________________
(४६) गुणस्थानक्रमारोह. . लोक निन्दित असत्य भाषणसे निवृत्त होना, इसे व्यवहारसे दूसरा व्रत कहते हैं और त्रिकालज्ञानी सर्वज्ञदेवका कथन किया हुआ जीव अजीवका स्वरूप, उसे अज्ञानवश विपरीत कथन करना तथा पौद्गलिक परवस्तुको आत्मीय कहना यह सरासर मृषावाद है, अतः इस प्रकारके मृषावादसे निवृत्त होना, इसे दूसरा व्रत निश्चय नयकी अपेक्षासे समझना चाहिये। इस पूर्वोक्त व्रतके सिवाय दूसरे व्रतोंकी यदि विराधना हो जाय तो उसका चारित्र नष्ट हो जाता है, किन्तु ज्ञान दर्शन, ये दो कायम रहते हैं, मगर दूसरे व्रतकी विराधना होनेसे ज्ञान, दर्शन और चारित्र, ये तीनों ही चले जाते हैं। इस विषयमें शास्त्रकार यहाँ तक फरमाते हैं कि एक साधुने मैथुन विरमण महाव्रत खंडित किया है और एकने दूसरा मृषावाद विरमण महाव्रत खंडित किया है। उन दोनों साधुओंमेंसे पहला साधु दंड प्रायश्चित्तके द्वारा शुद्ध हो सकता है, परन्तु दूसरा साधु सर्वज्ञदेवके स्याद्वाद मार्गका उत्थापक होनेसे आलोचना प्रायश्चित्तादिकसे शुद्ध नहीं हो सकता। - अदत्त परवस्तु धनादिकको न ग्रहण करना उसका प्रत्याख्यान करना, उसे व्यवहार नयसे तीसरा व्रत कहते हैं । द्रव्यसे परवस्तु ग्रहण न करनेके उपरान्त अन्तःकरणमें पुण्यतत्त्वके बैतालीस भेद प्राप्त करनेकी इच्छासे धर्मकार्य करता हुआ और पाँच इन्द्रियोंके तेईस विषय, तथा कर्मकी आठ वर्गणायें वगैरह परवस्तु ग्रहण करनेकी इच्छा तक भी नहीं करना, उन वस्तुओंका नियम करना । इसे निश्चयकी अपेक्षा तीसरा व्रत समझना । . श्रावकको स्वदारा संतोष और पर स्त्रीका परित्याग तथा साधु मुनिराजको सर्व स्त्री मात्रका परित्याग, यह व्यवहारसे