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(११८) गुणस्थानकमारोह. संततध्यान सद्योगाच्छद्धिः स्वाभाविकी यतः॥२६॥
श्लोकार्थ-इस सप्तम गुणस्थानमें षड़ावश्यक नहीं हैं, क्योंकि निरन्तर ध्यानके सद्योगसे स्वाभाविक ही शुद्धि होती है। ___व्याख्या-पूर्वोक्त स्वरूप वाले अप्रमत्त नामक सातवें गुण स्थानमें सामायिकादि छह आवश्यक नहीं हैं, याने सामायिकादि छह आवश्यक संबन्धि व्यवहार क्रियाकी इस गुणस्थानमें निवृत्ति होती है, क्योंकि छह आवश्यकको आत्मगुणत्व कहा है। आगममें फरमाया है-आया सामाइए, आयासामाइ अस्सअहे ॥ अर्थात् आत्मा सामायिक है, आत्मा ही सामायिकका अर्थ है, अतः निरन्तर ध्यानका ही सद्भाव होनेके कारण स्वाभाविक ही आत्म शुद्धि होती है। उस योगीका अन्तःकरण संकल्प विकल्पोंकी परंपरासे रहित होता है, उसके चारित्र गुणमें किसी प्रकारका अतिचार लगनेका संभव ही नहीं होता, इसीसे सातवें गुणस्थानमें रहा हुआ वह योगी भावतीर्थकी अवगाहना करनेसे परम विशुद्धिको प्राप्त होता है। शास्त्रमें फरमाया है-दाहोपशमः सृष्णाछेदनं मलप्रवाहणं चैव । त्रिभिरथैर्नियुक्तं तस्मात्तद्भावतस्तीर्थम् ॥ १॥ क्रोधे तु निगृहीते दाहस्योपशमनं भवति तीर्थम् । लोभे तु निगृहीते तृष्णाया छेदनं जानी हि ॥ २॥ अष्टविधं कर्मरजः बहुकैरपिभवैः संचितं यस्मात् । तपः संयमेन क्षालयति, तस्मात्तद्भावतस्तीर्थम् ॥३॥ तथा शरीरके अन्दर प्राण वायुके प्रचारको रोकने पर, इन्द्रियोंकी चेष्टायें गुप्तताको प्राप्त होने पर, नेत्रोंकी चंचलता निरस्त होने पर, अन्तःकरणके विकल्पोंका नाश होने पर, मोहरूप अन्धकारका भेदन होने पर, अतएव आत्म स्वरूप चिन्तवनरूप तेजके प्राप्त होने पर ध्यानावलंबी योगी परमानन्दरूप सिन्धुमें प्रवेश करता है। अप्रमत्त गुण