________________
मनुष्यों के हृदय को सद्गुणों की ओर आकर्षित करने के लिए शास्त्रकारों ने अनित्यभावना १, अशरणभावना २, भवस्वरूपभावना ३, एकत्वभावना ४, अन्यत्वभावना ५, अशौचभावना ६ आश्रवभावना ७, संवरभावना ८, निर्जराभावना ६, धर्मभावना १०, लोकस्वरूपभावना ११, और बोधिदुर्लभभावना १२, ये बारह भावना बतलाई हैं।
अतएव विवेकरूपी सुवन को सिंचन करने के लिए, नदी के समान प्रशम सुख को जीवित रखने के लिए, संजीवनी औषधि के समान संसाररूपी समुद्र को तरने के लिए, वृहन्नौका के समान कामदेवरूपी दवानल को शान्त करने के लिए, मेघसमूह के समान चञ्चल इन्द्रियरूपी हरिणों को बाँधने के लिए, जाल के समान प्रबलकषायरूपी पर्वत को तोड़ने के लिए वज्र के समान, और मोक्षमार्ग में ले जाने के लिए नहीं थकने वाली खच्चरी के समान जो भावनाएँ हैं, उनकी चिन्ता नित्य करनी चाहिए। क्योंकि अनित्यादि भावनाओं से वासितान्तःकरण वाले मनुष्य के हृदय में विषयविकारादि दुर्गुण अवकाश नहीं पा सकते। बौद्धशास्त्रकारों ने भी लिखा है कि 'अणिच्चा, दुक्खा, अणत्था' अर्थात् संसार अनित्य, अनेक दुःखों से पूरित और नाना अनर्थों का कारण है ऐसा विचार करने वाला पुरुष कभी विकारी और दुर्गुणी नहीं होता।
जिसके हृदय में आत्मचिन्तन (शुभभावना) नहीं है वह विषयाधीन हुए बिना नहीं रहता, इतना ही नहीं किन्तु वह विषयों के वशवर्ती हो वीर्यशक्ति को नष्ट कर उभयलोक से भ्रष्ट हो जाता है, अतः उत्तमोत्तम पद की प्राप्ति के लिए अनित्यादि भावनाओं का चिन्तन कर निरन्तर ब्रह्मचर्य की सुरक्षा करते रहना चाहिए। भरतचक्रवर्ती को आरीसाभवन में, कूर्मापुत्र को गृहस्थावास में रहते हुए, गजसूकुमार को कायोत्सर्ग प्रतिमा में स्थित रहते हुए, कपिल को पुष्पवाटिका में, प्रसन्नचन्द्रराजर्षि को काउस्सग्ग में रहते हुए, और मरुदेवी माता को हस्ती पर बैठे हुए इन्हीं अनित्यादि शुभ भावनाओं के चिन्तन करने से कैवल्यज्ञान उत्पन्न हुआ था। इन भावनाओं के चिन्तन से अनेक भव्य पूर्वकाल में मोक्ष के अधिकारी हुए, और वर्तमानकाल में होते हैं, तथा आगामीकाल में होवेंगे। इसलिए सौन्दर्यसंपन्न सुरम्य तरुण-स्त्रियों के मध्य में रहकर भी विकारी न बनना चाहिए।
श्री गुणानुरागकुलक ११५