह है कि उसमें गुण और पर्याय हों. पुद्गलों के गुणों का विश्लेषण हो चुका है. पर्यायों की चर्चा यहाँ की जा रही है. यों तो पुद्गल द्रव्य के अन्य द्रव्यों की भांति, अनन्त पर्याय हैं तथापि कुछ प्रमुख एवं हमारे दैनिक व्यवहार में आने वाले पर्यायों की चर्चा यहां की जाती है. शब्द, बन्धन, सूक्ष्मता, स्थूलता, संस्थान [आकार], भेद [खण्ड], अंधकार, छाया, आतप [धूप और उद्योत [चांदनी पुद्गल के पर्याय हैं.' संगीत, प्रदर्शन, आवागमन आदि भी इसी कोटि में रखे जा सकते हैं. इन सबके अतिरिक्त, पुद्गल के कुछ पर्याय ऐसे भी हैं जो मानव-शरीर और विज्ञान से सम्बन्ध रखते हैं. इनका विश्लेषण यहाँ हम विशेष रूप से करेंगे.
-------0---0----0-0-0-0
शब्द
शब्द का स्वरूप—एक स्कन्ध के साथ दूसरे स्कन्ध के टकराने से जो ध्वनि उत्पन्न होती है वह शब्द है.२ शब्द कर्ण या श्रोत्र इन्द्रिय का विषय है. शब्द और वैशेषिक दर्शन--वैशेषिक दर्शन में शब्द को पुद्गल का पर्याय न मानकर आकाश द्रव्य का गुण माना है. इस मान्यता के खण्डन में अनेक तर्क दिये जा सकते हैं. प्रथम और स्पष्ट तर्क तो यही है कि आकाश द्रव्य अमूर्तिक है, उसमें स्पर्श आदि कुछ भी नहीं होते, जबकि शब्द मूर्तिक है, उसमें स्पर्श आदि हैं, उसे छुआ-पकड़ा भी जाता है. अमूर्तिक द्रव्य का गुण भी अमूर्तिक ही होना चाहिए, मूर्तिक नहीं. द्वितीय, आकाश का गुण मानने के मोह में यदि शब्द को अमूर्तिक ही माना जाय तो मूर्तिक इन्द्रिय उसे ग्रहण नहीं कर सकेगी. अमूर्तिक विषय को मूर्तिक इन्द्रिय भला कैसे जानेगी? तृतीय तर्क यह है कि शब्द टकराता है, उसकी प्रतिध्वनि होती है यदि वह अमूर्तिक आकाश का गुण होता तो जैसे आकाश नहीं टकराता वैसे ही शब्द भी न टकराता. चौथे-शब्द को रोका-बांधा भी जा सकता है, जबकि आकाश को, जिसका वह गुण कहा जाता है, रोकने-बांधने की चर्चा ही हास्यास्पद है. पांचवां तर्क है शब्द गतिमान है जबकि आकाश गति-हीन है, निष्क्रिय है. और अन्तिम तर्क है विज्ञान की ओर से, शब्द ऐसे आकाश में गमन नहीं कर सकता जहां किसी भी प्रकार का पुद्गल [matter] न हो. यदि शब्द आकाश का गुण होता तो उसे आकाश के प्रत्येक कोने में जा सकना चाहिए था. क्योंकि गुण अपने गुणी के प्रत्येक अंश में रहता है. वहां पुद्गल के होने और न होने का प्रश्न ही न उठना चाहिए था. शब्द और विज्ञान-शब्द-सम्बन्धी जिन सिद्धान्तों की स्थापना जैनाचार्यों ने सदियों पहले की थी उन्हीं का पुनः स्थापन और विस्तार आज के वैज्ञानिकों ने किया है. उदाहरणार्थ-शब्द का वर्गीकरण ही ले लें. जैनाचार्यों ने शब्द को भाषात्मक और अभाषात्मक, दो वर्गों में रखा. आज के वैज्ञानिकों ने उन्हीं को क्रमश: संगीत ध्वनि [Musical sounds] और कोलाहल [Noises] नाम दे दिये. इसी तरह जैनाचार्यों के भाषात्मक शब्दों के प्रभेदों को भी वैज्ञानिकों ने ज्यों-का-त्यों वर्गीकृत कर दिया है. शब्द की प्रकृति और गति के विषय में भी जैन दर्शन और आधुनिक विज्ञान में अद्भुत समानता है. शब्दों का वर्गीकरण-संक्षेप में शब्दों को तीन वर्गों में रखा जा सकता है, भाषात्मक, अभाषात्मक और मिश्र !
पा.
१. (१) शब्दबन्ध-सौक्ष्म्य-स्थौल्य संस्थान-भेद-तमश्छायातपोद्योतवन्तश्च । -आचार्य उमास्वामी : तत्वार्थसूत्र, अ०५, सू० २४. (२) सदो बंधो सुहुमो थूलो संठाण-मेद-तम-छाया।
उज्जोदादवसहिया पुग्गलदब्बस्स पज्जाया ।-आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती : द्रव्यसंग्रह, गा० १६. २. सद्दो खंधप्पभावो खंधो परमाणुसंगसंघादो । पुढेसु तेसु जायदि सद्दो उत्पादगो णियदो-पञ्चास्तिकाय, गा० ७१.
Jain Education Internal
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org