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छठा गुणस्थान.
(८३) वैसे ही स्थिति बन्धका स्वरूप समझना चाहिये । ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय तथा अन्तराय कर्म, इन चारों कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थिति ३० तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपमकी है। मोहनीय कर्मकी उत्कृष्ट स्थिति ७० सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोपमकी है। आयु कर्मकी उत्कृष्ट स्थिति ३३ तेतीस सागरोपमकी है। नाम कर्मकी उत्कृष्ट स्थिति २० बीस कोड़ाकोड़ी सागरोपमकी है, तथा इतनी ही गोत्र कर्मकी समझ लेना । ___ रस बन्ध-जैसे पूर्वोक्त लड्डमें डाली हुई वस्तुओंका रस किसीका मधुर और किसीका तिक्त होता है वैसे ही काँका रस भी देश बन्धक, सर्व घातक तथा अघातक समझना । उसमें भी अशुभ कर्म प्रकृतियोंका रस नीवके रसके समान कटु और शुभ कर्म प्रकृतियोंका रस दूधरसके समान मधुर होता है। प्रदेश बन्ध-पूर्वोक्त लड्डू बनाते समय कभी अधिक आटेका बनाया जाता है और कभी कम आटेका । वैसे ही कितने एक कर्मोंका बन्ध अधिक दलियाँवाला और कितने एक कर्मोंका बन्ध कम दलि. याँवाला होता है, अर्थात् मन वचन कायकी मन्दता तथा तीनतानुसार ही अल्प देशीय और बहु प्रदेशीय वन्ध होता है। इन पूर्वोक्त चार प्रकारके बन्धों में से प्रकृति बन्ध और प्रदेश बन्ध, ये दो बन्ध योगसे वन्धते हैं और स्थिति बन्ध तथा रस बन्ध, ये दो कषायसे बन्धते हैं। इन बन्धनोंसे जीव संसारमें अनादि का. लसे जकड़ा हुआ अनेक रूप धारण करता है । संसारके तमाम जीव पूर्वोक्त बन्धनोंके अनुसार कोई क्रूर प्रकृतिवाले, कोई शान्त प्रकृतिवाले, कोई दीर्घायु, कोई इष्ट संयोगवाले, कोई अनिष्ट संयोगवाले, कोई अच्छे संस्थानवाले, कोई बुरे संस्थानवाले, कोई अच्छे रूपवाले और कोई खराब रूपवाले होते हैं । इस प्रकार