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परदोष ग्रहण करने से निरर्थक पाप का बन्ध होता है
*जो परदोसे गिणहइ, संताऽसंते वि दुभावेणं ।
सो अप्पाणं बंधइ, पावेण निरत्थएणावि ।।१०।। शब्दार्थ- (जो) जो मनुष्य (संताऽसंते वि) विद्यमान और अविद्यमान भी (परदोसे) दूसरों के दोषों को (टुट्ठभावेणं) राग द्वेष आदि कलुषित परिणाम से (गिणहइ) ग्रहण करता है (सो) वह (निरत्थएणावि) निरर्थक ही (पावेणं) निन्दारूप पाप से (अप्पाणं) आत्मा को (बंधइ) बाँधता है।
भावार्थ-जो लोग दुष्टस्वभाव से दूसरे मनुष्यों के सत्य वा असत्य दोषों का ग्रहण करते हैं वे अपनी आत्मा को बिना प्रयोजन व्यर्थ ही संसार भ्रमणरूप महायन्त्र में डालते हैं, अर्थात् दुर्गति का भाजन बनाते हैं।
विवेचन—निन्दा करना निरर्थक पाप है, अर्थात्-निन्दा करने से आत्मा में अनेक दुर्गुण पैदा होते हैं, जिससे आत्मा दुर्गति का भाजन बनकर दुःखी होती है। जो लोग अपनी जिह्वा को वश में न रखकर दूसरों की निन्दा किया करते हैं वे संसार में अत्यन्त दुःखी होते हैं। लोभ, हास्य, भय और क्रोध आदि अनेक प्रकार से निरर्थक ही पाप लगता है, निन्दा करने में प्रायः असत्यता अधिक हुआ करती है जिससे भवान्तर में निकाचित कर्म का बन्ध होता है, जिसका फलोदय रोते हुए भी नहीं छूट सकता। परापवाद से जिह्वा, मन
और धर्म अपवित्र होता है, इसी से उसका फल कटु और निन्द्य मिलता है। निन्दा करने से यकिञ्चित भी शुभफल नहीं मिल सकता, प्रत्युत सद्गुण और निर्मल यश का सत्यानाश होता है। क्योंकि निन्दा करना अविश्वास का स्थान, अनेक अनर्थों का कारण,
और सदाचार का घातक है। * यः परदोषान् गृह्णाति, सतोऽसतोऽपि दुष्टभावेन । स आत्मानं बध्नाति, पापेन निरर्थकेनापि ।।१०।।
श्री गुणानुरागकुलक ७७